१२५ ऋषभगीतासु

भागसूचना

पञ्चविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरका आशाविषयक प्रश्न—उत्तरमें राजा सुमित्र और ऋषभ नामक ऋषिके इतिहासका आरम्भ, उसमें राजा सुमित्रका एक मृगके पीछे दौड़ना

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीलं प्रधानं पुरुषे कथितं ते पितामह।
कथं त्वाशा समुत्पन्ना या चाशा तद् वदस्व मे॥१॥

मूलम्

शीलं प्रधानं पुरुषे कथितं ते पितामह।
कथं त्वाशा समुत्पन्ना या चाशा तद् वदस्व मे॥१॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! आपने पुरुषमें शीलको ही प्रधान बताया है। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि आशाकी उत्पत्ति कैसे हुई? आशा क्या है? यह भी मुझे बताइये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संशयो मे महानेष समुत्पन्नः पितामह।
छेत्ता च तस्य नान्योऽस्ति त्वत्तः परपुरञ्जय ॥ २ ॥

मूलम्

संशयो मे महानेष समुत्पन्नः पितामह।
छेत्ता च तस्य नान्योऽस्ति त्वत्तः परपुरञ्जय ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुनगरीपर विजय पानेवाले पितामह! मेरे मनमें यह महान् संशय उत्पन्न हुआ है। इसका निवारण करनेवाला आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितामहाशा महती ममासीद्धि सुयोधने।
प्राप्ते युद्धे तु तद् युक्तं तत् कर्तायमिति प्रभो॥३॥

मूलम्

पितामहाशा महती ममासीद्धि सुयोधने।
प्राप्ते युद्धे तु तद् युक्तं तत् कर्तायमिति प्रभो॥३॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितामह! दुर्योधनपर मेरी बड़ी भारी आशा थी कि युद्धका अवसर उपस्थित होनेपर वह उचित कार्य करेगा। प्रभो! मैं समझता था कि वह युद्ध किये बिना ही मुझे आधा राज्य लौटा देगा॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वस्याशा सुमहती पुरुषस्योपजायते ।
तस्यां विहन्यमानायां दुःखो मृत्युर्न संशयः ॥ ४ ॥

मूलम्

सर्वस्याशा सुमहती पुरुषस्योपजायते ।
तस्यां विहन्यमानायां दुःखो मृत्युर्न संशयः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रायः सभी मनुष्योंके हृदयमें कोई-न-कोई बड़ी आशा पैदा होती ही है। उसके भंग होनेपर महान् दुःख होता है। किसी-किसीकी मृत्युतक हो जाती है, इसमें संशय नहीं है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं हताशो दुर्बुद्धिः कृतस्तेन दुरात्मना।
धार्तराष्ट्रेण राजेन्द्र पश्य मन्दात्मतां मम ॥ ५ ॥

मूलम्

सोऽहं हताशो दुर्बुद्धिः कृतस्तेन दुरात्मना।
धार्तराष्ट्रेण राजेन्द्र पश्य मन्दात्मतां मम ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! उस दुरात्मा धृतराष्ट्रपुत्रने मुझ दुर्बुद्धिको हताश कर दिया। देखिये, मैं कैसा मन्दभाग्य हूँ॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आशां महत्तरां मन्ये पर्वतादपि सद्रुमात्।
आकाशादपि वा राजन्नप्रमेयैव वा पुनः ॥ ६ ॥

मूलम्

आशां महत्तरां मन्ये पर्वतादपि सद्रुमात्।
आकाशादपि वा राजन्नप्रमेयैव वा पुनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मैं आशाको वृक्षसहित पर्वतसे भी बहुत बड़ी मानता हूँ अथवा वह आकाशसे भी बढ़कर अप्रमेय है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा चैव कुरुश्रेष्ठ दुर्विचिन्त्या सुदुर्लभा।
दुर्लभत्वाच्च पश्यामि किमन्यद् दुर्लभं ततः ॥ ७ ॥

मूलम्

एषा चैव कुरुश्रेष्ठ दुर्विचिन्त्या सुदुर्लभा।
दुर्लभत्वाच्च पश्यामि किमन्यद् दुर्लभं ततः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! वह अचिन्त्य और परम दुर्लभ है—उसे जीतना कठिन है। उसके दुर्लभ या दुर्जय होनेके कारण ही मैं उसे इतनी बड़ी देखता और समझता हूँ। भला, आशासे बढ़कर दुर्लभ और क्या है?॥७॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र ते वर्तयिष्यामि युधिष्ठिर निबोध तत्।
इतिहासं सुमित्रस्य निर्वृत्तमृषभस्य च ॥ ८ ॥

मूलम्

अत्र ते वर्तयिष्यामि युधिष्ठिर निबोध तत्।
इतिहासं सुमित्रस्य निर्वृत्तमृषभस्य च ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें मैं राजा सुमित्र तथा ऋषभ मुनिका पूर्वघटित इतिहास तुम्हें बताऊँगा। उसे ध्यान देकर सुनो॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमित्रो नाम राजर्षिर्हैहयो मृगयां गतः।
ससार स मृगं विद्ध्वा बाणेनानतपर्वणा ॥ ९ ॥

मूलम्

सुमित्रो नाम राजर्षिर्हैहयो मृगयां गतः।
ससार स मृगं विद्ध्वा बाणेनानतपर्वणा ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजर्षि सुमित्र हैहयवंशी राजा थे। एक दिन वे शिकार खेलनेके लिये वनमें गये। वहाँ उन्होंने झुकी हुई गाँठवाले बाणसे एक मृगको घायल करके उसका पीछा करना आरम्भ किया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मृगो बाणमादाय ययावमितविक्रमः।
स च राजा बलात् तूर्णं ससार मृगयूथपम् ॥ १० ॥

मूलम्

स मृगो बाणमादाय ययावमितविक्रमः।
स च राजा बलात् तूर्णं ससार मृगयूथपम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह मृग बहुत तेज दौड़नेवाला था। वह राजाका बाण लिये-दिये भाग निकला। राजाने भी बलपूर्वक मृगोंके उस यूथपतिका तुरंत पीछा किया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो निम्नं स्थलं चैव स मृगोऽद्रवदाशुगः।
मुहूर्तमिव राजेन्द्र समेन स पथागमत् ॥ ११ ॥

मूलम्

ततो निम्नं स्थलं चैव स मृगोऽद्रवदाशुगः।
मुहूर्तमिव राजेन्द्र समेन स पथागमत् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! शीघ्रतापूर्वक भागनेवाला वह मृग वहाँसे नीची भूमिकी ओर दौड़ा। फिर दो ही घड़ीमें वह समतल मार्गसे भागने लगा॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स राजा तारुण्यादौरसेन बलेन च।
ससार बाणासनभृत् सखड्‌गोऽसौ तनुत्रवान् ॥ १२ ॥

मूलम्

ततः स राजा तारुण्यादौरसेन बलेन च।
ससार बाणासनभृत् सखड्‌गोऽसौ तनुत्रवान् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा भी नौजवान और हार्दिक बलसे सम्पन्न थे, उन्होंने कवच बाँध रखा था। वे धनुष-बाण और तलवार लिये उसका पीछा करने लगे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो नदान् नदीश्चैव पल्वलानि वनानि च।
अतिक्रम्याभ्यतिक्रम्य ससारैको वनेचरः ॥ १३ ॥

मूलम्

ततो नदान् नदीश्चैव पल्वलानि वनानि च।
अतिक्रम्याभ्यतिक्रम्य ससारैको वनेचरः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उधर वह वनमें विचरनेवाला मृग अकेला ही अनेकों नदों, नदियों, गड्ढों और जंगलोंको बारंबार लाँघता हुआ आगे-आगे भागता जा रहा था॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु कामान्मृगो राजन्नासाद्यासाद्य तं नृपम्।
पुनरभ्येति जवनो जवेन महता ततः ॥ १४ ॥

मूलम्

स तु कामान्मृगो राजन्नासाद्यासाद्य तं नृपम्।
पुनरभ्येति जवनो जवेन महता ततः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वह वेगशाली मृग अपनी इच्छासे ही राजाके निकट आ-आकर पुनः बड़े वेगसे आगे भागता था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तस्य बाणैर्बहुभिः समभ्यस्तो वनेचरः।
प्रक्रीडन्निव राजेन्द्र पुनरभ्येति चान्तिकम् ॥ १५ ॥

मूलम्

स तस्य बाणैर्बहुभिः समभ्यस्तो वनेचरः।
प्रक्रीडन्निव राजेन्द्र पुनरभ्येति चान्तिकम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! यद्यपि राजाके बहुत-से बाण उसके शरीरमें धँस गये थे, तथापि वह वनचारी मृग खेल करता हुआ-सा बारंबार उनके निकट आ जाता था॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनश्च जवमास्थाय जवनो मृगयूथपः।
अतीत्यातीत्य राजेन्द्र पुनरभ्येति चान्तिकम् ॥ १६ ॥

मूलम्

पुनश्च जवमास्थाय जवनो मृगयूथपः।
अतीत्यातीत्य राजेन्द्र पुनरभ्येति चान्तिकम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! वह मृगसमूहोंका सरदार था। उसका वेग बड़ा तीव्र था। वह बारंबार बड़े वेगसे छलाँग मारता और दूरतककी भूमि लाँघ-लाँघकर पुनः निकट आ जाता था॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य मर्मच्छिदं घोरं तीक्ष्णं चामित्रकर्शनः।
समादाय शरं श्रेष्ठं कार्मुके तु तथासृजत् ॥ १७ ॥

मूलम्

तस्य मर्मच्छिदं घोरं तीक्ष्णं चामित्रकर्शनः।
समादाय शरं श्रेष्ठं कार्मुके तु तथासृजत् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब शत्रुसूदन नरेशने एक बड़ा भयंकर तीखा बाण हाथमें लिया, जो मर्मस्थलोंको विदीर्ण कर देनेवाला था। उस श्रेष्ठ बाणको उन्होंने धनुषपर रखा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गव्यूतिमात्रेण मृगयूथपयूथपः ।
तस्य बाणपथं मुक्त्वा तस्थिवान् प्रहसन्निव ॥ १८ ॥

मूलम्

ततो गव्यूतिमात्रेण मृगयूथपयूथपः ।
तस्य बाणपथं मुक्त्वा तस्थिवान् प्रहसन्निव ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह देख मृगोंका वह यूथपति राजाके बाणका मार्ग छोड़कर दो कोस दूर जा पहुँचा और हँसता हुआ-सा खड़ा हो गया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् निपतिते बाणे भूमौ ज्वलिततेजसि।
प्रविवेश महारण्यं मृगो राजाप्यथाद्रवत् ॥ १९ ॥

मूलम्

तस्मिन् निपतिते बाणे भूमौ ज्वलिततेजसि।
प्रविवेश महारण्यं मृगो राजाप्यथाद्रवत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब राजाका वह तेजस्वी बाण पृथ्वीपर गिर पड़ा, तब मृग एक महान् वनमें घुस गया, राजाने उस समय भी उसका पीछा नहीं छोड़ा॥१९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि ऋषभगीतासु पञ्चविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें ऋषभगीताविषयक एक सौ पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२५॥