१२३ कामन्दकाङ्गरिष्ठसंवादे

भागसूचना

त्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

त्रिवर्गका विचार तथा पापके कारण पदच्युत हुए राजाके पुनरुत्थानके विषयमें आंगरिष्ठ और कामन्दकका संवाद

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तात धर्मार्थकामानां श्रोतुमिच्छामि निश्चयम्।
लोकयात्रा हि कार्त्स्न्येन तिष्ठेत् केषु प्रतिष्ठिता ॥ १ ॥

मूलम्

तात धर्मार्थकामानां श्रोतुमिच्छामि निश्चयम्।
लोकयात्रा हि कार्त्स्न्येन तिष्ठेत् केषु प्रतिष्ठिता ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— तात! मैं धर्म, अर्थ और कामके सम्बन्धमें आपका निश्चित मत सुनना चाहता हूँ। किनपर अवलम्बित होनेपर लोकयात्राका पूर्ण रूपसे निर्वाह होता है?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मार्थकामाः किंमूलास्त्रयाणां प्रभवश्च कः।
अन्योन्यं चानुषज्जन्ते वर्तन्ते च पृथक् पृथक् ॥ २ ॥

मूलम्

धर्मार्थकामाः किंमूलास्त्रयाणां प्रभवश्च कः।
अन्योन्यं चानुषज्जन्ते वर्तन्ते च पृथक् पृथक् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्म, अर्थ और कामका मूल क्या है? इन तीनोंकी उत्पत्तिका कारण क्या है? ये कहीं एक साथ मिले हुए और कहीं पृथक्-पृथक् क्यों रहते हैं?॥२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा ते स्युः सुमनसो लोके धर्मार्थनिश्चये।
कालप्रभवसंस्थासु सज्जन्ते च त्रयस्तदा ॥ ३ ॥

मूलम्

यदा ते स्युः सुमनसो लोके धर्मार्थनिश्चये।
कालप्रभवसंस्थासु सज्जन्ते च त्रयस्तदा ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! संसारमें जब मनुष्योंका चित्त शुद्ध होता है और वे धर्मपूर्वक किसी अर्थकी प्राप्तिका निश्चय करके प्रवृत्त होते हैं, उस समय उचित काल, कारण तथा कर्मानुष्ठानवश धर्म, अर्थ और काम-तीनों एक साथ मिले हुए प्रकट होते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्ममूलः सदैवार्थः कामोऽर्थफलमुच्यते ।
संकल्पमूलास्ते सर्वे संकल्पो विषयात्मकः ॥ ४ ॥

मूलम्

धर्ममूलः सदैवार्थः कामोऽर्थफलमुच्यते ।
संकल्पमूलास्ते सर्वे संकल्पो विषयात्मकः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनमें धर्म सदा ही अर्थकी प्राप्तिका कारण है और काम अर्थका फल कहलाता है, परंतु इन तीनोंका मूल कारण है संकल्प और संकल्प है विषयरूप॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषयाश्चैव कार्त्स्न्येन सर्व आहारसिद्धये।
मूलमेतत् त्रिवर्गस्य निवृत्तिर्मोक्ष उच्यते ॥ ५ ॥

मूलम्

विषयाश्चैव कार्त्स्न्येन सर्व आहारसिद्धये।
मूलमेतत् त्रिवर्गस्य निवृत्तिर्मोक्ष उच्यते ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण विषय पूर्णतः इन्द्रियोंके उपभोगमें आनेके लिये हैं। यही धर्म, अर्थ और कामका मूल है, इससे निवृत्त होना ही ‘मोक्ष’ कहा जाता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्माच्छरीरसंगुप्तिर्धर्मार्थं चार्थ उच्यते ।
कामो रतिफलश्चात्र सर्वे ते च रजस्वलाः ॥ ६ ॥

मूलम्

धर्माच्छरीरसंगुप्तिर्धर्मार्थं चार्थ उच्यते ।
कामो रतिफलश्चात्र सर्वे ते च रजस्वलाः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मसे शरीरकी रक्षा होती है, धर्मका उपार्जन करनेके लिये ही अर्थकी आवश्यकता बतायी जाती है तथा कामका फल है रति। वे सभी रजोगुणमय हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संनिकृष्टांश्चरेदेतान् न चैतान् मनसा त्यजेत्।
विमुक्तस्तपसा सर्वान् धर्मादीन् कामनैष्ठिकान् ॥ ७ ॥

मूलम्

संनिकृष्टांश्चरेदेतान् न चैतान् मनसा त्यजेत्।
विमुक्तस्तपसा सर्वान् धर्मादीन् कामनैष्ठिकान् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये धर्म आदि जिस प्रकार संनिकृष्ट अर्थात् अपना वास्तविक हित करनेवाले हों, उसी रूपमें इनका सेवन करे अर्थात् इनको कल्याणसाधन बनाकर ही उपयोगमें लावे। मनद्वारा भी इनका त्याग न करे, फिर स्वरूपसे शरीरद्वारा त्याग करना तो दूरकी बात है। केवल तप अथवा विचारके द्वारा ही उनसे अपनेको मुक्त रखे अर्थात् आसक्ति और फलका त्याग करके ही इन सब धर्म, अर्थ और कामका सेवन करना चाहिये॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रेष्ठे बुद्धिस्त्रिवर्गस्य यदयं प्राप्नुयान्नरः।
कर्मणा बुद्धिपूर्वेण भवत्यर्थो न वा पुनः ॥ ८ ॥

मूलम्

श्रेष्ठे बुद्धिस्त्रिवर्गस्य यदयं प्राप्नुयान्नरः।
कर्मणा बुद्धिपूर्वेण भवत्यर्थो न वा पुनः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आसक्ति और फलेच्छाको त्यागकर त्रिवर्गका सेवन किया जाय तो उसका पर्यवसान कल्याणमें ही होता है। यदि मनुष्य उसे प्राप्त कर सके तो बड़े सौभाग्यकी बात है। अर्थसिद्धिके लिये समझ-बूझकर धर्मानुष्ठान करनेपर भी कभी अर्थकी सिद्धि होती है, कभी नहीं होती है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थार्थमन्यद् भवति विपरीतमथापरम् ।
अनर्थार्थमवाप्यार्थमन्यत्राद्योपकारकम् ।
बुद्ध्याबुद्धिरिहार्थे न तदज्ञाननिकृष्टया ॥ ९ ॥

मूलम्

अर्थार्थमन्यद् भवति विपरीतमथापरम् ।
अनर्थार्थमवाप्यार्थमन्यत्राद्योपकारकम् ।
बुद्ध्याबुद्धिरिहार्थे न तदज्ञाननिकृष्टया ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके सिवा, कभी दूसरे-दूसरे उपाय भी अर्थके साधक हो जाते हैं और कभी अर्थसाधक कर्म भी विपरीत फल देनेवाला हो जाता है। कभी धन पाकर भी मनुष्य अनर्थकारी कर्मोंमें प्रवृत्त हो जाता है और धनसे भिन्न जो दूसरे-दूसरे साधन हैं, वे धर्ममें सहायक हो जाते हैं। अतः धर्मसे धन होता है और धनसे धर्म, इस मान्यताके विषयमें अज्ञानमयी निकृष्ट बुद्धिसे मोहित हुआ मूढ़ मानव विश्वास नहीं रखता, इसलिये उसे दोनोंका फल सुलभ नहीं होता॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपध्यानमलो धर्मो मलोऽर्थस्य निगूहनम्।
सम्प्रमोदमलः कामो भूयः स्वगुणवर्जितः ॥ १० ॥

मूलम्

अपध्यानमलो धर्मो मलोऽर्थस्य निगूहनम्।
सम्प्रमोदमलः कामो भूयः स्वगुणवर्जितः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फलकी इच्छा धर्मका मल है, संगृहीत करके रखना अर्थका मल है और अमोद-प्रमोद कामका मल है, परंतु यह त्रिवर्ग यदि अपने दोषोंसे रहित हो तो कल्याणकारक होता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
कामन्दकस्य संवादमाङ्गरिष्ठस्य चोभयोः ॥ ११ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
कामन्दकस्य संवादमाङ्गरिष्ठस्य चोभयोः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस विषयमें जानकार लोग राजा आंगरिष्ठ और कामन्दक मुनिका संवादरूप प्राचीन इतिहास सुनाया करते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामन्दमृषिमासीनमभिवाद्य नराधिपः ।
आङ्गरिष्ठोऽथ पप्रच्छ कृत्वा समयपर्ययम् ॥ १२ ॥

मूलम्

कामन्दमृषिमासीनमभिवाद्य नराधिपः ।
आङ्गरिष्ठोऽथ पप्रच्छ कृत्वा समयपर्ययम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समयकी बात है, कामन्दक ऋषि अपने आश्रममें बैठे थे। उन्हें प्रणाम करके राजा आंगरिष्ठने प्रश्नके उपयुक्त समय देखकर पूछा—॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः पापं कुरुते राजा काममोहबलात्कृतः।
प्रत्यासन्नस्य तस्यर्षे किं स्यात् पापप्रणाशनम् ॥ १३ ॥

मूलम्

यः पापं कुरुते राजा काममोहबलात्कृतः।
प्रत्यासन्नस्य तस्यर्षे किं स्यात् पापप्रणाशनम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महर्षे! यदि कोई राजा काम और मोहके वशीभूत होकर पाप कर बैठे, किंतु फिर उसे पश्चात्ताप होने लगे तो उसके उस पापको दूर करनेके लिये कौन-सा प्रायश्चित्त है?॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मं धर्म इति च योऽज्ञानादाचरेन्नरः।
तं चापि प्रथितं लोके कथं राजा निवर्तयेत् ॥ १४ ॥

मूलम्

अधर्मं धर्म इति च योऽज्ञानादाचरेन्नरः।
तं चापि प्रथितं लोके कथं राजा निवर्तयेत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो अज्ञानवश अधर्मको ही धर्म मानकर उसका आचरण कर रहा हो, उस लोकविख्यात सम्मानित पुरुषको राजा किस प्रकार उस अधर्मसे दूर हटावे?॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

कामन्दक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो धर्मार्थौ परित्यज्य काममेवानुवर्तते।
स धर्मार्थपरित्यागात् प्रज्ञानाशमिहार्च्छति ॥ १५ ॥

मूलम्

यो धर्मार्थौ परित्यज्य काममेवानुवर्तते।
स धर्मार्थपरित्यागात् प्रज्ञानाशमिहार्च्छति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कामन्दकने कहा— राजन्! जो धर्म और अर्थका परित्याग करके केवल कामका ही सेवन करता है, उन दोनोंके त्यागसे उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रज्ञानाशात्मको मोहस्तथा धर्मार्थनाशकः ।
तस्मान्नास्तिकता चैव दुराचारश्च जायते ॥ १६ ॥

मूलम्

प्रज्ञानाशात्मको मोहस्तथा धर्मार्थनाशकः ।
तस्मान्नास्तिकता चैव दुराचारश्च जायते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिका नाश ही मोह है। वह धर्म और अर्थ दोनोंका विनाश करनेवाला है। इससे मनुष्यमें नास्तिकता आती है और वह दुराचारी हो जाता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुराचारान् यदा राजा प्रदुष्टान् न नियच्छति।
तस्मादुद्विजते लोकः सर्पाद् वेश्मगतादिव ॥ १७ ॥

मूलम्

दुराचारान् यदा राजा प्रदुष्टान् न नियच्छति।
तस्मादुद्विजते लोकः सर्पाद् वेश्मगतादिव ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब राजा दुष्टों और दुराचारियोंको दण्ड देकर काबूमें नहीं करता है, तब सारी प्रजा घरमें रहनेवाले सर्पकी भाँति उस राजासे उद्विग्न हो उठती है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं प्रजा नानुवर्तन्ते ब्राह्मणा न च साधवः।
ततः संशयमाप्नोति तथा वध्यत्वमेति च ॥ १८ ॥

मूलम्

तं प्रजा नानुवर्तन्ते ब्राह्मणा न च साधवः।
ततः संशयमाप्नोति तथा वध्यत्वमेति च ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस दशामें प्रजा उसका साथ नहीं देती। साधु और ब्राह्मण भी उसका अनुसरण नहीं करते हैं। फिर तो उसका जीवन खतरेमें पड़ जाता है और अन्ततोगत्वा वह प्रजाके ही हाथसे मारा भी जाता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपध्वस्तस्त्ववमतो दुःखं जीवितमृच्छति ।
जीवेच्च यदपध्वस्तस्तच्छुद्धं मरणं भवेत् ॥ १९ ॥

मूलम्

अपध्वस्तस्त्ववमतो दुःखं जीवितमृच्छति ।
जीवेच्च यदपध्वस्तस्तच्छुद्धं मरणं भवेत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह अपने पदसे भ्रष्ट और अपमानित होकर दुःखमय जीवन बिताता है। यदि पदभ्रष्ट होकर भी वह जीता है तो वह जीवन भी स्पष्टरूपमें मरण ही है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्रैतदाहुराचार्याः पापस्य परिगर्हणम् ।
सेवितव्या त्रयी विद्या सत्कारो ब्राह्मणेषु च ॥ २० ॥

मूलम्

अत्रैतदाहुराचार्याः पापस्य परिगर्हणम् ।
सेवितव्या त्रयी विद्या सत्कारो ब्राह्मणेषु च ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस अवस्थामें आचार्यगण उसके लिये यह कर्तव्य बतलाते हैं कि वह अपने पापोंकी निन्दा करे, वेदोंका निरन्तर स्वाध्याय करे और ब्राह्मणोंका सत्कार करे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महामना भवेद् धर्मे विवहेच्च महाकुले।
ब्राह्मणांश्चापि सेवेत क्षमायुक्तान् मनस्विनः ॥ २१ ॥

मूलम्

महामना भवेद् धर्मे विवहेच्च महाकुले।
ब्राह्मणांश्चापि सेवेत क्षमायुक्तान् मनस्विनः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्माचरणमें विशेष मन लगावे। उत्तम कुलमें विवाह करे। उदार एवं क्षमाशील ब्राह्मणोंकी सेवामें रहे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपेदुदकशीलः स्यात् सततं सुखमास्थितः।
धर्मान्वितान् सम्प्रविशेद् बहिः कृत्वेह दुष्कृतीन् ॥ २२ ॥

मूलम्

जपेदुदकशीलः स्यात् सततं सुखमास्थितः।
धर्मान्वितान् सम्प्रविशेद् बहिः कृत्वेह दुष्कृतीन् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह जलमें खड़ा होकर गायत्रीका जप करे। सदा प्रसन्न रहे। पापियोंको राज्यसे बाहर निकालकर धर्मात्मा पुरुषोंका संग करे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसादयेन्मधुरया वाचा वाप्यथ कर्मणा।
तवास्मीति वदेन्नित्यं परेषां कीर्तयन् गुणान् ॥ २३ ॥

मूलम्

प्रसादयेन्मधुरया वाचा वाप्यथ कर्मणा।
तवास्मीति वदेन्नित्यं परेषां कीर्तयन् गुणान् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मीठी वाणी तथा उत्तम कर्मके द्वारा सबको प्रसन्न रखे, दूसरोंके गुणोंका बखान करे और सबसे यही कहे—मैं आपका ही हूँ—आप मुझे अपना ही समझें॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपापो ह्येवमाचारः क्षिप्रं बहुमतो भवेत्।
पापान्यपि हि कृच्छ्राणि शमयेन्नात्र संशयः ॥ २४ ॥

मूलम्

अपापो ह्येवमाचारः क्षिप्रं बहुमतो भवेत्।
पापान्यपि हि कृच्छ्राणि शमयेन्नात्र संशयः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा इस प्रकार अपना आचरण बना लेता है, वह शीघ्र ही निष्पाप होकर सबके सम्मानका पात्र बन जाता है। वह अपने कठिन-से-कठिन पापोंको भी शान्त (नष्ट) कर देता है—इसमें संशय नहीं है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरवो हि परं धर्मं यं ब्रूयुस्तं तथा कुरु।
गुरूणां हि प्रसादाद् वै श्रेयः परमवाप्स्यसि ॥ २५ ॥

मूलम्

गुरवो हि परं धर्मं यं ब्रूयुस्तं तथा कुरु।
गुरूणां हि प्रसादाद् वै श्रेयः परमवाप्स्यसि ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! गुरुजन तुम्हारे लिये जिस उत्तम धर्मका उपदेश करें, उसका उसी रूपमें पालन करो। गुरुजनोंकी कृपासे तुम परम कल्याणके भागी होओगे॥२५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि कामन्दकाङ्गरिष्ठसंवादे त्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें कामन्दक और आंगरिष्ठका संवादविषयक एक सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२३॥