भागसूचना
चतुरधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राज्य, खजाना और सेना आदिसे वंचित हुए असहाय क्षेमदर्शी राजाके प्रति कालकवृक्षीय मुनिका वैराग्यपूर्ण उपदेश
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धार्मिकोऽर्थानसम्प्राप्य राजामात्यैः प्रबाधितः ।
च्युतः कोशाच्च दण्डाच्च सुखमिच्छन् कथं चरेत् ॥ १ ॥
मूलम्
धार्मिकोऽर्थानसम्प्राप्य राजामात्यैः प्रबाधितः ।
च्युतः कोशाच्च दण्डाच्च सुखमिच्छन् कथं चरेत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! यदि राजा धर्मात्मा हो और उद्योग करते रहनेपर भी धन न पा सके, उस अवस्थामें यदि मन्त्री उसे कष्ट देने लगें और उसके पास खजाना तथा सेना भी न रह जाय तो सुख चाहनेवाले उस राजाको कैसे काम चलाना चाहिये?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रायं क्षेमदर्शीय इतिहासोऽनुगीयते ।
तत् तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ २ ॥
मूलम्
अत्रायं क्षेमदर्शीय इतिहासोऽनुगीयते ।
तत् तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें यह क्षेमदर्शीका इतिहास जगत्में बार-बार कहा जाता है। उसीको मैं तुमसे कहूँगा। तुम ध्यान देकर सुनो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षेमदर्शी नृपसुतो यत्र क्षीणबलः पुरा।
मुनिं कालकवृक्षीयमाजगामेति नः श्रुतम्।
तं पप्रच्छानुसंगृह्य कृच्छ्रामापदमास्थितः ॥ ३ ॥
मूलम्
क्षेमदर्शी नृपसुतो यत्र क्षीणबलः पुरा।
मुनिं कालकवृक्षीयमाजगामेति नः श्रुतम्।
तं पप्रच्छानुसंगृह्य कृच्छ्रामापदमास्थितः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमने सुना है कि प्राचीनकालमें एक बार कोसलराजकुमार क्षेमदर्शीको बड़ी कठिन विपत्तिका सामना करना पड़ा। उसकी सारी सैनिक-शक्ति नष्ट हो गयी। उस समय वह कालकवृक्षीय मुनिके पास गया और उनके चरणोंमें प्रणाम करके उसने उस विपत्तिसे छुटकारा पानेका उपाय पूछा॥३॥
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थेषु भागी पुरुष ईहमानः पुनः पुनः।
अलब्ध्वा मद्विधो राज्यं ब्रह्मन् किं कर्तुमर्हति ॥ ४ ॥
मूलम्
अर्थेषु भागी पुरुष ईहमानः पुनः पुनः।
अलब्ध्वा मद्विधो राज्यं ब्रह्मन् किं कर्तुमर्हति ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने इस प्रकार प्रश्न किया— ब्रह्मन्! मुनष्य धनका भागीदार समझा जाता है; किंतु मेरे-जैसा पुरुष बार-बार उद्योग करनेपर भी यदि राज्य न पा सके तो उसे क्या करना चाहिये?॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यत्र मरणाद् दैन्यादन्यत्र परसंश्रयात्।
क्षुद्रादन्यत्र चाचारात् तन्ममाचक्ष्व सत्तम ॥ ५ ॥
मूलम्
अन्यत्र मरणाद् दैन्यादन्यत्र परसंश्रयात्।
क्षुद्रादन्यत्र चाचारात् तन्ममाचक्ष्व सत्तम ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधुशिरोमणे! आत्मघात करने, दीनता दिखाने, दूसरोंकी शरणमें जाने तथा इसी तरहके और भी नीच कर्म करनेकी बात छोड़कर दूसरा कोई उपाय हो तो वह मुझे बताइये॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्याधिना चाभिपन्नस्य मानसेनेतरेण वा।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च त्वद्विधः शरणं भवेत् ॥ ६ ॥
मूलम्
व्याधिना चाभिपन्नस्य मानसेनेतरेण वा।
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च त्वद्विधः शरणं भवेत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मानसिक अथवा शारीरिक रोगसे पीड़ित है, ऐसे मनुष्यको आप-जैसे धर्मज्ञ और कृतज्ञ महात्मा ही शरण देनेवाले होते हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्विद्यति नरः कामान्निर्विद्य सुखमेधते।
त्यक्त्वा प्रीतिं च शोकं च लब्ध्वा बुद्धिमयं वसु॥७॥
मूलम्
निर्विद्यति नरः कामान्निर्विद्य सुखमेधते।
त्यक्त्वा प्रीतिं च शोकं च लब्ध्वा बुद्धिमयं वसु॥७॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यको जब कभी विषय-भोगोंसे वैराग्य होता है, तब विरक्त होनेपर वह हर्ष और शोकको त्याग देता है तथा ज्ञानमय धन पाकर नित्य सुखका अनुभव करने लगता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखमर्थाश्रयं येषामनुशोचामि तानहम् ।
मम ह्यर्थाः सुबहवो नष्टाः स्वप्न इवागताः ॥ ८ ॥
मूलम्
सुखमर्थाश्रयं येषामनुशोचामि तानहम् ।
मम ह्यर्थाः सुबहवो नष्टाः स्वप्न इवागताः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके सुखका आधार धन है, अर्थात् जो धनसे ही सुख मानते हैं, उन मनुष्योंके लिये मैं निरन्तर शोक करता हूँ; क्योंकि मेरे पास धन बहुत था, परंतु वह सब सपनेमें मिली हुई सम्पत्तिकी तरह नष्ट हो गया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुष्करं बत कुर्वन्ति महतोऽर्थांस्त्यजन्ति ये।
वयं त्वेतान् परित्यक्तुमसतोऽपि न शक्नुमः ॥ ९ ॥
मूलम्
दुष्करं बत कुर्वन्ति महतोऽर्थांस्त्यजन्ति ये।
वयं त्वेतान् परित्यक्तुमसतोऽपि न शक्नुमः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी समझमें जो अपनी विशाल सम्पत्तिको त्याग देते हैं वे अत्यन्त दुष्कर कार्य करते हैं। मेरे पास तो अब धनके नामपर कुछ नहीं है, तो भी मैं उसका मोह नहीं छोड़ पाता हूँ॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमामवस्थां सम्प्राप्तं दीनमार्तं श्रिया च्युतम्।
यदन्यत् सुखमस्तीह तद् ब्रह्मन्ननुशाधि माम् ॥ १० ॥
मूलम्
इमामवस्थां सम्प्राप्तं दीनमार्तं श्रिया च्युतम्।
यदन्यत् सुखमस्तीह तद् ब्रह्मन्ननुशाधि माम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! मैं राज्यलक्ष्मीसे भ्रष्ट, दीन और आर्त होकर इस शोचनीय अवस्थामें आ पड़ा हूँ। इस जगत्में धनके अतिरिक्त जो सुख हो, उसीका मुझे उपदेश कीजिये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौसल्येनैवमुक्तस्तु राजपुत्रेण धीमता ।
मुनिः कालकवृक्षीयः प्रत्युवाच महाद्युतिः ॥ ११ ॥
मूलम्
कौसल्येनैवमुक्तस्तु राजपुत्रेण धीमता ।
मुनिः कालकवृक्षीयः प्रत्युवाच महाद्युतिः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान् कोसलराजकुमारके इस प्रकार पूछनेपर महातेजस्वी कालकवृक्षीय मुनिने इस तरह उत्तर दिया॥११॥
मूलम् (वचनम्)
मुनिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरस्तादेव ते बुद्धिरियं कार्या विजानता।
अनित्यं सर्वमेवैतदहं च मम चास्ति यत् ॥ १२ ॥
मूलम्
पुरस्तादेव ते बुद्धिरियं कार्या विजानता।
अनित्यं सर्वमेवैतदहं च मम चास्ति यत् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनि बोले— राजकुमार! तुम समझदार हो; अतः तुम्हें पहलेसे ही अपनी बुद्धिके द्वारा ऐसा ही निश्चय कर लेना उचित था। इस जगत्में ‘मैं’ और ‘मेरा’ कहकर जो कुछ भी समझा या ग्रहण किया जाता है, वह सब अनित्य ही है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् किंचिन्मन्यसेऽस्तीति सर्वं नास्तीति विद्धि तत्।
एवं न व्यथते प्राज्ञः कृच्छ्रामप्यापदं गतः ॥ १३ ॥
मूलम्
यत् किंचिन्मन्यसेऽस्तीति सर्वं नास्तीति विद्धि तत्।
एवं न व्यथते प्राज्ञः कृच्छ्रामप्यापदं गतः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम जिस किसी वस्तुको ऐसा मानते हो कि ‘यह है’ वह सब पहलेसे ही समझ लो कि ‘नहीं है’ ऐसा समझनेवाला विद्वान् पुरुष कठिन-से-कठिन विपत्तिमें पड़नेपर भी व्यथित नहीं होता॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्धि भूतं भविष्यं च सर्वं तन्न भविष्यति।
एवं विदितवेद्यस्त्वमधर्मेभ्यः प्रमोक्ष्यसे ॥ १४ ॥
मूलम्
यद्धि भूतं भविष्यं च सर्वं तन्न भविष्यति।
एवं विदितवेद्यस्त्वमधर्मेभ्यः प्रमोक्ष्यसे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वस्तु पहले थी और होगी, वह सब न तो थी और न होगी ही। इस प्रकार जानने योग्य तत्त्वको जान लेनेपर तुम सम्पूर्ण अधर्मोंसे छुटकारा पा जाओगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्च पूर्वं समाहारे यच्च पूर्वं परे परे।
सर्वं तन्नास्ति ते चैव तज्ज्ञात्वा कोऽनुसंज्वरेत् ॥ १५ ॥
मूलम्
यच्च पूर्वं समाहारे यच्च पूर्वं परे परे।
सर्वं तन्नास्ति ते चैव तज्ज्ञात्वा कोऽनुसंज्वरेत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वस्तु पहले बहुत बड़े समुदायके अधीन (गणतन्त्र) रह चुकी है तथा जो एकके बाद दूसरेकी होती आयी है, वह सबकी सब तुम्हारी भी नहीं है; इस बातको भलीभाँति समझ लेनेपर किसको बारंबार चिन्ता होगी?॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूत्वा च न भवत्येतदभूत्वा च भविष्यति।
शोके न ह्यस्ति सामर्थ्यं शोकं कुर्यात् कथंचन ॥ १६ ॥
मूलम्
भूत्वा च न भवत्येतदभूत्वा च भविष्यति।
शोके न ह्यस्ति सामर्थ्यं शोकं कुर्यात् कथंचन ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह राजलक्ष्मी होकर भी नहीं रहती और जिनके पास नहीं होती, उनके पास आ जाती है; परंतु शोककी सामर्थ्य नहीं है कि वह गयी हुई सम्पत्तिको लौटा लावे; अतः किसी तरह भी शोक नहीं करना चाहिये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व नु तेऽद्य पिता राजन् क्व नु तेऽद्य पितामहः।
न त्वं पश्यसि तानद्य न त्वां पश्यन्ति तेऽपि च॥१७॥
मूलम्
क्व नु तेऽद्य पिता राजन् क्व नु तेऽद्य पितामहः।
न त्वं पश्यसि तानद्य न त्वां पश्यन्ति तेऽपि च॥१७॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! बताओ तो सही, तुम्हारे पिता आज कहाँ हैं? तुम्हारे पितामह अब कहाँ चले गये? आज न तो तुम उन्हें देखते हो और न वे तुम्हें देख पाते हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मनोऽध्रुवतां पश्यंस्तांस्त्वं किमनुशोचसि ।
बुद्ध्या चैवानुबुद्ध्यस्व ध्रुवं हि न भविष्यसि ॥ १८ ॥
मूलम्
आत्मनोऽध्रुवतां पश्यंस्तांस्त्वं किमनुशोचसि ।
बुद्ध्या चैवानुबुद्ध्यस्व ध्रुवं हि न भविष्यसि ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह शरीर अनित्य है, इस बातको तुम देखते और समझते हो, फिर उन पूर्वजोंके लिये क्यों निरन्तर शोक करते हो? जरा बुद्धि लगाकर विचार तो करो, निश्चय ही एक दिन तुम भी नहीं रहोगे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं च त्वं च नृपते सुहृदः शत्रवश्च ते।
अवश्यं न भविष्यामः सर्वं च न भविष्यति ॥ १९ ॥
मूलम्
अहं च त्वं च नृपते सुहृदः शत्रवश्च ते।
अवश्यं न भविष्यामः सर्वं च न भविष्यति ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! मैं, तुम, तुम्हारे मित्र और शत्रु—ये हम सब लोग एक दिन नहीं रहेंगे। यह सब कुछ नष्ट हो जायेगा॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये तु विंशतिवर्षा वै त्रिंशद्वर्षाश्च मानवाः।
अर्वागेव हि ते सर्वे मरिष्यन्ति शरच्छतात् ॥ २० ॥
मूलम्
ये तु विंशतिवर्षा वै त्रिंशद्वर्षाश्च मानवाः।
अर्वागेव हि ते सर्वे मरिष्यन्ति शरच्छतात् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय जो बीस या तीस वर्षकी अवस्थावाले मनुष्य हैं, ये सभी सौ वर्षके पहले ही मर जायँगे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि चेन्महतो वित्तान्न प्रमुच्येत पूरुषः।
नैतन्ममेति तन्मत्वा कुर्वीत प्रियमात्मनः ॥ २१ ॥
मूलम्
अपि चेन्महतो वित्तान्न प्रमुच्येत पूरुषः।
नैतन्ममेति तन्मत्वा कुर्वीत प्रियमात्मनः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसी दशामें यदि मनुष्य बहुत बड़ी सम्पत्तिसे न बिछुड़ जाय तो भी उसे ‘यह मेरा नहीं है’ ऐसा समझकर अपना कल्याण अवश्य करना चाहिये॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनागतं यन्न ममेति विद्या-
दतिक्रान्तं यन्न ममेति विद्यात्।
दिष्टं बलीय इति मन्यमाना-
स्ते पण्डितास्तत्सतां स्थानमाहुः ॥ २२ ॥
मूलम्
अनागतं यन्न ममेति विद्या-
दतिक्रान्तं यन्न ममेति विद्यात्।
दिष्टं बलीय इति मन्यमाना-
स्ते पण्डितास्तत्सतां स्थानमाहुः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वस्तु भविष्यमें मिलनेवाली है, उसे यही माने कि ‘वह मेरी नहीं है’ तथा जो मिलकर नष्ट हो चुकी हो, उसके विषयमें भी यही भाव रखे कि ‘वह मेरी नहीं थी।’ जो ऐसा मानते हैं कि ‘प्रारब्ध ही सबसे प्रबल है,’ वे ही विद्वान् हैं और उन्हें सत्पुरुषोंका आश्रय कहा गया है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाढ्याश्चापि जीवन्ति राज्यं चाप्यनुशासति।
बुद्धिपौरुषसम्पन्नास्त्वया तुल्याधिका जनाः ॥ २३ ॥
न च त्वमिव शोचन्ति तस्मात् त्वमपि मा शुचः।
किं न त्वं तैर्नरैः श्रेयांस्तुल्यो वा बुद्धिपौरुषैः ॥ २४ ॥
मूलम्
अनाढ्याश्चापि जीवन्ति राज्यं चाप्यनुशासति।
बुद्धिपौरुषसम्पन्नास्त्वया तुल्याधिका जनाः ॥ २३ ॥
न च त्वमिव शोचन्ति तस्मात् त्वमपि मा शुचः।
किं न त्वं तैर्नरैः श्रेयांस्तुल्यो वा बुद्धिपौरुषैः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो धनाढ्य नहीं हैं, वे भी जीते हैं और कोई राज्यका शासन भी करते हैं उनमेंसे कुछ तुम्हारे समान ही बुद्धि और पौरुषसे सम्पन्न हैं तथा कुछ तुमसे बढ़कर भी हो सकते हैं; परंतु वे भी तुम्हारी तरह शोक नहीं करते। अतः तुम भी शोक न करो। क्या तुम बुद्धि और पुरुषार्थमें उन मनुष्योंसे श्रेष्ठ या उनके समान नहीं हो?॥२३-२४॥
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यादृच्छिकं सर्वमासीत् तद् राज्यमिति चिन्तये।
ह्रियते सर्वमेवेदं कालेन महता द्विज ॥ २५ ॥
मूलम्
यादृच्छिकं सर्वमासीत् तद् राज्यमिति चिन्तये।
ह्रियते सर्वमेवेदं कालेन महता द्विज ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने कहा— ब्रह्मन्! मैं तो यही समझता हूँ कि वह सारा राज्य मुझे स्वतः अनायास ही प्राप्त हो गया था और अब महान् शक्तिशाली कालने यह सब कुछ छीन लिया है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यैव ह्रियमाणस्य स्रोतसेव तपोधन।
फलमेतत् प्रपश्यामि यथालब्धेन वर्तयन् ॥ २६ ॥
मूलम्
तस्यैव ह्रियमाणस्य स्रोतसेव तपोधन।
फलमेतत् प्रपश्यामि यथालब्धेन वर्तयन् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तपोधन! जैसे जलका प्रवाह किसी वस्तुको बहा ले जाता है, उसी प्रकार कालके वेगसे मेरे राज्यका अपहरण हो गया। उसीके फलस्वरूप मैं इस शोकका अनुभव करता हूँ, और जैसे-तैसे जो कुछ मिल जाता है, उसीसे जीवन-निर्वाह करता हूँ॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
मुनिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनागतमतीतं च याथातथ्यविनिश्चयात् ।
नानुशोचेत कौसल्य सर्वार्थेषु तथा भव ॥ २७ ॥
मूलम्
अनागतमतीतं च याथातथ्यविनिश्चयात् ।
नानुशोचेत कौसल्य सर्वार्थेषु तथा भव ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिने कहा— कोसलराजकुमार! यथार्थ तत्त्वका निश्चय हो जानेपर मनुष्य भविष्य और भूतकालकी किसी भी वस्तुके लिये शोक नहीं करता। इसलिये तुम भी सभी पदार्थोंके विषयमें उसी तरह शोकरहित हो जाओ॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवाप्यान् कामयन्नर्थान् नानवाप्यान् कदाचन।
प्रत्युत्पन्नाननुभवन् मा शुचस्त्वमनागतान् ॥ २८ ॥
मूलम्
अवाप्यान् कामयन्नर्थान् नानवाप्यान् कदाचन।
प्रत्युत्पन्नाननुभवन् मा शुचस्त्वमनागतान् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य पानेयोग्य पदार्थोंकी ही कामना करता है। अप्राप्य वस्तुओंकी कदापि नहीं। अतः तुम्हें भी जो कुछ प्राप्त है, उसीका उपभोग करते हुए अप्राप्त वस्तुके लिये कभी चिन्तन नहीं करना चाहिये॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथालब्धोपपन्नार्थैस्तथा कौसल्य रंस्यसे ।
कच्चिच्छुद्धस्वभावेन श्रिया हीनो न शोचसि ॥ २९ ॥
मूलम्
यथालब्धोपपन्नार्थैस्तथा कौसल्य रंस्यसे ।
कच्चिच्छुद्धस्वभावेन श्रिया हीनो न शोचसि ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोसलनरेश! क्या तुम दैववश जो कुछ मिल जाय, उसीसे उतने ही आनन्दके साथ रह सकोगे, जैसे पहले रहते थे। आज राजलक्ष्मीसे वंचित होनेपर भी क्या तुम शुद्ध हृदयसे शोकको छोड़ चुके हो?॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरस्ताद् भूतपूर्वत्वाद्धीनभाग्यो हि दुर्मतिः।
धातारं गर्हते नित्यं लब्धार्थश्च न मृष्यते ॥ ३० ॥
मूलम्
पुरस्ताद् भूतपूर्वत्वाद्धीनभाग्यो हि दुर्मतिः।
धातारं गर्हते नित्यं लब्धार्थश्च न मृष्यते ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब पहले सम्पत्ति प्राप्त होकर नष्ट हो जाती है, तब उसीके कारण अपनेको भाग्यहीन माननेवाला दुर्बुद्धि मनुष्य सदा विधाताकी निन्दा करता है और प्रारब्धवश प्राप्त हुए पदार्थोंसे उसे संतोष नहीं होता है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनर्हानपि चैवान्यान्मन्यते श्रीमतो जनान्।
एतस्मात् कारणादेतद् दुःखं भूयोऽनुवर्तते ॥ ३१ ॥
मूलम्
अनर्हानपि चैवान्यान्मन्यते श्रीमतो जनान्।
एतस्मात् कारणादेतद् दुःखं भूयोऽनुवर्तते ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह दूसरे धनी मनुष्योंको धनके अयोग्य मानता है। इसी कारण उसका यह ईर्ष्याजनक दुःख सदा उसके पीछे लगा रहता है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईर्ष्याभिमानसम्पन्ना राजन् पुरुषमानिनः ।
कच्चित् त्वं न तथा राजन् मत्सरी कोसलाधिप ॥ ३२ ॥
मूलम्
ईर्ष्याभिमानसम्पन्ना राजन् पुरुषमानिनः ।
कच्चित् त्वं न तथा राजन् मत्सरी कोसलाधिप ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! अपनेको पुरुष माननेवाले बहुत-से मनुष्य ईर्ष्या और अहंकारसे भरे होते हैं। कोसलनरेश! क्या तुम ऐसे ईर्ष्यालु तो नहीं हो?॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्व श्रियमन्येषां यद्यपि त्वयि नास्ति सा।
अन्यत्रापि सतीं लक्ष्मीं कुशला भुञ्जते सदा ॥ ३३ ॥
अभिनिष्यन्दते श्रीर्हि सत्यपि द्विषतो जनम्।
मूलम्
सहस्व श्रियमन्येषां यद्यपि त्वयि नास्ति सा।
अन्यत्रापि सतीं लक्ष्मीं कुशला भुञ्जते सदा ॥ ३३ ॥
अभिनिष्यन्दते श्रीर्हि सत्यपि द्विषतो जनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि तुम्हारे पास लक्ष्मी नहीं है तो भी तुम दूसरोंकी सम्पत्ति देखकर सहन करो; क्योंकि चतुर मनुष्य दूसरोंके यहाँ रहनेवाली सम्पत्तिका भी सदा उपभोग करते हैं और जो लोगोंसे द्वेष रखता है, उसके पास सम्पत्ति हो तो भी वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रियं च पुत्रपौत्रं च मनुष्या धर्मचारिणः।
योगधर्मविदो धीराः स्वयमेव त्यजन्त्युत ॥ ३४ ॥
मूलम्
श्रियं च पुत्रपौत्रं च मनुष्या धर्मचारिणः।
योगधर्मविदो धीराः स्वयमेव त्यजन्त्युत ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगधर्मको जाननेवाले धर्मात्मा धीर मनुष्य अपनी सम्पत्ति तथा पुत्र-पौत्रोंका भी स्वयं ही त्याग कर देते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(त्यक्तं स्वायम्भुवे वंशे शुभेन भरतेन च।
नानारत्नसमाकीर्णं राज्यं स्फीतमिति श्रुतम्॥
तथान्यैर्भूमिपालैश्च त्यक्तं राज्यं महोदयम्।
त्यक्त्वा राज्यानि सर्वे च वने वन्यफलाशनाः॥
गताश्च तपसः पारं दुःखस्यान्तं च भूमिपाः।)
बहुसंकुसुकं दृष्ट्वा विधित्सासाधनेन च।
तथान्ये संत्यजन्त्येव मत्वा परमदुर्लभम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
(त्यक्तं स्वायम्भुवे वंशे शुभेन भरतेन च।
नानारत्नसमाकीर्णं राज्यं स्फीतमिति श्रुतम्॥
तथान्यैर्भूमिपालैश्च त्यक्तं राज्यं महोदयम्।
त्यक्त्वा राज्यानि सर्वे च वने वन्यफलाशनाः॥
गताश्च तपसः पारं दुःखस्यान्तं च भूमिपाः।)
बहुसंकुसुकं दृष्ट्वा विधित्सासाधनेन च।
तथान्ये संत्यजन्त्येव मत्वा परमदुर्लभम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वायम्भुव मनुके वंशमें उत्पन्न हुए शुभ आचार-विचारवाले राजा भरतने नाना प्रकारके रत्नोंसे सम्पन्न अपने समृद्धिशाली राज्यको त्याग दिया था, यह बात मेरे सुननेमें आयी है इसी प्रकार अन्य भूमिपालोंने भी महान् अभ्युदयशाली राज्यका परित्याग किया है। राज्य छोड़कर वे सब-के-सब भूपाल वनमें जंगली फल-मूल खाकर रहते थे। वहीं वे तपस्या और दुःखके पार पहुँच गये। धनकी प्राप्ति निरन्तर प्रयत्नमें लगे रहनेसे होती है, फिर भी वह अत्यन्त अस्थिर है, यह देखकर तथा इसे परम दुर्लभ मानकर भी दूसरे लोग उसका परित्याग कर देते हैं॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं पुनः प्राज्ञरूपः सन् कृपणं परितप्यसे।
अकाम्यान् कामयानोऽर्थान् पराधीनानुपद्रवान् ॥ ३६ ॥
मूलम्
त्वं पुनः प्राज्ञरूपः सन् कृपणं परितप्यसे।
अकाम्यान् कामयानोऽर्थान् पराधीनानुपद्रवान् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु तुम तो समझदार हो, तुम्हें मालूम है, भोग प्रारब्धके अधीन और अस्थिर हैं, तो भी नहीं चाहनेयोग्य विषयोंको चाहते हो और उनके लिये दीनता दिखाते हुए शोक कर रहे हो॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां बुद्धिमुपजिज्ञासुस्त्वमेवैतान् परित्यज ।
अनर्थाश्चार्थरूपेण ह्यर्थाश्चानर्थरूपिणः ॥ ३७ ॥
मूलम्
तां बुद्धिमुपजिज्ञासुस्त्वमेवैतान् परित्यज ।
अनर्थाश्चार्थरूपेण ह्यर्थाश्चानर्थरूपिणः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम पूर्वोक्त बुद्धिको समझनेकी चेष्टा करो और इन भोगोंको छोड़ो, जो तुम्हें अर्थके रूपमें प्रतीत होनेवाले अनर्थ हैं; क्योंकि वास्तवमें समस्त भोग अनर्थस्वरूप ही हैं॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थायैव हि केषांचिद् धननाशो भवत्युत।
आनन्त्यं तत्सुखं मत्वा श्रियमन्यः परीप्सति ॥ ३८ ॥
मूलम्
अर्थायैव हि केषांचिद् धननाशो भवत्युत।
आनन्त्यं तत्सुखं मत्वा श्रियमन्यः परीप्सति ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस अर्थ या भोगके लिये ही कितने ही लोगोंके धनका नाश हो जाता है। दूसरे लोग सम्पत्तिको अक्षय सुख मानकर उसे पानेकी इच्छा करते हैं॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रममाणः श्रिया कश्चिन्नान्यच्छ्रेयोऽभिमन्यते ।
तथा तस्येहमानस्य समारम्भो विनश्यति ॥ ३९ ॥
मूलम्
रममाणः श्रिया कश्चिन्नान्यच्छ्रेयोऽभिमन्यते ।
तथा तस्येहमानस्य समारम्भो विनश्यति ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई-कोई मनुष्य तो धन-सम्पत्तिमें इस तरह रम जाता है कि उसे उससे बढ़कर सुखका साधन और कुछ जान ही नहीं पड़ता है। अतः वह धनोपार्जनकी ही चेष्टामें लगा रहता है। परंतु दैववश उस मनुष्यका वह सारा उद्योग सहसा नष्ट हो जाता है॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृच्छ्राल्लब्धमभिप्रेतं यदि कौसल्य नश्यति।
तदा निर्विद्यते सोऽर्थात् परिभग्नक्रमो नरः ॥ ४० ॥
(अनित्यां तां श्रियं मत्वा श्रियं वा कः परीप्सति।)
मूलम्
कृच्छ्राल्लब्धमभिप्रेतं यदि कौसल्य नश्यति।
तदा निर्विद्यते सोऽर्थात् परिभग्नक्रमो नरः ॥ ४० ॥
(अनित्यां तां श्रियं मत्वा श्रियं वा कः परीप्सति।)
अनुवाद (हिन्दी)
कोसलनरेश! बड़े कष्टसे प्राप्त किया हुआ वह अभीष्ट धन यदि नष्ट हो जाता है तो उसके उद्योगका सिलसिला टूट जाता है और वह धनसे विरक्त हो जाता है। इस प्रकार उस सम्पत्तिको अनित्य समझकर भी भला कौन उसे प्राप्त करनेकी इच्छा करेगा?॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्ममेकेऽभिपद्यन्ते कल्याणाभिजना नराः ।
परत्र सुखमिच्छन्तो निर्विद्येयुश्च लौकिकात् ॥ ४१ ॥
मूलम्
धर्ममेकेऽभिपद्यन्ते कल्याणाभिजना नराः ।
परत्र सुखमिच्छन्तो निर्विद्येयुश्च लौकिकात् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए कुछ ही मनुष्य ऐसे हैं, जो धर्मकी शरण लेते हैं और परलोकमें सुखकी इच्छा रखकर समस्त लौकिक व्यापारसे उपरत हो जाते हैं॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवितं संत्यजन्त्येके धनलोभपरा जनाः।
न जीवितार्थं मन्यन्ते पुरुषा हि धनादृते ॥ ४२ ॥
मूलम्
जीवितं संत्यजन्त्येके धनलोभपरा जनाः।
न जीवितार्थं मन्यन्ते पुरुषा हि धनादृते ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ लोग तो ऐसे हैं, जो धनके लोभमें पड़कर अपने प्राणतक गँवा देते हैं। ऐसे मनुष्य धनके सिवा जीवनका दूसरा कोई प्रयोजन ही नहीं समझते॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य तेषां कृपणतां पश्य तेषामबुद्धिताम्।
अध्रुवे जीविते मोहादर्थदृष्टिमुपाश्रिताः ॥ ४३ ॥
मूलम्
पश्य तेषां कृपणतां पश्य तेषामबुद्धिताम्।
अध्रुवे जीविते मोहादर्थदृष्टिमुपाश्रिताः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, उनकी दीनता और देख लो उनकी मूर्खता, जो इस अनित्य जीवनके लिये मोहवश धनमें ही दृष्टि गड़ाये रहते हैं॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संचये च विनाशान्ते मरणान्ते च जीविते।
संयोगे च वियोगान्ते को नु विप्रणयेन्मनः ॥ ४४ ॥
मूलम्
संचये च विनाशान्ते मरणान्ते च जीविते।
संयोगे च वियोगान्ते को नु विप्रणयेन्मनः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब संग्रहका अन्त विनाश ही है, जब जीवनका अन्त मृत्यु ही है और जब संयोगका अन्त वियोग ही है, तब इनकी ओर कौन अपना मन लगायेगा?॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनं वा पुरुषो राजन् पुरुषं वा पुनर्धनम्।
अवश्यं प्रजहात्येव तद् विद्वान् कोऽनुसंज्वरेत् ॥ ४५ ॥
मूलम्
धनं वा पुरुषो राजन् पुरुषं वा पुनर्धनम्।
अवश्यं प्रजहात्येव तद् विद्वान् कोऽनुसंज्वरेत् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! चाहे मनुष्य धनको छोड़ता है, चाहे धन ही मनुष्यको छोड़ देता है। एक दिन अवश्य ऐसा होता है। इस बातको जाननेवाला कौन मनुष्य धनके लिये चिन्ता करेगा?॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अन्यत्रोपनता ह्यापत् पुरुषं तोषयत्युत।
तेन शान्तिं न लभते नाहमेवेति कारणात्॥)
मूलम्
(अन्यत्रोपनता ह्यापत् पुरुषं तोषयत्युत।
तेन शान्तिं न लभते नाहमेवेति कारणात्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरोंपर पड़ी हुई आपत्ति मूर्ख मनुष्यको संतोष प्रदान करती है। वह समझता है कि मैं उस संकटमें नहीं पड़ा हूँ। इस भेददृष्टिके कारण ही उसे कभी शान्ति नहीं मिलती॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्येषामपि नश्यन्ति सुहृदश्च धनानि च।
पश्य बुद्ध्या मनुष्याणां राजन्नापदमात्मनः ॥ ४६ ॥
मूलम्
अन्येषामपि नश्यन्ति सुहृदश्च धनानि च।
पश्य बुद्ध्या मनुष्याणां राजन्नापदमात्मनः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! दूसरोंके भी धन और सुहृद् नष्ट होते हैं; अतः तुम बुद्धिसे विचारकर देखो कि दूसरे मनुष्योंके समान ही तुम्हारी अपनी आपत्ति भी है॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नियच्छ यच्छ संयच्छ इन्द्रियाणि मनो गिरम्।
प्रतिषेद्धा न चाप्येषु दुर्बलेष्वहितेष्वपि ॥ ४७ ॥
मूलम्
नियच्छ यच्छ संयच्छ इन्द्रियाणि मनो गिरम्।
प्रतिषेद्धा न चाप्येषु दुर्बलेष्वहितेष्वपि ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रियोंको संयममें रखो, मनको वशमें करो और वाणीका संयम करके मौन रहा करो। ये मन, वाणी और इन्द्रियाँ दुर्बल हों या अहितकारक, इन्हें विषयोंकी ओर जानेसे रोकनेवाला अपने सिवा दूसरा कोई नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्तिसृष्टेषु भावेषु व्यपकृष्टेष्वसम्भवे ।
प्रज्ञानतृप्तो विक्रान्तस्त्वद्विधो नानुशोचति ॥ ४८ ॥
मूलम्
प्राप्तिसृष्टेषु भावेषु व्यपकृष्टेष्वसम्भवे ।
प्रज्ञानतृप्तो विक्रान्तस्त्वद्विधो नानुशोचति ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारे पदार्थ जब संसर्गमें आते हैं, तभी दृष्टिगोचर होते हैं। दूर हो जानेपर उनका दर्शन सम्भव नहीं हो पाता। ऐसी स्थितिमें ज्ञान और विज्ञानसे तृप्त तथा पराक्रमसे सम्पन्न तुम्हारे-जैसा पुरुष शोक नहीं करता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अल्पमिच्छन्नचपलो मृदुर्दान्तः सुनिश्चितः ।
ब्रह्मचर्योपपन्नश्च त्वद्विधो नैव शोचति ॥ ४९ ॥
मूलम्
अल्पमिच्छन्नचपलो मृदुर्दान्तः सुनिश्चितः ।
ब्रह्मचर्योपपन्नश्च त्वद्विधो नैव शोचति ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारी इच्छा तो बहुत थोड़ी है। तुममें चपलताका दोष भी नहीं है। तुम्हारा हृदय कोमल और बुद्धि एक निश्चयपर डटी रहनेवाली है तथा तुम जितेन्द्रिय होनेके साथ ही ब्रह्मचर्यसे सम्पन्न भी हो; अतः तुम्हारे-जैसे पुरुषको शोक नहीं करना चाहिये॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्वेव जाल्मीं कापालीं वृत्तिमेषितुमर्हसि।
नृशंसवृत्तिं पापिष्ठां दुष्टां कापुरुषोचिताम् ॥ ५० ॥
मूलम्
न त्वेव जाल्मीं कापालीं वृत्तिमेषितुमर्हसि।
नृशंसवृत्तिं पापिष्ठां दुष्टां कापुरुषोचिताम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमको हाथमें कपाल लेकर भीख माँगनेवालोंकी तथा निर्दय पुरुषोंकी उस कपटभरी वृत्तिकी इच्छा नहीं करनी चाहिये, जो अत्यन्त पापपूर्ण, अनेक दोषोंसे दूषित तथा कायरोंके ही योग्य है॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि मूलफलाजीवो रमस्वैको महावने।
वाग्यतः संगृहीतात्मा सर्वभूतदयान्वितः ॥ ५१ ॥
मूलम्
अपि मूलफलाजीवो रमस्वैको महावने।
वाग्यतः संगृहीतात्मा सर्वभूतदयान्वितः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम मूल-फलसे जीवन-निर्वाह करते हुए विशाल वनमें अकेले ही विचरण करो। वाणीको संयममें रखकर मन और इन्द्रियोंको काबूमें करो और सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति दयाभाव बनाये रखो॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदृशं पण्डितस्यै तदीषादन्तेन दन्तिना।
यदेको रमतेऽरण्येष्वारण्ये नैव तुष्यति ॥ ५२ ॥
मूलम्
सदृशं पण्डितस्यै तदीषादन्तेन दन्तिना।
यदेको रमतेऽरण्येष्वारण्ये नैव तुष्यति ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम-जैसे विद्वान् पुरुषके योग्य कार्य तो यह है कि वनमें ईषाके समान बड़े-बड़े दाँतवाले जंगली हाथीके साथ अकेला विचरे और जंगलके ही पत्र, पुष्प तथा फल-मूल खाकर संतुष्ट रहे॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाह्रदः संक्षुभित आत्मनैव प्रसीदति।
(इत्थं नरोऽप्यात्मनैव कृतप्रज्ञः प्रसीदति।)
एतदेवंगतस्याहं सुखं पश्यामि जीवितुम् ॥ ५३ ॥
मूलम्
महाह्रदः संक्षुभित आत्मनैव प्रसीदति।
(इत्थं नरोऽप्यात्मनैव कृतप्रज्ञः प्रसीदति।)
एतदेवंगतस्याहं सुखं पश्यामि जीवितुम् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे क्षुब्ध हुआ महान् सरोवर निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार विशुद्ध बुद्धिवाला मनुष्य क्षुब्ध होनेपर भी निर्मल हो जाता है। अतः राजकुमार! इस अवस्थामें तुम्हारा इस रूपमें आ जाना; अर्थात् तुम्हारे मनमें ऐसे विशुद्ध भावका उदय होना शुभ है। इस प्रकारके जीवनको ही मैं सुखमय समझता हूँ॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असम्भवे श्रियो राजन् हीनस्य सचिवादिभिः।
दैवे प्रतिनिविष्टे च किं श्रेयो मन्यते भवान् ॥ ५४ ॥
मूलम्
असम्भवे श्रियो राजन् हीनस्य सचिवादिभिः।
दैवे प्रतिनिविष्टे च किं श्रेयो मन्यते भवान् ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तुम्हारे लिये अब धन-सम्पत्तिकी कोई सम्भावना नहीं है। तुम मन्त्री आदिसे भी रहित हो गये हो तथा दैव भी तुम्हारे प्रतिकूल ही है, ऐसी अवस्थामें तुम अपने लिये किस मार्गका अवलम्बन अच्छा समझते हो?॥५४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि कालकवृक्षीये चतुरधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें कालकवृक्षीय मुनिका उपदेशविषयक एक सौ चारवाँ अध्याय पूरा हआ॥१०४॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल ५८ श्लोक हैं)