१०८ मातृपितृगुरुमाहात्म्ये

भागसूचना

अष्टाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

माता-पिता तथा गुरुकी सेवाका महत्त्व

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

महानयं धर्मपथो बहुशाखश्च भारत।
किंस्विदेवेह धर्माणामनुष्ठेय तमं मतम् ॥ १ ॥

मूलम्

महानयं धर्मपथो बहुशाखश्च भारत।
किंस्विदेवेह धर्माणामनुष्ठेय तमं मतम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— भारत! धर्मका यह मार्ग बहुत बड़ा है तथा इसकी बहुत-सी शाखाएँ हैं इन धर्मोंमेंसे किसको आप विशेषरूपसे आचरणमें लानेयोग्य समझते हैं?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं कार्यं सर्वधर्माणां गरीयो भवतो मतम्।
यथाहं परमं धर्ममिह च प्रेत्य चाप्नुयाम् ॥ २ ॥

मूलम्

किं कार्यं सर्वधर्माणां गरीयो भवतो मतम्।
यथाहं परमं धर्ममिह च प्रेत्य चाप्नुयाम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब धर्मोंमें कौन-सा कार्य आपको श्रेष्ठ जान पड़ता है, जिसका अनुष्ठान करके मैं इहलोक और परलोकमें भी परम धर्मका फल प्राप्त कर सकूँ?॥२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातापित्रोर्गुरूणां च पूजा बहुमता मम।
इह युक्तो नरो लोकान् यशश्च महदश्नुते ॥ ३ ॥

मूलम्

मातापित्रोर्गुरूणां च पूजा बहुमता मम।
इह युक्तो नरो लोकान् यशश्च महदश्नुते ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! मुझे तो माता-पिता तथा गुरुजनोंकी पूजा ही अधिक महत्त्वकी वस्तु जान पड़ती है। इसलोकमें इस पुण्य कार्यमें संलग्न होकर मनुष्य महान् यश और श्रेष्ठ लोक पाता है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च तेऽभ्यनुजानीयुः कर्म तात सुपूजिताः।
धर्माधर्मविरुद्धं वा तत् कर्तव्यं युधिष्ठिर ॥ ४ ॥

मूलम्

यच्च तेऽभ्यनुजानीयुः कर्म तात सुपूजिताः।
धर्माधर्मविरुद्धं वा तत् कर्तव्यं युधिष्ठिर ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात युधिष्ठिर! भलीभाँति पूजित हुए वे माता-पिता और गुरुजन जिस कामके लिये आज्ञा दें, वह धर्मके अनुकूल हो या विरुद्ध, उसका पालन करना ही चाहिये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च तैरभ्यनुज्ञातो धर्ममन्यं समाचरेत्।
यं च तेऽभ्यनुजानीयुः स धर्म इति निश्चयः ॥ ५ ॥

मूलम्

न च तैरभ्यनुज्ञातो धर्ममन्यं समाचरेत्।
यं च तेऽभ्यनुजानीयुः स धर्म इति निश्चयः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो उनकी आज्ञाके पालनमें संलग्न है, उसके लिये दूसरे किसी धर्मके आचरणकी आवश्यकता नहीं है। जिस कार्यके लिये वे आज्ञा दें, वही धर्म है ऐसा धर्मात्माओंका निश्चय है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एत एव त्रयो लोका एत एवाश्रमास्त्रयः।
एत एव त्रयो वेदा एत एव त्रयोऽग्नयः ॥ ६ ॥

मूलम्

एत एव त्रयो लोका एत एवाश्रमास्त्रयः।
एत एव त्रयो वेदा एत एव त्रयोऽग्नयः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये माता-पिता और गुरुजन ही तीनों लोक हैं, यही तीनों आश्रम हैं, यही तीनों वेद हैं तथा ये ही तीनों अग्नियाँ हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता वै गार्हपत्योऽग्निर्माताग्निर्दक्षिणः स्मृतः।
गुरुराहवनीयस्तु साग्नित्रेता गरीयसी ॥ ७ ॥

मूलम्

पिता वै गार्हपत्योऽग्निर्माताग्निर्दक्षिणः स्मृतः।
गुरुराहवनीयस्तु साग्नित्रेता गरीयसी ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिता गार्हपत्य अग्नि हैं, माता दक्षिणाग्नि मानी गयी है और गुरु आहवनीय अग्निका स्वरूप है। लौकिक अग्नियोंसे माता-पिता आदि त्रिविध अग्नियोंका गौरव अधिक है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिष्वप्रमाद्यन्नेतेषु त्रींल्लोकांश्च विजेष्यसि ।
पितृवृत्त्या त्विमं लोकं मातृवृत्त्या तथा परम् ॥ ८ ॥
ब्रह्मलोकं गुरोर्वृत्त्या नियमेन तरिष्यसि।

मूलम्

त्रिष्वप्रमाद्यन्नेतेषु त्रींल्लोकांश्च विजेष्यसि ।
पितृवृत्त्या त्विमं लोकं मातृवृत्त्या तथा परम् ॥ ८ ॥
ब्रह्मलोकं गुरोर्वृत्त्या नियमेन तरिष्यसि।

अनुवाद (हिन्दी)

यदि तुम इन तीनोंकी सेवामें कोई भूल नहीं करोगे तो तीनों लोकोंको जीत लोगे। पिताकी सेवासे इस लोकको, माताकी सेवासे परलोकको तथा नियमपूर्वक गुरुकी सेवासे ब्रह्मलोकको भी लाँघ जाओगे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्यगेतेषु वर्तस्व त्रिषु लोकेषु भारत ॥ ९ ॥
यशः प्राप्स्यसि भद्रं ते धर्मं च सुमहत्फलम्।

मूलम्

सम्यगेतेषु वर्तस्व त्रिषु लोकेषु भारत ॥ ९ ॥
यशः प्राप्स्यसि भद्रं ते धर्मं च सुमहत्फलम्।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! इसलिये तुम त्रिविध लोकस्वरूप इन तीनोंके प्रति उत्तम बर्ताव करो। तुम्हारा कल्याण हो। ऐसा करनेसे तुम्हें यश और महान् फल देनेवाले धर्म की प्राप्ति होगी॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतानतिशयेज्जातु नात्यश्नीयान्न दूषयेत् ॥ १० ॥
नित्यं परिचरेच्चैव तद् वै सुकृतमुत्तमम्।
कीर्तिं पुण्यं यशो लोकान् प्राप्स्यसे राजसत्तम ॥ ११ ॥

मूलम्

नैतानतिशयेज्जातु नात्यश्नीयान्न दूषयेत् ॥ १० ॥
नित्यं परिचरेच्चैव तद् वै सुकृतमुत्तमम्।
कीर्तिं पुण्यं यशो लोकान् प्राप्स्यसे राजसत्तम ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन तीनोंकी आज्ञाका कभी उल्लंघन न करे, इनको भोजन करानेके पहले स्वयं भोजन न करे, इनपर कोई दोषारोपण न करे और सदा इनकी सेवामें संलग्न रहे। यही सबसे उत्तम पुण्यकर्म है। नृपश्रेष्ठ! इनकी सेवासे तुम कीर्ति, पवित्र यश और उत्तमलोक सब कुछ प्राप्त कर लोगे॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे तस्यादृता लोका यस्यैते त्रय आदृताः।
अनादृतास्तु यस्यैते सर्वास्तस्याफलाः क्रियाः ॥ १२ ॥

मूलम्

सर्वे तस्यादृता लोका यस्यैते त्रय आदृताः।
अनादृतास्तु यस्यैते सर्वास्तस्याफलाः क्रियाः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने इन तीनोंका आदर कर लिया, उसके द्वारा सम्पूर्ण लोकोंका आदर हो गया और जिसने इनका अनादर कर दिया, उसके सम्पूर्ण शुभ कर्म निष्फल हो जाते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चायं न परो लोकस्तस्य चैव परंतप।
अमानिता नित्यमेव यस्यैते गुरुवस्त्रयः ॥ १३ ॥

मूलम्

न चायं न परो लोकस्तस्य चैव परंतप।
अमानिता नित्यमेव यस्यैते गुरुवस्त्रयः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! जिसने इन तीनों गुरुजनोंका सदा अपमान ही किया है, उसके लिये न तो यह लोक सुखद है और न परलोक॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चास्मिन्नपरे लोके यशस्तस्य प्रकाशते।
न चान्यदपि कल्याणं परत्र समुदाहृतम् ॥ १४ ॥

मूलम्

न चास्मिन्नपरे लोके यशस्तस्य प्रकाशते।
न चान्यदपि कल्याणं परत्र समुदाहृतम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

न इस लोकमें और न परलोकमें ही उसका यश प्रकाशित होता है। परलोकमें जो अन्य कल्याणमय सुखकी प्राप्ति बतायी गयी है, वह भी उसे सुलभ नहीं होती है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेभ्य एव हि यत् सर्वं कृत्वा च विसृजाम्यहम्।
तदासीन्मे शतगुणं सहस्रगुणमेव च ॥ १५ ॥
तस्मान्मे सम्प्रकाशन्ते त्रयो लोका युधिष्ठिर।

मूलम्

तेभ्य एव हि यत् सर्वं कृत्वा च विसृजाम्यहम्।
तदासीन्मे शतगुणं सहस्रगुणमेव च ॥ १५ ॥
तस्मान्मे सम्प्रकाशन्ते त्रयो लोका युधिष्ठिर।

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तो सारा शुभ कर्म करके इन तीनों गुरुजनोंको ही समर्पित कर देता था। इससे मेरे उन सभी शुभ कर्मोंका पुण्य सौगुना और हजारगुना बढ़ गया है। युधिष्ठिर! इसीसे तीनों लोक मेरी दृष्टिके सामने प्रकाशित हो रहे हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशैव तु सदाऽऽचार्यः श्रोत्रियानतिरिच्यते ॥ १६ ॥
दशाचार्यानुपाध्याय उपाध्यायान् पिता दश।
पितॄन् दश तु मातैका सर्वा वा पृथिवीमपि ॥ १७ ॥
गुरुत्वेनाभिभवति नास्ति मातृसमो गुरुः।

मूलम्

दशैव तु सदाऽऽचार्यः श्रोत्रियानतिरिच्यते ॥ १६ ॥
दशाचार्यानुपाध्याय उपाध्यायान् पिता दश।
पितॄन् दश तु मातैका सर्वा वा पृथिवीमपि ॥ १७ ॥
गुरुत्वेनाभिभवति नास्ति मातृसमो गुरुः।

अनुवाद (हिन्दी)

आचार्य सदा दस श्रोत्रियोंसे बढ़कर है। उपाध्याय (विद्यागुरु) दस आचार्योंसे अधिक महत्त्व रखता है, पिता दस उपाध्यायोंसे बढ़कर है और माताका महत्त्व दस पिताओंसे भी अधिक है। वह अकेली ही अपने गौरवके द्वारा सारी पृथ्वीको भी तिरस्कृत कर देती है। अतः माताके समान दूसरा कोई गुरु नहीं है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुर्गरीयान् पितृतो मातृतश्चेति मे मतिः ॥ १८ ॥
उभौ हि मातापितरौ जन्मन्येवोपयुज्यतः।

मूलम्

गुरुर्गरीयान् पितृतो मातृतश्चेति मे मतिः ॥ १८ ॥
उभौ हि मातापितरौ जन्मन्येवोपयुज्यतः।

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु मेरा विश्वास यह है कि गुरुका पद पिता और मातासे भी बढ़कर है; क्योंकि माता-पिता तो केवल इस शरीरको जन्म देनेके ही उपयोगमें आते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरमेव सृजतः पिता माता च भारत ॥ १९ ॥
आचार्यशिष्टा या जातिः सा दिव्या साजरामरा।

मूलम्

शरीरमेव सृजतः पिता माता च भारत ॥ १९ ॥
आचार्यशिष्टा या जातिः सा दिव्या साजरामरा।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! पिता और माता केवल शरीरको ही जन्म देते हैं; परंतु आचार्यका उपदेश प्राप्त करके जो द्वितीय जन्म उपलब्ध होता है, वह दिव्य है, अजर-अमर है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवध्या हि सदा माता पिता चाप्यपकारिणौ ॥ २० ॥
न संदुष्यति तत् कृत्वा न च ते दूषयन्ति तम्।
धर्माय यतमानानां विदुर्देवा महर्षिभिः ॥ २१ ॥

मूलम्

अवध्या हि सदा माता पिता चाप्यपकारिणौ ॥ २० ॥
न संदुष्यति तत् कृत्वा न च ते दूषयन्ति तम्।
धर्माय यतमानानां विदुर्देवा महर्षिभिः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिता-माता यदि कोई अपराध करें तो भी वे सदा अवध्य ही हैं; क्योंकि पुत्र या शिष्य पिता-माता और गुरुका अपराध करके भी उनकी दृष्टिमें दूषित नहीं होते हैं। वे गुरुजन पुत्र या शिष्यपर स्नेहवश दोषारोपण नहीं करते; बल्कि सदा उसे धर्मके मार्गपर ही ले जानेका प्रयत्न करते हैं। ऐसे पिता-माता आदि गुरुजनोंका महत्त्व महर्षियोंसहित देवता ही जानते हैं॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्चावृणोत्यवितथेन कर्मणा
ऋतं ब्रुवन्ननृतं सम्प्रयच्छन् ।
तं वै मन्येत पितरं मातरं च
तस्मै न द्रुह्येत् कृतमस्य जानन् ॥ २२ ॥

मूलम्

यश्चावृणोत्यवितथेन कर्मणा
ऋतं ब्रुवन्ननृतं सम्प्रयच्छन् ।
तं वै मन्येत पितरं मातरं च
तस्मै न द्रुह्येत् कृतमस्य जानन् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सत्य कर्म (के द्वारा यथार्थ उपदेश) के द्वारा पुत्र या शिष्यको कवचकी भाँति ढक लेता है, सत्यस्वरूप वेदका उपदेश देता और असत्यकी रोक-थाम करता है, उस गुरुको ही पिता और माता समझे और उसके उपकारको जानकर कभी उससे द्रोह न करे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्यां श्रुत्वा ये गुरुं नाद्रियन्ते
प्रत्यासन्ना मनसा कर्मणा वा।
तेषां पापं भ्रूणहत्याविशिष्टं
नान्यस्तेभ्यः पापकृदस्ति लोके ।
यथैव ते गुरुभिर्भावनीया-
स्तथा तेषां गुरवोऽभ्यर्चनीयाः ॥ २३ ॥

मूलम्

विद्यां श्रुत्वा ये गुरुं नाद्रियन्ते
प्रत्यासन्ना मनसा कर्मणा वा।
तेषां पापं भ्रूणहत्याविशिष्टं
नान्यस्तेभ्यः पापकृदस्ति लोके ।
यथैव ते गुरुभिर्भावनीया-
स्तथा तेषां गुरवोऽभ्यर्चनीयाः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग विद्या पढ़कर गुरुका आदर नहीं करते, निकट रहकर मन, वाणी और क्रियाद्वारा गुरुकी सेवा नहीं करते, उन्हें गर्भके बालककी हत्यासे भी बढ़कर पाप लगता है। संसारमें उनसे बड़ा पापी दूसरा कोई नहीं है। जैसे गुरुओंका कर्तव्य है, शिष्यको आत्मोन्नतिके पथपर पहुँचाना, उसी तरह शिष्योंका धर्म है गुरुओंका पूजन करना॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् पूजयितव्याश्च संविभज्याश्च यत्नतः।
गुरवोऽर्चयितव्याश्च पुराणं धर्ममिच्छता ॥ २४ ॥

मूलम्

तस्मात् पूजयितव्याश्च संविभज्याश्च यत्नतः।
गुरवोऽर्चयितव्याश्च पुराणं धर्ममिच्छता ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः जो पुरातन धर्मका फल पाना चाहते हैं, उन्हें चाहिये कि वे गुरुओंकी पूजा-अर्चा करें और प्रयत्नपूर्वक उन्हें आवश्यक वस्तुएँ लाकर दें॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन प्रीणाति पितरं तेन प्रीतः प्रजापतिः।
प्रीणाति मातरं येन पृथिवी तेन पूजिता ॥ २५ ॥

मूलम्

येन प्रीणाति पितरं तेन प्रीतः प्रजापतिः।
प्रीणाति मातरं येन पृथिवी तेन पूजिता ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य जिस कर्मसे पिताको प्रसन्न करता है, उसीके द्वारा प्रजापति ब्रह्माजीभी प्रसन्न होते हैं तथा जिस बर्तावसे वह माताको प्रसन्न कर लेता है, उसीके द्वारा समूची पृथ्वीकी भी पूजा हो जाती है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन प्रीणात्युपाध्यायं तेन स्याद् ब्रह्म पूजितम्।
मातृतः पितृतश्चैव तस्मात् पूज्यतमो गुरुः ॥ २६ ॥

मूलम्

येन प्रीणात्युपाध्यायं तेन स्याद् ब्रह्म पूजितम्।
मातृतः पितृतश्चैव तस्मात् पूज्यतमो गुरुः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस कर्मसे शिष्य उपाध्याय (विद्यागुरु) को प्रसन्न करता है, उसीके द्वारा परब्रह्म परमात्माकी पूजा सम्पन्न हो जाती है; अतः गुरु माता-पितासे भी अधिक पूजनीय है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषयश्च हि देवाश्च प्रीयन्ते पितृभिः सह।
पूज्यमानेषु गुरुषु तस्मात् पूज्यतमो गुरुः ॥ २७ ॥

मूलम्

ऋषयश्च हि देवाश्च प्रीयन्ते पितृभिः सह।
पूज्यमानेषु गुरुषु तस्मात् पूज्यतमो गुरुः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुओंके पूजित होनेपर पितरोंसहित देवता और ऋषि भी प्रसन्न होते हैं; इसलिये गुरु परम पूजनीय है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केनचिन्न च वृत्तेन ह्यवज्ञेयो गुरुर्भवेत्।
न च माता न च पिता मन्यते यादृशो गुरुः॥२८॥

मूलम्

केनचिन्न च वृत्तेन ह्यवज्ञेयो गुरुर्भवेत्।
न च माता न च पिता मन्यते यादृशो गुरुः॥२८॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी भी बर्तावके कारण गुरु अपमानके योग्य नहीं होता। इसी तरह माता और पिता भी अनादरके योग्य नहीं हैं। जैसे गुरु माननीय हैं, वैसे ही माता-पिता भी हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तेऽवमानमर्हन्ति न तेषां दूषयेत् कृतम्।
गुरूणामेव सत्कारं विदुर्देवा महर्षिभिः ॥ २९ ॥

मूलम्

न तेऽवमानमर्हन्ति न तेषां दूषयेत् कृतम्।
गुरूणामेव सत्कारं विदुर्देवा महर्षिभिः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे तीनों कदापि अपमानके योग्य नहीं हैं। उनके किये हुए किसी भी कार्यकी निन्दा नहीं करनी चाहिये। गुरुजनोंके इस सत्कारको देवता और महर्षि भी अपना सत्कार मानते हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपाध्यायं पितरं मातरं च
येऽभिद्रुह्यन्ते मनसा कर्मणा वा।
तेषां पापं भ्रूणहत्याविशिष्टं
तस्मान्नान्यः पापकृदस्ति लोके ॥ ३० ॥

मूलम्

उपाध्यायं पितरं मातरं च
येऽभिद्रुह्यन्ते मनसा कर्मणा वा।
तेषां पापं भ्रूणहत्याविशिष्टं
तस्मान्नान्यः पापकृदस्ति लोके ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अध्यापक, पिता और माताके प्रति जो मन-वाणी और क्रियाद्वारा द्रोह करते हैं, उन्हें भ्रूणहत्यासे भी महान् पाप लगता है। संसारमें उससे बढ़कर दूसरा कोई पापाचारी नहीं है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भृतो वृद्धो यो न बिभर्ति पुत्रः
स्वयोनिजः पितरं मातरं च।
तद् वै पापं भ्रूणहत्याविशिष्टं
तस्मान्नान्यः पापकृदस्ति लोके ॥ ३१ ॥

मूलम्

भृतो वृद्धो यो न बिभर्ति पुत्रः
स्वयोनिजः पितरं मातरं च।
तद् वै पापं भ्रूणहत्याविशिष्टं
तस्मान्नान्यः पापकृदस्ति लोके ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पिता-माताका औरस पुत्र है और पाल-पोसकर बड़ा कर दिया गया है, वह यदि अपने माता-पिताका भरण-पोषण नहीं करता है तो उसे भ्रूणहत्यासे भी बढ़कर पाप लगता है और जगत्‌में उससे बड़ा पापात्मा दूसरा कोई नहीं है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मित्रद्रुहः कृतघ्नस्य स्त्रीघ्नस्य गुरुघातिनः।
चतुर्णां वयमेतेषां निष्कृतिं नानुशुश्रुम ॥ ३२ ॥

मूलम्

मित्रद्रुहः कृतघ्नस्य स्त्रीघ्नस्य गुरुघातिनः।
चतुर्णां वयमेतेषां निष्कृतिं नानुशुश्रुम ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मित्रद्रोही, कृतघ्न, स्त्रीहत्यारे और गुरुघाती—इन चारोंके पापका प्रायश्चित्त हमारे सुननेमें नहीं आया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत्सर्वमनिर्देशेनैवमुक्तं
यत् कर्तव्यं पुरुषेणेह लोके।
एतच्छ्रेयो नान्यदस्माद् विशिष्टं
सर्वान् धर्माननुसृत्यैतदुक्तम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

एतत्सर्वमनिर्देशेनैवमुक्तं
यत् कर्तव्यं पुरुषेणेह लोके।
एतच्छ्रेयो नान्यदस्माद् विशिष्टं
सर्वान् धर्माननुसृत्यैतदुक्तम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये सारी बातें जो इस जगत्‌में पुरुषके द्वारा पालनीय हैं, यहाँ विस्तारके साथ बतायी गयी हैं। यही कल्याणकारी मार्ग है। इससे बढ़कर दूसरा कोई कर्तव्य नहीं है। सम्पूर्ण धर्मोंका अनुसरण करके यहाँ सबका सार बताया गया है॥३३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि मातृपितृगुरुमाहात्म्ये अष्टाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें माता-पिता और गुरुका माहात्म्यविषयक एक सौ आठवाँ अध्याय पूरा हआ॥१०८॥