११२ उष्ट्रग्रीवोपाख्याने

भागसूचना

द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

एक तपस्वी ऊँटके आलस्यका कुपरिणाम और राजाका कर्तव्य

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं पार्थिवेन कर्तव्यं किं च कृत्वा सुखी भवेत्।
एतदाचक्ष्व तत्त्वेन सर्वधर्मभृतां वर ॥ १ ॥

मूलम्

किं पार्थिवेन कर्तव्यं किं च कृत्वा सुखी भवेत्।
एतदाचक्ष्व तत्त्वेन सर्वधर्मभृतां वर ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— समस्त धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ पितामह! राजाको क्या करना चाहिये? क्या करनेसे वह सुखी हो सकता है? यह मुझे यथार्थरूपसे बताइये?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्त तेऽहं प्रवक्ष्यामि शृणु कार्यैकनिश्चयम्।
यथा राज्ञेह कर्तव्यं यच्च कृत्वा सुखी भवेत् ॥ २ ॥

मूलम्

हन्त तेऽहं प्रवक्ष्यामि शृणु कार्यैकनिश्चयम्।
यथा राज्ञेह कर्तव्यं यच्च कृत्वा सुखी भवेत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— नरेश्वर! राजाका जो कर्तव्य है और जो कुछ करके वह सुखी हो सकता है, उस कार्यका निश्चय करके अब मैं तुम्हें बतलाता हूँ, उसे सुनो॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैवं वर्तितव्यं स्म यथेदमनुशुश्रुम।
उष्ट्रस्य तु महद् वृत्तं तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ ३ ॥

मूलम्

न चैवं वर्तितव्यं स्म यथेदमनुशुश्रुम।
उष्ट्रस्य तु महद् वृत्तं तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! हमने एक ऊँटका जो महान् वृत्तान्त सुन रखा है, उसे तुम सुनो। राजाको वैसा बर्ताव नहीं करना चाहिये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातिस्मरो महानुष्ट्रः प्राजापत्ये युगेऽभवत्।
तपः सुमहादातिष्ठदरण्ये संशितव्रतः ॥ ४ ॥

मूलम्

जातिस्मरो महानुष्ट्रः प्राजापत्ये युगेऽभवत्।
तपः सुमहादातिष्ठदरण्ये संशितव्रतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राजापत्ययुग (सत्ययुग) में एक महान् ऊँट था। उसको पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण था। उसने कठोर व्रतके पालनका नियम लेकर वनमें बड़ी भारी तपस्या आरम्भ की॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपसस्तस्य चान्तेऽथ प्रीतिमानभवद् विभुः।
वरेण च्छन्दयामास ततश्चैनं पितामहः ॥ ५ ॥

मूलम्

तपसस्तस्य चान्तेऽथ प्रीतिमानभवद् विभुः।
वरेण च्छन्दयामास ततश्चैनं पितामहः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस तपस्याके अन्तमें पितामह भगवान् ब्रह्मा बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उससे वर माँगनेके लिये कहा॥५॥

मूलम् (वचनम्)

उष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवंस्त्वत्प्रसादान्मे दीर्घा ग्रीवा भवेदियम्।
योजनानां शतं साग्रं गच्छामि चरितुं विभो ॥ ६ ॥

मूलम्

भगवंस्त्वत्प्रसादान्मे दीर्घा ग्रीवा भवेदियम्।
योजनानां शतं साग्रं गच्छामि चरितुं विभो ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऊँट बोला— भगवन्! आपकी कृपासे मेरी यह गर्दन बहुत बड़ी हो जाय, जिससे जब मैं चरनेके लिये जाऊँ तो सौ योजनसे अधिक दूरतककी खाद्य वस्तुएँ ग्रहण कर सकूँ॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमस्त्विति चोक्तः स वरदेन महात्मना।
प्रतिलभ्य वरं श्रेष्ठं ययावुष्ट्रः स्वकं वनम् ॥ ७ ॥

मूलम्

एवमस्त्विति चोक्तः स वरदेन महात्मना।
प्रतिलभ्य वरं श्रेष्ठं ययावुष्ट्रः स्वकं वनम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वरदायक महात्मा ब्रह्माजीने ‘एवमस्तु’ कहकर उसे मुँहमाँगा वर दे दिया। वह उत्तम वर पाकर ऊँट अपने वनमें चला गया॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चकार तदाऽऽलस्यं वरदानात् सुदुर्मतिः।
न चैच्छच्चरितुं गन्तुं दुरात्मा कालमोहितः ॥ ८ ॥

मूलम्

स चकार तदाऽऽलस्यं वरदानात् सुदुर्मतिः।
न चैच्छच्चरितुं गन्तुं दुरात्मा कालमोहितः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस खोटी बुद्धिवाले ऊँटने वरदान पाकर कहीं आने-जानेमें आलस्य कर लिया। वह दुरात्मा कालसे मोहित होकर चरनेके लिये कहीं जाना ही नहीं चाहता था॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कदाचित् प्रसार्यैव तां ग्रीवां शतयोजनाम्।
चचार श्रान्तहृदयो वातश्चागात् ततो महान् ॥ ९ ॥

मूलम्

स कदाचित् प्रसार्यैव तां ग्रीवां शतयोजनाम्।
चचार श्रान्तहृदयो वातश्चागात् ततो महान् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समयकी बात है, वह अपनी सौ योजन लंबी गर्दन फैलाकर चर रहा था, उसका मन चरनेसे कभी थकता ही नहीं था। इतनेमें ही बड़े जोरसे हवा चलने लगी॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गुहायां शिरो ग्रीवां निधाय पशुरात्मनः।
आस्ते तु वर्षमभ्यागात् सुमहत् प्लावयज्जगत् ॥ १० ॥

मूलम्

स गुहायां शिरो ग्रीवां निधाय पशुरात्मनः।
आस्ते तु वर्षमभ्यागात् सुमहत् प्लावयज्जगत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह पशु किसी गुफामें अपनी गर्दन डालकर चर रहा था, इसी समय सारे जगत्‌के जलसे आप्लावित करती हुई बड़ी भारी वर्षा होने लगी॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ शीतपरीताङ्गो जम्बुकः क्षुच्छ्रमान्वितः।
सदारस्तां गुहामाशु प्रविवेश जलार्दितः ॥ ११ ॥

मूलम्

अथ शीतपरीताङ्गो जम्बुकः क्षुच्छ्रमान्वितः।
सदारस्तां गुहामाशु प्रविवेश जलार्दितः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वर्षा आरम्भ होनेपर भूख और थकावटसे कष्ट पाता हुआ एक गीदड़ अपनी स्त्रीके साथ शीघ्र ही उस गुहामें आ घुसा। वह जलसे पीड़ित था, सर्दीसे उसके सारे अंग अकड़ गये थे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स दृष्ट्वा मांसजीवी तु सुभृशं क्षुच्छ्रमान्वितः।
अभक्षयत् ततो ग्रीवामुष्ट्रस्य भरतर्षभ ॥ १२ ॥

मूलम्

स दृष्ट्वा मांसजीवी तु सुभृशं क्षुच्छ्रमान्वितः।
अभक्षयत् ततो ग्रीवामुष्ट्रस्य भरतर्षभ ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! वह मांसजीवी गीदड़ अत्यन्त भूखके कारण कष्ट पा रहा था, अतः उसने ऊँटकी गर्दनका मांस काट-काटकर खाना आरम्भ कर दिया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा त्वबुध्यतात्मानं भक्ष्यमाणं स वै पशुः।
तदा संकोचने यत्नमकरोद् भृशदुःखितः ॥ १३ ॥

मूलम्

यदा त्वबुध्यतात्मानं भक्ष्यमाणं स वै पशुः।
तदा संकोचने यत्नमकरोद् भृशदुःखितः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब उस पशुको यह मालूम हुआ कि उसकी गर्दन खायी जा रही है, तब वह अत्यन्त दुखी हो उसे समेटनेका प्रयत्न करने लगा॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावदूर्ध्वमधश्चैव ग्रीवां संक्षिपते पशुः।
तावत् तेन सदारेण जम्बुकेन स भक्षितः ॥ १४ ॥

मूलम्

यावदूर्ध्वमधश्चैव ग्रीवां संक्षिपते पशुः।
तावत् तेन सदारेण जम्बुकेन स भक्षितः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह पशु जबतक अपनी गर्दनको ऊपर-नीचे समेटनेका यत्न करता रहा, तबतक ही स्त्रीसहित सियारने उसे काटकर खा लिया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हत्वा भक्षयित्वा च तमुष्ट्रं जम्बुकस्तदा।
विगते वातवर्षे तु निश्चक्राम गुहामुखात् ॥ १५ ॥

मूलम्

स हत्वा भक्षयित्वा च तमुष्ट्रं जम्बुकस्तदा।
विगते वातवर्षे तु निश्चक्राम गुहामुखात् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार ऊँटको मारकर खा जानेके पश्चात् जब आँधी और वर्षा बंद हो गयी, तब वह गीदड़ गुफाके मुहानेसे निकल गया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं दुर्बुद्धिना प्राप्तमुष्ट्रेण निधनं तदा।
आलस्यस्य क्रमात् पश्य महान्तं दोषमागतम् ॥ १६ ॥

मूलम्

एवं दुर्बुद्धिना प्राप्तमुष्ट्रेण निधनं तदा।
आलस्यस्य क्रमात् पश्य महान्तं दोषमागतम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस तरह उस मूर्ख ऊँटकी मृत्यु हो गयी। देखो, उसके आलस्यके क्रमसे कितना महान् दोष प्राप्त हो गया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमप्येवंविधं हित्वा योगेन नियतेन्द्रियः।
वर्तस्व बुद्धिमूलं तु विजयं मनुरब्रवीत् ॥ १७ ॥

मूलम्

त्वमप्येवंविधं हित्वा योगेन नियतेन्द्रियः।
वर्तस्व बुद्धिमूलं तु विजयं मनुरब्रवीत् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये तुम्हें भी ऐसे आलस्यको त्याग करके इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए बुद्धिपूर्वक बर्ताव करना उचित है। मनुजीका कथन है कि ‘विजयका मूल बुद्धि ही है’॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुद्धिश्रेष्ठानि कर्माणि बाहुमध्यानि भारत।
तानि जङ्घाजघन्यानि भारप्रत्यवराणि च ॥ १८ ॥

मूलम्

बुद्धिश्रेष्ठानि कर्माणि बाहुमध्यानि भारत।
तानि जङ्घाजघन्यानि भारप्रत्यवराणि च ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! बुद्धिबलसे किये गये कार्य श्रेष्ठ हैं। बाहुबलसे किये जानेवाले कार्य मध्यम हैं। जाँघ अर्थात् पैरके बलसे किये गये कार्य जघन्य (अधम कोटिके) हैं तथा मस्तकसे भार ढोनेका कार्य सबसे निम्न श्रेणीका है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्यं तिष्ठति दक्षस्य संगृहीतेन्द्रियस्य च।
आर्तस्य बुद्धिमूलं हि विजयं मनुरब्रवीत् ॥ १९ ॥

मूलम्

राज्यं तिष्ठति दक्षस्य संगृहीतेन्द्रियस्य च।
आर्तस्य बुद्धिमूलं हि विजयं मनुरब्रवीत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जितेन्द्रिय और कार्यदक्ष है, उसीका राज्य स्थिर रहता है। मनुजीका कथन है कि संकटमें पड़े हुए राजाकी विजयका मूल बुद्धि-बल ही है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुह्यं मन्त्रं श्रुतवतः सुसहायस्य चानघ।
परीक्ष्यकारिणो ह्यर्थास्तिष्ठन्तीह युधिष्ठिर ।
सहाययुक्तेन मही कृत्स्ना शक्या प्रशासितुम् ॥ २० ॥

मूलम्

गुह्यं मन्त्रं श्रुतवतः सुसहायस्य चानघ।
परीक्ष्यकारिणो ह्यर्थास्तिष्ठन्तीह युधिष्ठिर ।
सहाययुक्तेन मही कृत्स्ना शक्या प्रशासितुम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप युधिष्ठिर! जो गुप्त मन्त्रणा सुनता है, जिसके सहायक अच्छे हैं तथा जो भलीभाँति जान-बूझकर कोई कार्य करता है, उसके पास ही धन स्थिर रहता है। सहायकोंसे सम्पन्न नरेश ही समूची पृथ्वीका शासन कर सकता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं हि सद्भिः कथितं विधिज्ञैः
पुरा महेन्द्रप्रतिमप्रभाव ।
मयापि चोक्तं तव शास्त्रदृष्ट्या
यथैव बुद्ध्वा प्रचरस्व राजन् ॥ २१ ॥

मूलम्

इदं हि सद्भिः कथितं विधिज्ञैः
पुरा महेन्द्रप्रतिमप्रभाव ।
मयापि चोक्तं तव शास्त्रदृष्ट्या
यथैव बुद्ध्वा प्रचरस्व राजन् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महेन्द्रके समान प्रभावशाली नरेश! पूर्वकालमें राज्य-संचालनकी विधिको जाननेवाले सत्पुरुषोंने यह बात कही थी। मैंने भी शास्त्रीय दृष्टिके अनुसार तुम्हें यह बात बतायी है। राजन्! इसे अच्छी तरह समझकर इसीके अनुसार चलो॥२१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि उष्ट्रग्रीवोपाख्याने द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें ऊँटकी गर्दनकी कथाविषयक एक सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११२॥