भागसूचना
द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दण्डकी उत्पत्ति तथा उसके क्षत्रियोंके हाथमें आनेकी परम्पराका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
अङ्गेषु राजा द्युतिमान् वसुहोम इति श्रुतः ॥ १ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
अङ्गेषु राजा द्युतिमान् वसुहोम इति श्रुतः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इस दण्डकी उत्पत्तिके विषयमें जानकार लोग एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। उसे भी तुम सुन लो। अंगदेशमें वसुहोम नामसे प्रसिद्ध एक तेजस्वी राजा राज्य करते थे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स राजा धर्मविन्नित्यं सह पत्न्या महातपाः।
मुञ्जपृष्ठं जगामाथ पितृदेवर्षिपूजितम् ॥ २ ॥
मूलम्
स राजा धर्मविन्नित्यं सह पत्न्या महातपाः।
मुञ्जपृष्ठं जगामाथ पितृदेवर्षिपूजितम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘एक समयकी बात है, वे महातपस्वी धर्मज्ञ नरेश अपनी पत्नीके साथ देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंसे पूजित मुंजपृष्ठ नामक तीर्थस्थानमें आये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र शृङ्गे हिमवतो मेरौ कनकपर्वते।
यत्र मुञ्जावटे रामो जटाहरणमादिशत् ॥ ३ ॥
तदाप्रभृति राजेन्द्र ऋषिभिः संशितव्रतैः।
मुञ्जपृष्ठ इति प्रोक्तः स देशो रुद्रसेवितः ॥ ४ ॥
मूलम्
तत्र शृङ्गे हिमवतो मेरौ कनकपर्वते।
यत्र मुञ्जावटे रामो जटाहरणमादिशत् ॥ ३ ॥
तदाप्रभृति राजेन्द्र ऋषिभिः संशितव्रतैः।
मुञ्जपृष्ठ इति प्रोक्तः स देशो रुद्रसेवितः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! वह स्थान सुवर्णमय पर्वत सुमेरुके समीपवर्ती हिमालयके शिखरपर है, जहाँ मुंजावटमें परशुरामजीने अपनी जटाएँ बाँधनेका आदेश दिया था। तभीसे कठोर व्रतका पालन करनेवाले ऋषियोंने उस रुद्रसेवित प्रदेशको मुंजपृष्ठ नाम दे दिया॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तत्र बहुभिर्युक्तस्तदा श्रुतिमयैर्गुणैः।
ब्राह्मणानामनुमतो देवर्षिसदृशोऽभवत् ॥ ५ ॥
मूलम्
स तत्र बहुभिर्युक्तस्तदा श्रुतिमयैर्गुणैः।
ब्राह्मणानामनुमतो देवर्षिसदृशोऽभवत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे वहाँ बहुतेरे वेदोक्त गुणोंसे सम्पन्न हो तपस्या करने लगे। उस तपके प्रभावसे वे देवर्षियोंके तुल्य हो गये। ब्राह्मणोंमें उनका बड़ा सम्मान होने लगा॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं कदाचिददीनात्मा सखा शक्रस्य मानितः।
अभ्यगच्छन्महीपालो मान्धाता शत्रुकर्शनः ॥ ६ ॥
मूलम्
तं कदाचिददीनात्मा सखा शक्रस्य मानितः।
अभ्यगच्छन्महीपालो मान्धाता शत्रुकर्शनः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन इन्द्रके सम्मानित सखा उदारचेता शत्रुसूदन राजा मान्धाता उनके दर्शनके लिये आये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोपसृत्य तु मान्धाता वसुहोमं नराधिपम्।
दृष्ट्वा प्रकृष्टतपसं विनतोऽग्रेऽभ्यतिष्ठत ॥ ७ ॥
मूलम्
सोपसृत्य तु मान्धाता वसुहोमं नराधिपम्।
दृष्ट्वा प्रकृष्टतपसं विनतोऽग्रेऽभ्यतिष्ठत ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा मान्धाता उत्तम तपस्वी अंगनरेश वसुहोमके पास पहुँचकर दर्शन करके उनके सामने विनीतभावसे खड़े हो गये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसुहोमोऽपि राज्ञो वै पाद्यमर्घ्यं न्यवेदयत्।
सप्ताङ्गस्य तु राजस्य पप्रच्छ कुशलाव्यये ॥ ८ ॥
मूलम्
वसुहोमोऽपि राज्ञो वै पाद्यमर्घ्यं न्यवेदयत्।
सप्ताङ्गस्य तु राजस्य पप्रच्छ कुशलाव्यये ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसुहोमने भी राजाको पाद्य और अर्घ्य निवेदन किया तथा सातों अंगोंसे युक्त उनके राज्यका कुशल-समाचार पूछा॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सद्भिराचरितं पूर्वं यथावदनुयायिनम् ।
अपृच्छद् वसुहोमस्तं राजन् किं करवाणि ते ॥ ९ ॥
मूलम्
सद्भिराचरितं पूर्वं यथावदनुयायिनम् ।
अपृच्छद् वसुहोमस्तं राजन् किं करवाणि ते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें साधु पुरुषोंने जिस पथका अनुसरण किया था, उसीपर यथावत् रूपसे निरन्तर चलनेवाले मान्धातासे वसुहोमने पूछा—राजन्! मैं आपकी क्या सेवा करूँ?’॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽब्रवीत्परमप्रीतो मान्धाता राजसत्तमम् ।
वसुहोमं महाप्राज्ञमासीनं कुरुनन्दन ॥ १० ॥
मूलम्
सोऽब्रवीत्परमप्रीतो मान्धाता राजसत्तमम् ।
वसुहोमं महाप्राज्ञमासीनं कुरुनन्दन ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! तब परम प्रसन्न हुए मान्धाताने वहाँ बैठे हुए महाज्ञानी नृपश्रेष्ठ वसुहोमसे पूछा॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
मान्धातोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहस्पतेर्मतं राजन्नधीतं सकलं त्वया।
तथैवौशनसं शास्त्रं विज्ञातं ते नरोत्तम ॥ ११ ॥
मूलम्
बृहस्पतेर्मतं राजन्नधीतं सकलं त्वया।
तथैवौशनसं शास्त्रं विज्ञातं ते नरोत्तम ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मान्धाता बोले— राजन्! नरश्रेष्ठ! आपने बृहस्पतिके सम्पूर्ण मतका अध्ययन किया है। साथ ही शुक्राचार्यके नीतिशास्त्रका भी आपको पूर्ण ज्ञान है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदहं ज्ञातुमिच्छामि दण्ड उत्पद्यते कथम्।
किं चास्य पूर्वं जागर्ति किं वा परममुच्यते ॥ १२ ॥
मूलम्
तदहं ज्ञातुमिच्छामि दण्ड उत्पद्यते कथम्।
किं चास्य पूर्वं जागर्ति किं वा परममुच्यते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि दण्डकी उत्पत्ति कैसे हुई? इसके पहले कौन-सी वस्तु जागरूक थी? तथा इस दण्डको सबसे उत्कृष्ट क्यों कहा जाता है?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं क्षत्रियसंस्थश्च दण्डः सम्प्रत्यवस्थितः।
ब्रूहि मे सुमहाप्राज्ञ ददाम्याचार्यवेतनम् ॥ १३ ॥
मूलम्
कथं क्षत्रियसंस्थश्च दण्डः सम्प्रत्यवस्थितः।
ब्रूहि मे सुमहाप्राज्ञ ददाम्याचार्यवेतनम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय यह दण्ड क्षत्रियोंके हाथमें कैसे आया है? महामते! यह सब मुझे बताइये। मैं आपको गुरुदक्षिणा प्रदान करूँगा॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
वसुहोम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु राजन् यथा दण्डः सम्भूतो लोकसंग्रहः।
प्रजाविनयरक्षार्थं धर्मस्यात्मा सनातनः ॥ १४ ॥
मूलम्
शृणु राजन् यथा दण्डः सम्भूतो लोकसंग्रहः।
प्रजाविनयरक्षार्थं धर्मस्यात्मा सनातनः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसुहोम बोले— राजन्! दण्ड सम्पूर्ण जगत्के नियमके अंदर रखनेवाला है। यह धर्मका सनातन स्वरूप है। इसका उद्देश्य है प्रजाको उद्दण्डतासे बचाना। इसकी उत्पत्ति जिस तरहसे हुई है, सो बता रहा हूँ; सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मा यियक्षुर्भगवान् सर्वलोकपितामहः ।
ऋत्विजं नात्मनस्तुल्यं ददर्शेति हि नः श्रुतम् ॥ १५ ॥
मूलम्
ब्रह्मा यियक्षुर्भगवान् सर्वलोकपितामहः ।
ऋत्विजं नात्मनस्तुल्यं ददर्शेति हि नः श्रुतम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमारे सुननेमें आया है कि सर्वलोकपितामह भगवान् ब्रह्मा किसी समय यज्ञ करना चाहते थे; किंतु उन्हें अपने योग्य कोई ऋत्विज नहीं दिखायी दिया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स गर्भं शिरसा देवो बहुवर्षाण्यधारयत्।
पूर्णे वर्षसहस्रे तु स गर्भः क्षुवतोऽपतत् ॥ १६ ॥
मूलम्
स गर्भं शिरसा देवो बहुवर्षाण्यधारयत्।
पूर्णे वर्षसहस्रे तु स गर्भः क्षुवतोऽपतत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन्होंने बहुत वर्षोंतक अपने मस्तकपर एक गर्भ धारण किया। जब एक हजार वर्ष बीत गये, तब ब्रह्माजीको छींक आयी और वह गर्भ नीचे गिर पड़ा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स क्षुपो नाम सम्भूतः प्रजापतिररिंदम।
ऋत्विगासीन्महाराज यज्ञे तस्य महात्मनः ॥ १७ ॥
मूलम्
स क्षुपो नाम सम्भूतः प्रजापतिररिंदम।
ऋत्विगासीन्महाराज यज्ञे तस्य महात्मनः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन नरेश! उससे जो बालक प्रकट हुआ, उसका नाम ‘क्षुप’ रखा गया। महाराज! महात्मा ब्रह्माजीके उस यज्ञमें प्रजापति क्षुप ही ऋत्विज हुए॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् प्रवृत्ते सत्रे तु ब्रह्मणः पार्थिवर्षभ।
दृष्टरूपप्रधानत्वाद् दण्डः सोऽन्तर्हितोऽभवत् ॥ १८ ॥
मूलम्
तस्मिन् प्रवृत्ते सत्रे तु ब्रह्मणः पार्थिवर्षभ।
दृष्टरूपप्रधानत्वाद् दण्डः सोऽन्तर्हितोऽभवत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! ब्रह्माजीका वह यज्ञ आरम्भ होते ही वहाँ प्रत्यक्ष दीखनेवाले यज्ञकी प्रधानता होनेसे ब्रह्माका वह दण्ड अन्तर्धान हो गया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्नन्तर्हिते चापि प्रजानां संकरोऽभवत्।
नैव कार्यं न वाकार्यं भोज्याभोज्यं न विद्यते ॥ १९ ॥
मूलम्
तस्मिन्नन्तर्हिते चापि प्रजानां संकरोऽभवत्।
नैव कार्यं न वाकार्यं भोज्याभोज्यं न विद्यते ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दण्ड लुप्त होते ही प्रजामें वर्णसंकरता फैलने लगी। कर्तव्याकर्तव्य तथा भक्ष्याभक्ष्यका विचार सर्वथा उठ गया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पेयापेये कुतः सिद्धिर्हिंसन्ति च परस्परम्।
गम्यागम्यं तदा नासीत् स्वं परस्वं च वै समम्॥२०॥
मूलम्
पेयापेये कुतः सिद्धिर्हिंसन्ति च परस्परम्।
गम्यागम्यं तदा नासीत् स्वं परस्वं च वै समम्॥२०॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर पेयापेयका ही विचार कैसे रह सकता था? सब लोग एक दूसरेकी हिंसा करने लगे। उस समय गम्यागम्यका विचार भी नहीं रह गया था। अपना और पराया धन एक-सा समझा जाने लगा॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परस्परं विलुम्पन्ति सारमेया यथामिषम्।
अबलान् बलिनो घ्नन्ति निर्मर्यादमवर्तत ॥ २१ ॥
मूलम्
परस्परं विलुम्पन्ति सारमेया यथामिषम्।
अबलान् बलिनो घ्नन्ति निर्मर्यादमवर्तत ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कुत्ते मांसके टुकड़ेके लिये आपसमें छीना-झपटी और नोच-खसोट करते हैं, उसी तरह मनुष्य भी परस्पर लूट-पाट करने लगे। बलवान् पुरुष दुर्बलोंकी हत्या करने लगे। सर्वत्र उच्छृंखलता फैल गयी॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पितामहो विष्णुं भगवन्तं सनातनम्।
सम्पूज्य वरदं देवं महादेवमथाब्रवीत् ॥ २२ ॥
अत्र त्वमनुकम्पां वै कर्तुमर्हसि शंकर।
संकरो न भवेदत्र यथा तद् वै विधीयताम् ॥ २३ ॥
मूलम्
ततः पितामहो विष्णुं भगवन्तं सनातनम्।
सम्पूज्य वरदं देवं महादेवमथाब्रवीत् ॥ २२ ॥
अत्र त्वमनुकम्पां वै कर्तुमर्हसि शंकर।
संकरो न भवेदत्र यथा तद् वै विधीयताम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसी अवस्था हो जानेपर पितामह ब्रह्माने सनातन भगवान् विष्णुका पूजन करके वरदायक देवता महादेवजीसे कहा—‘शंकर! इस परिस्थितिमें आपको कृपा करनी चाहिये। जिस प्रकार संसारमें वर्णसंकरता न फैले, वह उपाय आप करें॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स भगवान् ध्यात्वा चिरं शूलवरायुधः।
आत्मानमात्मना दण्डं ससृजे देवसत्तमः ॥ २४ ॥
मूलम्
ततः स भगवान् ध्यात्वा चिरं शूलवरायुधः।
आत्मानमात्मना दण्डं ससृजे देवसत्तमः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब शूल नामक श्रेष्ठ शस्त्र धारण करनेवाले सुरश्रेष्ठ महादेवजीने देरतक विचार करके स्वयं अपने आपको ही दण्डके रूपमें प्रकट किया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माच्च धर्मचरणान्नीतिर्देवी सरस्वती ।
ससृजे दण्डनीतिं सा त्रिषु लोकेषु विश्रुता ॥ २५ ॥
मूलम्
तस्माच्च धर्मचरणान्नीतिर्देवी सरस्वती ।
ससृजे दण्डनीतिं सा त्रिषु लोकेषु विश्रुता ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उससे धर्माचरण होता देख नीतिस्वरूपा देवी सरस्वतीने दण्डनीतिकी रचना की जो तीनों लोकोंमें विख्यात है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूयः स भगवान् ध्यात्वा चिरं शूलवरायुधः।
तस्य तस्य निकायस्य चकारैकैकमीश्वरम् ॥ २६ ॥
मूलम्
भूयः स भगवान् ध्यात्वा चिरं शूलवरायुधः।
तस्य तस्य निकायस्य चकारैकैकमीश्वरम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् शूलपाणिने पुनः चिरकालतक चिन्तन करके भिन्न-भिन्न समूहका एक-एक राजा बनाया॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवानामीश्वरं चक्रे देवं दशशतेक्षणम्।
यमं वैवस्वतं चापि पितॄणामकरोत् प्रभुम् ॥ २७ ॥
मूलम्
देवानामीश्वरं चक्रे देवं दशशतेक्षणम्।
यमं वैवस्वतं चापि पितॄणामकरोत् प्रभुम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने सहस्रनेत्रधारी इन्द्रदेवको देवेश्वरके पदपर प्रतिष्ठित किया और सूर्यपुत्र यमको पितरोंका राजा बनाया॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनानां राक्षसानां च कुबेरमपि चेश्वरम्।
पर्वतानां पतिं मेरुं सरितां च महोदधिम् ॥ २८ ॥
मूलम्
धनानां राक्षसानां च कुबेरमपि चेश्वरम्।
पर्वतानां पतिं मेरुं सरितां च महोदधिम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुबेरको धन और राक्षसोंका, सुमेरुको पर्वतोंका और महासागरको सरिताओंका स्वामी बना दिया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपां राज्येऽसुराणां च विदधे वरुणं प्रभुम्।
मृत्युं प्राणेश्वरमथो तेजसां च हुताशनम् ॥ २९ ॥
मूलम्
अपां राज्येऽसुराणां च विदधे वरुणं प्रभुम्।
मृत्युं प्राणेश्वरमथो तेजसां च हुताशनम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शक्तिशाली भगवान् वरुणको जल और असुरोंके राज्यपर प्रतिष्ठित किया। मृत्युको प्राणोंका तथा अग्नि-देवको तेजका आधिपत्य प्रदान किया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुद्राणामपि चेशानं गोप्तारं विदधे प्रभुम्।
महात्मानं महादेवं विशालाक्षं सनातनम् ॥ ३० ॥
मूलम्
रुद्राणामपि चेशानं गोप्तारं विदधे प्रभुम्।
महात्मानं महादेवं विशालाक्षं सनातनम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विशाल नेत्रोंवाले सनातन महात्मा महादेवजीने अपने आपको रुद्रोंका अधीश्वर तथा शक्तिशाली संरक्षक बनाया॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसिष्ठमीशं विप्राणां वसूनां जातवेदसम्।
तेजसां भास्करं चक्रे नक्षत्राणां निशाकरम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
वसिष्ठमीशं विप्राणां वसूनां जातवेदसम्।
तेजसां भास्करं चक्रे नक्षत्राणां निशाकरम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसिष्ठको ब्राह्मणोंका, जातवेदा अग्निको वसुओंका, सूर्यको तेजस्वी ग्रहोंका और चन्द्रमाको नक्षत्रोंका अधिपति बनाया॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीरुधामंशुमन्तं च भूतानां च प्रभुं वरम्।
कुमारं द्वादशभुजं स्कन्दं राजानमादिशत् ॥ ३२ ॥
मूलम्
वीरुधामंशुमन्तं च भूतानां च प्रभुं वरम्।
कुमारं द्वादशभुजं स्कन्दं राजानमादिशत् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अंशुमान्को लताओंका तथा बारह भुजाओंसे विभूषित शक्तिशाली कुमार स्कन्दको भूतोंका श्रेष्ठ राजा नियुक्त किया॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालं सर्वेशमकरोत् संहारविनयात्मकम् ।
मृत्योश्चतुर्विभागस्य दुःखस्य च सुखस्य च ॥ ३३ ॥
मूलम्
कालं सर्वेशमकरोत् संहारविनयात्मकम् ।
मृत्योश्चतुर्विभागस्य दुःखस्य च सुखस्य च ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संहार और विनय (उत्पादन) जिसका स्वरूप है, उस सर्वेश्वर कालको चार प्रकारकी मृत्युका, सुखका और दुःखका भी स्वामी बनाया॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईश्वरः सर्वदेवस्तु राजराजो नराधिपः।
सर्वेषामेव रुद्राणां शूलपाणिरिति श्रुतिः ॥ ३४ ॥
मूलम्
ईश्वरः सर्वदेवस्तु राजराजो नराधिपः।
सर्वेषामेव रुद्राणां शूलपाणिरिति श्रुतिः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सबके देवता, राजाओंके राजा और मनुष्योंके अधिपति शूलपाणि भगवान् शिव स्वयं समस्त रुद्रोंके अधीश्वर हुए। ऐसा सुना जाता है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेनं ब्रह्मणः पुत्रमनुजातं क्षुपं ददौ।
प्रजानामधिपं श्रेष्ठं सर्वधर्मभृतामपि ॥ ३५ ॥
मूलम्
तमेनं ब्रह्मणः पुत्रमनुजातं क्षुपं ददौ।
प्रजानामधिपं श्रेष्ठं सर्वधर्मभृतामपि ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीके छोटे पुत्र क्षुपको उन्होंने समस्त प्रजाओं तथा सम्पूर्ण धर्मधारियोंका श्रेष्ठ अधिपति बना दिया॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महादेवस्ततस्तस्मिन् वृत्ते यज्ञे यथाविधि।
दण्डं धर्मस्य गोप्तारं विष्णवे सत्कृतं ददौ ॥ ३६ ॥
मूलम्
महादेवस्ततस्तस्मिन् वृत्ते यज्ञे यथाविधि।
दण्डं धर्मस्य गोप्तारं विष्णवे सत्कृतं ददौ ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर ब्रह्माजीका वह यज्ञ जब विधिपूर्वक सम्पन्न हो गया, तब महादेवजीने धर्मरक्षक भगवान् विष्णुका सत्कार करके उन्हें वह दण्ड समर्पित किया॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णुरङ्गिरसे प्रादादङ्गिरा मुनिसत्तमः ।
प्रादादिन्द्रमरीचिभ्यां मरीचिर्भृगवे ददौ ॥ ३७ ॥
मूलम्
विष्णुरङ्गिरसे प्रादादङ्गिरा मुनिसत्तमः ।
प्रादादिन्द्रमरीचिभ्यां मरीचिर्भृगवे ददौ ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् विष्णुने उसे अंगिराको दे दिया। मुनिवर अंगिराने इन्द्र और मरीचिको दिया और मरीचिने भृगुको सौंप दिया॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भृगुर्ददावृषिभ्यस्तु दण्डं धर्मसमाहितम् ।
ऋषयो लोकपालेभ्यो लोकपालाः क्षुपाय च ॥ ३८ ॥
क्षुपस्तु मनवे प्रादादादित्यतनयाय च।
पुत्रेभ्यः श्राद्धदेवस्तु सूक्ष्मधर्मार्थकारणात् ॥ ३९ ॥
मूलम्
भृगुर्ददावृषिभ्यस्तु दण्डं धर्मसमाहितम् ।
ऋषयो लोकपालेभ्यो लोकपालाः क्षुपाय च ॥ ३८ ॥
क्षुपस्तु मनवे प्रादादादित्यतनयाय च।
पुत्रेभ्यः श्राद्धदेवस्तु सूक्ष्मधर्मार्थकारणात् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भृगुने वह धर्मसमाहित दण्ड ऋषियोंको दिया। ऋषियोंने लोकपालोंको, लोकपालोंने क्षुपको, क्षुपने सूर्यपुत्र मनु (श्राद्धदेव) को और श्राद्धदेवने सूक्ष्म धर्म तथा अर्थकी रक्षाके लिये उसे अपने पुत्रोंको सौंप दिया॥३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभज्य दण्डः कर्तव्यो धर्मेण न यदृच्छया।
दुष्टानां निग्रहो दण्डो हिरण्यं बाह्यतः क्रिया ॥ ४० ॥
मूलम्
विभज्य दण्डः कर्तव्यो धर्मेण न यदृच्छया।
दुष्टानां निग्रहो दण्डो हिरण्यं बाह्यतः क्रिया ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः धर्मके अनुसार न्याय-अन्यायका विचार करके ही दण्डका विधान करना चाहिये, मनमानी नहीं करनी चाहिये। दुष्टोंका दमन करना ही दण्डका मुख्य उद्देश्य है, स्वर्णमुद्राएँ लेकर खजाना भरना नहीं। दण्डके तौरपर सुवर्ण (धन) लेना तो बाह्यंग—गौण कर्म है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यङ्गत्वं व शरीरस्य वधो नाल्पस्य कारणात्।
शरीरपीडास्तास्ताश्च देहत्यागो विवासनम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
व्यङ्गत्वं व शरीरस्य वधो नाल्पस्य कारणात्।
शरीरपीडास्तास्ताश्च देहत्यागो विवासनम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी छोटे-से अपराधपर प्रजाका अंग-भंग करना, उसे मार डालना, उसे तरह-तरहकी यातनाएँ देना तथा उसको देहत्यागके लिये विवश करना अथवा देशसे निकाल देना कदापि उचित नहीं है॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं ददौ सूर्यपुत्रस्तु मनुर्वै रक्षणार्थकम्।
आनुपूर्व्याच्च दण्डोऽयं प्रजा जागर्ति पालयन् ॥ ४२ ॥
मूलम्
तं ददौ सूर्यपुत्रस्तु मनुर्वै रक्षणार्थकम्।
आनुपूर्व्याच्च दण्डोऽयं प्रजा जागर्ति पालयन् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यपुत्र मनुने प्रजाकी रक्षाके लिये ही अपने पुत्रोंके हाथोंमें दण्ड सौंपा था, वही क्रमशः उत्तरोत्तर अधिकारियोंके हाथमें आकर प्रजाका पालन करता हुआ जागता रहता है॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रो जागर्ति भगवानिन्द्रादग्निर्विभावसुः ।
अग्नेर्जागर्ति वरुणो वरुणाच्च प्रजापतिः ॥ ४३ ॥
मूलम्
इन्द्रो जागर्ति भगवानिन्द्रादग्निर्विभावसुः ।
अग्नेर्जागर्ति वरुणो वरुणाच्च प्रजापतिः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् इन्द्र दण्ड-विधान करनेमें सदा जागरूक रहते हैं। इन्द्रसे प्रकाशमान अग्नि, अग्निसे वरुण और वरुणसे प्रजापति उस दण्डको प्राप्त करके उसके यथोचित प्रयोगके लिये सदा जाग्रत् रहते हैं॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजापतेस्ततो धर्मो जागर्ति विनयात्मकः।
धर्माच्च ब्रह्मणः पुत्रो व्यवसायः सनातनः ॥ ४४ ॥
मूलम्
प्रजापतेस्ततो धर्मो जागर्ति विनयात्मकः।
धर्माच्च ब्रह्मणः पुत्रो व्यवसायः सनातनः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सम्पूर्ण जगत्को शिक्षा देनेवाले हैं, वे धर्म प्रजापतिसे दण्डको ग्रहण करके प्रजाकी रक्षाके लिये सदा जागरूक रहते हैं। ब्रह्मपुत्र सनातन व्यवसाय वह दण्ड धर्मसे लेकर लोकरक्षाके लिये जागते रहते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यवसायात् ततस्तेजो जागर्ति परिपालयत्।
ओषध्यस्तेजसस्तस्मादोषधीभ्यश्च पर्वताः ॥ ४५ ॥
पर्वतेभ्यश्च जागर्ति रसो रसगुणात् तथा।
जागर्ति निर्ऋतिर्देवी ज्योतींषि निर्ऋतेरपि ॥ ४६ ॥
मूलम्
व्यवसायात् ततस्तेजो जागर्ति परिपालयत्।
ओषध्यस्तेजसस्तस्मादोषधीभ्यश्च पर्वताः ॥ ४५ ॥
पर्वतेभ्यश्च जागर्ति रसो रसगुणात् तथा।
जागर्ति निर्ऋतिर्देवी ज्योतींषि निर्ऋतेरपि ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यवसायसे दण्ड लेकर तेज जगत्की रक्षा करता हुआ सजग रहता है। तेजसे ओषधियाँ, ओषधियोंसे पर्वत, पर्वतोंसे रस, रससे निर्ऋति और निर्ऋतिसे ज्योतियाँ क्रमशः उस दण्डको हस्तगत करके लोक-रक्षाके लिये जागरूक बनी रहती हैं॥४५-४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदाः प्रतिष्ठा ज्योतिर्भ्यस्ततो हयशिराः प्रभुः।
ब्रह्मा पितामहस्तस्माज्जागर्ति प्रभुरव्ययः ॥ ४७ ॥
मूलम्
वेदाः प्रतिष्ठा ज्योतिर्भ्यस्ततो हयशिराः प्रभुः।
ब्रह्मा पितामहस्तस्माज्जागर्ति प्रभुरव्ययः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ज्योतियोंसे दण्ड ग्रहण करके वेद प्रतिष्ठित हुए हैं। वेदोंसे भगवान् हयग्रीव और हयग्रीवसे अविनाशी प्रभु ब्रह्मा वह दण्ड पाकर लोक-रक्षाके लिये जागते रहते हैं॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितामहान्महादेवो जागर्ति भगवान् शिवः।
विश्वेदेवाः शिवाच्चापि विश्वेभ्यश्च तथर्षयः ॥ ४८ ॥
ऋषिभ्यो भगवान् सोमः सोमाद् देवाः सनातनाः।
देवेभ्यो ब्राह्मणा लोके जाग्रतीत्युपधारय ॥ ४९ ॥
मूलम्
पितामहान्महादेवो जागर्ति भगवान् शिवः।
विश्वेदेवाः शिवाच्चापि विश्वेभ्यश्च तथर्षयः ॥ ४८ ॥
ऋषिभ्यो भगवान् सोमः सोमाद् देवाः सनातनाः।
देवेभ्यो ब्राह्मणा लोके जाग्रतीत्युपधारय ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितामह ब्रह्मासे दण्ड और रक्षाका अधिकार पाकर महान् देव भगवान् शिव जागते हैं। शिवसे विश्वेदेव, विश्वेदेवोंसे ऋषि, ऋषियोंसे भगवान् सोम, सोमसे सनातन देवगण और देवताओंसे ब्राह्मण वह अधिकार लेकर लोक-रक्षाके लिये सदा जाग्रत् रहते हैं। इस बातको तुम अच्छी तरह समझ लो॥४८-४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणेभ्यश्च राजन्या लोकान् रक्षन्ति धर्मतः।
स्थावरं जङ्गमं चैव क्षत्रियेभ्यः सनातनम् ॥ ५० ॥
मूलम्
ब्राह्मणेभ्यश्च राजन्या लोकान् रक्षन्ति धर्मतः।
स्थावरं जङ्गमं चैव क्षत्रियेभ्यः सनातनम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर ब्राह्मणोंसे दण्ड धारणका अधिकार पाकर क्षत्रिय धर्मानुसार सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षा करते हैं। क्षत्रियोंसे ही यह सनातन चराचर जगत् सुरक्षित होता रहा है॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजा जागर्ति लोकेऽस्मिन् दण्डो जागर्ति तासु च।
सर्वं संक्षिपते दण्डः पितामहसमप्रभः ॥ ५१ ॥
मूलम्
प्रजा जागर्ति लोकेऽस्मिन् दण्डो जागर्ति तासु च।
सर्वं संक्षिपते दण्डः पितामहसमप्रभः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस लोकमें प्रजा जागती है और प्रजाओंमें दण्ड जागता है। वह ब्रह्माजीके समान तेजस्वी दण्ड सबको मर्यादाके भीतर रखता है॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जागर्ति कालः पूर्वं च मध्ये चान्ते च भारत।
ईश्वरः सर्वलोकस्य महादेवः प्रजापतिः ॥ ५२ ॥
मूलम्
जागर्ति कालः पूर्वं च मध्ये चान्ते च भारत।
ईश्वरः सर्वलोकस्य महादेवः प्रजापतिः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! यह कालरूप दण्ड सृष्टिके आदिमें, मध्यमें और अन्तमें भी जागता रहता है। यह सर्वलोकेश्वर महादेवका स्वरूप है। यही समस्त प्रजाओंका पालक है॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदेवः शिवः सर्वो जागर्ति सततं प्रभुः॥
कपर्दी शङ्करो रुद्रः शिवः स्थाणुरुमापतिः ॥ ५३ ॥
मूलम्
देवदेवः शिवः सर्वो जागर्ति सततं प्रभुः॥
कपर्दी शङ्करो रुद्रः शिवः स्थाणुरुमापतिः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस दण्डके रूपमें देवाधिदेव कल्याणस्वरूप सर्वात्मा प्रभु जटाजूटधारी उमावल्लभ दुःखहारी स्थाणु-स्वरूप एवं लोक-मंगलकारी भगवान् शिव ही सदा जाग्रत रहते हैं॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येष दण्डो विख्यात आदौ मध्ये तथावरे।
भूमिपालो यथान्यायं वर्तेतानेन धर्मवित् ॥ ५४ ॥
मूलम्
इत्येष दण्डो विख्यात आदौ मध्ये तथावरे।
भूमिपालो यथान्यायं वर्तेतानेन धर्मवित् ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस तरह यह दण्ड आदि, मध्य और अन्तमें विख्यात है। धर्मज्ञ राजाको चाहिये कि इसके द्वारा न्यायोचित बर्ताव करे॥५४॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतीदं वसुहोमस्य शृणुयाद् यो मतं नरः।
श्रुत्वा सम्यक् प्रवर्तेत सर्वान् कामानवाप्नुयात् ॥ ५५ ॥
मूलम्
इतीदं वसुहोमस्य शृणुयाद् यो मतं नरः।
श्रुत्वा सम्यक् प्रवर्तेत सर्वान् कामानवाप्नुयात् ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— यधिष्ठिर! जो नरेश इस प्रकार बताये हुए वसुहोमके इस मतको सुनता और सुनकर यथोचित बर्ताव करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति ते सर्वमाख्यातं यो दण्डो मनुजर्षभ।
नियन्ता सर्वलोकस्य धर्माक्रान्तस्य भारत ॥ ५६ ॥
मूलम्
इति ते सर्वमाख्यातं यो दण्डो मनुजर्षभ।
नियन्ता सर्वलोकस्य धर्माक्रान्तस्य भारत ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! भरतनन्दन! जो दण्ड सम्पूर्ण धार्मिक जगत्के नियमके भीतर रखनेवाला है, उसके सम्बन्धमें जितनी बातें हैं, उन्हें मैंने तुम्हें बता दीं॥५६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि दण्डोत्पत्युपाख्याने द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें दण्डकी उत्पत्तिकी कथाविषयक एक सौ बार्इसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२२॥