१२० राजधर्मकथने

भागसूचना

विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजधर्मका साररूपमें वर्णन

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजवृत्तान्यनेकानि त्वया प्रोक्तानि भारत।
पूर्वैः पूर्वनियुक्तानि राजधर्मार्थवेदिभिः ॥ १ ॥

मूलम्

राजवृत्तान्यनेकानि त्वया प्रोक्तानि भारत।
पूर्वैः पूर्वनियुक्तानि राजधर्मार्थवेदिभिः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— भारत! राजधर्मके तत्त्वको जाननेवाले पूर्ववर्ती राजाओंने पूर्वकालमें जिनका अनुष्ठान किया है, उन अनेक प्रकारके राजोचित बर्तावोंका आपने वर्णन किया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेव विस्तरेणोक्तं पूर्वदृष्टं सतां मतम्।
प्रणेयं राजधर्माणां प्रब्रूहि भरतर्षभ ॥ २ ॥

मूलम्

तदेव विस्तरेणोक्तं पूर्वदृष्टं सतां मतम्।
प्रणेयं राजधर्माणां प्रब्रूहि भरतर्षभ ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! आपने पूर्वपुरुषोंद्वारा आचरित तथा सज्जनसम्मत जिन श्रेष्ठ राजधर्मोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, उन्हींको इस प्रकार संक्षिप्त करके बताइये, जिससे उनका विशेषरूपसे पालन हो सके॥२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्षणं सर्वभूतानामिति क्षात्रं परं मतम्।
तद् यथा रक्षणं कुर्यात् तथा शृणु महीपते ॥ ३ ॥

मूलम्

रक्षणं सर्वभूतानामिति क्षात्रं परं मतम्।
तद् यथा रक्षणं कुर्यात् तथा शृणु महीपते ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी बोले— भूपाल! क्षत्रियके लिये सबसे श्रेष्ठ धर्म माना गया है समस्त प्राणियोंकी रक्षा करना; परंतु यह रक्षाका कार्य कैसे किया जाय, उसको बता रहा हूँ, सुनो॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा बर्हाणि चित्राणि बिभर्ति भुजगाशनः।
तथा बहुविधं राजा रूपं कुर्वीत धर्मवित् ॥ ४ ॥

मूलम्

यथा बर्हाणि चित्राणि बिभर्ति भुजगाशनः।
तथा बहुविधं राजा रूपं कुर्वीत धर्मवित् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे साँप खानेवाला मोर विचित्र पंख धारण करता है, उसी प्रकार धर्मज्ञ राजाको समय-समयपर अपना अनेक प्रकारका रूप प्रकट करना चाहिये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैक्ष्ण्यं जिह्मत्वमादाल्भ्यं सत्यमार्जवमेव च।
मध्यस्थः सत्त्वमातिष्ठंस्तथा वै सुखमृच्छति ॥ ५ ॥

मूलम्

तैक्ष्ण्यं जिह्मत्वमादाल्भ्यं सत्यमार्जवमेव च।
मध्यस्थः सत्त्वमातिष्ठंस्तथा वै सुखमृच्छति ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा मध्यस्थ-भावसे रहकर तीक्ष्णता, कुटिल नीति, अभय-दान, सत्य, सरलता तथा श्रेष्ठभावका अवलम्बन करे। ऐसा करनेसे ही वह सुखका भागी होता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मिन्नर्थे हितं यत् स्यात् तद्वर्णं रूपमादिशेत्।
बहुरूपस्य राज्ञो हि सूक्ष्मोऽप्यर्थो न सीदति ॥ ६ ॥

मूलम्

यस्मिन्नर्थे हितं यत् स्यात् तद्वर्णं रूपमादिशेत्।
बहुरूपस्य राज्ञो हि सूक्ष्मोऽप्यर्थो न सीदति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस कार्यके लिये जो हितकर हो, उसमें वैसा ही रूप प्रकट करे (उदाहरणके लिये अपराधीको दण्ड देते समय उग्र रूप और दीनोंपर अनुग्रह करते समय शान्त एवं दयालु रूप प्रकट करे)। इस प्रकार अनेक रूप धारण करनेवाले राजाका छोटा-सा कार्य भी बिगड़ने नहीं पाता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यं रक्षितमन्त्रः स्वाद् यथा मूकः शरच्छिखी।
श्लक्ष्णाक्षरतनुः श्रीमान् भवेच्छास्त्रविशारदः ॥ ७ ॥

मूलम्

नित्यं रक्षितमन्त्रः स्वाद् यथा मूकः शरच्छिखी।
श्लक्ष्णाक्षरतनुः श्रीमान् भवेच्छास्त्रविशारदः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे शरद्-ऋतुका मोर बोलता नहीं, उसी प्रकार राजाको भी मौन रहकर सदा राजकीय गुप्त विचारोंको सुरक्षित रखना चाहिये। वह मधुर वचन बोले, सौम्य-स्वरूपसे रहे, शोभासम्पन्न होवे और शास्त्रोंका विशेष ज्ञान प्राप्त करे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपद्‌द्वारेषु युक्तः स्याज्जलप्रस्रवणेष्विव ।
शैलवर्षोदकानीव द्विजान् सिद्धान् समाश्रयेत्।
अर्थकामः शिखां राजा कुर्याद्धर्मध्वजोपमाम् ॥ ८ ॥

मूलम्

आपद्‌द्वारेषु युक्तः स्याज्जलप्रस्रवणेष्विव ।
शैलवर्षोदकानीव द्विजान् सिद्धान् समाश्रयेत्।
अर्थकामः शिखां राजा कुर्याद्धर्मध्वजोपमाम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाढ़के समय जिस ओरसे जल बहकर गाँवोंको डुबा देनेका संकट उपस्थित कर दे, उस स्थानपर जैसे लोग मजबूत बाँध बाँध देते हैं, उसी प्रकार जिन द्वारोंसे संकट आनेकी सम्भावना हो, उन्हें सुदृढ़ बनाने और बंद करनेके लिये राजाको सतत सावधान रहना चाहिये। जैसे पर्वतोंपर वर्षा होनेसे जो पानी एकत्र होकर नदी या तालाबके रूपमें रहता है, उसका उपयोग करनेके लिये लोग उसका आश्रय लेते हैं, उसी प्रकार राजाको सिद्ध ब्राह्मणोंका आश्रय लेना चाहिये तथा जिस प्रकार धर्मका ढोंगी सिरपर जटा धारण करता है, उसी तरह राजाको भी अपना स्वार्थ सिद्ध करनेकी इच्छासे उच्च लक्षणोंको धारण करना चाहिये॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यमुद्यतदण्डः स्यादाचरेदप्रमादतः ।
लोके चायव्ययौ दृष्ट्वा बृहद्‌वृक्षमिवास्रवत् ॥ ९ ॥

मूलम्

नित्यमुद्यतदण्डः स्यादाचरेदप्रमादतः ।
लोके चायव्ययौ दृष्ट्वा बृहद्‌वृक्षमिवास्रवत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सदा अपराधियोंको दण्ड देनेके लिये उद्यत रहे, प्रत्येक कार्य सावधानीके साथ करे, लोगोंके आय-व्यय देखकर ताड़के वृक्षसे रस निकालनेकी भाँति उनसे धनरूपी रस ले (अर्थात् जैसे उस रसके लिये पेड़को काट नहीं दिया जाता, उसी प्रकार प्रजाका उच्छेद न करे)॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृजावान् स्यात् स्वयूथ्येषु भौमानि चरणैः क्षिपेत्।
जातपक्षः परिस्पन्देत् प्रेक्षेद् वैकल्यमात्मनः ॥ १० ॥

मूलम्

मृजावान् स्यात् स्वयूथ्येषु भौमानि चरणैः क्षिपेत्।
जातपक्षः परिस्पन्देत् प्रेक्षेद् वैकल्यमात्मनः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा अपने दलके लोगोंके प्रति विशुद्ध व्यवहार करे। शत्रुके राज्यमें जो खेतीकी फसल हो, उसे अपने दलके घोड़ों और बैलोंके पैरोंसे कुचलवा दे। अपना पक्ष बलवान् होनेपर ही शत्रुओंपर आक्रमण करे और अपनेमें कहाँ कैसी दुर्बलता है, इसका भलीभाँति निरीक्षण करता रहे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दोषान् विवृणुयाच्छत्रोः परपक्षान् विधूनयेत्।
काननेष्विव पुष्पाणि बहिरर्थान् समाचरन् ॥ ११ ॥

मूलम्

दोषान् विवृणुयाच्छत्रोः परपक्षान् विधूनयेत्।
काननेष्विव पुष्पाणि बहिरर्थान् समाचरन् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुके दोषोंको प्रकाशित करे और उसके पक्षके लोगोंको अपने पक्षमें आनेके लिये विचलित कर दे। जैसे लोग जंगलसे फूल चुनते हैं, उसी प्रकार राजा बाहरसे धनका संग्रह करे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उच्छ्रितान् नाशयेत् स्फीतान् नरेन्द्रानचलोपमान्।
श्रयेच्छायामविज्ञातां गुप्तं रणमुपाश्रयेत् ॥ १२ ॥

मूलम्

उच्छ्रितान् नाशयेत् स्फीतान् नरेन्द्रानचलोपमान्।
श्रयेच्छायामविज्ञातां गुप्तं रणमुपाश्रयेत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पर्वतके समान ऊँचा सिर करके अविचलभावसे बैठे हुए धनी नरेशोंको नष्ट करे। उनको जताये बिना ही उनकी छायाका आश्रय ले अर्थात् उनके सरदारोंसे मिलकर उनमें फूट डाल दे और गुप्तरूपसे अवसर देखकर उनके साथ युद्ध छेड़ दे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रावृषीवासितग्रीवो मज्जेत निशि निर्जने।
मायूरेण गुणेनैव स्त्रीभिश्चालक्षितश्चरेत् ॥ १३ ॥

मूलम्

प्रावृषीवासितग्रीवो मज्जेत निशि निर्जने।
मायूरेण गुणेनैव स्त्रीभिश्चालक्षितश्चरेत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मोर आधी रातके समय एकान्त स्थानमें छिपा रहता है, उसी प्रकार राजा वर्षाकालमें शत्रुओंपर चढ़ाई न करके अदृश्यभावसे ही महलमें रहे। मोरके ही गुणको अपनाकर स्त्रियोंसे अलक्षित रहकर विचरे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न जह्याच्च तनुत्राणं रक्षेदात्मानमात्मना।
चारभूमिष्वभिगतान् पाशांश्च परिवर्जयेत् ॥ १४ ॥

मूलम्

न जह्याच्च तनुत्राणं रक्षेदात्मानमात्मना।
चारभूमिष्वभिगतान् पाशांश्च परिवर्जयेत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने कवचको कभी न उतारे। स्वयं ही शरीरकी रक्षा करे। घूमने-फिरनेके स्थानोंपर शत्रुओंद्वारा जो जाल बिछाये गये हों, उनका निवारण करे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणयेद् वापि तां भूमिं प्रणश्येद् गहने पुनः।
हन्यात्क्रुद्धानतिविषास्तान्‌ जिह्मगतयोऽहितान् ॥ १५ ॥

मूलम्

प्रणयेद् वापि तां भूमिं प्रणश्येद् गहने पुनः।
हन्यात्क्रुद्धानतिविषास्तान्‌ जिह्मगतयोऽहितान् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा सुयोग समझे तो जहाँ शत्रुओंका जाल बिछा हो, वहाँ भी अपने-आपको ले जाय। यदि संकटकी सम्भावना हो तो गहन वनमें छिप जाय तथा जो कुटिल चाल चलनेवाले हों, उन क्रोधमें भरे हुए शत्रुओंको अत्यन्त विषैले सर्पोंके समान समझकर मार डाले॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाशयेद् बलबर्हाणि संनिवासान् निवासयेत्।
सदा बर्हिनिभः कामं प्रशस्तं कृतमाचरेत्।
सर्वतश्चाददेत् प्रज्ञां पतंगं गहनेष्विव ॥ १६ ॥

मूलम्

नाशयेद् बलबर्हाणि संनिवासान् निवासयेत्।
सदा बर्हिनिभः कामं प्रशस्तं कृतमाचरेत्।
सर्वतश्चाददेत् प्रज्ञां पतंगं गहनेष्विव ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुकी सेनाकी पाँख काट डाले—उसे दुर्बल कर दे, श्रेष्ठ पुरुषोंको अपने निकट बसावे। मोरके समान स्वेच्छानुसार उत्तम कार्य करे—जैसे मोर अपने पंख फैलाता है, उसी प्रकार अपने पक्ष (सेना और सहायकों) का विस्तार करे। सबसे बुद्धि—सद्विचार ग्रहण करे और जैसे टिड्डियोंका दल जंगलमें जहाँ गिरता है, वहाँ वृक्षोंपर पत्तेतक नहीं छोड़ता, उसी प्रकार शत्रुओंपर आक्रमण करके उनका सर्वस्व नष्ट कर दे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं मयूरवद् राजा स्वराज्यं परिपालयेत्।
आत्मवृद्धिकरीं नीतिं विदधीत विचक्षणः ॥ १७ ॥

मूलम्

एवं मयूरवद् राजा स्वराज्यं परिपालयेत्।
आत्मवृद्धिकरीं नीतिं विदधीत विचक्षणः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार बुद्धिमान् राजा अपने स्थानकी रक्षा करनेवाले मोरके समान अपने राज्यका भलीभाँति पालन करे तथा उसी नीतिका आश्रय ले, जो अपनी उन्नतिमें सहायक हो॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मसंयमनं बुद्ध्या परबुद्ध्यावधारणम् ।
बुद्ध्या चात्मगुणप्राप्तिरेतच्छास्त्रनिदर्शनम् ॥ १८ ॥

मूलम्

आत्मसंयमनं बुद्ध्या परबुद्ध्यावधारणम् ।
बुद्ध्या चात्मगुणप्राप्तिरेतच्छास्त्रनिदर्शनम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केवल अपनी बुद्धिसे मनको वशमें किया जाता है। मन्त्री आदि दूसरोंकी बुद्धिके सहयोगसे कर्तव्यका निश्चय किया जाता है और शास्त्रीय बुद्धिसे आत्मगुणकी प्राप्ति होती है। यही शास्त्रका प्रयोजन है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परं विश्वासयेत् साम्ना स्वशक्तिं चोपलक्षयेत्।
आत्मनः परिमर्शेन बुद्धिं बुद्ध्या विचारयेत् ॥ १९ ॥

मूलम्

परं विश्वासयेत् साम्ना स्वशक्तिं चोपलक्षयेत्।
आत्मनः परिमर्शेन बुद्धिं बुद्ध्या विचारयेत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा मधुर वाणीद्वारा समझा-बुझाकर अपने प्रति दूसरेका विश्वास उत्पन्न करे। अपनी शक्तिका भी प्रदर्शन करे तथा अपने विचार और बुद्धिसे कर्तव्यका निश्चय करे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सान्त्वयोगमतिः प्राज्ञः कार्याकार्यप्रयोजकः ।
निगूढबुद्धेर्धीरस्य वक्तव्ये वा कृतं तथा ॥ २० ॥

मूलम्

सान्त्वयोगमतिः प्राज्ञः कार्याकार्यप्रयोजकः ।
निगूढबुद्धेर्धीरस्य वक्तव्ये वा कृतं तथा ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजामें सबको समझा-बुझाकर युक्तिसे काम निकालनेकी बुद्धि होनी चाहिये। वह विद्वान् होनेके साथ ही लोगोंको कर्तव्यकी प्रेरणा दे और अकर्तव्यकी ओर जानेसे रोके अथवा जिसकी बुद्धि गूढ़ या गम्भीर है, उस धीर पुरुषको उपदेश देनेकी आवश्यकता ही क्या है?॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स निकृष्टां कथां प्राज्ञो यदि बुद्ध्या बृहस्पतिः।
स्वभावमेष्यते तप्तं कृष्णायसमिवोदके ॥ २१ ॥

मूलम्

स निकृष्टां कथां प्राज्ञो यदि बुद्ध्या बृहस्पतिः।
स्वभावमेष्यते तप्तं कृष्णायसमिवोदके ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह बुद्धिमान् राजा बुद्धिमें बृहस्पतिके समान होकर भी किसी कारणवश यदि निम्न श्रेणीकी बात कह डाले तो उसे चाहिये कि जैसे तपाया हुआ लोहा पानीमें डालनेसे शान्त हो जाता है, उसी तरह अपने शान्त स्वभावको स्वीकार कर ले॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुयुञ्जीत कृत्यानि सर्वाण्येव महीपतिः।
आगमैरुपदिष्टानि स्वस्य चैव परस्य च ॥ २२ ॥

मूलम्

अनुयुञ्जीत कृत्यानि सर्वाण्येव महीपतिः।
आगमैरुपदिष्टानि स्वस्य चैव परस्य च ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा अपने तथा दूसरेको भी शास्त्रमें बताये हुए समस्त कर्मोंमें ही लगावे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृदुशीलं तथा प्राज्ञं शूरं चार्थविधानवित्।
स्वकर्मणि नियुञ्जीत ये चान्ये च बलाधिकाः ॥ २३ ॥

मूलम्

मृदुशीलं तथा प्राज्ञं शूरं चार्थविधानवित्।
स्वकर्मणि नियुञ्जीत ये चान्ये च बलाधिकाः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कार्यसाधनके उपायको जाननेवाला राजा अपने कार्योंमें कोमल-स्वभाव, विद्वान् तथा शूरवीर मनुष्यको तथा अन्य जो अधिक बलशाली व्यक्ति हों, उनको नियुक्त करे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ दृष्ट्वा नियुक्तानि स्वानुरूपेषु कर्मसु।
सर्वांस्ताननुवर्तेत स्वरांस्तन्त्रीरिवायता ॥ २४ ॥

मूलम्

अथ दृष्ट्वा नियुक्तानि स्वानुरूपेषु कर्मसु।
सर्वांस्ताननुवर्तेत स्वरांस्तन्त्रीरिवायता ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वीणाके विस्तृत तार सातों स्वरोंका अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार राजा अपने कर्मचारियोंको योग्यता-नुसार कर्मोंमें संलग्न देख उन सबके अनुकूल व्यवहार करे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्माणामविरोधेन सर्वेषां प्रियमाचरेत् ।
ममायमिति राजा यः स पर्वत इवाचलः ॥ २५ ॥

मूलम्

धर्माणामविरोधेन सर्वेषां प्रियमाचरेत् ।
ममायमिति राजा यः स पर्वत इवाचलः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको चाहिये कि सबका प्रिय करे, किंतु धर्ममें बाधा न आने दे। प्रजागणको ‘यह मेरा ही प्रियगण है’ ऐसा समझनेवाला राजा पर्वतके समान अविचल बना रहता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यवसायं समाधाय सूर्यो रश्मीनिवायतान्।
धर्ममेवाभिरक्षेत कृत्वा तुल्ये प्रियाप्रिये ॥ २६ ॥

मूलम्

व्यवसायं समाधाय सूर्यो रश्मीनिवायतान्।
धर्ममेवाभिरक्षेत कृत्वा तुल्ये प्रियाप्रिये ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सूर्य अपनी विस्तृत किरणोंका आश्रय ले सबकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार राजा प्रिय और अप्रियको समान समझकर सुदृढ़ उद्योगका अवलम्बन करके धर्मकी ही रक्षा करे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुलप्रकृतिदेशानां धर्मज्ञान् मृदुभाषिणः ।
मध्ये वयसि निर्दोषान्‌ हिते युक्तानविक्लवान् ॥ २७ ॥
अलुब्धान्‌ शिक्षितान्‌ दान्तान्‌ धर्मेषु परिनिष्ठितान्।
स्थापयेत् सर्वकार्येषु राजा धर्मार्थरक्षिणः ॥ २८ ॥

मूलम्

कुलप्रकृतिदेशानां धर्मज्ञान् मृदुभाषिणः ।
मध्ये वयसि निर्दोषान्‌ हिते युक्तानविक्लवान् ॥ २७ ॥
अलुब्धान्‌ शिक्षितान्‌ दान्तान्‌ धर्मेषु परिनिष्ठितान्।
स्थापयेत् सर्वकार्येषु राजा धर्मार्थरक्षिणः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग कुल, स्वभाव और देशके धर्मको जानते हों, मधुरभाषी हों, युवावस्थामें जिनका जीवन निष्कलंक रहा हो, जो हितसाधनमें तत्पर और घबराहटसे रहित हों, जिनमें लोभका अभाव हो, जो शिक्षित, जितेन्द्रिय, धर्मनिष्ठ तथा धर्म एवं अर्थकी रक्षा करनेवाले हों, उन्हींको राजा अपने समस्त कार्योंमें लगावे॥२७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतेन च प्रकारेण कृत्यानामागतिं गतिम्।
युक्तः समनुतिष्ठेत तुष्टश्चारैरुपस्कृतः ॥ २९ ॥

मूलम्

एतेन च प्रकारेण कृत्यानामागतिं गतिम्।
युक्तः समनुतिष्ठेत तुष्टश्चारैरुपस्कृतः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार राजा सदा सावधान रहकर राज्यके प्रत्येक कार्यका आरम्भ और समाप्ति करे। मनमें संतोष रखे और गुप्तचरोंकी सहायतासे राष्ट्रकी सारी बातें जानता रहे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमोघक्रोधहर्षस्य स्वयं कृत्यान्ववेक्षितुः ।
आत्मप्रत्ययकोशस्य वसुदैव वसुन्धरा ॥ ३० ॥

मूलम्

अमोघक्रोधहर्षस्य स्वयं कृत्यान्ववेक्षितुः ।
आत्मप्रत्ययकोशस्य वसुदैव वसुन्धरा ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका हर्ष और क्रोध कभी निष्फल नहीं होता, जो स्वयं ही सारे कार्योंकी देखभाल करता है तथा आत्म-विश्वास ही जिसका खजाना है, उस राजाके लिये यह वसुन्धरा (पृथ्वी) ही धन देनेवाली बन जाती है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यक्तश्चानुग्रहो यस्य यथार्थश्चापि निग्रहः।
गुप्तात्मा गुप्तराष्ट्रश्च स राजा राजधर्मवित् ॥ ३१ ॥

मूलम्

व्यक्तश्चानुग्रहो यस्य यथार्थश्चापि निग्रहः।
गुप्तात्मा गुप्तराष्ट्रश्च स राजा राजधर्मवित् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका अनुग्रह सबपर प्रकट है तथा जिसका निग्रह (दण्ड देना) भी यथार्थ कारणसे होता है, जो अपनी और अपने राज्यकी सुरक्षा करता है, वही राजा राजधर्मका ज्ञाता है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यं राष्ट्रमवेक्षेत गोभिः सूर्य इवोदितः।
चरान् स्वनुचरान् विद्यात्‌ तथा बुद्ध्या स्वयं चरेत् ॥ ३२ ॥

मूलम्

नित्यं राष्ट्रमवेक्षेत गोभिः सूर्य इवोदितः।
चरान् स्वनुचरान् विद्यात्‌ तथा बुद्ध्या स्वयं चरेत् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सूर्य उदित होकर प्रतिदिन अपनी किरणोंद्वारा सम्पूर्ण जगत्‌को प्रकाशित करते (या देखते) हैं, उसी प्रकार राजा सदा अपनी दृष्टिसे सम्पूर्ण राष्ट्रका निरीक्षण करे। गुप्तचरोंको बारंबार भेजकर राज्यके समाचार जाने तथा स्वयं अपनी बुद्धिके द्वारा भी सोच-विचारकर कार्य करे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालं प्राप्तमुपादद्यान्नार्थं राजा प्रसूचयेत्।
अहन्यहनि संदुह्यान्महीं गामिव बुद्धिमान् ॥ ३३ ॥

मूलम्

कालं प्राप्तमुपादद्यान्नार्थं राजा प्रसूचयेत्।
अहन्यहनि संदुह्यान्महीं गामिव बुद्धिमान् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् राजा समय पड़नेपर ही प्रजासे धन ले। अपनी अर्थ-संग्रहकी नीति किसीके सम्मुख प्रकट न करे। जैसे बुद्धिमान् मनुष्य गायकी रक्षा करते हुए ही उससे दूध दुहता है, उसी प्रकार राजा सदा पृथ्वीका पालन करते हुए ही उससे धनका दोहन करे॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा क्रमेण पुष्पेभ्यश्चिनोति मधु षट्‌पदः।
तथा द्रव्यमुपादाय राजा कुर्वीत संचयम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

यथा क्रमेण पुष्पेभ्यश्चिनोति मधु षट्‌पदः।
तथा द्रव्यमुपादाय राजा कुर्वीत संचयम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मधुमक्खी क्रमशः अनेक फूलोंसे रसका संचय करके शहद तैयार करती है, उसी प्रकार राजा समस्त प्रजाजनोंसे थोड़ा-थोड़ा द्रव्य लेकर उसका संचय करे॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्धि गुप्तावशिष्टं स्यात् तद्वित्तं धर्मकामयोः।
संचयान्न विसर्गी स्याद् राजा शास्त्रविदात्मवान् ॥ ३५ ॥

मूलम्

यद्धि गुप्तावशिष्टं स्यात् तद्वित्तं धर्मकामयोः।
संचयान्न विसर्गी स्याद् राजा शास्त्रविदात्मवान् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धन राज्यकी सुरक्षा करनेसे बचे, उसीको धर्म और उपभोगके कार्यमें खर्च करना चाहिये। शास्त्रज्ञ और मनस्वी राजाको कोषागारके संचित धनसे द्रव्य लेकर भी खर्च नहीं करना चाहिये॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नार्थमल्पं परिभवेन्नावमन्येत शात्रवान् ।
बुद्ध्या तु बुद्ध्येदात्मानं न चाबुद्धिषु विश्वसेत् ॥ ३६ ॥

मूलम्

नार्थमल्पं परिभवेन्नावमन्येत शात्रवान् ।
बुद्ध्या तु बुद्ध्येदात्मानं न चाबुद्धिषु विश्वसेत् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

थोड़ा-सा भी धन मिलता हो तो उसका तिरस्कार न करे। शत्रु शक्तिहीन हो तो भी उसकी अवहेलना न करे। बुद्धिसे अपने स्वरूप और अवस्थाको समझे तथा बुद्धिहीनोंपर कभी विश्वास न करे॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृतिर्दाक्ष्यं संयमो बुद्धिरात्मा
धैर्यं शौर्यं देशकालाप्रमादः ।
अल्पस्य वा बहुनो वा विवृद्धौ
धनस्यैतान्यष्ट समिन्धनानि ॥ ३७ ॥

मूलम्

धृतिर्दाक्ष्यं संयमो बुद्धिरात्मा
धैर्यं शौर्यं देशकालाप्रमादः ।
अल्पस्य वा बहुनो वा विवृद्धौ
धनस्यैतान्यष्ट समिन्धनानि ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धारणाशक्ति, चतुरता, संयम, बुद्धि, शरीर, धैर्य, शौर्य तथा देश-कालकी परिस्थितिसे असावधान न रहना—ये आठ गुण थोड़े या अधिक धनको बढ़ानेके मुख्य साधन हैं अर्थात् धनरूपी अग्निको प्रज्वलित करनेके लिये ईंधन हैं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निः स्तोको वर्धतेऽप्याज्यसिक्तो
बीजं चैकं रोहसहस्रमेति ।
आयव्ययौ विपुलौ संनिशाम्य
तस्मादल्पं नावमन्येत वित्तम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

अग्निः स्तोको वर्धतेऽप्याज्यसिक्तो
बीजं चैकं रोहसहस्रमेति ।
आयव्ययौ विपुलौ संनिशाम्य
तस्मादल्पं नावमन्येत वित्तम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

थोड़ी-सी भी आग यदि घीसे सिंच जाय तो बढ़कर बहुत बड़ी हो जाती है। एक ही छोटे-से बीजको बो देनेपर उससे सहस्रों बीज पैदा हो जाते हैं। इसी प्रकार महान् आय-व्ययके विषयमें विचार करके थोड़े-से भी धनका अनादर न करे॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालोऽप्यबालः स्थविरो रिपुर्यः
सदा प्रमत्तं पुरुषं निहन्यात्।
कालेनान्यस्तस्य मूलं हरेत
कालज्ञाता पार्थिवानां वरिष्ठः ॥ ३९ ॥

मूलम्

बालोऽप्यबालः स्थविरो रिपुर्यः
सदा प्रमत्तं पुरुषं निहन्यात्।
कालेनान्यस्तस्य मूलं हरेत
कालज्ञाता पार्थिवानां वरिष्ठः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रु बालक, जवान अथवा बूढ़ा ही क्यों न हो, सदा सावधान न रहनेवाले मनुष्यका नाश कर डालता है। दूसरा कोई धनसम्पन्न शत्रु अनुकूल समयका सहयोग पाकर राजाकी जड़ उखाड़ सकता है। इसलिये जो समयको जानता है, वही समस्त राजाओंमें श्रेष्ठ है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरेत कीर्तिं धर्ममस्योपरुन्ध्या-
दर्थे दीर्घं वीर्यमस्योपहन्यात् ।
रिपुर्द्वेष्टा दुर्बलो वा बली वा
तस्माच्छत्रोर्नैव हीयेद् यतात्मा ॥ ४० ॥

मूलम्

हरेत कीर्तिं धर्ममस्योपरुन्ध्या-
दर्थे दीर्घं वीर्यमस्योपहन्यात् ।
रिपुर्द्वेष्टा दुर्बलो वा बली वा
तस्माच्छत्रोर्नैव हीयेद् यतात्मा ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्वेष रखनेवाला शत्रु दुर्बल हो या बलवान्, राजाकी कीर्ति नष्ट कर देता है, उसके धर्ममें बाधा पहुँचाता है तथा अर्थोपार्जनमें उसकी बढ़ी हुई शक्तिका विनाश कर डालता है; इसलिये मनको वशमें रखनेवाला राजा शत्रुकी ओरसे लापरवाह न रहे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षयं वृद्धिं पालनं संचयं वा
बुद्‌ध्वाप्युभौ संहतौ सर्वकामौ ।
ततश्चान्यन्मतिमान् संदधीत
तस्माद् राजा बुद्धिमत्तां श्रयेत ॥ ४१ ॥

मूलम्

क्षयं वृद्धिं पालनं संचयं वा
बुद्‌ध्वाप्युभौ संहतौ सर्वकामौ ।
ततश्चान्यन्मतिमान् संदधीत
तस्माद् राजा बुद्धिमत्तां श्रयेत ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हानि, लाभ, रक्षा और संग्रहको जानकर तथा सदा परस्पर सम्बन्धित ऐश्वर्य और भोगको भी भलीभाँति समझकर बुद्धिमान् राजाको शत्रुके साथ संधि या विग्रह करना चाहिये; इस विषयपर विचार करनेके लिये बुद्धिमानोंका सहारा लेना चाहिये॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुद्धिर्दीप्ता बलवन्तं हिनस्ति
बलं बुद्ध्या पाल्यते वर्धमानम्।
शत्रुर्बुद्ध्या सीदते वर्धमानो
बुद्धेः पश्चात्‌ कर्म यत्तत् प्रशस्तम् ॥ ४२ ॥

मूलम्

बुद्धिर्दीप्ता बलवन्तं हिनस्ति
बलं बुद्ध्या पाल्यते वर्धमानम्।
शत्रुर्बुद्ध्या सीदते वर्धमानो
बुद्धेः पश्चात्‌ कर्म यत्तत् प्रशस्तम् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतिभाशालिनी बुद्धि बलवान्‌को भी पछाड़ देती है। बुद्धिके द्वारा नष्ट होते हुए बलकी भी रक्षा होती है। बढ़ता हुआ शत्रु भी बुद्धिके द्वारा परास्त होकर कष्ट उठाने लगता है। बुद्धिसे सोचकर पीछे जो कर्म किया जाता है, वह सर्वोत्तम होता है॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वान् कामान् कामयानो हि धीरः
सत्त्वेनाल्पेनाप्नुते हीनदोषः ।
यश्चात्मानं प्रार्थयतेऽर्थ्यमानैः
श्रेयःपात्रं पूरयते च नाल्पम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

सर्वान् कामान् कामयानो हि धीरः
सत्त्वेनाल्पेनाप्नुते हीनदोषः ।
यश्चात्मानं प्रार्थयतेऽर्थ्यमानैः
श्रेयःपात्रं पूरयते च नाल्पम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने सब प्रकारके दोषोंका त्याग कर दिया है, वह धीर राजा यदि किसी वस्तुकी कामना करे तो वह थोड़ा-सा बल लगानेपर भी अपनी सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। जो आवश्यक वस्तुओंसे सम्पन्न होनेपर भी अपने लिये कुछ चाहता है अर्थात् दूसरोंसे अपनी इच्छा पूरी करानेकी आश रखता है, वह लोभी और अहंकारी नरेश अपने श्रेयका छोटा-सा पात्र भी नहीं भर सकता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् राजा प्रगृहीतः प्रजासु
मूलं लक्ष्म्याः सर्वशो ह्याददीत।
दीर्घं कालं ह्यपि सम्पीड्यमानो
विद्युत्सम्पातमपि वा नोर्जितः स्यात् ॥ ४४ ॥

मूलम्

तस्माद् राजा प्रगृहीतः प्रजासु
मूलं लक्ष्म्याः सर्वशो ह्याददीत।
दीर्घं कालं ह्यपि सम्पीड्यमानो
विद्युत्सम्पातमपि वा नोर्जितः स्यात् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये राजाको चाहिये कि वह सारी प्रजापर अनुग्रह करते हुए ही उससे कर (धन) वसूल करे। वह दीर्घकालतक प्रजाको सताकर उसपर बिजलीके समान गिरकर अपना प्रभाव न दिखाये॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्या तपो वा विपुलं धनं वा
सर्वं ह्येतद् व्यवसायेन शक्यम्।
बुद्ध्यायत्तं तन्निवसेद् देहवत्सु
तस्माद् विद्याद् व्यवसायं प्रभूतम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

विद्या तपो वा विपुलं धनं वा
सर्वं ह्येतद् व्यवसायेन शक्यम्।
बुद्ध्यायत्तं तन्निवसेद् देहवत्सु
तस्माद् विद्याद् व्यवसायं प्रभूतम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्या, तप तथा प्रचुर धन—ये सब उद्योगसे प्राप्त हो सकते हैं। वह उद्योग प्राणियोंमें बुद्धिके अधीन होकर रहता है; अतः उद्योगको ही समस्त कार्योंकी सिद्धिका पर्याप्त साधन समझे॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्रासते मतिमन्तो मनस्विनः
शक्रो विष्णुर्यत्र सरस्वती च।
वसन्ति भूतानि च यत्र नित्यं
तस्माद् विद्वान् नावमन्येत देहम् ॥ ४६ ॥

मूलम्

यत्रासते मतिमन्तो मनस्विनः
शक्रो विष्णुर्यत्र सरस्वती च।
वसन्ति भूतानि च यत्र नित्यं
तस्माद् विद्वान् नावमन्येत देहम् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः जहाँ ज्ञानेन्द्रियोंमें बुद्धिमान् एवं मनस्वी महर्षि निवास करते हैं,1 जिसमें इन्द्रियोंके अधिष्ठातृदेवताके रूपमें इन्द्र, विष्णु एवं सरस्वतीका निवास है तथा जिसके भीतर सदा सम्पूर्ण प्राणी वास करते हैं, अर्थात् जो शरीर समस्त प्राणियोंके जीवन-निर्वाहका आधार है, विद्वान् पुरुषको चाहिये कि उस मानव-देहकी अवहेलना न करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लुब्धं हन्यात् सम्प्रदानेन नित्यं
लुब्धस्तृप्तिं परवित्तस्य नैति ।
सर्वो लुब्धः कर्मगुणोपभोगे
योऽर्थैर्हीनो धर्मकामौ जहाति ॥ ४७ ॥

मूलम्

लुब्धं हन्यात् सम्प्रदानेन नित्यं
लुब्धस्तृप्तिं परवित्तस्य नैति ।
सर्वो लुब्धः कर्मगुणोपभोगे
योऽर्थैर्हीनो धर्मकामौ जहाति ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा लोभी मनुष्यको सदा ही कुछ देकर दबाये रखे; क्योंकि लोभी पुरुष दूसरेके धनसे कभी तृप्त नहीं होता। सत्कर्मोंके फलस्वरूप सुखका उपभोग करनेके लिये तो सभी लालायित रहते हैं; परंतु जो लोभी धनहीन है, वह धर्म और काम दोनोंको त्याग देता है॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनं भोगं पुत्रदारं समृद्धिं
सर्वं लुब्धः प्रार्थयते परेषाम्।
लुब्धे दोषाः सम्भवन्तीह सर्वे
तस्माद् राजा न प्रगृह्णीत लुब्धम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

धनं भोगं पुत्रदारं समृद्धिं
सर्वं लुब्धः प्रार्थयते परेषाम्।
लुब्धे दोषाः सम्भवन्तीह सर्वे
तस्माद् राजा न प्रगृह्णीत लुब्धम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोभी मनुष्य दूसरोंके धन, भोग-सामग्री, स्त्री-पुत्र और समृद्धि सबको प्राप्त करना चाहता है। लोभीमें सब प्रकारके दोष प्रकट होते हैं; अतः राजा उसे अपने यहाँ किसी पदपर स्थान न दे॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संदर्शनेन पुरुषं जघन्यमपि चोदयेत्।
आरम्भान् द्विषतां प्राज्ञः सर्वार्थांश्च प्रसूदयेत् ॥ ४९ ॥

मूलम्

संदर्शनेन पुरुषं जघन्यमपि चोदयेत्।
आरम्भान् द्विषतां प्राज्ञः सर्वार्थांश्च प्रसूदयेत् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् राजा नीच मनुष्यको देखते ही अपने यहाँसे दूर हटा दे और यदि उसका वश चले तो वह शत्रुओंके सारे उद्योगों तथा कार्योंका विध्वंस कर डाले॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मान्वितेषु विज्ञाता मन्त्री गुप्तश्च पाण्डव।
आप्तो राजा कुलीनश्च पर्याप्तो राजसंग्रहे ॥ ५० ॥

मूलम्

धर्मान्वितेषु विज्ञाता मन्त्री गुप्तश्च पाण्डव।
आप्तो राजा कुलीनश्च पर्याप्तो राजसंग्रहे ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! धर्मात्मा पुरुषोंमें जो विशेषरूपसे सम्पूर्ण विषयोंका ज्ञाता हो, उसीको मन्त्री बनावे और उसकी सुरक्षाका विशेष प्रबन्ध करे। प्रजाका विश्वास-पात्र और कुलीन राजा नरेशोंको वशमें करनेमें समर्थ होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधिप्रयुक्तान् नरदेवधर्मा-
नुक्तान् समासेन निबोध बुद्ध्या।
इमान् विदध्याद् व्यतिसृत्य यो वै
राजा महीं पालयितुं स शक्तः ॥ ५१ ॥

मूलम्

विधिप्रयुक्तान् नरदेवधर्मा-
नुक्तान् समासेन निबोध बुद्ध्या।
इमान् विदध्याद् व्यतिसृत्य यो वै
राजा महीं पालयितुं स शक्तः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाके जो शास्त्रोक्त धर्म हैं, उन्हें संक्षेपसे मैंने यहाँ बताया है। तुम अपनी बुद्धिसे विचार करके उन्हें हृदयमें धारण करो। जो उन्हें गुरुसे सीखकर हृदयमें धारण करता और आचरणमें लाता है, वही राजा अपने राज्यकी रक्षा करनेमें समर्थ होता है॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनीतिजं यस्य विधानजं सुखं
हठप्रणीतं विधिवत्प्रदृश्यते ।
न विद्यते तस्य गतिर्महीपते-
र्न विद्यते राज्यसुखं ह्यनुत्तमम् ॥ ५२ ॥

मूलम्

अनीतिजं यस्य विधानजं सुखं
हठप्रणीतं विधिवत्प्रदृश्यते ।
न विद्यते तस्य गतिर्महीपते-
र्न विद्यते राज्यसुखं ह्यनुत्तमम् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्हें अन्यायसे उपार्जित, हठसे प्राप्त तथा दैवके विधानके अनुसार उपलब्ध हुआ सुख विधिके अनुरूप प्राप्त हुआ-सा दिखायी देता है, राजधर्मको न जाननेवाले उस राजाकी कहीं गति नहीं है तथा उसका परम उत्तम राज्यसुख चिरस्थायी नहीं होता॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनैर्विशिष्टान् मतिशीलपूजितान्
गुणोपपन्नान् युधि दृष्टविक्रमान् ।
गुणेषु दृष्ट्वा न चिरादिवात्मवान्
यतोऽभिसंधाय निहन्ति शात्रवान् ॥ ५३ ॥

मूलम्

धनैर्विशिष्टान् मतिशीलपूजितान्
गुणोपपन्नान् युधि दृष्टविक्रमान् ।
गुणेषु दृष्ट्वा न चिरादिवात्मवान्
यतोऽभिसंधाय निहन्ति शात्रवान् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उक्त राजधर्मके अनुसार संधि-विग्रह आदि गुणोंके प्रयोगमें सतत सावधान रहनेवाला नरेश धनसम्पन्न, बुद्धि और शीलके द्वारा सम्मानित, गुणवान् तथा युद्धमें जिनका पराक्रम देखा गया है, उन वीर शत्रुओंको भी कूटकौशलपूर्वक नष्ट कर सकता है॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्येदुपायान् विविधैः क्रियापथै-
र्न चानुपायेन मतिं निवेशयेत्।
श्रियं विशिष्टां विपुलं यशो धनं
न दोषदर्शी पुरुषः समश्नुते ॥ ५४ ॥

मूलम्

पश्येदुपायान् विविधैः क्रियापथै-
र्न चानुपायेन मतिं निवेशयेत्।
श्रियं विशिष्टां विपुलं यशो धनं
न दोषदर्शी पुरुषः समश्नुते ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा नाना प्रकारकी कार्यपद्धतियोंद्वारा शत्रु-विजयके बहुत-से उपाय ढूँढ़ निकाले। अयोग्य उपायसे काम लेनेका विचार न करे, जो निर्दोष व्यक्तियोंके भी दोष देखता है, वह मनुष्य विशिष्ट सम्पत्ति, महान् यश और प्रचुर धन नहीं पा सकता॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीतिप्रवृत्तौ विनिवर्तितौ यथा
सुहृत्सु विज्ञाय निवृत्य चोभयोः।
यदेव मित्रं गुरुभारमावहेत्
तदेव सुस्निग्धमुदाहरेद् बुधः ॥ ५५ ॥

मूलम्

प्रीतिप्रवृत्तौ विनिवर्तितौ यथा
सुहृत्सु विज्ञाय निवृत्य चोभयोः।
यदेव मित्रं गुरुभारमावहेत्
तदेव सुस्निग्धमुदाहरेद् बुधः ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुहृदोंमेंसे जो दो मित्र प्रेमपूर्वक साथ-साथ एक कार्यमें प्रवृत्त होते हों और साथ-ही-साथ उससे निवृत्त होते हों, उन्हें अच्छी तरह जानकर उन दोनोंमेंसे जो मित्र लौटकर मित्रका गुरुतर भार वहन कर सके, उसीको विद्वान् पुरुष अत्यन्त स्नेही मित्र मानकर दूसरोंके सामने उसका उदाहरण दें॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतान् मयोक्ताश्चर राजधर्मान्
नॄणां च गुप्तौ मतिमादधत्स्व।
अवाप्स्यसे पुण्यफलं सुखेन
सर्वो हि लोको नृप धर्ममूलः ॥ ५६ ॥

मूलम्

एतान् मयोक्ताश्चर राजधर्मान्
नॄणां च गुप्तौ मतिमादधत्स्व।
अवाप्स्यसे पुण्यफलं सुखेन
सर्वो हि लोको नृप धर्ममूलः ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! मेरे बताये हुए इन राजधर्मोंका आचरण करो और प्रजाके पालनमें मन लगाओ। इससे तुम सुखपूर्वक पुण्यफल प्राप्त करोगे; क्योंकि सम्पूर्ण जगत्‌का मूल धर्म ही है॥५६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि राजधर्मकथने विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें राजधर्मका वर्णनविषयक एक सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२०॥


  1. ‘इमावेव गौतमभरद्वाजौ’ इत्यादि श्रुतिके अनुसार सम्पूर्ण ज्ञानेन्द्रियोंका गौतम, भरद्वाज, वसिष्ठ और विश्वामित्र आदि महर्षियोंसे सम्बन्ध सूचित होता है। ↩︎