भागसूचना
एकादशाधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
मनुष्यके स्वभावकी पहचान बतानेवाली बाघ और सियारकी कथा
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
असौम्याः सौम्यरूपेण सौम्याश्चासौम्यदर्शनाः ।
ईदृशान् पुरुषांस्तात कथं विद्यामहे वयम् ॥ १ ॥
मूलम्
असौम्याः सौम्यरूपेण सौम्याश्चासौम्यदर्शनाः ।
ईदृशान् पुरुषांस्तात कथं विद्यामहे वयम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— तात! बहुत-से कठोर स्वभाववाले मनुष्य ऊपरसे कोमल और शान्त बने रहते हैं तथा कोमल स्वभावके लोग कठोर दिखायी देते हैं, ऐसे मनुष्योंकी मुझे ठीक-ठीक पहचान कैसे हो?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
व्याघ्रगोमायुसंवादं तं निबोध युधिष्ठिर ॥ २ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
व्याघ्रगोमायुसंवादं तं निबोध युधिष्ठिर ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी बोले— युधिष्ठिर! इस विषयमें जानकार लोग एक बाघ और सियारके संवादरूप प्राचीन आख्यानका उदाहरण दिया करते हैं, उसे ध्यान देकर सुनो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरिकायां पुरि पुरा श्रीमत्यां पौरिको नृपः।
परहिंसारतिः क्रूरो बभूव पुरुषाधमः ॥ ३ ॥
मूलम्
पुरिकायां पुरि पुरा श्रीमत्यां पौरिको नृपः।
परहिंसारतिः क्रूरो बभूव पुरुषाधमः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालकी बात है, प्रचुर धन-धान्यसे सम्पन्न पुरिका नामकी नगरीमें पौरिक नामसे प्रसिद्ध एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा ही क्रूर और नराधम था, दूसरे प्राणियोंकी हिंसामें ही उसका मन लगता था॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वायुषि परिक्षीणे जगामानीप्सितां गतिम्।
गोमायुत्वं च सम्प्रातो दूषितः पूर्वकर्मणा ॥ ४ ॥
मूलम्
स त्वायुषि परिक्षीणे जगामानीप्सितां गतिम्।
गोमायुत्वं च सम्प्रातो दूषितः पूर्वकर्मणा ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धीरे-धीरे उसकी आयु समाप्त हो गयी और वह ऐसी गतिको प्राप्त हुआ, जो किसी भी प्राणीको अभीष्ट नहीं है। वह अपने पूर्वकर्मसे दूषित होकर दूसरे जन्ममें गीदड़ हो गया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संस्मृत्य पूर्वभूतिं च निर्वेदं परमं गतः।
न भक्षयति मांसानि परैरुपहृतान्यपि ॥ ५ ॥
मूलम्
संस्मृत्य पूर्वभूतिं च निर्वेदं परमं गतः।
न भक्षयति मांसानि परैरुपहृतान्यपि ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अपने पूर्व जन्मके वैभवका स्मरण करके उस सियारको बड़ा खेद और वैराग्य हुआ। अतः वह दूसरोंके द्वारा दिये हुए मांसको भी नहीं खाता था॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंस्रः सर्वभूतेषु सत्यवाक् सुदृढव्रतः।
स चकार यथाकालमाहारं पतितैः फलैः ॥ ६ ॥
मूलम्
अहिंस्रः सर्वभूतेषु सत्यवाक् सुदृढव्रतः।
स चकार यथाकालमाहारं पतितैः फलैः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब उसने जीवोंकी हिंसा करनी छोड़ दी, सत्य बोलनेका नियम ले लिया और दृढ़तापूर्वक अपने व्रतका पालन करने लगा। वह नियत समयपर वृक्षोंसे अपने आप गिरे हुए फलोंका आहार करता था॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(पर्णाहारः कदाचिच्च नियमव्रतवानपि ।
कदाचिदुदकेनापि वर्तयन्ननुयन्त्रितः ॥)
मूलम्
(पर्णाहारः कदाचिच्च नियमव्रतवानपि ।
कदाचिदुदकेनापि वर्तयन्ननुयन्त्रितः ॥)
अनुवाद (हिन्दी)
व्रत और नियमोंके पालनमें तत्पर हो कभी पत्ता चबा लेता और कभी पानी पीकर ही रह जाता था। उसका जीवन संयममें बँध गया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्मशाने तस्य चावासो गोमायोः सम्मतोऽभवत्।
जन्मभूम्यनुरोधाच्च नान्यवासमरोचयत् ॥ ७ ॥
मूलम्
श्मशाने तस्य चावासो गोमायोः सम्मतोऽभवत्।
जन्मभूम्यनुरोधाच्च नान्यवासमरोचयत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह श्मशानभूमिमें ही रहता था। वहीं उसका जन्म हुआ था, इसलिये वही स्थान उसे पंसद था। उसे और कहीं जाकर रहनेकी रुचि नहीं होती थी॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य शौचममृष्यन्तस्ते सर्वे सहजातयः।
चालयन्ति स्म तां बुद्धिं वचनैः प्रश्रयोत्तरैः ॥ ८ ॥
मूलम्
तस्य शौचममृष्यन्तस्ते सर्वे सहजातयः।
चालयन्ति स्म तां बुद्धिं वचनैः प्रश्रयोत्तरैः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सियारका इस तरह पवित्र आचार-विचारसे रहना उसके सभी जाति-भाइयोंको अच्छा न लगा। यह सब उनके लिये असह्य हो उठा; इसलिये वे प्रेम और विनयभरी बातें कहकर उसकी बुद्धिको विचलित करने लगे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसन् पितृवने रौद्रे शौचे वर्तितुमिच्छसि।
इयं विप्रतिपत्तिस्ते यदा त्वं पिशिताशनः ॥ ९ ॥
मूलम्
वसन् पितृवने रौद्रे शौचे वर्तितुमिच्छसि।
इयं विप्रतिपत्तिस्ते यदा त्वं पिशिताशनः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने कहा ‘भाई सियार! तू तो मांसाहारी जीव है और भयंकर श्मशानभूमिमें निवास करता है, फिर भी पवित्र आचार-विचारसे रहना चाहता है—यह विपरीत निश्चय है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्समानो भवास्माभिर्भोज्यं दास्यामहे वयम्।
भुङ्क्ष्व शौचं परित्यज्य यद्धि भुक्तं सदास्तु ते ॥ १० ॥
मूलम्
तत्समानो भवास्माभिर्भोज्यं दास्यामहे वयम्।
भुङ्क्ष्व शौचं परित्यज्य यद्धि भुक्तं सदास्तु ते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भैया! अतः तू हमारे ही समान होकर रह। तेरे लिये भोजन तो हमलोग ला दिया करेंगे। तू इस शौचाचारका नियम छोड़कर चुपचाप खा लिया करना। तेरी जातिका जो सदासे भोजन रहा है, वही तेरा भी होना चाहिये’॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तेषां वचः श्रुत्वा प्रत्युवाच समाहितः।
मधुरैः प्रसृतैर्वाक्यैर्हेतुमद्भिरनिष्ठुरैः ॥ ११ ॥
मूलम्
इति तेषां वचः श्रुत्वा प्रत्युवाच समाहितः।
मधुरैः प्रसृतैर्वाक्यैर्हेतुमद्भिरनिष्ठुरैः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी ऐसी बात सुनकर सियार एकाग्रचित्त हो मधुर, विस्तृत, युक्तियुक्त तथा कोमल वचनोंद्वारा इस प्रकार बोला—॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्रमाणा प्रसूतिर्मे शीलतः क्रियते कुलम्।
प्रार्थयामि च तत्कर्म येन विस्तीर्यते यशः ॥ १२ ॥
मूलम्
अप्रमाणा प्रसूतिर्मे शीलतः क्रियते कुलम्।
प्रार्थयामि च तत्कर्म येन विस्तीर्यते यशः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बन्धुओ! अपने बुरे आचरणोंसे ही हमारी जातिका कोई विश्वास नहीं करता। अच्छे स्वभाव और आचरणसे ही कुलकी प्रतिष्ठा होती है; अतः मैं भी वही कर्म करना चाहता हूँ, जिससे अपने वंशका यश बढ़े॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्मशाने यदि मे वासः समाधिर्मे निशम्यताम्।
आत्मा फलति कर्माणि नाश्रमो धर्मकारणम् ॥ १३ ॥
मूलम्
श्मशाने यदि मे वासः समाधिर्मे निशम्यताम्।
आत्मा फलति कर्माणि नाश्रमो धर्मकारणम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि मेरा निवास श्मशानभूमिमें है तो इसके लिये मैं जो समाधान देता हूँ, उसको सुनो। आत्मा ही शुभ कर्मोंके लिये प्रेरणा करता है। कोई आश्रम ही धर्मका कारण नहीं हुआ करता॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रमे यो द्विजं हन्याद् गां वा दद्यादनाश्रमे।
किं तु तत्पातकं न स्यात् तद्वा दत्तं वृथा भवेत्॥१४॥
मूलम्
आश्रमे यो द्विजं हन्याद् गां वा दद्यादनाश्रमे।
किं तु तत्पातकं न स्यात् तद्वा दत्तं वृथा भवेत्॥१४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्या यदि कोई आश्रममें रहकर ब्राह्मणकी हत्या करे तो उसे उसका पातक नहीं लगेगा और यदि कोई बिना आश्रमके स्थानमें गोदान करे तो क्या वह व्यर्थ हो जायेगा?॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवन्तः स्वार्थलोभेन केवलं भक्षणे रताः।
अनुबन्धे त्रयो दोषास्तान् न पश्यन्ति मोहिताः ॥ १५ ॥
मूलम्
भवन्तः स्वार्थलोभेन केवलं भक्षणे रताः।
अनुबन्धे त्रयो दोषास्तान् न पश्यन्ति मोहिताः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुमलोग केवल स्वार्थके लोभसे मांसभक्षणमें रचे-पचे रहते हो। उसके परिणामस्वरूप जो तीन दोष प्राप्त होते हैं, उनकी ओर मोहवश तुम्हारी दृष्टि नहीं जाती॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्रत्ययकृतां गर्ह्यामर्थापनयदूषिताम् ।
इह चामुत्र चानिष्टां तस्माद् वृत्तिं न रोचये ॥ १६ ॥
मूलम्
अप्रत्ययकृतां गर्ह्यामर्थापनयदूषिताम् ।
इह चामुत्र चानिष्टां तस्माद् वृत्तिं न रोचये ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुमलोगोंकी जीविका असंतोषसे पूर्ण, निन्दनीय, धर्मकी हानिके कारण दूषित तथा इहलोक और परलोकमें भी अनिष्ट फल देनेवाली है; इसलिये मैं उसे पसंद नहीं करता हूँ॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं शुचिं पण्डितं मत्वा शार्दूलः ख्यातविक्रमः।
कृत्वाऽऽत्मसदृशीं पूजां साचिव्येऽवरयत् स्वयम् ॥ १७ ॥
मूलम्
तं शुचिं पण्डितं मत्वा शार्दूलः ख्यातविक्रमः।
कृत्वाऽऽत्मसदृशीं पूजां साचिव्येऽवरयत् स्वयम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सियारके इस पवित्र आचार-विचारकी चर्चा चारों ओर फैल जानेके कारण एक प्रख्यातपराक्रमी व्याघ्रने उसे विद्वान् और विशुद्ध स्वभावका मानकर उसके निकट पदार्पण किया और उसकी अपने अनुरूप पूजा करके स्वयं ही मन्त्री बनानेके लिये उसका वरण किया॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
शार्दूल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौम्य विज्ञातरूपस्त्वं गच्छ यात्रां मया सह।
व्रियन्तामीप्सिता भोगाः परिहार्याश्च पुष्कलाः ॥ १८ ॥
मूलम्
सौम्य विज्ञातरूपस्त्वं गच्छ यात्रां मया सह।
व्रियन्तामीप्सिता भोगाः परिहार्याश्च पुष्कलाः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्याघ्र बोला— सौम्य! मैं तुम्हारे स्वरूपसे परिचित हूँ। तुम मेरे साथ चलो और अपनी रुचिके अनुसार अधिक-से-अधिक भोगोंका उपभोग करो। जो वस्तुएँ प्रिय न हों, उन्हें त्याग देना॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीक्ष्णा इति वयं ख्याता भवन्तं ज्ञापयामहे।
मृदुपूर्वं हितं चैव श्रेयश्चाधिगमिष्यसि ॥ १९ ॥
मूलम्
तीक्ष्णा इति वयं ख्याता भवन्तं ज्ञापयामहे।
मृदुपूर्वं हितं चैव श्रेयश्चाधिगमिष्यसि ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु एक बात मैं तुम्हें सूचित कर देता हूँ। सारे संसारमें यह बात प्रसिद्ध है कि हमारी जातिका स्वभाव कठोर होता है; अतः यदि तुम कोमलतापूर्वक व्यवहार करते हुए मेरे हित-साधनमें लगे रहोगे तो अवश्य ही कल्याणके भागी होओगे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ सम्पूज्य तद् वाक्यं मृगेन्द्रस्य महात्मनः।
गोमायुः संश्रितं वाक्यं बभाषे किंचिदानतः ॥ २० ॥
मूलम्
अथ सम्पूज्य तद् वाक्यं मृगेन्द्रस्य महात्मनः।
गोमायुः संश्रितं वाक्यं बभाषे किंचिदानतः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामनस्वी मृगराजके उस कथनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करके सियारने कुछ नतमस्तक होकर विनययुक्त वाणीमें कहा॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
गोमायुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदृशं मृगराजैतत् तव वाक्यं मदन्तरे।
यत् सहायान् मृगयसे धर्मार्थकुशलान् शुचीन् ॥ २१ ॥
मूलम्
सदृशं मृगराजैतत् तव वाक्यं मदन्तरे।
यत् सहायान् मृगयसे धर्मार्थकुशलान् शुचीन् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सियार बोला— मृगराज! आपने मेरे लिये जो बात कही है, वह सर्वथा आपके योग्य ही है तथा आप जो धर्म और अर्थसाधनमें कुशल एवं शुद्ध स्वभाववाले सहायकों (मन्त्रियों) की खोज कर रहे हैं, यह भी उचित ही है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न शक्यं ह्यनमात्येन महत्त्वमनुशासितुम्।
दुष्टामात्येन वा वीर शरीरपरिपन्थिना ॥ २२ ॥
मूलम्
न शक्यं ह्यनमात्येन महत्त्वमनुशासितुम्।
दुष्टामात्येन वा वीर शरीरपरिपन्थिना ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर! मन्त्रीके बिना एकाकी राजा विशाल राज्यका शासन नहीं कर सकता। यदि शरीरको सुखा देनेवाला कोई दुष्ट मन्त्री मिल गया तो उसके द्वारा भी शासन नहीं चलाया जा सकता॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहायाननुरक्तांश्च नयज्ञानुपसंहितान् ।
परस्परमसंसृष्टान् विजिगीषूनलोलुपान् ॥ २३ ॥
अनतीतोपधान् प्राज्ञान् हिते युक्तान् मनस्विनः।
पूजयेथा महाभाग यथाऽऽचार्यान् यथा पितॄन् ॥ २४ ॥
मूलम्
सहायाननुरक्तांश्च नयज्ञानुपसंहितान् ।
परस्परमसंसृष्टान् विजिगीषूनलोलुपान् ॥ २३ ॥
अनतीतोपधान् प्राज्ञान् हिते युक्तान् मनस्विनः।
पूजयेथा महाभाग यथाऽऽचार्यान् यथा पितॄन् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाभाग! इसके लिये आपको चाहिये कि जिनका आपके प्रति अनुराग हो, जो नीतिके जानकार, सद्भाव-सम्पन्न, परस्पर गुटबंदीसे रहित, विजयकी अभिलाषासे युक्त, लोभरहित, कपटनीतिमें कुशल, बुद्धिमान्, स्वामीके हितसाधनमें तत्पर और मनस्वी हों, ऐसे व्यक्तियोंको सहायक या सचिव बनाकर आप पिता और गुरुके समान उनका सम्मान करें॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्वेव मम संतोषाद् रोचतेऽन्यन्मृगाधिप।
न कामये सुखान् भोगानैश्वर्यं च तदाश्रयम् ॥ २५ ॥
मूलम्
न त्वेव मम संतोषाद् रोचतेऽन्यन्मृगाधिप।
न कामये सुखान् भोगानैश्वर्यं च तदाश्रयम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मृगराज! मुझे तो संतोषके सिवा और कोई वस्तु रुचती ही नहीं है। मैं सुख, भोग और उनके आधारभूत ऐश्वर्यको नहीं चाहता॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न योक्ष्यति हि मे शीलं तव भृत्यैः पुरातनैः।
ते त्वां विभेदयिष्यन्ति दुःशीलाश्च मदन्तरे ॥ २६ ॥
मूलम्
न योक्ष्यति हि मे शीलं तव भृत्यैः पुरातनैः।
ते त्वां विभेदयिष्यन्ति दुःशीलाश्च मदन्तरे ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके पुराने सेवकोंके साथ मेरे शीलस्वभावका मेल नहीं खायेगा। वे दुष्ट स्वभावके जीव हैं। अतः मेरे निमित्त वे लोग आपके कान भरते रहेंगे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संश्रयः श्लाघनीयस्त्वमन्येषामपि भास्वताम् ।
कृतात्मा सुमहाभागः पापकेष्वप्यदारुणः ॥ २७ ॥
मूलम्
संश्रयः श्लाघनीयस्त्वमन्येषामपि भास्वताम् ।
कृतात्मा सुमहाभागः पापकेष्वप्यदारुणः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप अन्यान्य तेजस्वी प्राणियोंके भी स्पृहणीय आश्रय हैं। आपकी बुद्धि सुशिक्षित है। आप महान् भाग्यशाली तथा अपराधियोंके प्रति भी दयालु हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीर्घदर्शी महोत्साहः स्थूललक्ष्यो महाबलः।
कृती चामोघकर्तासि भाग्यैश्च समलंकृतः ॥ २८ ॥
मूलम्
दीर्घदर्शी महोत्साहः स्थूललक्ष्यो महाबलः।
कृती चामोघकर्तासि भाग्यैश्च समलंकृतः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप दूरदर्शी, महान् उत्साही, स्थूललक्ष्य (जिसका उद्देश्य बहुत स्पष्ट हो वह), महाबली, कृतार्थ, सफलतापूर्वक कार्य करनेवाले तथा भाग्यसे अलंकृत हैं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं तु स्वेनास्मि संतुष्टो दुःखवृत्तिरनुष्ठिता।
सेवायां चापि नाभिज्ञः स्वच्छन्देन वनेचरः ॥ २९ ॥
मूलम्
किं तु स्वेनास्मि संतुष्टो दुःखवृत्तिरनुष्ठिता।
सेवायां चापि नाभिज्ञः स्वच्छन्देन वनेचरः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर मैं अपने आपमें ही संतुष्ट रहनेवाला हूँ। मैंने ऐसी जीविका अपनायी है, जो अत्यन्त दुःखमयी है। मैं राजसेवाके कार्यसे अनभिज्ञ और वनमें स्वच्छन्दतापूर्वक घूमनेवाला हूँ॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजोपक्रोशदोषाश्च सर्वे संश्रयवासिनाम् ।
व्रतचर्या तु निःसंगा निर्भया वनवासिनाम् ॥ ३० ॥
मूलम्
राजोपक्रोशदोषाश्च सर्वे संश्रयवासिनाम् ।
व्रतचर्या तु निःसंगा निर्भया वनवासिनाम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजाके आश्रयमें रहते हैं, उन्हें राजाकी निन्दासे सम्बन्ध रखनेवाले सभी दोष प्राप्त होते हैं। इधर मेरे जैसे वनवासियोंकी व्रतचर्या सर्वथा असंग और भयसे रहित होती है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नृपेणाहूयमानस्य यत् तिष्ठति भयं हृदि।
न तत् तिष्ठति तुष्टानां वने मूलफलाशिनाम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
नृपेणाहूयमानस्य यत् तिष्ठति भयं हृदि।
न तत् तिष्ठति तुष्टानां वने मूलफलाशिनाम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा जिसे अपने सामने बुलाता है, उसके हृदयमें जो भय खड़ा होता है, वह वनमें फल-मूल खाकर संतुष्ट रहनेवाले लोगोंके मनमें नहीं होता॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पानीयं वा निरायासं स्वाद्वन्नं वा भयोत्तरम्।
विचार्य खलु पश्यामि तत्सुखं यत्र निर्वृतिः ॥ ३२ ॥
मूलम्
पानीयं वा निरायासं स्वाद्वन्नं वा भयोत्तरम्।
विचार्य खलु पश्यामि तत्सुखं यत्र निर्वृतिः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक जगह बिना किसी भयके केवल जल मिलता है और दूसरी जगह अन्तमें भय देनेवाला स्वादिष्ट अन्न प्राप्त होता है—इन दोनोंको यदि विचार करके मैं देखता हूँ तो मुझे वहाँ ही सुख जान पड़ता है, जहाँ कोई भय नहीं है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपराधैर्न तावन्तो भृत्याः शिष्टा नराधिपैः।
उपघातैर्यथा भृत्या दूषिता निधनं गताः ॥ ३३ ॥
मूलम्
अपराधैर्न तावन्तो भृत्याः शिष्टा नराधिपैः।
उपघातैर्यथा भृत्या दूषिता निधनं गताः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाओंने किन्हीं वास्तविक अपराधोंके कारण उतने सेवकोंको दण्ड नहीं दिया होगा, जितने कि लोगोंके झूठे लगाये गये दोषोंसे कलंकित होकर राजाके हाथसे मारे गये हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि त्वेतन्मया कार्यं मृगेन्द्र यदि मन्यसे।
समयं कृतमिच्छामि वर्तितव्यं यथा मयि ॥ ३४ ॥
मूलम्
यदि त्वेतन्मया कार्यं मृगेन्द्र यदि मन्यसे।
समयं कृतमिच्छामि वर्तितव्यं यथा मयि ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मृगराज! यदि आप मुझसे मन्त्रित्वका कार्य लेना ही ठीक समझते हैं तो मैं आपसे एक शर्त कराना चाहता हूँ, उसीके अनुसार आपको मेरे साथ बर्ताव करना उचित होगा॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मदीया माननीयास्ते श्रोतव्यं च हितं वचः।
कल्पिता या च मे वृत्तिः सा भवेत् त्वयि सुस्थिरा॥३५॥
मूलम्
मदीया माननीयास्ते श्रोतव्यं च हितं वचः।
कल्पिता या च मे वृत्तिः सा भवेत् त्वयि सुस्थिरा॥३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे आत्मीयजनोंका आपको सम्मान करना होगा। मेरी कही हुई हितकर बातें आपको सुननी होंगी। मेरे लिये जो जीविकाकी व्यवस्था आपने की है, वह आपहीके पास सुस्थिर एवं सुरक्षित रहे॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मन्त्रयेयमन्यैस्ते सचिवैः सह कर्हिचित्।
नीतिमन्तः परीप्सन्तो वृथा ब्रूयुः परे मयि ॥ ३६ ॥
मूलम्
न मन्त्रयेयमन्यैस्ते सचिवैः सह कर्हिचित्।
नीतिमन्तः परीप्सन्तो वृथा ब्रूयुः परे मयि ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं आपके दूसरे मन्त्रियोंके साथ बैठकर कभी कोई परामर्श नहीं करूँगा; क्योंकि दूसरे नीतिज्ञ मन्त्री मुझसे ईर्ष्या करते हुए मेरे प्रति व्यर्थकी बातें कहने लगेंगे॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक एकेन संगम्य रहो ब्रूयां हितं वचः।
न च ते ज्ञातिकार्येषु प्रष्टव्योऽहं हिताहिते ॥ ३७ ॥
मूलम्
एक एकेन संगम्य रहो ब्रूयां हितं वचः।
न च ते ज्ञातिकार्येषु प्रष्टव्योऽहं हिताहिते ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं अकेला एकान्तमें अकेले आपसे मिलकर आपको हितकी बातें बताया करूँगा। आप भी अपने जाति-भाइयोंके कार्योंमें मुझसे हिताहितकी बात न पूछियेगा॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मया सम्मन्त्र्य पश्चाच्च न हिंस्याः सचिवास्त्वया।
मदीयानां च कुपितो मा त्वं दण्डं निपातयेः ॥ ३८ ॥
मूलम्
मया सम्मन्त्र्य पश्चाच्च न हिंस्याः सचिवास्त्वया।
मदीयानां च कुपितो मा त्वं दण्डं निपातयेः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझसे सलाह लेनेके बाद यदि आपके पहलेके मन्त्रियोंकी भूल प्रमाणित हो तो भी उन्हें प्राणदण्ड न दीजियेगा तथा कभी क्रोधमें आकर मेरे आत्मीयजनोंपर भी प्रहार न कीजियेगा॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमस्त्विति तेनासौ मृगेन्द्रेणाभिपूजितः ।
प्राप्तवान् मतिसाचिव्यं गोमायुर्व्याघ्रयोनितः ॥ ३९ ॥
मूलम्
एवमस्त्विति तेनासौ मृगेन्द्रेणाभिपूजितः ।
प्राप्तवान् मतिसाचिव्यं गोमायुर्व्याघ्रयोनितः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अच्छा, ऐसा ही होगा’ यह कहकर शेरने उसका बड़ा सम्मान किया। सियार बाघराजाके बुद्धिदायक सचिवके पदपर प्रतिष्ठित हो गया॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तथा सुकृतं दृष्ट्वा पूज्यमानं स्वकर्मसु।
प्राद्विषन् कृतसंघाताः पूर्वभृत्या मुहुर्मुहुः ॥ ४० ॥
मूलम्
तं तथा सुकृतं दृष्ट्वा पूज्यमानं स्वकर्मसु।
प्राद्विषन् कृतसंघाताः पूर्वभृत्या मुहुर्मुहुः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सियार बहुत अच्छा कार्य करने लगा और उसको अपने सभी कार्योंमें बड़ी प्रशंसा प्राप्त होने लगी। इस प्रकार उसे सम्मानित होता देख पहलेके राजसेवक संगठित हो बारंबार उससे द्वेष करने लगे॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मित्रबुद्ध्या च गोमायुं सान्त्वयित्वा प्रसाद्य च।
दोषैस्तु समतां नेतुमैच्छन्नशुभबुद्धयः ॥ ४१ ॥
मूलम्
मित्रबुद्ध्या च गोमायुं सान्त्वयित्वा प्रसाद्य च।
दोषैस्तु समतां नेतुमैच्छन्नशुभबुद्धयः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके मनमें दुष्टता भरी थी। वे सियारके पास मित्रभावसे आते और उसे समझा-बुझाकर प्रसन्न करके अपने ही समान दोषके पथपर चलानेकी चेष्टा करते थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यथा ह्युषिताः पूर्वं परद्रव्याभिहारिणः।
अशक्ताः किञ्चिदादातुं द्रव्यं गोमायुयन्त्रिताः ॥ ४२ ॥
मूलम्
अन्यथा ह्युषिताः पूर्वं परद्रव्याभिहारिणः।
अशक्ताः किञ्चिदादातुं द्रव्यं गोमायुयन्त्रिताः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके आनेके पहले वे और ही प्रकारसे रहा करते थे। दूसरोंका धन हड़प लिया करते थे, परंतु अब वैसा नहीं कर सकते थे। सियारने उन सबपर ऐसी कड़ी पाबंदी लगा दी थी कि वे किसीकी कोई भी वस्तु लेनेमें असमर्थ हो गये थे॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्युत्थानं च विकांक्षद्भिः कथाभिः प्रतिलोभ्यते।
धनेन महता चैव बुद्धिरस्य विलोभ्यते ॥ ४३ ॥
मूलम्
व्युत्थानं च विकांक्षद्भिः कथाभिः प्रतिलोभ्यते।
धनेन महता चैव बुद्धिरस्य विलोभ्यते ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी यही इच्छा थी कि सियार भी डिग जाय; इसलिये वे तरह-तरहकी बातोंमें उसे फुसलाते और बहुत-सा धन देनेका लोभ देकर उसकी बुद्धिको प्रलोभनमें फँसाना चाहते थे॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चापि स महाप्राज्ञस्तस्माद् धैर्याच्चचाल ह।
अथास्य समयं कृत्वा विनाशाय तथा परे ॥ ४४ ॥
मूलम्
न चापि स महाप्राज्ञस्तस्माद् धैर्याच्चचाल ह।
अथास्य समयं कृत्वा विनाशाय तथा परे ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पंरतु सियार बड़ा बुद्धिमान् था। अतः वह उनके प्रलोभनमें आकर धैर्यसे विचलित नहीं हुआ। तब दूसरे-दूसरे सभी सेवकोंने मिलकर उसके विनाशके लिये प्रतिज्ञा की और तदनुसार प्रयत्न आरम्भ कर दिया॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईप्सितं तु मृगेन्द्रस्य मांसं यत् यत्र संस्कृतम्।
अपनीय स्वयं तद्धि तैर्न्यस्तं तस्य वेश्मनि ॥ ४५ ॥
मूलम्
ईप्सितं तु मृगेन्द्रस्य मांसं यत् यत्र संस्कृतम्।
अपनीय स्वयं तद्धि तैर्न्यस्तं तस्य वेश्मनि ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन उन सेवकोंने शेरके खानेके लिये जो मांस तैयार करके रखा गया था, उसके स्थानसे हटाकर सियारके घरमें रख दिया॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदर्थं चाप्यपहृतं येन तच्चैव मन्त्रितम्।
तस्य तद् विदितं सर्वं कारणार्थं च मर्षितम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
यदर्थं चाप्यपहृतं येन तच्चैव मन्त्रितम्।
तस्य तद् विदितं सर्वं कारणार्थं च मर्षितम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसने जिस उद्देश्यसे उस मांसको चुराया और जिसने ऐसा करनेकी सलाह दी, वह सब कुछ सियारको मालूम हो गया तो भी किसी कारणवश उसने चुपचाप सह लिया॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समयोऽयं कृतस्तेन साचिव्यमुपगच्छता ।
नोपघातस्त्वया कार्यो राजन् मैत्रीमिहेच्छता ॥ ४७ ॥
मूलम्
समयोऽयं कृतस्तेन साचिव्यमुपगच्छता ।
नोपघातस्त्वया कार्यो राजन् मैत्रीमिहेच्छता ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मन्त्रीपदपर आते समय सियारने यह शर्त करा ली थी कि राजन्! यदि आप मुझसे मैत्री चाहते हैं तो किसीके बहकावेमें आकर मेरा विनाश न कर डालियेगा॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षुधितस्य मृगेन्द्रस्य भोक्तुमभ्युत्थितस्य च।
भोजनायोपहर्तव्यं तन्मांसं नोपदृश्यते ॥ ४८ ॥
मूलम्
क्षुधितस्य मृगेन्द्रस्य भोक्तुमभ्युत्थितस्य च।
भोजनायोपहर्तव्यं तन्मांसं नोपदृश्यते ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! उधर शेरको जब भूख लगी और वह भोजनके लिये उठा, तब उसके खानेके लिये जो परोसा जानेवाला था, वह मांस उसे नहीं दिखायी दिया॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृगराजेन चाज्ञप्तं दृश्यतां चोर इत्युत।
कृतकैश्चापि तन्मांसं मृगेन्द्रायोपवर्णितम् ॥ ४९ ॥
सचिवेनापनीतं ते विदुषा प्राज्ञमानिना।
मूलम्
मृगराजेन चाज्ञप्तं दृश्यतां चोर इत्युत।
कृतकैश्चापि तन्मांसं मृगेन्द्रायोपवर्णितम् ॥ ४९ ॥
सचिवेनापनीतं ते विदुषा प्राज्ञमानिना।
अनुवाद (हिन्दी)
तब मृगराजने सेवकोंको आज्ञा दी कि चोरका पता लगाओ। तब जिनकी यह करतूत थी, उन्हीं लोगोंने उस मांसके बारेमें शेरको बताया—‘महाराज! अपनेको अत्यन्त बुद्धिमान् और पण्डित माननेवाले आपके मन्त्री महोदयने ही इस मांसका अपहरण किया है’॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरोषस्त्वथ शार्दूलः श्रुत्वा गोमायुचापलम् ॥ ५० ॥
बभूवामर्षितो राजा वधं चास्य व्यरोचयत्।
मूलम्
सरोषस्त्वथ शार्दूलः श्रुत्वा गोमायुचापलम् ॥ ५० ॥
बभूवामर्षितो राजा वधं चास्य व्यरोचयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
सियारकी यह चपलता सुनकर शेर गुस्सेसे भर गया। उससे यह बात सही नहीं गयी; अतः मृगराजने उसका वध करनेका ही विचार कर लिया॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छिद्रं तु तस्य तद् दृष्ट्वा प्रोचुस्ते पूर्वमन्त्रिणः ॥ ५१ ॥
सर्वेषामेव सोऽस्माकं वृत्तिभङ्गे प्रवर्तते।
निश्चित्यैव पुनस्तस्य ते कर्माण्यपि वर्णयन् ॥ ५२ ॥
मूलम्
छिद्रं तु तस्य तद् दृष्ट्वा प्रोचुस्ते पूर्वमन्त्रिणः ॥ ५१ ॥
सर्वेषामेव सोऽस्माकं वृत्तिभङ्गे प्रवर्तते।
निश्चित्यैव पुनस्तस्य ते कर्माण्यपि वर्णयन् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका यह छिद्र देखकर पहलेके मन्त्री आपसमें कहने लगे, वह हम सब लोगोंकी जीविका नष्ट करनेपर तुला हुआ है; अतः हम भी उससे बदला लें, ऐसा निश्चय करके वे उसके अपराधोंका वर्णन करने लगे—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं तस्येदृशं कर्म किं तेन न कृतं भवेत्।
श्रुतश्च स्वामिना पूर्वं यादृशो नैव तादृशः ॥ ५३ ॥
मूलम्
इदं तस्येदृशं कर्म किं तेन न कृतं भवेत्।
श्रुतश्च स्वामिना पूर्वं यादृशो नैव तादृशः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! जब उसके द्वारा ऐसा कर्म किया जा सकता है, तब वह और क्या नहीं कर सकता? स्वामीने पहले उसके बारेमें जैसा सुन रक्खा है, वह वैसा नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाङ्मात्रेणैव धर्मिष्ठः स्वभावेन तु दारुणः।
धर्मच्छद्मा ह्ययं पापो वृथाचारपरिग्रहः ॥ ५४ ॥
मूलम्
वाङ्मात्रेणैव धर्मिष्ठः स्वभावेन तु दारुणः।
धर्मच्छद्मा ह्ययं पापो वृथाचारपरिग्रहः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह बातोंसे ही धर्मात्मा बना हुआ है। स्वभावसे तो बड़ा क्रूर है। भीतरसे यह बड़ा पापी है; परंतु ऊपरसे धर्मात्मापनका ढोंग बनाये हुए है। उसका सारा आचार-विचार व्यर्थ दिखावेके लिये है॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार्यार्थं भोजनार्थेषु व्रतेषु कृतवान् श्रमम्।
यदि विप्रत्ययो ह्येष तदिदं दर्शयाम ते ॥ ५५ ॥
मूलम्
कार्यार्थं भोजनार्थेषु व्रतेषु कृतवान् श्रमम्।
यदि विप्रत्ययो ह्येष तदिदं दर्शयाम ते ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसने तो अपना काम बनाने और पेट भरनेके लिये ही व्रत करनेमें परिश्रम किया है। यदि आपको विश्वास न हो तो यह लीजिये, हम अभी उसके यहाँ से मांस ले आकर दिखाते हैं॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्मांसं चैव गोमायोस्तैः क्षणादाशु ढौकितम्।
मांसापनयनं ज्ञात्वा व्याघ्रः श्रुत्वा च तद्वचः ॥ ५६ ॥
आज्ञापयामास तदा गोमायुर्वध्यतामिति ।
मूलम्
तन्मांसं चैव गोमायोस्तैः क्षणादाशु ढौकितम्।
मांसापनयनं ज्ञात्वा व्याघ्रः श्रुत्वा च तद्वचः ॥ ५६ ॥
आज्ञापयामास तदा गोमायुर्वध्यतामिति ।
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर वे क्षणभरमें ही सियारके घरसे उस मांसको उठा लाये। मांसके अपहरणकी बात जानकर और उन सेवकोंकी बातें सुनकर शेरने उस समय यह आज्ञा दे दी कि सियारको प्राणदण्ड दे दिया जाय॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शार्दूलस्य वचः श्रुत्वा शार्दूलजननी ततः ॥ ५७ ॥
मृगराजं हितैर्वाक्यैः सम्बोधयितुमागमत् ।
पुत्र नैतत् त्वया ग्राह्यं कपटारम्भसंयुतम् ॥ ५८ ॥
मूलम्
शार्दूलस्य वचः श्रुत्वा शार्दूलजननी ततः ॥ ५७ ॥
मृगराजं हितैर्वाक्यैः सम्बोधयितुमागमत् ।
पुत्र नैतत् त्वया ग्राह्यं कपटारम्भसंयुतम् ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शेरकी यह बात सुनकर उसकी माता हितकर वचनोंद्वारा उसे समझानेके लिये वहाँ आयी और बोली—‘बेटा! इसमें कुछ कपटपूर्ण षड्यन्त्र हुआ मालूम पड़ता है; अतः तुम्हें इसपर विश्वास नहीं करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मसंघर्षजैर्दोषैर्दुष्येताशुचिभिः शुचिः ।
नोच्छ्रितं सहते कश्चित् प्रक्रिया वैरकारिका ॥ ५९ ॥
मूलम्
कर्मसंघर्षजैर्दोषैर्दुष्येताशुचिभिः शुचिः ।
नोच्छ्रितं सहते कश्चित् प्रक्रिया वैरकारिका ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘काममें लाग-डाँट हो जानेसे जिनके मनमें शुद्धभाव नहीं है, वे लोग निर्दोषपर ही दोषारोपण करते हैं। किसीको अपनेसे ऊँची अवस्थामें देख कर कोई-कोई ईर्ष्यावश सहन नहीं कर पाते। यही वैरभाव उत्पन्न करनेवाली प्रक्रिया है॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुचेरपि हि युक्तस्य दोष एव निपात्यते।
मुनेरपि वनस्थस्य स्वानि कर्माणि कुर्वतः ॥ ६० ॥
उत्पाद्यन्ते त्रयः पक्षा मित्रोदासीनशत्रवः।
मूलम्
शुचेरपि हि युक्तस्य दोष एव निपात्यते।
मुनेरपि वनस्थस्य स्वानि कर्माणि कुर्वतः ॥ ६० ॥
उत्पाद्यन्ते त्रयः पक्षा मित्रोदासीनशत्रवः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘कोई कितना ही शुद्ध और उद्योगी क्यों न हो, लोग उसपर दोषारोपण कर ही देते हैं। अपने धार्मिक कर्मोंमें लगे हुए वनवासी मुनिके भी शत्रु, मित्र और उदासीन—ये तीन पक्ष पैदा हो जाते हैं॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लुब्धानां शुचयो द्वेष्याः कातराणां तरस्विनः ॥ ६१ ॥
मूर्खाणां पण्डिता द्वेष्या दरिद्राणां महाधनाः।
अधार्मिकाणां धर्मिष्ठा विरूपाणां सुरूपिणः ॥ ६२ ॥
मूलम्
लुब्धानां शुचयो द्वेष्याः कातराणां तरस्विनः ॥ ६१ ॥
मूर्खाणां पण्डिता द्वेष्या दरिद्राणां महाधनाः।
अधार्मिकाणां धर्मिष्ठा विरूपाणां सुरूपिणः ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लोभी लोग निर्लोभीसे, कायर बलवानोंसे, मूर्ख विद्वानोंसे, दरिद्र बड़े-बड़े धनियोंसे, पापाचारी धर्मात्माओंसे और कुरूप सुन्दर रूपवालोंसे द्वेष करते हैं॥६१-६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहवः पण्डिता मूर्खा लुब्धा मायोपजीविनः।
कुर्युर्दोषमदोषस्य बृहस्पतिमतेरपि ॥ ६३ ॥
मूलम्
बहवः पण्डिता मूर्खा लुब्धा मायोपजीविनः।
कुर्युर्दोषमदोषस्य बृहस्पतिमतेरपि ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विद्वानोंमें भी बहुत-से ऐसे अविवेकी, लोभी और कपटी होते हैं, जो बृहस्पतिके समान बुद्धि रखनेवाले निर्दोष व्यक्तिमें भी दोष ढूँढ निकालते हैं॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शून्यात् तच्च गृहान्मांसं यद्यप्यपहृतं तव।
नेच्छते दीयमानं च साधु तावद् विमृश्यताम् ॥ ६४ ॥
मूलम्
शून्यात् तच्च गृहान्मांसं यद्यप्यपहृतं तव।
नेच्छते दीयमानं च साधु तावद् विमृश्यताम् ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘एक ओर तो तुम्हारे सूने घरसे मांसकी चोरी हुई है और दूसरी ओर एक व्यक्ति ऐसा है, जो देनेपर भी मांस लेना नहीं चाहता—इन दोनों बातोंपर पहले अच्छी तरह विचार करो॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असभ्याः सभ्यसंकाशाः सभ्याश्चासभ्यदर्शनाः ।
दृश्यन्ते विविधा भावास्तेषु युक्तं परीक्षणम् ॥ ६५ ॥
मूलम्
असभ्याः सभ्यसंकाशाः सभ्याश्चासभ्यदर्शनाः ।
दृश्यन्ते विविधा भावास्तेषु युक्तं परीक्षणम् ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘संसारमें बहुतसे असभ्य प्राणी सभ्यकी तरह और सभ्यलोग असभ्यके समान देखे जाते हैं। इस तरह अनेक प्रकारके भाव दृष्टिगोचर होते हैं; अतः उनकी परीक्षा कर लेनी उचित है॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तलवद् दृश्यते व्योम खद्योतो हव्यवाडिव।
न चैवास्ति तलं व्योम्नि खद्योते न हुताशनः ॥ ६६ ॥
मूलम्
तलवद् दृश्यते व्योम खद्योतो हव्यवाडिव।
न चैवास्ति तलं व्योम्नि खद्योते न हुताशनः ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आकाश औंधी की हुई कड़ाहीके तले (भीतरी भागों) के समान दिखायी देता है और जुगनू अग्निके सदृश दृष्टिगोचर होता है; परंतु न तो आकाशमें तल है और न जुगनूमें अग्नि ही है॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् प्रत्यक्षदृष्टोऽपि युक्तो ह्यर्थः परीक्षितुम्।
परीक्ष्य ज्ञापयन्नर्थान्न पश्चात् परितप्यते ॥ ६७ ॥
मूलम्
तस्मात् प्रत्यक्षदृष्टोऽपि युक्तो ह्यर्थः परीक्षितुम्।
परीक्ष्य ज्ञापयन्नर्थान्न पश्चात् परितप्यते ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसलिये प्रत्यक्ष दिखायी देनवाली वस्तुकी भी परीक्षा करनी उचित है। जो परीक्षा लेकर भले-बुरेकी जाँच करके किसी कार्यके लिये आज्ञा देता है, उसे पीछे पछताना नहीं पड़ता॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न दुष्करमिदं पुत्र यत् प्रभुर्घातयेत् परम्।
श्लाघनीया यशस्या च लोके प्रभवतां क्षमा ॥ ६८ ॥
मूलम्
न दुष्करमिदं पुत्र यत् प्रभुर्घातयेत् परम्।
श्लाघनीया यशस्या च लोके प्रभवतां क्षमा ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! यदि शक्तिशाली राजा दूसरेको मरवा डाले तो यह उसके लिये कोई कठिन काम नहीं है; परंतु शक्तिशाली पुरुषोंमें यदि क्षमाका भाव हो तो संसारमें उसीकी बड़ाई की जाती है और उसीसे राजाओंका यश बढ़ता है॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थापितोऽयं त्वया पुत्र सामन्तेष्वपि विश्रुतः।
दुःखेनासाद्यते पात्रं धार्यतामेष ते सुहृत् ॥ ६९ ॥
मूलम्
स्थापितोऽयं त्वया पुत्र सामन्तेष्वपि विश्रुतः।
दुःखेनासाद्यते पात्रं धार्यतामेष ते सुहृत् ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! तुमने ही इस सियारको मन्त्रीके पदपर बिठाया है, और तुम्हारे सामन्तोंमें भी इसकी ख्याति बढ़ गयी है। कोई सुपात्र व्यक्ति बड़ी कठिनाईसे प्राप्त होता है। यह सियार तुम्हारा हितैषी सुहृद् है; इसलिये तुम इसकी रक्षा करो॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूषितं परदोषैर्हि गृह्णीते योऽन्यथा शुचिम्।
स्वयं संदूषितामात्यः क्षिप्रमेव विनश्यति ॥ ७० ॥
मूलम्
दूषितं परदोषैर्हि गृह्णीते योऽन्यथा शुचिम्।
स्वयं संदूषितामात्यः क्षिप्रमेव विनश्यति ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो दूसरोंके मिथ्या कलंक लगानेपर किसी निर्दोषको भी दण्ड देता है, वह दुष्ट मन्त्रियोंवाला राजा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है’॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादप्यरिसंघाताद् गोमायोः कश्चिदागतः ।
धर्मात्मा तेन चाख्यातं यथैतत् कपटं कृतम् ॥ ७१ ॥
मूलम्
तस्मादप्यरिसंघाताद् गोमायोः कश्चिदागतः ।
धर्मात्मा तेन चाख्यातं यथैतत् कपटं कृतम् ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उन्हीं शत्रुओंके समूहमेंसे किसी धर्मात्मा सियारने (जो शेरका गुप्तचर बना था,) आकर गीदड़के साथ जो यह छल-कपट किया गया था, वह सब सिंहको कह सुनाया॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विज्ञातचरितः सत्कृत्य स विमोक्षितः।
परिष्वक्तश्च सस्नेहं मृगेन्द्रेण पुनः पुनः ॥ ७२ ॥
मूलम्
ततो विज्ञातचरितः सत्कृत्य स विमोक्षितः।
परिष्वक्तश्च सस्नेहं मृगेन्द्रेण पुनः पुनः ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे शेरको सियारकी सच्चरित्रताका पता चल गया और उसने उसका सत्कार करके उसे इस अभियोगसे मुक्त कर दिया। इतना ही नहीं, मृगराजने स्नेहपूर्वक बारंबार अपने सचिवको गलेसे लगाया॥७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुज्ञाप्य मृगेन्द्रं तु गोमायुर्नीतिशास्त्रवित्।
तेनामर्षेण संतप्तः प्रायमासितुमैच्छत ॥ ७३ ॥
मूलम्
अनुज्ञाप्य मृगेन्द्रं तु गोमायुर्नीतिशास्त्रवित्।
तेनामर्षेण संतप्तः प्रायमासितुमैच्छत ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् नीतिशास्त्रके ज्ञाता सियारने मृगराजकी आज्ञा लेकर अमर्षसे संतप्त हो उपवास करके प्राण त्याग देनेका विचार किया॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शार्दूलस्तं तु गोमायुं स्नेहात् प्रोत्फुल्ललोचनः।
अवारयत् स धर्मिष्ठं पूजया प्रतिपूजयन् ॥ ७४ ॥
मूलम्
शार्दूलस्तं तु गोमायुं स्नेहात् प्रोत्फुल्ललोचनः।
अवारयत् स धर्मिष्ठं पूजया प्रतिपूजयन् ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शेरने धर्मात्मा गीदड़का भलीभाँति आदर-सत्कार करके उसे उपवाससे रोक दिया। उस समय उसके नेत्र स्नेहसे खिल उठे थे॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं स गोमायुरालोक्य स्नेहादागतसम्भ्रमम्।
उवाच प्रणतो वाक्यं बाष्पगद्गदया गिरा ॥ ७५ ॥
मूलम्
तं स गोमायुरालोक्य स्नेहादागतसम्भ्रमम्।
उवाच प्रणतो वाक्यं बाष्पगद्गदया गिरा ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सियारने देखा, मालिकका हृदय स्नेहसे आकुल हो रहा है, तब उसने उसे प्रणाम करके अश्रुगद्गद वाणीसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया—॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजितोऽहं त्वया पूर्वं पश्चाच्चैव विमानितः।
परेषामास्पदं नीतो वस्तुं नार्हाम्यहं त्वयि ॥ ७६ ॥
मूलम्
पूजितोऽहं त्वया पूर्वं पश्चाच्चैव विमानितः।
परेषामास्पदं नीतो वस्तुं नार्हाम्यहं त्वयि ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! पहले तो आपने मुझे सम्मान दिया और पीछे अपमानित कर दिया, शत्रुओंकी-सी अवस्थामें डाल दिया; अतः अब मैं आपके पास रहनेके योग्य नहीं हूँ॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंतुष्टाश्च्युताः स्थानान्मानात् प्रत्यवरोपिताः ।
स्वयं चोपहृता भृत्या ये चाप्युपहिताः परैः ॥ ७७ ॥
परिक्षीणाश्च लुब्धाश्च क्रुद्धा भीताः प्रतारिताः।
हृतस्वा मानिनो ये च त्यक्तादाना महेप्सवः ॥ ७८ ॥
संतापिताश्च ये केचिद् व्यसनौघप्रतीक्षिणः।
अन्तर्हिताः सोपहितास्ते सर्वे परसाधनाः ॥ ७९ ॥
मूलम्
असंतुष्टाश्च्युताः स्थानान्मानात् प्रत्यवरोपिताः ।
स्वयं चोपहृता भृत्या ये चाप्युपहिताः परैः ॥ ७७ ॥
परिक्षीणाश्च लुब्धाश्च क्रुद्धा भीताः प्रतारिताः।
हृतस्वा मानिनो ये च त्यक्तादाना महेप्सवः ॥ ७८ ॥
संतापिताश्च ये केचिद् व्यसनौघप्रतीक्षिणः।
अन्तर्हिताः सोपहितास्ते सर्वे परसाधनाः ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो अपने पदसे गिरा दिये जानेके कारण असंतुष्ट हों, अपमानित किये गये हों, जो स्वयं राजासे पुरस्कृत होकर दूसरोंके द्वारा कलंक लगाये जानेके कारण उस आदरसे वंचित कर दिये गये हों, जो क्षीण, लोभी, क्रोधी, भयभीत और धोखेमें डाले गये हों, जिनका सर्वस्व छीन लिया गया हो, जो मानी हों, जिनकी आय छिन गयी हो, जो महत्त्वपूर्ण पद पाना चाहते हों, जिन्हें सताया गया हो, जो किसी राजापर आनेवाले संकटसमूहकी प्रतीक्षा कर रहे हों, छिपे रहते हों और मनमें कपटभाव रखते हों, वे सभी सेवक शत्रुओंका काम बनानेवाले होते हैं॥७७—७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवमानेन युक्तस्य स्थानभ्रष्टस्य वा पुनः।
कथं यास्यसि विश्वासमहं तिष्ठामि वा कथम् ॥ ८० ॥
मूलम्
अवमानेन युक्तस्य स्थानभ्रष्टस्य वा पुनः।
कथं यास्यसि विश्वासमहं तिष्ठामि वा कथम् ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब मैं एक बार अपने पदसे भ्रष्ट और अपमानित हो गया, तब पुनः आप मुझपर कैसे विश्वास कर सकेंगे? अथवा मैं ही कैसे आपके पास रह सकूँगा?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समर्थ इति संगृह्य स्थापयित्वा परीक्षितः।
कृतं च समयं भित्त्वा त्वयाहमवमानितः ॥ ८१ ॥
मूलम्
समर्थ इति संगृह्य स्थापयित्वा परीक्षितः।
कृतं च समयं भित्त्वा त्वयाहमवमानितः ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपने योग्य समझकर मुझे अपनाया और मन्त्रीके पदपर बिठाकर मेरी परीक्षा ली। इसके बाद अपनी की हुई प्रतिज्ञाको तोड़कर मेरा अपमान किया॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रथमं यः समाख्यातः शीलवानिति संसदि।
न वाच्यं तस्य वैगुण्यं प्रतिज्ञां परिरक्षता ॥ ८२ ॥
मूलम्
प्रथमं यः समाख्यातः शीलवानिति संसदि।
न वाच्यं तस्य वैगुण्यं प्रतिज्ञां परिरक्षता ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहले भरी सभामें शीलवान् कहकर जिसका परिचय दिया गया हो, प्रतिज्ञाकी रक्षा करनेवाले पुरुषको उसका दोष नहीं बताना चाहिये॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं चावमतस्येह विश्वासं मे न यास्यसि।
त्वयि चापेतविश्वास ममोद्वेगो भविष्यति ॥ ८३ ॥
मूलम्
एवं चावमतस्येह विश्वासं मे न यास्यसि।
त्वयि चापेतविश्वास ममोद्वेगो भविष्यति ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब मैं इस प्रकार यहाँ अपमानित हो गया तो अब आपपर मेरा विश्वास न होगा और आप भी मुझपर विश्वास नहीं कर सकेंगे। ऐसी दशामें आपसे मुझे सदा भय बना रहेगा॥८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शंकितस्त्वमहं भीतः परच्छिद्रानुदर्शिनः ।
अस्निग्धाश्चैव दुस्तोषाः कर्म चैतद् बहुच्छलम् ॥ ८४ ॥
मूलम्
शंकितस्त्वमहं भीतः परच्छिद्रानुदर्शिनः ।
अस्निग्धाश्चैव दुस्तोषाः कर्म चैतद् बहुच्छलम् ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप मुझपर संदेह करेंगे और मैं आपसे डरता रहूँगा, इधर पराये दोष ढूँढनेवाले आपके भूत्यलोग मौजूद ही हैं। इनका मुझपर तनिक भी स्नेह नहीं है तथा इन्हें संतुष्ट रखना भी मेरे लिये अत्यन्त कठिन है। साथ ही यह मन्त्रीका कर्म भी अनेक प्रकारके छल-कपटसे भरा हुआ है॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःखेन श्लिष्यते भिन्नं श्लिष्टं दुःखेन भिद्यते।
भिन्ना श्लिष्टा तु या प्रीतिर्न सा स्नेहेन वर्तते॥८५॥
मूलम्
दुःखेन श्लिष्यते भिन्नं श्लिष्टं दुःखेन भिद्यते।
भिन्ना श्लिष्टा तु या प्रीतिर्न सा स्नेहेन वर्तते॥८५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रेमका बन्धन बड़ी कठिनाईसे टूटता है, पर जब वह एक बार टूट जाता है, तब बड़ी कठिनाईसे जुट पाता है। जो प्रेम बारंबार टूटता और जुड़ता रहता है, उसमें स्नेह नहीं होता॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कश्चिदेव हिते भर्तुर्दृश्यते न परात्मनोः।
कार्यापेक्षा हि वर्तन्ते भावस्निग्धाः सुदुर्लभाः ॥ ८६ ॥
मूलम्
कश्चिदेव हिते भर्तुर्दृश्यते न परात्मनोः।
कार्यापेक्षा हि वर्तन्ते भावस्निग्धाः सुदुर्लभाः ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ऐसा मनुष्य कोई एक ही होता है, जो अपने या दूसरेके हितमें रत न रहकर स्वामीके ही हितमें संलग्न दिखायी देता हो; क्योंकि अपने कार्यकी अपेक्षा रखकर स्वार्थसाधनका उद्देश्य लेकर प्रेम करनेवाले तो बहुत होते हैं, परंतु शुद्धभावसे स्नेह रखनेवाले मनुष्य अत्यन्त दुर्लभ हैं॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुदुःखं पुरुषज्ञानं चित्तं ह्येषां चलाचलम्।
समर्थो वाप्यशङ्को वा शतेष्वेकोऽधिगम्यते ॥ ८७ ॥
मूलम्
सुदुःखं पुरुषज्ञानं चित्तं ह्येषां चलाचलम्।
समर्थो वाप्यशङ्को वा शतेष्वेकोऽधिगम्यते ॥ ८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘योग्य मनुष्यको पहचानना राजाओंके लिये अत्यन्त दुष्कर है; क्योंकि उनका चित्त चंचल होता है, सैकड़ोंमेंसे कोई एक ही ऐसा मिलता है, जो सब प्रकारसे सुयोग्य होता हुआ भी संदेहसे परे हो॥८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकस्मात् प्रक्रिया नॄणामकस्माच्चापकर्षणम् ।
शुभाशुभे महत्त्वं च प्रकार्तुं बुद्धिलाघवम् ॥ ८८ ॥
मूलम्
अकस्मात् प्रक्रिया नॄणामकस्माच्चापकर्षणम् ।
शुभाशुभे महत्त्वं च प्रकार्तुं बुद्धिलाघवम् ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्यके उत्कर्ष और अपकर्ष (उन्नति और अवनति) अकस्मात् होते हैं, किसीका भला करके बुरा करना और उसे महत्त्व देकर नीचे गिराना, यह सब ओछी बुद्धिका परिणाम है’॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंविधं सान्त्वमुक्त्वा धर्मकामार्थहेतुमत् ।
प्रसादयित्वा राजानं गोमायुर्वनमभ्यगात् ॥ ८९ ॥
मूलम्
एवंविधं सान्त्वमुक्त्वा धर्मकामार्थहेतुमत् ।
प्रसादयित्वा राजानं गोमायुर्वनमभ्यगात् ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मुक्तियोंसे युक्त सान्त्वनापूर्ण वचन कहकर सियारने बाघराजाको प्रसन्न कर लिया और उसकी अनुमति लेकर वह वनमें चला गया॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगृह्यानुनयं तस्य मृगेन्द्रस्य च बुद्धिमान्।
गोमायुः प्रायमास्थाय त्यक्त्वा देहं दिवं ययौ ॥ ९० ॥
मूलम्
अगृह्यानुनयं तस्य मृगेन्द्रस्य च बुद्धिमान्।
गोमायुः प्रायमास्थाय त्यक्त्वा देहं दिवं ययौ ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह बड़ा बुद्धिमान् था; अतः शेरकी अनुनय-विनय न मानकर मृत्युपर्यन्त निराहार रहनेका व्रत ले एक स्थानपर बैठ गया और अन्तमें शरीर त्यागकर स्वर्गधाममें जा पहुँचा॥९०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि व्याघ्रगोमायुसंवादे एकादशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १११ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें व्याघ्र और गीदड़का संवादविषयक एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१११॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ९१ श्लोक हैं।)