भागसूचना
एकोनविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सेवकोंको उनके योग्य स्थानपर नियुक्त करने, कुलीन और सत्पुरुषोंका संग्रह करने, कोष बढ़ाने तथा सबकी देखभाल करनेके लिये राजाको प्रेरणा
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं गुणयुतान् भृत्यान् स्वे स्वे स्थाने नराधिपः।
नियोजयति कृत्येषु स राज्यफलमश्नुते ॥ १ ॥
मूलम्
एवं गुणयुतान् भृत्यान् स्वे स्वे स्थाने नराधिपः।
नियोजयति कृत्येषु स राज्यफलमश्नुते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इस प्रकार जो राजा गुणवान् भृत्योंको अपने-अपने स्थानपर रखते हुए कार्योंमें लगाता है, वह राज्यके यथार्थ फलका भागी होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न श्वा स्वं स्थानमुत्क्रम्य प्रमाणमभिसत्कृतः।
आरोप्यः श्वा स्वकात्स्थानादुत्क्रम्यान्यत् प्रमाद्यति ॥ २ ॥
मूलम्
न श्वा स्वं स्थानमुत्क्रम्य प्रमाणमभिसत्कृतः।
आरोप्यः श्वा स्वकात्स्थानादुत्क्रम्यान्यत् प्रमाद्यति ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले कहे हुए इतिहाससे यह सिद्ध होता है कि कुत्ता अपने स्थानको छोड़कर ऊँचे चढ़ जाय तो न वह विश्वासके योग्य रह जाता है और न कभी उसका सत्कार ही होता है। कुत्तेको उसकी जगहसे उठाकर ऊँचे कदापि न बिठावे; क्योंकि वह दूसरे किसी ऊँचे स्थानपर चढ़कर प्रमाद करने लगता है (इसी प्रकार किसी हीन कुलके मनुष्यको उसकी योग्यता और मर्यादासे ऊँचा स्थान मिल जाय तो वह अहंकारवश उच्छृंखल हो जाता है)॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वजातिगुणसम्पन्नाः स्वेषु कर्मसु संस्थिताः।
प्रकर्तव्या ह्यमात्यास्तु नास्थाने प्रक्रिया क्षमा ॥ ३ ॥
मूलम्
स्वजातिगुणसम्पन्नाः स्वेषु कर्मसु संस्थिताः।
प्रकर्तव्या ह्यमात्यास्तु नास्थाने प्रक्रिया क्षमा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपनी जातिके गुणसे सम्पन्न हो अपने वर्णोचित कर्मोंमें ही लगे रहते हों, उन्हें मन्त्री बनाना चाहिये; किंतु किसीको भी उसकी योग्यतासे बाहरके कार्यमें नियुक्त करना उचित नहीं है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुरूपाणि कर्माणि भृत्येभ्यो यः प्रयच्छति।
स भृत्यगुणसम्पन्नो राजा फलमुपाश्नुते ॥ ४ ॥
मूलम्
अनुरूपाणि कर्माणि भृत्येभ्यो यः प्रयच्छति।
स भृत्यगुणसम्पन्नो राजा फलमुपाश्नुते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा अपने सेवकोंको उनकी योग्यताके अनुरूप कार्य सौंपता है, वह भृत्यके गुणोंसे सम्पन्न हो उत्तम फलका भागी होता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरभः शरभस्थाने सिंहः सिंह इवोर्जितः।
व्याघ्रो व्याघ्र इव स्थाप्यो द्वीपी द्वीपी यथा तथा॥५॥
मूलम्
शरभः शरभस्थाने सिंहः सिंह इवोर्जितः।
व्याघ्रो व्याघ्र इव स्थाप्यो द्वीपी द्वीपी यथा तथा॥५॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरभको शरभकी जगह, बलवान् सिंहको सिंहके स्थानमें, बाघको बाघकी जगह तथा चीतेको चीतेके स्थानपर नियुक्त करना चाहिये (तात्पर्य यह कि चारों वर्णोंके लोगोंको उनकी मर्यादाके अनुसार कार्य देना उचित है)॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मस्विहानुरूपेषु न्यस्या भृत्या यथाविधि।
प्रतिलोमं न भृत्यास्ते स्थाप्याः कर्मफलैषिणा ॥ ६ ॥
मूलम्
कर्मस्विहानुरूपेषु न्यस्या भृत्या यथाविधि।
प्रतिलोमं न भृत्यास्ते स्थाप्याः कर्मफलैषिणा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब सेवकोंको उनके योग्य कार्यमें ही लगाना चाहिये। कर्मफलकी इच्छा करनेवाले राजाको चाहिये कि वह अपने सेवकोंको ऐसे कार्योंमें न नियुक्त करे, जो उनकी योग्यता और मर्यादाके प्रतिकूल पड़ते हों॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः प्रमाणमतिक्रम्य प्रतिलोमं नराधिपः।
भृत्यान् स्थापयतेऽबुद्धिर्न स रञ्जयते प्रजाः ॥ ७ ॥
मूलम्
यः प्रमाणमतिक्रम्य प्रतिलोमं नराधिपः।
भृत्यान् स्थापयतेऽबुद्धिर्न स रञ्जयते प्रजाः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो बुद्धिहीन नरेश मर्यादाका उल्लंघन करके अपने भृत्योंको प्रतिकूल कार्योंमें लगाता है, वह प्रजाको प्रसन्न नहीं रख सकता॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न बालिशा न च क्षुद्रा नाप्राज्ञा नाजितेन्द्रियाः।
नाकुलीना नराः सर्वे स्थाप्या गुणगणैषिणा ॥ ८ ॥
मूलम्
न बालिशा न च क्षुद्रा नाप्राज्ञा नाजितेन्द्रियाः।
नाकुलीना नराः सर्वे स्थाप्या गुणगणैषिणा ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तम गुणोंकी इच्छा रखनेवाले नरेशको चाहिये कि वह उन सभी मनुष्योंको काममें न लगावे, जो मूर्ख, नीच, बुद्धिहीन, अजितेन्द्रिय और निन्दित कुलमें उत्पन्न हुए हों॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधवः कुलजाः शूरा ज्ञानवन्तोऽनसूयकाः।
अक्षद्राः शुचयो दक्षाःस्युर्नराः पारिपार्श्वकाः ॥ ९ ॥
मूलम्
साधवः कुलजाः शूरा ज्ञानवन्तोऽनसूयकाः।
अक्षद्राः शुचयो दक्षाःस्युर्नराः पारिपार्श्वकाः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधु, कुलीन, शूरवीर, ज्ञानवान्, अदोषदर्शी, अच्छे स्वभाववाले, पवित्र और कार्यदक्ष मनुष्योंको ही राजा अपना पार्श्ववर्ती सेवक बनावे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न्यग्भूतास्तत्पराः शान्ताश्चौक्षाः प्रकृतिजैः शुभाः।
स्वस्थानानपक्रुष्टा ये ते स्यू राज्ञां बहिश्चराः ॥ १० ॥
मूलम्
न्यग्भूतास्तत्पराः शान्ताश्चौक्षाः प्रकृतिजैः शुभाः।
स्वस्थानानपक्रुष्टा ये ते स्यू राज्ञां बहिश्चराः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो विनीत, कार्यपरायण, शान्तस्वभाव, चतुर, स्वाभाविक शुभ गुणोंसे सम्पन्न तथा अपने-अपने पदपर निन्दासे रहित हों, वे ही राजाओंके बाह्य सेवक होने योग्य हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिंहस्य सततं पार्श्वे सिंह एवानुगो भवेत्।
असिंहः सिंहसहितः सिंहवल्लभते फलम् ॥ ११ ॥
मूलम्
सिंहस्य सततं पार्श्वे सिंह एवानुगो भवेत्।
असिंहः सिंहसहितः सिंहवल्लभते फलम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सिंहके पास सदा सिंह ही सेवक रहे। यदि सिंहके साथ सिंहसे भिन्न प्राणी रहने लगता है तो वह सिंहके तुल्य ही फल भोगने लगता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु सिंहः श्वभिः कीर्णः सिंहकर्मफले रतः।
न स सिंहफलं भोक्तुं शक्तः श्वभिरुपासितः ॥ १२ ॥
मूलम्
यस्तु सिंहः श्वभिः कीर्णः सिंहकर्मफले रतः।
न स सिंहफलं भोक्तुं शक्तः श्वभिरुपासितः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु जो सिंह कुत्तोंसे घिरा रहकर सिंहोचित कर्म एवं फलमें अनुरक्त रहता है, वह कुत्तोंसे उपासित होनेके कारण सिंहोचित कर्मफलका उपभोग नहीं कर सकता॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतन्मनुष्येन्द्र शूरैः प्राज्ञैर्बहुश्रुतैः ।
कुलीनैः सह शक्येत कृत्स्ना जेतुं वसुन्धरा ॥ १३ ॥
मूलम्
एवमेतन्मनुष्येन्द्र शूरैः प्राज्ञैर्बहुश्रुतैः ।
कुलीनैः सह शक्येत कृत्स्ना जेतुं वसुन्धरा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेन्द्र! इसी प्रकार शूरवीर, विद्वान्, बहुश्रुत और कुलीन पुरुषोंके साथ रहकर ही सारी पृथ्वीपर विजय पायी जा सकती है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाविद्यो नानृजुः पार्श्वे नाप्राज्ञो नामहाधनः।
संग्राह्यो वसुधापालैर्भृत्यो भृत्यवतां वर ॥ १४ ॥
मूलम्
नाविद्यो नानृजुः पार्श्वे नाप्राज्ञो नामहाधनः।
संग्राह्यो वसुधापालैर्भृत्यो भृत्यवतां वर ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भृत्यवानोंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर! भूपालोंको चाहिये कि अपने पास ऐसे किसी भृत्यका संग्रह न करें, जो विद्याहीन, सरलतासे रहित, मूर्ख और दरिद्र हो॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाणवद्विसृता यान्ति स्वामिकार्यपरा नराः।
ये भृत्याः पार्थिवहितास्तेषां सान्त्वं प्रयोजयेत् ॥ १५ ॥
मूलम्
बाणवद्विसृता यान्ति स्वामिकार्यपरा नराः।
ये भृत्याः पार्थिवहितास्तेषां सान्त्वं प्रयोजयेत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य स्वामीके कार्यमें तत्पर रहनेवाले हैं, वे धनुषसे छूटे हुए बाणके समान लक्ष्यसिद्धिके लिये आगे बढ़ते हैं। जो सेवक राजाके हित-साधनमें संलग्न रहते हों, राजा मधुर वचन बोलकर उन्हें प्रोत्साहन देता रहे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोशश्च सततं रक्ष्यो यत्नमास्थाय राजभिः।
कोशमूला हि राजानः कोशो वृद्धिकरो भवेत् ॥ १६ ॥
मूलम्
कोशश्च सततं रक्ष्यो यत्नमास्थाय राजभिः।
कोशमूला हि राजानः कोशो वृद्धिकरो भवेत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाओंको पूरा प्रयत्न करके निरन्तर अपने कोषकी रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि कोष ही उनकी जड़ है, कोष ही उन्हें आगे बढ़ानेवाला होता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोष्ठागारं च ते नित्यं स्फीतैर्धान्यैःसुसंवृतम्।
सदास्तु सत्सु संन्यस्तं धनधान्यपरो भव ॥ १७ ॥
मूलम्
कोष्ठागारं च ते नित्यं स्फीतैर्धान्यैःसुसंवृतम्।
सदास्तु सत्सु संन्यस्तं धनधान्यपरो भव ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! तुम्हारा अन्न-भण्डार सदा पुष्टिकारक अनाजोंसे भरा रहना चाहिये और उसकी रक्षाका भार श्रेष्ठ पुरुषोंको सौंप देना चाहिये। तुम सदा धन-धान्यकी वृद्धि करनेवाले बनो॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्ययुक्ताश्च ते भृत्या भवन्तु रणकोविदाः।
वाजिनां च प्रयोगेषु वैशारद्यमिहेष्यते ॥ १८ ॥
मूलम्
नित्ययुक्ताश्च ते भृत्या भवन्तु रणकोविदाः।
वाजिनां च प्रयोगेषु वैशारद्यमिहेष्यते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे सभी सेवक सदा उद्योगशील तथा युद्धकी कलामें कुशल हों। घोड़ोंकी सवारी करने अथवा उन्हें हाँकनेमें भी उनको विशेष चतुर होना चाहिये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञातिबन्धुजनावेक्षी मित्रसम्बन्धिसंवृतः ।
पौरकार्यहितान्वेषी भव कौरवनन्दन ॥ १९ ॥
मूलम्
ज्ञातिबन्धुजनावेक्षी मित्रसम्बन्धिसंवृतः ।
पौरकार्यहितान्वेषी भव कौरवनन्दन ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवनन्दन! तुम जातिभाइयोंपर ख्याल रखो, मित्रों और सम्बन्धियोंसे घिरे रहो तथा पुरवासियोंके कार्य और हितकी सिद्धिका उपाय ढूँढ़ा करो॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषा ते नैष्ठिकी बुद्धिः प्रजास्वभिहिता मया।
शुनो निदर्शनं तात किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ २० ॥
मूलम्
एषा ते नैष्ठिकी बुद्धिः प्रजास्वभिहिता मया।
शुनो निदर्शनं तात किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! यह मैंने तुम्हारे निकट प्रजापालन-विषयक स्थिर बुद्धिका प्रतिपादन किया है और कुत्तेका दृष्टान्त सामने रखा है, अब और क्या सुनना चाहते हो?॥२०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि श्वर्षिसंवादे एकोनविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें कुत्ता और ऋषिका संवादविषयक एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११९॥