११३ सरित्सागरसंवादे

भागसूचना

त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

शक्तिशाली शत्रुके सामने बेंतकी भाँति नतमस्तक होनेका उपदेश—सरिताओं और समुद्रका संवाद

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा राज्यमनुप्राप्य दुर्लभं भरतर्षभ।
अमित्रस्यातिवृद्धस्य कथं तिष्ठेदसाधनः ॥ १ ॥

मूलम्

राजा राज्यमनुप्राप्य दुर्लभं भरतर्षभ।
अमित्रस्यातिवृद्धस्य कथं तिष्ठेदसाधनः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— भरतश्रेष्ठ! राजा एक दुर्लभ राज्यको पाकर भी सेना और खजाना आदि साधनोंसे रहित हो तो सभी दृष्टियोंसे अत्यन्त बढ़े-चढ़े हुए शत्रुके सामने कैसे टिक सकता है?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
सरितां चैव संवादं सागरस्य च भारत ॥ २ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
सरितां चैव संवादं सागरस्य च भारत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— भारत! इस विषयमें विज्ञ पुरुष सरिताओं तथा समुद्रके संवादरूप एक प्राचीन उपाख्यानका दृष्टान्त दिया करते हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरारिनिलयः शश्वत्सागरः सरिताम्पतिः ।
पप्रच्छ सरितः सर्वाः संशयं जातमात्मनः ॥ ३ ॥

मूलम्

सुरारिनिलयः शश्वत्सागरः सरिताम्पतिः ।
पप्रच्छ सरितः सर्वाः संशयं जातमात्मनः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समयकी बात है, दैत्योंके निवासस्थान और सरिताओंके स्वामी समुद्रने सम्पूर्ण नदियोंसे अपने मनका एक संदेह पूछा॥३॥

मूलम् (वचनम्)

सागर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

समूलशाखान् पश्यामि निहतान् कायिनो द्रुमान्।
युष्माभिरिह पूर्णाभिर्नद्यस्तत्र न वेतसम् ॥ ४ ॥

मूलम्

समूलशाखान् पश्यामि निहतान् कायिनो द्रुमान्।
युष्माभिरिह पूर्णाभिर्नद्यस्तत्र न वेतसम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समुद्रने कहा— नदियो! मैं देखता हूँ कि जब बाढ़ आनेके कारण तुमलोग लबालब भर जाती हो, तब विशालकाय वृक्षोंको जड़-मूल और शाखाओंसहित उखाड़कर अपने प्रवाहमें बहा लाती हो; परंतु उनमें बेंतका कोई पेड़ नहीं दिखायी देता॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकायश्चाल्पसारश्च वेतसः कूलजश्च वः।
अवज्ञया वा नानीतः किं च वा तेन वः कृतम्॥५॥

मूलम्

अकायश्चाल्पसारश्च वेतसः कूलजश्च वः।
अवज्ञया वा नानीतः किं च वा तेन वः कृतम्॥५॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेंतका शरीर तो नहींके बराबर बहुत पतला है। उसमें कुछ दम नहीं होता है और वह तुम्हारे खास किनारेपर जमता है; फिर भी तुम उसे न ला सकी, क्या कारण है? क्या तुम अवहेलनावश उसे कभी नहीं लायीं अथवा उसने तुम्हारा कोई उपकार किया है?॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदहं श्रोतुमिच्छामि सर्वासामेव वो मतम्।
यथा चेमानि कूलानि हित्वा नायाति वेतसः ॥ ६ ॥

मूलम्

तदहं श्रोतुमिच्छामि सर्वासामेव वो मतम्।
यथा चेमानि कूलानि हित्वा नायाति वेतसः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस विषयमें तुम सब लोगोंका विचार मैं सुनना चाहता हूँ, क्या कारण है कि बेंतका वृक्ष तुम्हारे इन तटोंको छोड़कर नहीं आता है?॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र प्राह नदी गंगा वाक्यमुत्तममर्थवत्।
हेतुमद् ग्राहकं चैव सागरं सरिताम्पतिम् ॥ ७ ॥

मूलम्

तत्र प्राह नदी गंगा वाक्यमुत्तममर्थवत्।
हेतुमद् ग्राहकं चैव सागरं सरिताम्पतिम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार प्रश्न होनेपर गंगानदीने सरिताओंके स्वामी समुद्रसे यह उत्तम अर्थपूर्ण, युक्तियुक्त तथा मनको ग्रहण करनेवाली बात कही॥७॥

मूलम् (वचनम्)

गङ्गोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिष्ठन्त्येते यथास्थानं नगा ह्येकनिकेतनाः।
ते त्यजन्ति ततः स्थानं प्रातिलोम्यान्न वेतसः ॥ ८ ॥

मूलम्

तिष्ठन्त्येते यथास्थानं नगा ह्येकनिकेतनाः।
ते त्यजन्ति ततः स्थानं प्रातिलोम्यान्न वेतसः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गंगा बोली— नदीश्वर! ये वृक्ष अपने-अपने स्थानपर अकड़कर खड़े रहते हैं, हमारे प्रवाहके सामने मस्तक नहीं झुकाते। इस प्रतिकूल बर्तावके कारण ही उन्हें नष्ट होकर अपना स्थान छोड़ना पड़ता है; परंतु बेंत ऐसा नहीं है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेतसो वेगमायातं दृष्ट्वा नमति नापरे।
सरिद्वेगेऽव्यतिक्रान्ते स्थानमासाद्य तिष्ठति ॥ ९ ॥

मूलम्

वेतसो वेगमायातं दृष्ट्वा नमति नापरे।
सरिद्वेगेऽव्यतिक्रान्ते स्थानमासाद्य तिष्ठति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेंत नदीके वेगको आते देख झुक जाता है, पर दूसरे वृक्ष ऐसा नहीं करते; अतः वह सरिताओंका वेग शान्त होनेपर पुनः अपने स्थानमें ही स्थित हो जाता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालज्ञः समयज्ञश्च सदा वश्यश्च नोद्धतः।
अनुलोमस्तथास्तब्धस्तेन नाभ्येति वेतसः ॥ १० ॥

मूलम्

कालज्ञः समयज्ञश्च सदा वश्यश्च नोद्धतः।
अनुलोमस्तथास्तब्धस्तेन नाभ्येति वेतसः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेंत समयको पहचानता है, उसके अनुसार बर्ताव करना जानता है, सदा हमारे वशमें रहता है, कभी उद्दण्डता नहीं दिखाता और अनुकूल बना रहता है। उसमें कभी अकड़ नहीं आती; इसीलिये उसे स्थान छोड़कर यहाँ नहीं आना पड़ता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मारुतोदकवेगेन ये नमन्त्युन्नमन्ति च।
ओषध्यः पादपा गुल्मा न ते यान्ति पराभवम् ॥ ११ ॥

मूलम्

मारुतोदकवेगेन ये नमन्त्युन्नमन्ति च।
ओषध्यः पादपा गुल्मा न ते यान्ति पराभवम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पौधे, वृक्ष या लता-गुल्म हवा और पानीके वेगसे झुक जाते तथा वेग शान्त होनेपर सिर उठाते हैं, उनका कभी पराभव नहीं होता॥११॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो हि शत्रोर्विवृद्धस्य प्रभोर्बन्धविनाशने।
पूर्वं न सहते वेगं क्षिप्रमेव विनश्यति ॥ १२ ॥

मूलम्

यो हि शत्रोर्विवृद्धस्य प्रभोर्बन्धविनाशने।
पूर्वं न सहते वेगं क्षिप्रमेव विनश्यति ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इसी प्रकार जो राजा बलमें बढ़े-चढ़े तथा बन्धनमें डालने और विनाश करनेमें समर्थ शत्रुके प्रथम वेगको सिर झुकाकर नहीं सह लेता है, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सारासारं बलं वीर्यमात्मनो द्विषतश्च यः।
जानन् विचरति प्राज्ञो न स याति पराभवम् ॥ १३ ॥

मूलम्

सारासारं बलं वीर्यमात्मनो द्विषतश्च यः।
जानन् विचरति प्राज्ञो न स याति पराभवम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो बुद्धिमान् राजा अपने तथा शत्रुके सार-असार, बल तथा पराक्रमको जानकर उसके अनुसार बर्ताव करता है, उसकी कभी पराजय नहीं होती है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेव यदा विद्वान् मन्यतेऽतिबलं रिपुम्।
संश्रयेद् वैतसीं वृत्तिमेतत् प्रज्ञानलक्षणम् ॥ १४ ॥

मूलम्

एवमेव यदा विद्वान् मन्यतेऽतिबलं रिपुम्।
संश्रयेद् वैतसीं वृत्तिमेतत् प्रज्ञानलक्षणम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार विद्वान् राजा जब शत्रुके बलको अपनेसे अधिक समझे, तब बेंतका ही ढंग अपना ले; अर्थात् उसके सामने नतमस्तक हो जाय। यही बुद्धिमानीका लक्षण है॥१४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि सरित्सागरसंवादे त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें सरिताओं और समुद्रका संवादविषयक एक सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हआ॥११३॥