भागसूचना
चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुष्ट मनुष्यद्वारा की हुई निन्दाको सह लेनेसे लाभ
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्वान् मूर्खप्रगल्भेन मृदुतीक्ष्णेन भारत।
आक्रुश्यमानः सदसि कथं कुर्यादरिंदम ॥ १ ॥
मूलम्
विद्वान् मूर्खप्रगल्भेन मृदुतीक्ष्णेन भारत।
आक्रुश्यमानः सदसि कथं कुर्यादरिंदम ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— शत्रुदमन भारत! यदि कोई ढीठ मूर्ख मधुर या तीखे शब्दोंमें भरी सभाके बीच किसी विद्वान् पुरुषकी निन्दा करने लगे, तो वह उसके साथ कैसा बर्ताव करे?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयतां पृथिवीपाल यथैषोऽर्थोऽनुगीयते ।
सदा सुचेताः सहते नरस्येहाल्पमेधसः ॥ २ ॥
मूलम्
श्रूयतां पृथिवीपाल यथैषोऽर्थोऽनुगीयते ।
सदा सुचेताः सहते नरस्येहाल्पमेधसः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— भूपाल! सुनो, इस विषयमें सदासे जैसी बात कही जाती है, उसे बता रहा हूँ। विशुद्ध चित्तवाला पुरुष इस जगत्में सदा ही मूर्ख मनुष्यके कठोर वचनोंको सहन करता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरुष्यन् क्रुश्यमानस्य सुकृतं नाम विन्दति।
दुष्कृतं चात्मनो मर्षी रुष्यत्येवापमार्ष्टि वै ॥ ३ ॥
मूलम्
अरुष्यन् क्रुश्यमानस्य सुकृतं नाम विन्दति।
दुष्कृतं चात्मनो मर्षी रुष्यत्येवापमार्ष्टि वै ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो निन्दा करनेवाले पुरुषके ऊपर क्रोध नहीं करता, वह उसके पुण्यको प्राप्त कर लेता है। वह सहनशील मनुष्य अपना सारा पाप उस क्रोधी पुरुषपर ही धो डालता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
टिट्टिभं तमुपेक्षेत वाशमानमिवातुरम् ।
लोकविद्वेषमापन्नो निष्फलं प्रतिपद्यते ॥ ४ ॥
मूलम्
टिट्टिभं तमुपेक्षेत वाशमानमिवातुरम् ।
लोकविद्वेषमापन्नो निष्फलं प्रतिपद्यते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अच्छे पुरुषको चाहिये कि वह टिटिहरी या रोगीकी तरह टाँय-टाँय करते हुए उस निन्दाकारी पुरुषकी उपेक्षा कर दे। इससे वह सब लोगोंके द्वेषका पात्र बन जायगा और उसके सारे सत्कर्म निष्फल हो जायँगे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति संश्लाघते नित्यं तेन पापेन कर्मणा।
इदमुक्तो मया कश्चित् सम्मतो जनसंसदि ॥ ५ ॥
स तत्र व्रीडितः शुष्को मृतकल्पोऽवतिष्ठते।
श्लाघन्नश्लाघनीयेन कर्मणा निरपत्रपः ॥ ६ ॥
मूलम्
इति संश्लाघते नित्यं तेन पापेन कर्मणा।
इदमुक्तो मया कश्चित् सम्मतो जनसंसदि ॥ ५ ॥
स तत्र व्रीडितः शुष्को मृतकल्पोऽवतिष्ठते।
श्लाघन्नश्लाघनीयेन कर्मणा निरपत्रपः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह मूर्ख तो उस पापकर्मके द्वारा सदा अपनी प्रशंसा करते हुए कहता है कि मैंने अमुक सम्मानित पुरुषको भरी सभामें ऐसी-ऐसी बातें सुनायीं कि वह लाजसे गड़ गया, उसका मुख सूख गया और वह अधमरा-सा हो गया, इस प्रकार निन्दनीय कर्म करके वह अपनी प्रशंसा करता है और तनिक भी लजाता नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपेक्षितव्यो यत्नेन तादृशः पुरुषाधमः।
यद् यद् ब्रूयादल्पमतिस्तत्तदस्य सहेद्बुधः ॥ ७ ॥
मूलम्
उपेक्षितव्यो यत्नेन तादृशः पुरुषाधमः।
यद् यद् ब्रूयादल्पमतिस्तत्तदस्य सहेद्बुधः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे नराधमकी यत्नपूर्वक उपेक्षा कर देनी चाहिये। मूर्ख मनुष्य जो कुछ भी कह दे, विद्वान् पुरुषको वह सब सह लेना चाहिये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राकृतो हि प्रशंसन् वा निन्दन् वा किं करिष्यति।
वने काक इवाबुद्धिर्वाशमानो निरर्थकम् ॥ ८ ॥
मूलम्
प्राकृतो हि प्रशंसन् वा निन्दन् वा किं करिष्यति।
वने काक इवाबुद्धिर्वाशमानो निरर्थकम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वनमें कौआ व्यर्थ ही काँव-काँव किया करता है, उसी तरह मूर्ख मनुष्य भी अकारण ही निन्दा करता है। वह प्रशंसा करे या निन्दा, किसीका क्या भला या बुरा करेगा? अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकेगा॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि वाग्भिः प्रयोगः स्यात् प्रयोगे पापकर्मणः।
वागेवार्थो भवेत् तस्य न ह्येवार्थो जिघांसतः ॥ ९ ॥
मूलम्
यदि वाग्भिः प्रयोगः स्यात् प्रयोगे पापकर्मणः।
वागेवार्थो भवेत् तस्य न ह्येवार्थो जिघांसतः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि पापाचारी पुरुषके कटुवचन बोलनेपर बदलेमें वैसे ही वचनोंका प्रयोग किया जाय तो उससे केवल वाणीद्वारा कलहमात्र होगा। जो हिंसा करना चाहता है, उसका गाली देनेसे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निषेकं विपरीतं स आचष्टे वृत्तचेष्टया।
मयूर इव कौपीनं नृत्यं संदर्शयन्निव ॥ १० ॥
मूलम्
निषेकं विपरीतं स आचष्टे वृत्तचेष्टया।
मयूर इव कौपीनं नृत्यं संदर्शयन्निव ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मयूर जब नाच दिखाता है, उस समय वह अपने गुप्त अंगोंको भी उघाड़ देता है। इसी प्रकार जो मूर्ख अनुचित आचरण करता है वह उस कुचेष्टाद्वारा अपने छिपे हुए दोषोंको प्रकट करता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्यावाच्यं न लोकेऽस्ति नाकार्यं चापि किंचन।
वाचं तेन न संदध्याच्छुचिः संश्लिष्टकर्मणा ॥ ११ ॥
मूलम्
यस्यावाच्यं न लोकेऽस्ति नाकार्यं चापि किंचन।
वाचं तेन न संदध्याच्छुचिः संश्लिष्टकर्मणा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें जिसके लिये कुछ भी कह देना या कर डालना असम्भव नहीं है, ऐसे मनुष्यसे उस भले मनुष्यको बात भी नहीं करनी चाहिये जो अपने सत्कर्मके द्वारा विशुद्ध समझा जाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षं गुणवादी यः परोक्षे चापि निन्दकः।
स मानवः श्ववल्लोके नष्टलोकपरावरः ॥ १२ ॥
मूलम्
प्रत्यक्षं गुणवादी यः परोक्षे चापि निन्दकः।
स मानवः श्ववल्लोके नष्टलोकपरावरः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सामने आकर गुण गाता है और परोक्षमें निन्दा करता है, वह मनुष्य संसारमें कुत्तेके सामन है। उसके लोक और परलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तादृग्जनशतस्यापि यद् ददाति जुहोति च।
परोक्षेणापवादी यस्तं नाशयति तत्क्षणात् ॥ १३ ॥
मूलम्
तादृग्जनशतस्यापि यद् ददाति जुहोति च।
परोक्षेणापवादी यस्तं नाशयति तत्क्षणात् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परोक्षमें परनिन्दा करनेवाला मनुष्य सैकड़ों मनुष्योंको जो कुछ दान देता है और होम करता है, उन सब अपने कर्मोंको तत्काल नष्ट कर देता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् प्राज्ञो नरः सद्यस्तादृशं पापचेतसम्।
वर्जयेत् साधुभिर्वर्ज्यं सारमेयामिषं यथा ॥ १४ ॥
मूलम्
तस्मात् प्राज्ञो नरः सद्यस्तादृशं पापचेतसम्।
वर्जयेत् साधुभिर्वर्ज्यं सारमेयामिषं यथा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह वैसे पापपूर्ण विचारवाले पुरुषको तत्काल त्याग दे। वह कुत्तेके मांसके समान साधु पुरुषोंके लिये सदा ही त्याज्य है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिवादं ब्रुवाणो हि दुरात्मा वै महाजने।
प्रकाशयति दोषांस्तु सर्पः फणमिवोच्छ्रितम् ॥ १५ ॥
मूलम्
परिवादं ब्रुवाणो हि दुरात्मा वै महाजने।
प्रकाशयति दोषांस्तु सर्पः फणमिवोच्छ्रितम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे साँप अपने फनको ऊँचा उठाकर प्रकाशित करता है, उसी प्रकार जनसमुदायमें किसी महापुरुषकी निन्दा करनेवाला दुरात्मा अपने ही दोषोंको प्रकट करता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं स्वकर्माणि कुर्वाणं प्रतिकर्तुं य इच्छति।
भस्मकूट इवाबुद्धिः खरो रजसि सज्जति ॥ १६ ॥
मूलम्
तं स्वकर्माणि कुर्वाणं प्रतिकर्तुं य इच्छति।
भस्मकूट इवाबुद्धिः खरो रजसि सज्जति ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो परनिन्दारूप अपना कार्य करनेवाले दुष्ट पुरुषसे बदला लेना चाहता है, वह राखमें लोटनेवाले मूर्ख गदहेके सामन केवल दुःखमें निमग्न होता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनुष्यशालावृकमप्रशान्तं
जनापवादे सततं निविष्टम् ।
मातङ्गमुन्मत्तमिवोन्नदन्तं
त्यजेत तं श्वानमिवातिरौद्रम् ॥ १७ ॥
मूलम्
मनुष्यशालावृकमप्रशान्तं
जनापवादे सततं निविष्टम् ।
मातङ्गमुन्मत्तमिवोन्नदन्तं
त्यजेत तं श्वानमिवातिरौद्रम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सदा लोगोंकी निन्दामें ही तत्पर रहता है, वह मनुष्यके शरीररूप घरमें रहनेवाला भेड़िया है। वह सदा अशान्त बना रहता है। मतवाले हाथीके समान चीत्कार करता है और अत्यन्त भंयकर कुत्तेके समान काटनेको दौड़ता है। श्रेष्ठ पुरुषको चाहिये कि उसे सदाके लिये त्याग दे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधीरजुष्टे पथि वर्तमानं
दमादपेतं विनयाच्च पापम् ।
अरिव्रतं नित्यमभूतिकामं
धिगस्तु तं पापमतिं मनुष्यम् ॥ १८ ॥
मूलम्
अधीरजुष्टे पथि वर्तमानं
दमादपेतं विनयाच्च पापम् ।
अरिव्रतं नित्यमभूतिकामं
धिगस्तु तं पापमतिं मनुष्यम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह मूर्खोंद्वारा सेवित पथपर चलनेवाला है। इन्द्रिय-संयम और विनयसे कोसों दूर है। उसने शत्रुताका व्रत ले रखा है। वह सदा सबकी अवनति चाहता है। उस पापात्मा एवं पापबुद्धि मनुष्यको धिक्कार है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्युच्यमानस्त्वभिभूय एभि-
र्निशाम्य मा भूस्त्वमथार्तरूपः ।
उच्चस्य नीचेन हि सम्प्रयोगं
विगर्हयन्ति स्थिरबुद्धयो ये ॥ १९ ॥
मूलम्
प्रत्युच्यमानस्त्वभिभूय एभि-
र्निशाम्य मा भूस्त्वमथार्तरूपः ।
उच्चस्य नीचेन हि सम्प्रयोगं
विगर्हयन्ति स्थिरबुद्धयो ये ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि ऐसे दुष्ट मनुष्य किसीपर आक्रमण करके उसकी निन्दा करने लगें और उसे सुनकर भला मनुष्य उसका उत्तर देनेके लिये उद्यत हो तो उसे रोककर कहे कि तुम दुखी न होओ; क्योंकि स्थिर बुद्धिवाले मनुष्य उच्च पुरुषका नीचके साथ होनेवाले संयोगकी अर्थात् बराबरीकी निन्दा करते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रुद्धो दशार्धेन हि ताडयेद् वा
स पांसुभिर्वा विकिरेत् तुषैर्वा।
विवृत्य दन्तांश्च विभीषयेद् वा
सिद्धं हि मूढे कुपिते नृशंसे ॥ २० ॥
मूलम्
क्रुद्धो दशार्धेन हि ताडयेद् वा
स पांसुभिर्वा विकिरेत् तुषैर्वा।
विवृत्य दन्तांश्च विभीषयेद् वा
सिद्धं हि मूढे कुपिते नृशंसे ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि क्रूर स्वभावका मूर्ख मनुष्य कुपित हो जाय तो वह थप्पड़ मार सकता है, मुँहपर धूल अथवा भूसी झोंक सकता है और दाँत निकालकर डरा सकता है। उसके द्वारा सारी कुचेष्टाएँ सम्भव हैं॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विगर्हणां परमदुरात्मना कृतां
सहेत यः संसदि दुर्जनान्नरः।
पठेदिदं चापि निदर्शनं सदा
न वाङ्मयं स लभति किंचिदप्रियम् ॥ २१ ॥
मूलम्
विगर्हणां परमदुरात्मना कृतां
सहेत यः संसदि दुर्जनान्नरः।
पठेदिदं चापि निदर्शनं सदा
न वाङ्मयं स लभति किंचिदप्रियम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो इस दृष्टान्तको सदा पढ़ता या सुनता रहता है और जो मनुष्य सभामें किसी अत्यन्त दुष्टात्माद्वारा की हुई निन्दाको सह लेता है, वह दुर्जन मनुष्यसे कभी वाणीद्वारा होनेवाले निन्दाजनित किंचिन्मात्र दुःखका भी भागी नहीं होता॥२१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि टिट्टिभकं नाम चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें एक सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११४॥