भागसूचना
षडधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कालकवृक्षीय मुनिका विदेहराज तथा कोसलराजकुमारमें मेल कराना और विदेहराजका कोसलराजको अपना जामाता बना लेना
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न निकृत्या न दम्भेन ब्रह्मन्निच्छामि जीवितुम्।
नाधर्मयुक्तानिच्छेयमर्थान् सुमहतोऽप्यहम् ॥ १ ॥
मूलम्
न निकृत्या न दम्भेन ब्रह्मन्निच्छामि जीवितुम्।
नाधर्मयुक्तानिच्छेयमर्थान् सुमहतोऽप्यहम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने कहा— ब्रह्मन्! मैं कपट और दम्भका आश्रय लेकर जीवित नहीं रहना चाहता। अधर्मके सहयोगसे मुझे बहुत बड़ी सम्पत्ति मिलती हो तो भी मैं उसकी इच्छा नहीं करता॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरस्तादेव भगवन् मयैतदपवर्जितम् ।
येन मां नाभिशङ्केत येन कृत्स्नं हितं भवेत् ॥ २ ॥
मूलम्
पुरस्तादेव भगवन् मयैतदपवर्जितम् ।
येन मां नाभिशङ्केत येन कृत्स्नं हितं भवेत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! मैंने तो पहलेसे ही इन सब दुर्गुणोंका परित्याग कर दिया है, जिससे किसीका मुझपर संदेह न हो और सबका सम्पूर्णरूपसे हित हो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनृशंस्येन धर्मेण लोके ह्यस्मिन् जिजीविषुः।
नाहमेतदलं कर्तुं नैतत् त्वय्युपपद्यते ॥ ३ ॥
मूलम्
आनृशंस्येन धर्मेण लोके ह्यस्मिन् जिजीविषुः।
नाहमेतदलं कर्तुं नैतत् त्वय्युपपद्यते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं दया-धर्मका आश्रय लेकर ही इस जगत्में जीना चाहता हूँ। मुझसे यह अधर्माचरण कदापि नहीं हो सकता, और ऐसा उपदेश देना आपको भी शोभा नहीं देता॥३॥
मूलम् (वचनम्)
मुनिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपपन्नस्त्वमेतेन यथा क्षत्रिय भाषसे।
प्रकृत्या ह्युपपन्नोऽसि बुद्ध्या वा बहुदर्शनः ॥ ४ ॥
मूलम्
उपपन्नस्त्वमेतेन यथा क्षत्रिय भाषसे।
प्रकृत्या ह्युपपन्नोऽसि बुद्ध्या वा बहुदर्शनः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिने कहा— राजकुमार! तुम जैसा कहते हो, वैसे ही गुणोंसे सम्पन्न भी हो। तुम धार्मिक स्वभावसे युक्त हो और अपनी बुद्धिके द्वारा बहुत कुछ देखने तथा समझनेकी शक्ति रखते हो॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभयोरेव वामर्थे यतिष्ये तव तस्य च।
संश्लेषं वा करिष्यामि शाश्वतं ह्यनपायिनम् ॥ ५ ॥
मूलम्
उभयोरेव वामर्थे यतिष्ये तव तस्य च।
संश्लेषं वा करिष्यामि शाश्वतं ह्यनपायिनम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तुम्हारे और राजा जनक—दोनोंके ही हितके लिये अब स्वयं ही प्रयत्न करूँगा और तुम दोनोंमें ऐसा घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करा दूँगा, जो अमिट और चिरस्थायी हो॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वादृशं हि कुले जातमनृशंसं बहुश्रुतम्।
अमात्यं को न कुर्वीत राज्यप्रणयकोविदम् ॥ ६ ॥
मूलम्
त्वादृशं हि कुले जातमनृशंसं बहुश्रुतम्।
अमात्यं को न कुर्वीत राज्यप्रणयकोविदम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारा जन्म उच्चकुलमें हुआ है। तुम दयालु, अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता तथा राज्यसंचालनकी कलामें कुशल हो। तुम्हारे-जैसे योग्य पुरुषको कौन अपना मन्त्री नहीं बनायेगा?॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्त्वं प्रच्यावितो राज्याद् व्यसनं चोत्तमं गतः।
आनृशंस्येन वृत्तेन क्षत्रियेच्छसि जीवितुम् ॥ ७ ॥
मूलम्
यस्त्वं प्रच्यावितो राज्याद् व्यसनं चोत्तमं गतः।
आनृशंस्येन वृत्तेन क्षत्रियेच्छसि जीवितुम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजकुमार! तुम्हें राज्यसे भ्रष्ट कर दिया गया है। तुम बड़ी भारी विपत्तिमें पड़ गये हो तथापि तुमने क्रूरताको नहीं अपनाया, तुम दयायुक्त बर्तावसे ही जीवन बिताना चाहते हो॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगन्ता मद्गृहं तात वैदेहः सत्यसंगरः।
अथाहं तं नियोक्ष्यामि तत् करिष्यत्यसंशयम् ॥ ८ ॥
मूलम्
आगन्ता मद्गृहं तात वैदेहः सत्यसंगरः।
अथाहं तं नियोक्ष्यामि तत् करिष्यत्यसंशयम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! सत्यप्रतिज्ञ विदेहराज जनक जब मेरे आश्रमपर पधारेंगे, उस समय मैं उन्हें जो भी आज्ञा दूँगा, उसे वे निःसंदेह पूर्ण करेंगे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत आहूय वैदेहं मुनिर्वचनमब्रवीत्।
अयं राजकुले जातो विदिताभ्यन्तरो मम ॥ ९ ॥
मूलम्
तत आहूय वैदेहं मुनिर्वचनमब्रवीत्।
अयं राजकुले जातो विदिताभ्यन्तरो मम ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर मुनिने विदेहराज जनकको बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा—‘राजन्! यह राजकुमार राज-वंशमें उत्पन्न हुआ है, इसकी आन्तरिक बातोंको भी मैं जानता हूँ॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदर्श इव शुद्धात्मा शारदश्चन्द्रमा यथा।
नास्मिन् पश्यामि वृजिनं सर्वतो मे परीक्षितः ॥ १० ॥
मूलम्
आदर्श इव शुद्धात्मा शारदश्चन्द्रमा यथा।
नास्मिन् पश्यामि वृजिनं सर्वतो मे परीक्षितः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसका हृदय दर्पणके समान शुद्ध और शरत्कालके चन्द्रमाकी भाँति उज्ज्वल है। मैंने इसकी सब प्रकारसे परीक्षा कर ली है। इसमें मैं कोई पाप या दोष नहीं देख रहा हूँ॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन ते संधिरेवास्तु विश्वसास्मिन् यथा मयि।
न राज्यमनमात्येन शक्यं शास्तुमपि त्र्यहम् ॥ ११ ॥
मूलम्
तेन ते संधिरेवास्तु विश्वसास्मिन् यथा मयि।
न राज्यमनमात्येन शक्यं शास्तुमपि त्र्यहम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः इसके साथ अवश्य ही तुम्हारी संधि हो जानी चाहिये। तुम जैसा मुझपर विश्वास करते हो, वैसा ही इसपर भी करो। कोई भी राज्य बिना मन्त्रीके तीन दिन भी नहीं चलाया जा सकता॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमात्यः शूर एव स्याद् बुद्धिसम्पन्न एव वा।
ताभ्यां चैवोभयं राजन् पश्य राज्यप्रयोजनम् ॥ १२ ॥
मूलम्
अमात्यः शूर एव स्याद् बुद्धिसम्पन्न एव वा।
ताभ्यां चैवोभयं राजन् पश्य राज्यप्रयोजनम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मन्त्री वही हो सकता है, जो शूरवीर अथवा बुद्धिमान् हो। शौर्य और बुद्धिसे ही लोक और परलोक दोनोंका सुधार होता है। राजन्! उभयलोककी सिद्धि ही राज्यका प्रयोजन है। इसे अच्छी तरह देखो और समझो॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मात्मनां क्वचिल्लोके नान्यास्ति गतिरीदृशी।
महात्मा राजपुत्रोऽयं सतां मार्गमनुष्ठितः ॥ १३ ॥
मूलम्
धर्मात्मनां क्वचिल्लोके नान्यास्ति गतिरीदृशी।
महात्मा राजपुत्रोऽयं सतां मार्गमनुष्ठितः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जगत्में धर्मात्मा राजाओंके लिये अच्छे मन्त्रीके समान दूसरी कोई गति नहीं है। यह राजकुमार महामना है। इसने सत्पुरुषोंके मार्गका आश्रय लिया है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुसंगृहीतस्त्वेवैष त्वया धर्मपुरोगमः ।
संसेव्यमानः शत्रूंस्ते गृह्णीयान्महतो गणान् ॥ १४ ॥
मूलम्
सुसंगृहीतस्त्वेवैष त्वया धर्मपुरोगमः ।
संसेव्यमानः शत्रूंस्ते गृह्णीयान्महतो गणान् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि तुमने धर्मको सामने रखकर इसे सम्मान-पूर्वक अपनाया तो तुमसे सेवित होकर यह तुम्हारे शत्रुओंके भारी-से-भारी समुदायोंको काबूमें कर सकता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्ययं प्रतियुद्ध्येत् त्वां स्वकर्म क्षत्रियस्य तत्।
जिगीषमाणस्त्वां युद्धे पितृपैतामहे पदे ॥ १५ ॥
मूलम्
यद्ययं प्रतियुद्ध्येत् त्वां स्वकर्म क्षत्रियस्य तत्।
जिगीषमाणस्त्वां युद्धे पितृपैतामहे पदे ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि यह अपने बाप-दादोंके राज्यके लिये युद्धमें तुम्हें जीतनेकी इच्छा रखकर तुम्हारे साथ संग्राम छेड़ दे तो क्षत्रियके लिये यह स्वधर्मका पालन ही होगा॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं चापि प्रतियुद्ध्येथा विजिगीषुव्रते स्थितः।
अयुध्वैव नियोगान्मे वशे कुरु हिते स्थितः ॥ १६ ॥
मूलम्
त्वं चापि प्रतियुद्ध्येथा विजिगीषुव्रते स्थितः।
अयुध्वैव नियोगान्मे वशे कुरु हिते स्थितः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय तुम भी विजयाभिलाषी राजाके व्रतमें स्थित हो इसके साथ युद्ध करोगे ही। अतः मेरी आज्ञा मानकर इसके हित-साधनमें तत्पर हो जाओ और युद्ध किये बिना ही इसे वशमें कर लो॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वं धर्ममवेक्षस्व हित्वा लोभमसाम्प्रतम्।
न च कामान्न च द्रोहात् स्वधर्मं हातुमर्हसि ॥ १७ ॥
मूलम्
स त्वं धर्ममवेक्षस्व हित्वा लोभमसाम्प्रतम्।
न च कामान्न च द्रोहात् स्वधर्मं हातुमर्हसि ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अनुचित लोभका परित्याग करके तुम धर्मपर ही दृष्टि रखो, कामना अथवा द्रोहसे भी अपने धर्मका परित्याग न करो॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव नित्यं जयस्तात नैव नित्यं पराजयः।
तस्माद् भोजयितव्यश्च भोक्तव्यश्च परो जनः ॥ १८ ॥
मूलम्
नैव नित्यं जयस्तात नैव नित्यं पराजयः।
तस्माद् भोजयितव्यश्च भोक्तव्यश्च परो जनः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! किसीकी भी न तो सदा जय होती है और न नित्य पराजय ही होती है। जैसे राजा दूसरे मनुष्योंको जीतकर उसका तथा उसकी सम्पत्तिका उपभोग करता है, वैसे ही दूसरोंको भी उसे अपनी सम्पत्ति भोगनेका अवसर देना चाहिये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मन्यपि च संदृश्यावुभौ जयपराजयौ।
निःशेषकारिणां तात निःशेषकरणाद् भयम् ॥ १९ ॥
मूलम्
आत्मन्यपि च संदृश्यावुभौ जयपराजयौ।
निःशेषकारिणां तात निःशेषकरणाद् भयम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वत्स! अपनेमें भी जय और पराजय दोनोंको देखना चाहिये। जो दूसरोंकी सम्पत्ति छीनकर उसके पास कुछ भी शेष नहीं रहने देते, उन्हें उस सर्वस्वापहरणरूपी पापसे अपने लिये भी सदा भय बना रहता है’॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं वचनं ब्राह्मणर्षभम्।
प्रतिपूज्याभिसत्कृत्य पूजार्हमनुमान्य च ॥ २० ॥
मूलम्
इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं वचनं ब्राह्मणर्षभम्।
प्रतिपूज्याभिसत्कृत्य पूजार्हमनुमान्य च ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिके इस प्रकार कहनेपर राजाने उन पूजनीय ब्राह्मणशिरोमणि महर्षिका पूजन और आदर-सत्कार करके उनकी बातका अनुमोदन करते हुए इस तरह उत्तर दिया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा ब्रूयान्महाप्राज्ञो यथा ब्रूयान्महाश्रुतः।
श्रेयस्कामो यथा ब्रूयादुभयोरेव तत् क्षमम् ॥ २१ ॥
मूलम्
यथा ब्रूयान्महाप्राज्ञो यथा ब्रूयान्महाश्रुतः।
श्रेयस्कामो यथा ब्रूयादुभयोरेव तत् क्षमम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कोई महाबुद्धिमान्-जैसी बात कह सकता है, कोई महाविद्वान्-जैसी वाणी बोल सकता है, तथा दूसरोंका कल्याण चाहनेवाला महापुरुष जैसा उपदेश दे सकता है, वैसी ही बात आपने कही है। यह हम दोनोंके लिये ही शिरोधार्य करने योग्य है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् यद् वचनमुक्तोऽस्मि करिष्यामि च तत् तथा।
एतद्धि परमं श्रेयो न मेऽत्रास्ति विचारणा ॥ २२ ॥
मूलम्
यद् यद् वचनमुक्तोऽस्मि करिष्यामि च तत् तथा।
एतद्धि परमं श्रेयो न मेऽत्रास्ति विचारणा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! आपने मेरे लिये जो-जो आदेश दिया है, उसका मैं उसी रूपमें पालन करूँगा। यह मेरे लिये परम कल्याणकी बात है। इसके सम्बन्धमें मुझे दूसरा कोई विचार नहीं करना है’॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कौसल्यमाहूय मैथिलो वाक्यमब्रवीत्।
धर्मतो नीतितश्चैव लोकश्च विजितो मया ॥ २३ ॥
अहं त्वया चात्मगुणैर्जितः पार्थिवसत्तम।
आत्मानमनवज्ञाय जितवद् वर्ततां भवान् ॥ २४ ॥
मूलम्
ततः कौसल्यमाहूय मैथिलो वाक्यमब्रवीत्।
धर्मतो नीतितश्चैव लोकश्च विजितो मया ॥ २३ ॥
अहं त्वया चात्मगुणैर्जितः पार्थिवसत्तम।
आत्मानमनवज्ञाय जितवद् वर्ततां भवान् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर मिथिलानरेशने कोसल-राजकुमारको अपने निकट बुलाकर कहा—‘नृपश्रेष्ठ! मैंने धर्म और नीतिका सहारा लेकर सम्पूर्ण जगत्पर विजय पायी है, परंतु आज तुमने अपने गुणोंसे मुझे भी जीत लिया। अतः तुम अपनी अवज्ञा न करके एक विजयी वीरके समान बर्ताव करो॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नावमन्यामि ते बुद्धिं नावमन्ये च पौरुषम्।
नावमन्ये जयामीति जितवद् वर्ततां भवान् ॥ २५ ॥
मूलम्
नावमन्यामि ते बुद्धिं नावमन्ये च पौरुषम्।
नावमन्ये जयामीति जितवद् वर्ततां भवान् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं तुम्हारी बुद्धिका अनादर नहीं करता, तुम्हारे पुरुषार्थकी अवहेलना नहीं करता और विजयी हूँ, यह सोचकर तुम्हारा तिरस्कार भी नहीं करता; अतः तुम विजयी वीरके समान बर्ताव करो॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथावत् पूजितो राजन् गृहं गन्तासि मे भृशम्।
ततः सम्पूज्य तौ विप्रं विश्वस्तौ जग्मतुर्गृहान् ॥ २६ ॥
मूलम्
यथावत् पूजितो राजन् गृहं गन्तासि मे भृशम्।
ततः सम्पूज्य तौ विप्रं विश्वस्तौ जग्मतुर्गृहान् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! तुम मेरेद्वारा भलीभाँति सम्मानित होकर मेरे घर पधारो।’ इतना कहकर वे दोनों परस्पर विश्वस्त हो उन ब्रह्मर्षिकी पूजा करके घरकी ओर चल दिये॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैदेहस्त्वथ कौसल्यं प्रवेश्य गृहमञ्जसा।
पाद्यार्घ्यमधुपर्कैस्तं पूजार्हं प्रत्यपूजयत् ॥ २७ ॥
मूलम्
वैदेहस्त्वथ कौसल्यं प्रवेश्य गृहमञ्जसा।
पाद्यार्घ्यमधुपर्कैस्तं पूजार्हं प्रत्यपूजयत् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदेहराजने कोसल-राजकुमारको आदरपूर्वक अपने महलके भीतर ले जाकर अपने उस पूजनीय अतिथिका पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय तथा मधुपर्कके द्वारा पूजन किया॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददौ दुहितरं चास्मै रत्नानि विविधानि च।
एष राज्ञां परो धर्मोऽनित्यौ जयपराजयौ ॥ २८ ॥
मूलम्
ददौ दुहितरं चास्मै रत्नानि विविधानि च।
एष राज्ञां परो धर्मोऽनित्यौ जयपराजयौ ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् उनके साथ अपनी पुत्रीका विवाह कर दिया और दहेजमें नाना प्रकारके रत्न भेंट किये। यही राजाओंका परम धर्म है, जय और पराजय तो अनित्य हैं॥२८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि कालकवृक्षीये षडधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें कालकवृक्षीय मुनिका उपदेशविषयक एक सौ छठा अध्याय पूरा हआ॥१०६॥