भागसूचना
षोडशाधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सज्जनोंके चरित्रके विषयमें दृष्टान्तरूपसे एक महर्षि और कुत्तेकी कथा
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
(न सन्ति कुलजा यत्र सहायाः पार्थिवस्य तु।
अकुलीनाश्च कर्तव्या न वा भरतसत्तम॥)
मूलम्
(न सन्ति कुलजा यत्र सहायाः पार्थिवस्य तु।
अकुलीनाश्च कर्तव्या न वा भरतसत्तम॥)
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतश्रेष्ठ! जहाँ राजाके पास अच्छे कुलमें उत्पन्न सहायक नहीं हैं, वहाँ वह नीच कुलके मनुष्योंको सहायक बना सकता है या नहीं?॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
निदर्शनं परं लोके सज्जानाचरिते सदा ॥ १ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
निदर्शनं परं लोके सज्जानाचरिते सदा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें जानकार लोग एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जो लोकमें सत्पुरुषोंके आचरणके सम्बन्धमें सदा उत्तम आदर्श माना जाता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्यैवार्थस्य सदृशं यच्छ्रुतं मे तपोवने।
जामदग्न्यस्य रामस्य यदुक्तमृषिसत्तमैः ॥ २ ॥
मूलम्
अस्यैवार्थस्य सदृशं यच्छ्रुतं मे तपोवने।
जामदग्न्यस्य रामस्य यदुक्तमृषिसत्तमैः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने तपोवनमें इस विषयके अनुरूप बातें सुनी हैं, जिन्हें श्रेष्ठ महर्षियोंने जमदग्निनन्दन परशुरामजीसे कहा था॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वने महति कस्मिंश्चिदमनुष्यनिषेविते ।
ऋषिर्मूलफलाहारो नियतो नियतेन्द्रियः ॥ ३ ॥
मूलम्
वने महति कस्मिंश्चिदमनुष्यनिषेविते ।
ऋषिर्मूलफलाहारो नियतो नियतेन्द्रियः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी महान् निर्जन वनमें फल-मूलका आहार करके रहनेवाले एक नियमपरायण जितेन्द्रिय महर्षि रहते थे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीक्षादमपरः शान्तः स्वाध्यायपरमः शुचिः।
उपवासविशुद्धात्मा सततं सत्त्वमास्थितः ॥ ४ ॥
मूलम्
दीक्षादमपरः शान्तः स्वाध्यायपरमः शुचिः।
उपवासविशुद्धात्मा सततं सत्त्वमास्थितः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे उत्तम व्रतकी दीक्षा लेकर इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह करते हुए प्रतिदिन पवित्रभावसे वेद-शास्त्रोंके स्वाध्यायमें लगे रहते थे। उपवाससे उनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया था। वे सदा सत्त्वगुणमें स्थित थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य संदृश्य सद्भावमुपविष्टस्य धीमतः।
सर्वे सत्त्वाः समीपस्था भवन्ति वनचारिणः ॥ ५ ॥
मूलम्
तस्य संदृश्य सद्भावमुपविष्टस्य धीमतः।
सर्वे सत्त्वाः समीपस्था भवन्ति वनचारिणः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक जगह बैठे हुए उन बुद्धिमान् महर्षिके सद्भावको देखकर सभी वनचारी जीव-जन्तु उनके निकट आया करते थे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिंहव्याघ्रगणाः क्रूरा मत्ताश्चैव महागजाः।
द्वीपिनः खड्गभल्लूका ये चान्ये भीमदर्शनाः ॥ ६ ॥
मूलम्
सिंहव्याघ्रगणाः क्रूरा मत्ताश्चैव महागजाः।
द्वीपिनः खड्गभल्लूका ये चान्ये भीमदर्शनाः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रूर स्वभाववाले सिंह और व्याघ्र, बड़े-बड़े मतवाले हाथी, चीते, गैंड़े, भालू तथा और भी जो भयानक दिखायी देनेवाले जानवर थे, वे सब उनके पास आते थे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते सुखप्रश्नदाः सर्वे भवन्ति क्षतजाशनाः।
तस्यर्षेः शिष्यवच्चैव न्यग्भूताः प्रियकारिणः ॥ ७ ॥
मूलम्
ते सुखप्रश्नदाः सर्वे भवन्ति क्षतजाशनाः।
तस्यर्षेः शिष्यवच्चैव न्यग्भूताः प्रियकारिणः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि वे सारे-के-सारे मांसाहारी हिंसक जानवर थे, तो भी उस ऋषिके शिष्यकी भाँति नीचे सिर किये उनके पास बैठते थे, उनके सुख और स्वास्थ्यकी बात पूछते थे और सदा उनका प्रिय करते थे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्त्वा च ते सुखप्रश्नं सर्वे यान्ति यथागतम्।
ग्राम्यस्त्वेकः पशूस्तत्रनाजहात् स महामुनिम् ॥ ८ ॥
मूलम्
दत्त्वा च ते सुखप्रश्नं सर्वे यान्ति यथागतम्।
ग्राम्यस्त्वेकः पशूस्तत्रनाजहात् स महामुनिम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब जानवर ऋषिसे उनका कुशल-समाचार पूछकर जैसे आते, वैसे लौट जाते थे; परंतु एक ग्रामीण कुत्ता वहाँ उन महामुनिको छोड़कर कहीं नहीं जाता था॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्तोऽनुरक्तः सततमुपवासकृशोऽबलः ।
फलमूलोदकाहारः शान्तः शिष्टाकृतिर्यथा ॥ ९ ॥
मूलम्
भक्तोऽनुरक्तः सततमुपवासकृशोऽबलः ।
फलमूलोदकाहारः शान्तः शिष्टाकृतिर्यथा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह उन महामुनिका भक्त और उनमें अनुरक्त था; उपवास करनेके कारण दुर्बल एवं निर्बल हो गया था। वह भी फल-मूल और जलका आहार करके रहता, मनको वशमें रखता और साधु-पुरुषोंके समान जीवन बिताता था॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यर्षेरुपविष्टस्य पादमूले महामते ।
मनुष्यवद्गतो भावो स्नेहबद्धोऽभवद् भृशम् ॥ १० ॥
मूलम्
तस्यर्षेरुपविष्टस्य पादमूले महामते ।
मनुष्यवद्गतो भावो स्नेहबद्धोऽभवद् भृशम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामते! उन महर्षिके चरणप्रान्तमें बैठे हुए उस कुत्तेके मनमें मनुष्यके समान भाव (स्नेह) हो गया। वह उनके प्रति अत्यन्त स्नेहसे बँध गया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽभ्ययान्महावीर्यो द्वीपी क्षतजभोजनः ।
स्वार्थमत्यन्तसंतुष्टः क्रूरकाल इवान्तकः ॥ ११ ॥
मूलम्
ततोऽभ्ययान्महावीर्यो द्वीपी क्षतजभोजनः ।
स्वार्थमत्यन्तसंतुष्टः क्रूरकाल इवान्तकः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर एक दिन कोई महाबली रक्तभोजी चीता अत्यन्त प्रसन्न होकर उस कुत्तेको पकड़नेके लिये क्रूर काल एवं यमराजके समान उधर आ निकला॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लेलिह्यमानस्तृषितः पुच्छास्फोटनतत्परः ।
व्यादितास्यः क्षुधाभुग्नः प्रार्थयानस्तदामिषम् ॥ १२ ॥
मूलम्
लेलिह्यमानस्तृषितः पुच्छास्फोटनतत्परः ।
व्यादितास्यः क्षुधाभुग्नः प्रार्थयानस्तदामिषम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह बारंबार अपने दोनों जबड़े चाटता और पूँछ फटकारता था, उसे प्यास सता रही थी। उसने मुँह फैला रखा था। भूखसे उसकी व्याकुलता बढ़ गयी थी और वह उस कुत्तेका मांस प्राप्त करना चाहता था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा तं क्रूरमायान्तं जीवितार्थी नराधिप।
प्रोवाच इवा मुनिं तत्र तच्छृणुष्व विशाम्पते ॥ १३ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा तं क्रूरमायान्तं जीवितार्थी नराधिप।
प्रोवाच इवा मुनिं तत्र तच्छृणुष्व विशाम्पते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! नरेश्वर! उस क्रूर चीतेको आते देख अपनी प्राणरक्षा चाहते हुए वहाँ कुत्तेने मुनिसे जो कुछ कहा, वह सुनो—॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वशत्रुर्भगवन्नेष द्वीपी मां हन्तुमिच्छति।
त्वत्प्रसादाद् भयं न स्यादस्मान्मम महामुने ॥ १४ ॥
तथा कुरु महाबाहो सर्वज्ञस्त्वं न संशयः।
मूलम्
श्वशत्रुर्भगवन्नेष द्वीपी मां हन्तुमिच्छति।
त्वत्प्रसादाद् भयं न स्यादस्मान्मम महामुने ॥ १४ ॥
तथा कुरु महाबाहो सर्वज्ञस्त्वं न संशयः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! यह चीता कुत्तोंका शत्रु है और मुझे मार डालना चाहता है। महामुने! महाबाहो! आप ऐसा करें, जिससे आपकी कृपासे मुझे इस चीतेसे भय न हो। आप सर्वज्ञ हैं, इसमें संशय नहीं है। (अतः मेरी प्रार्थना सुनकर उसको अवश्य पूर्ण करें)’॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मुनिस्तस्य विज्ञाय भावज्ञो भयकारणम्।
रुतज्ञः सर्वसत्त्वानां तमैश्वर्यसमन्वितः ॥ १५ ॥
मूलम्
स मुनिस्तस्य विज्ञाय भावज्ञो भयकारणम्।
रुतज्ञः सर्वसत्त्वानां तमैश्वर्यसमन्वितः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सिद्धिके ऐश्वर्यसे सम्पन्न मुनि सबके मनोभावको जाननेवाले और समस्त प्राणियोंकी बोली समझनेवाले थे। उन्होंने उस कुत्तेके भयका कारण जानकर उससे कहा॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
मुनिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न भयं द्वीपिनः कार्यं मृत्युतस्ते कथंचन।
एष श्वरूपरहितो द्वीपी भवसि पुत्रक ॥ १६ ॥
मूलम्
न भयं द्वीपिनः कार्यं मृत्युतस्ते कथंचन।
एष श्वरूपरहितो द्वीपी भवसि पुत्रक ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिने कहा— बेटा! अपने लिये मृत्युस्वरूप इस चीतेसे तुम्हें किसी प्रकार भय नहीं करना चाहिये। यह लो, तुम अभी कुत्तेके रूपसे रहित चीता हुए जाते हो॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः श्वा द्वीपितां नीतो जाम्बूनदनिभाकृतिः।
चित्राङ्गो विस्फुरद्दंष्ट्रो वने वसति निर्भयः ॥ १७ ॥
मूलम्
ततः श्वा द्वीपितां नीतो जाम्बूनदनिभाकृतिः।
चित्राङ्गो विस्फुरद्दंष्ट्रो वने वसति निर्भयः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर मुनिने कुत्तेको चीता बना दिया। उसकी आकृति सुवर्णके समान चमकने लगी। उसका सारा शरीर चितकबरा हो गया और बड़ी-बड़ी दाढ़ें चमक उठीं। अब वह निर्भय होकर वनमें रहने लगा॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दृष्ट्वा सम्मुखे द्वीपी आत्मनः सदृशं पशुम्।
अविरुद्धस्ततस्तस्य क्षणेन समपद्यत ॥ १८ ॥
मूलम्
तं दृष्ट्वा सम्मुखे द्वीपी आत्मनः सदृशं पशुम्।
अविरुद्धस्ततस्तस्य क्षणेन समपद्यत ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चीतेने अपने सामने जब अपने ही समान एक पशुको देखा, तब उसका विरोधी भाव क्षणभरमें दूर हो गया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽभ्ययान्महारौद्रो व्यादितास्यः क्षुधान्वितः ।
द्वीपिनं लेलिहद्वक्रो व्याघ्रो रुधिरलालसः ॥ १९ ॥
मूलम्
ततोऽभ्ययान्महारौद्रो व्यादितास्यः क्षुधान्वितः ।
द्वीपिनं लेलिहद्वक्रो व्याघ्रो रुधिरलालसः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर एक दिन एक महाभयंकर भूखे बाघने उसका रक्त पीनेकी इच्छासे मुँह फैलाकर दोनों जबड़ोंको चाटते हुए उस चीतेका पीछा किया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्याघ्रं दृष्ट्वा क्षुधाभुग्नं दंष्ट्रिणं वनगोचरम्।
द्वीपी जीवितरक्षार्थमृषिं शरणमेयिवान् ॥ २० ॥
मूलम्
व्याघ्रं दृष्ट्वा क्षुधाभुग्नं दंष्ट्रिणं वनगोचरम्।
द्वीपी जीवितरक्षार्थमृषिं शरणमेयिवान् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बड़ी-बड़ी दाढ़ोंसे युक्त वनचारी बाघको भूखसे कुटिल भाव धारण किये देख वह चीता अपने जीवनकी रक्षाके लिये पुनः ऋषिकी शरणमें आया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संवासजं परं स्नेहमृषिणा कुर्वता तदा।
स द्वीपी व्याघ्रतां नीतो रिपूणां बलवत्तरः ॥ २१ ॥
मूलम्
संवासजं परं स्नेहमृषिणा कुर्वता तदा।
स द्वीपी व्याघ्रतां नीतो रिपूणां बलवत्तरः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सहवासजनित उत्तम स्नेहका निर्वाह करते हुए महर्षिने चीतेको बाघ बना दिया। अब वह अपने शत्रुओंके लिये अत्यन्त प्रबल हो उठा॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दृष्ट्वा स शार्दूलो नाहनत् तं विशाम्पते।
स तु श्वा व्याघ्रतां प्राप्य बलवान् पिशिताशनः ॥ २२ ॥
मूलम्
ततो दृष्ट्वा स शार्दूलो नाहनत् तं विशाम्पते।
स तु श्वा व्याघ्रतां प्राप्य बलवान् पिशिताशनः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! तदनन्तर वह बाघ उसे अपने समान रूपमें देखकर मार न सका। उधर वह कुत्ता बलवान् बाघ होकर मांसका आहार करने लगा॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मूलफलभोगेषु स्पृहामप्यकरोत् तदा।
यथा मृगपतिर्नित्यं प्रकाङ्क्षति वनौकसः।
तथैव स महाराज व्याघ्रः समभवत् तदा ॥ २३ ॥
मूलम्
न मूलफलभोगेषु स्पृहामप्यकरोत् तदा।
यथा मृगपतिर्नित्यं प्रकाङ्क्षति वनौकसः।
तथैव स महाराज व्याघ्रः समभवत् तदा ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! अब तो उसे फल-मूल खानेकी कभी इच्छा ही नहीं होती थी। जैसे वनराज सिंह प्रतिदिन जन्तुओंका मांस खाना चाहता है, उसी प्रकार वह बाघ भी उस समय मांसभोजी हो गया॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि श्वर्षिसंवादे षोडशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें कुत्ता और ऋषिका संवादविषयक एक सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११६॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २४ श्लोक हैं)