भागसूचना
पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कालकवृक्षीय मुनिके द्वारा गये हुए राज्यकी प्राप्तिके लिये विभिन्न उपायोंका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
मुनिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ चेत् पौरुषं किंचित् क्षत्रियात्मनि पश्यसि।
ब्रवीमि तां तु ते नीतिं राज्यस्य प्रतिपत्तये ॥ १ ॥
मूलम्
अथ चेत् पौरुषं किंचित् क्षत्रियात्मनि पश्यसि।
ब्रवीमि तां तु ते नीतिं राज्यस्य प्रतिपत्तये ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिने कहा— राजकुमार! यदि तुम अपनेमें कुछ पुरुषार्थ देखते हो तो मैं तुम्हें राज्यकी प्राप्तिके लिये एक नीति बता रहा हूँ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां चेच्छक्नोषि निर्मातुं कर्म चैव करिष्यसि।
शृणु सर्वमशेषेण यत् त्वां वक्ष्यामि तत्त्वतः ॥ २ ॥
मूलम्
तां चेच्छक्नोषि निर्मातुं कर्म चैव करिष्यसि।
शृणु सर्वमशेषेण यत् त्वां वक्ष्यामि तत्त्वतः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि तुम उसे कार्यरूपमें परिणत कर सको, उसके अनुसार ही सारा कार्य करो तो मैं उस नीतिका यथार्थरूपसे वर्णन करता हूँ। तुम वह सब पूर्णरूपसे सुनो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचरिष्यसि चेत् कर्म महतोऽर्थानवाप्स्यसि।
राज्यं राज्यस्य मन्त्रं वा महतीं वा पुनः श्रियम्॥३॥
अथैतद् रोचते राजन् पुनर्ब्रूहि ब्रवीमि ते।
मूलम्
आचरिष्यसि चेत् कर्म महतोऽर्थानवाप्स्यसि।
राज्यं राज्यस्य मन्त्रं वा महतीं वा पुनः श्रियम्॥३॥
अथैतद् रोचते राजन् पुनर्ब्रूहि ब्रवीमि ते।
अनुवाद (हिन्दी)
यदि तुम मेरी बतायी हुई नीतिके अनुसार कार्य करोगे तो तुम्हें पुनः महान् वैभव, राज्य, राज्यकी मन्त्रणा और विशाल सम्पत्तिकी प्राप्ति होगी। राजन्! यदि मेरी यह बात तुम्हें रुचती हो तो फिरसे कहो, क्या मैं तुमसे इस विषयका वर्णन करूँ?॥३॥
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रवीतु भगवान्नीतिमुपपन्नोऽस्म्यहं प्रभो ॥ ४ ॥
अमोघोऽयं भवत्वद्य त्वया सह समागमः।
मूलम्
ब्रवीतु भगवान्नीतिमुपपन्नोऽस्म्यहं प्रभो ॥ ४ ॥
अमोघोऽयं भवत्वद्य त्वया सह समागमः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने कहा— प्रभो! आप अवश्य उस नीतिका वर्णन करें। मैं आपकी शरणमें आया हूँ। आपके साथ जो समागम प्राप्त हुआ है, यह आज व्यर्थ न हो॥४॥
मूलम् (वचनम्)
मुनिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हित्वा दम्भं च कामं च क्रोधं हर्षं भयं तथा॥५॥
अप्यमित्राणि सेवस्व प्रणिपत्य कृताञ्जलिः।
मूलम्
हित्वा दम्भं च कामं च क्रोधं हर्षं भयं तथा॥५॥
अप्यमित्राणि सेवस्व प्रणिपत्य कृताञ्जलिः।
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिने कहा— राजन्! तुम दम्भ, काम, क्रोध, हर्ष और भयको त्यागकर हाथ जोड़, मस्तक झुकाकर शत्रुओंकी भी सेवा करो॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुत्तमेन शौचेन कर्मणा चाभिधारय ॥ ६ ॥
दातुमर्हति ते वित्तं वैदेहः सत्यसंगरः।
प्रमाणं सर्वभूतेषु प्रग्रहं च भविष्यसि ॥ ७ ॥
मूलम्
तमुत्तमेन शौचेन कर्मणा चाभिधारय ॥ ६ ॥
दातुमर्हति ते वित्तं वैदेहः सत्यसंगरः।
प्रमाणं सर्वभूतेषु प्रग्रहं च भविष्यसि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम पवित्र व्यवहार और उत्तम कर्मद्वारा अपने प्रति विदेहराजका विश्वास उत्पन्न करो। विदेहराज सत्यप्रतिज्ञ हैं; अतः वे तुम्हें अवश्य धन प्रदान करेंगे। यदि ऐसा हुआ तो तुम समस्त प्राणियोंके लिये प्रमाणभूत (विश्वासपात्र) तथा राजाकी दाहिनी बाँह हो जाओगे॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सहायान् सोत्साहाल्ँलप्स्यसेऽव्यसनान् शुचीन्।
वर्तमानः स्वशास्त्रेण संयतात्मा जितेन्द्रियः ॥ ८ ॥
अभ्युद्धरति चात्मानं प्रसादयति च प्रजाः।
मूलम्
ततः सहायान् सोत्साहाल्ँलप्स्यसेऽव्यसनान् शुचीन्।
वर्तमानः स्वशास्त्रेण संयतात्मा जितेन्द्रियः ॥ ८ ॥
अभ्युद्धरति चात्मानं प्रसादयति च प्रजाः।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो तुम्हें बहुत-से शुद्ध हृदयवाले, दुर्व्यसनोंसे रहित तथा उत्साही सहायक मिल जायँगे। जो मनुष्य शास्त्रके अनुकूल आचरण करता हुआ अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें रखता है, वह अपना तो उद्धार करता ही है, प्रजाको भी प्रसन्न कर लेता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेनैव त्वं धृतिमता श्रीमता चाभिसत्कृतः ॥ ९ ॥
प्रमाणं सर्वभूतेषु गत्वा च ग्रहणं महत्।
ततः सुहृद्बलं लब्ध्वा मन्त्रयित्वा सुमन्त्रिभिः ॥ १० ॥
आन्तरैर्भेदयित्वारीन् बिल्वं बिल्वेन भेदय।
मूलम्
तेनैव त्वं धृतिमता श्रीमता चाभिसत्कृतः ॥ ९ ॥
प्रमाणं सर्वभूतेषु गत्वा च ग्रहणं महत्।
ततः सुहृद्बलं लब्ध्वा मन्त्रयित्वा सुमन्त्रिभिः ॥ १० ॥
आन्तरैर्भेदयित्वारीन् बिल्वं बिल्वेन भेदय।
अनुवाद (हिन्दी)
राजा जनक बड़े धीर और श्रीसम्पन्न हैं। जब वे तुम्हारा सत्कार करेंगे, तब सभी लोगोंके विश्वास-पात्र होकर तुम अत्यन्त गौरवान्वित हो जाओगे। उस अवस्थामें तुम मित्रोंकी सेना इकट्ठी करके अच्छे मन्त्रियोंके साथ सलाह लेकर अन्तरंग व्यक्तियों-द्वारा शत्रुदलमें फूट डलवाकर बेलको बेलसे ही फोड़ो (शत्रुके सहयोगसे ही शत्रुका विध्वंस कर डालना)॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परैर्वा संविदं कृत्वा बलमप्यस्य घातय ॥ ११ ॥
अलभ्या ये शुभा भावाः स्त्रियश्चाच्छादनानि च।
शय्यासनानि यानानि महार्हाणि गृहाणि च ॥ १२ ॥
पक्षिणो मृगजातानि रसगन्धाः फलानि च।
तेष्वेव सज्जयेथास्त्वं यथा नश्यत्वयं परः ॥ १३ ॥
मूलम्
परैर्वा संविदं कृत्वा बलमप्यस्य घातय ॥ ११ ॥
अलभ्या ये शुभा भावाः स्त्रियश्चाच्छादनानि च।
शय्यासनानि यानानि महार्हाणि गृहाणि च ॥ १२ ॥
पक्षिणो मृगजातानि रसगन्धाः फलानि च।
तेष्वेव सज्जयेथास्त्वं यथा नश्यत्वयं परः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा दूसरोंसे मेल करके उन्हींके द्वारा शत्रुके बलका भी नाश कराओ। राजकुमार! जो शुभ पदार्थ अलभ्य हैं, उनमें तथा स्त्री, ओढ़ने-बिछानेके सुन्दर वस्त्र, अच्छे-अच्छे पलंग, आसन, वाहन, बहुमूल्य गृह, तरह-तरहके रस, गन्ध और फल—इन्हीं वस्तुओंमें शत्रुको आसक्त करो। भाँति-भाँतिके पक्षियों और विभिन्न जातिके पशुओंके पालनकी भी आसक्ति शत्रुके मनमें पैदा करो, जिससे यह शत्रु धीरे-धीरे धनहीन होकर स्वतः नष्ट हो जाय॥११—१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्येवं प्रतिषेद्धव्यो यद्युपेक्षणमर्हति ।
न जातु विवृतः कार्यः शत्रुः सुनयमिच्छता ॥ १४ ॥
मूलम्
यद्येवं प्रतिषेद्धव्यो यद्युपेक्षणमर्हति ।
न जातु विवृतः कार्यः शत्रुः सुनयमिच्छता ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि ऐसा करते समय कभी शत्रुको उस व्यसनकी ओर जानेसे रोकने या मना करनेकी आवश्यकता पड़े तो वह भी करना चाहिये, अथवा वह उपेक्षाके योग्य हो तो उपेक्षा ही कर देनी चाहिये; किंतु उत्तम नीतिका फल चाहनेवाले राजाको चाहिये कि वह किसी भी दशामें शत्रुपर अपना गुप्त मनोभाव प्रकट न होने दे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रमस्व परमामित्रे विषये प्राज्ञसम्मतः।
भजस्व श्वेतकाकीयैर्मित्रधर्ममनर्थकैः ॥ १५ ॥
मूलम्
रमस्व परमामित्रे विषये प्राज्ञसम्मतः।
भजस्व श्वेतकाकीयैर्मित्रधर्ममनर्थकैः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम बुद्धिमानोंके विश्वासभाजन बनकर अपने महाशत्रुके राज्यमें सानन्द विचरण करो और कुत्ते, हिरन, तथा कौओंकी तरह1 चौकन्ने रहकर निरर्थक बर्तावोंद्वारा विदेहराजके प्रति मित्रधर्मका पालन करो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आरम्भांश्चास्य महतो दुश्चरांश्च प्रयोजय।
नदीवच्च विरोधांश्च बलवद्भिर्विरुध्यताम् ॥ १६ ॥
मूलम्
आरम्भांश्चास्य महतो दुश्चरांश्च प्रयोजय।
नदीवच्च विरोधांश्च बलवद्भिर्विरुध्यताम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुको इतने बड़े-बड़े कार्य करनेकी प्रेरणा दो, जिनका पूरा होना अत्यन्त कठिन हो और बलवान् राजाओंके साथ शत्रुका ऐसा विरोध करा दो, जो किसी विशाल नदीके समान अत्यन्त दुस्तर हो॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्यानानि महार्हाणि शयनान्यासनानि च।
प्रतिभोगसुखेनैव कोशमस्य विरेचय ॥ १७ ॥
मूलम्
उद्यानानि महार्हाणि शयनान्यासनानि च।
प्रतिभोगसुखेनैव कोशमस्य विरेचय ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बड़े-बड़े बगीचे लगवाकर, बहुमूल्य पलंग-बिछौने तथा भोग-विलासके अन्य साधनोंमें खर्च कराकर उसका सारा खजाना खाली करा दो॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञदाने प्रशाध्यस्मै ब्राह्मणाननुवर्ण्य तान्।
ते त्वां प्रतिकरिष्यन्ति तं भोक्ष्यन्ति वृका इव ॥ १८ ॥
मूलम्
यज्ञदाने प्रशाध्यस्मै ब्राह्मणाननुवर्ण्य तान्।
ते त्वां प्रतिकरिष्यन्ति तं भोक्ष्यन्ति वृका इव ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम मिथिलाके प्रसिद्ध ब्राह्मणोंकी प्रशंसा करके उनके द्वारा विदेहराजको बड़े-बड़े यज्ञ और दान करनेका उपदेश दिलाओ। नित्य ही वे ब्राह्मण तुम्हारा उपकार करेंगे और विदेहराजको भेड़ियोंके समान नोच खायेंगे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंशयं पुण्यशीलः प्राप्नोति परमां गतिम्।
त्रिविष्टपे पुण्यतमं स्थानं प्राप्नोति मानवः ॥ १९ ॥
मूलम्
असंशयं पुण्यशीलः प्राप्नोति परमां गतिम्।
त्रिविष्टपे पुण्यतमं स्थानं प्राप्नोति मानवः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें संदेह नहीं कि पुण्यशील मानव परम गतिको प्राप्त होता है। उसे स्वर्गलोकमें परम पवित्र स्थानकी प्राप्ति होती है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोशक्षये त्वमित्राणां वशं कौसल्य गच्छति।
उभयत्र प्रयुक्तस्य धर्मेणाधर्म एव च ॥ २० ॥
मूलम्
कोशक्षये त्वमित्राणां वशं कौसल्य गच्छति।
उभयत्र प्रयुक्तस्य धर्मेणाधर्म एव च ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोसलराज! धर्म अथवा अधर्म या उन दोनोंमें ही प्रवृत्त रहनेवाले राजाका कोष निश्चय ही खाली हो जाता है। खजाना खाली होते ही राजा अपने शत्रुओंके वशमें आ जाता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फलार्थमूलं व्युच्छिद्येत् तेन नन्दन्ति शत्रवः।
न चास्मै मानुषं कर्म दैवमस्योपवर्णय ॥ २१ ॥
मूलम्
फलार्थमूलं व्युच्छिद्येत् तेन नन्दन्ति शत्रवः।
न चास्मै मानुषं कर्म दैवमस्योपवर्णय ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुके राज्यमें जो फल-मूल और खेती आदि हो, उसे गुप्तरूपसे नष्ट करा दे। इससे उसके शत्रु प्रसन्न होते हैं। यह कार्य किसी मनुष्यका किया हुआ न बतावे। दैवी घटना कहकर इसका वर्णन करे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंशयं दैवपरः क्षिप्रमेव विनश्यति।
याजयैनं विश्वजिता सर्वस्वेन वियुज्य तम् ॥ २२ ॥
मूलम्
असंशयं दैवपरः क्षिप्रमेव विनश्यति।
याजयैनं विश्वजिता सर्वस्वेन वियुज्य तम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें संदेह नहीं कि दैवका मारा हुआ मनुष्य शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। हो सके तो शत्रुको विश्वजित् नामक यज्ञमें लगा दो और उसके द्वारा दक्षिणारूपमें सर्वस्वदान कराकर उसे निर्धन बना दो॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो गच्छसि सिद्धार्थःपीड्यमानं महाजनम्।
योगधर्मविदं पुण्यं कंचिदस्योपवर्णयेत् ॥ २३ ॥
अपि त्यागं बुभूषेत कच्चिद् गच्छेदनामयम्।
सिद्धेनौषधियोगेन सर्वशत्रुविनाशिना ।
नागानश्वान् मनुष्यांश्च कृतकैरुपघातयेत् ॥ २४ ॥
मूलम्
ततो गच्छसि सिद्धार्थःपीड्यमानं महाजनम्।
योगधर्मविदं पुण्यं कंचिदस्योपवर्णयेत् ॥ २३ ॥
अपि त्यागं बुभूषेत कच्चिद् गच्छेदनामयम्।
सिद्धेनौषधियोगेन सर्वशत्रुविनाशिना ।
नागानश्वान् मनुष्यांश्च कृतकैरुपघातयेत् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे तुम्हारा मनोरथ सिद्ध होगा। तदनन्तर तुम्हें कष्ट पाते हुए किसी श्रेष्ठपुरुषकी दुरवस्थाका और किसी योगधर्मके ज्ञाता पुण्यात्मा पुरुषकी महिमाका राजाके सामने वर्णन करना चाहिये, जिससे शत्रु राजा अपने राज्यको त्याग देनेकी इच्छा करने लगे। यदि कदाचित् वह प्रकृतिस्थ ही रह जाय, उसके ऊपर वैराग्यका प्रभाव न पड़े, तब अपने नियुक्त किये हुए पुरुषोंद्वारा सर्वशत्रुविनाशक सिद्ध औषधके प्रयोगसे शत्रुके हाथी, घोड़े और मनुष्योंको मरवा डालना चाहिये॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते चान्ये च बहवो दम्भयोगाः सुचिन्तिताः।
शक्या विषहता कर्तुं पुरुषेण कृतात्मना ॥ २५ ॥
मूलम्
एते चान्ये च बहवो दम्भयोगाः सुचिन्तिताः।
शक्या विषहता कर्तुं पुरुषेण कृतात्मना ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजकुमार! अपने मनको वशमें रखनेवाला पुरुष यदि धर्मविरुद्ध आचरण करना सह सके तो ये तथा और भी बहुत-से भलीभाँति सोचे हुए कपटपूर्ण प्रयोग हैं, जो उसके द्वारा किये जा सकते हैं॥२५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि कालकवृक्षीये पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें कालकवृक्षीय मुनिका उपदेशविषयक एक सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हआ॥१०५॥
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जैसे कुत्ते बहुत जागते हैं, उसी तरह शत्रुकी गतिविधिको देखनेके लिये बराबर जागता रहे। जिस प्रकार हिरन बहुत चौकन्ने होते हैं, जरा भी भयकी आशंका होते ही भाग जाते हैं, उसी तरह हर समय सावधान रहे। भय आनेके पहले ही वहाँसे खिसक जाय। जैसे कौए प्रत्येक मनुष्यकी चेष्टा देखते रहते हैं, किसीको हाथ उठाते देख तुरंत उड़ जाते हैं; इसी प्रकार शत्रुकी चेष्टापर सदा दृष्टि रखे। ↩︎