१०१ विजिगीषमाणवृत्ते

भागसूचना

एकाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भिन्न-भिन्न देशके योद्धाओंके स्वभाव, रूप, बल, आचरण और लक्षणोंका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंशीलाः किंसमाचाराः कथंरूपाश्च भारत।
किंसन्नाहाः कथंशस्त्रा जनाः स्युः संगरे क्षमाः ॥ १ ॥

मूलम्

किंशीलाः किंसमाचाराः कथंरूपाश्च भारत।
किंसन्नाहाः कथंशस्त्रा जनाः स्युः संगरे क्षमाः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— ‘भरतनन्दन! युद्धस्थलमें कैसे स्वभाव, किस तरहके आचरण और कैसे रूपवाले योद्धा ठीक समझे जाते हैं? उनके कवच और अस्त्र-शस्त्र भी कैसे होने चाहिये?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाऽऽचरितमेवात्र शस्त्रं पत्रं विधीयते।
आचाराद् वीरपुरुषस्तथा कर्मसु वर्तते ॥ २ ॥

मूलम्

यथाऽऽचरितमेवात्र शस्त्रं पत्रं विधीयते।
आचाराद् वीरपुरुषस्तथा कर्मसु वर्तते ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी बोले— ‘राजन्! अस्त्र-शस्त्र और वाहन तो योद्धाओंके देश और कुलके आचारके अनुरूप ही होने चाहिये। वीर पुरुष अपने परम्परागत आचारके अनुसार ही सभी कार्योंमें प्रवृत्त होता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गान्धाराः सिन्धुसौवीरा नखरप्रासयोधिनः ।
अभीरवः सुबलिनस्तद्बलं सर्वपारगम् ॥ ३ ॥

मूलम्

गान्धाराः सिन्धुसौवीरा नखरप्रासयोधिनः ।
अभीरवः सुबलिनस्तद्बलं सर्वपारगम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गान्धार, सिन्धु और सौवीर देशके योद्धा नखर (बघनखे) और प्राससे युद्ध करनेवाले हैं। वे बड़े बलवान् और निडर होते हैं। उनकी सेना सबको लाँघ जानेवाली होती है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वशस्त्रेषु कुशलाः सत्त्ववन्तो ह्युशीनराः।
प्राच्या मातङ्गयुद्धेषु कुशलाः कूटयोधिनः ॥ ४ ॥

मूलम्

सर्वशस्त्रेषु कुशलाः सत्त्ववन्तो ह्युशीनराः।
प्राच्या मातङ्गयुद्धेषु कुशलाः कूटयोधिनः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उशीनरदेशके वीर सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंमें कुशल और बड़े बलशाली होते हैं। पूर्वदेशके योद्धा हाथीपर सवार होकर युद्ध करनेकी कलामें कुशल हैं। वे कपटयुद्धके भी ज्ञाता हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा यवनकाम्बोजा मथुरामभितश्च ये।
एते नियुद्धकुशला दाक्षिणात्यासिपाणयः ॥ ५ ॥

मूलम्

तथा यवनकाम्बोजा मथुरामभितश्च ये।
एते नियुद्धकुशला दाक्षिणात्यासिपाणयः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यवन, काम्बोज और मथुराके आस-पासके रहनेवाले योद्धा मल्लयुद्धमें निपुण होते हैं। तथा दक्षिण देशोंके निवासी हाथोंमें तलवार लिये रहते हैं। (वे तलवार चलाना अच्छा जानते हैं)॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वत्र शूरा जायन्ते महासत्त्वा महाबलाः।
प्राय एव समुद्दिष्टा लक्षणानि तु मे शृणु ॥ ६ ॥

मूलम्

सर्वत्र शूरा जायन्ते महासत्त्वा महाबलाः।
प्राय एव समुद्दिष्टा लक्षणानि तु मे शृणु ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रायः सभी देशोंमें महान् धैर्यशाली, महाबली एवं शूरवीर पैदा होते हैं। उन सबका उल्लेख अधिकतर किया जा चुका है। अब तुम मुझसे उनके लक्षण सुनो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिंहशार्दूलवाङ्नेत्राः सिंहशार्दूलगामिनः ।
पारावतकुलिङ्गाक्षाः सर्वे शूराः प्रमाथिनः ॥ ७ ॥

मूलम्

सिंहशार्दूलवाङ्नेत्राः सिंहशार्दूलगामिनः ।
पारावतकुलिङ्गाक्षाः सर्वे शूराः प्रमाथिनः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी वाणी, नेत्र तथा चाल-ढाल सिंहों या बाघोंके समान होती है और जिनकी आँखें कबूतर या गौरैयेके समान होती हैं, वे सभी शूरवीर एवं शत्रुसेनाको मथ डालनेवाले होते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृगस्वरा द्वीपिनेत्रा ऋषभाक्षास्तरस्विनः ।
प्रमादिनश्च मन्दाश्च क्रोधनाः किङ्किणीस्वनाः ॥ ८ ॥

मूलम्

मृगस्वरा द्वीपिनेत्रा ऋषभाक्षास्तरस्विनः ।
प्रमादिनश्च मन्दाश्च क्रोधनाः किङ्किणीस्वनाः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका कण्ठस्वर मृगोंके समान और नेत्र बाघ एवं बैलोंके तुल्य होते हैं, वे वीर वेगशाली, असावधान और मूर्ख हुआ करते हैं। जिनका कण्ठनाद किंकिणीके समान मधुर हो, वे स्वभावके बड़े क्रोधी होते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेघस्वनाः क्रोधमुखाः केचित् करभसंनिभाः।
जिह्मनासाग्रजिह्वाश्च दूरगा दूरपातिनः ॥ ९ ॥

मूलम्

मेघस्वनाः क्रोधमुखाः केचित् करभसंनिभाः।
जिह्मनासाग्रजिह्वाश्च दूरगा दूरपातिनः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी गर्जना मेघके समान, मुख क्रोधयुक्त, शरीर ऊँटकी तरह तथा नाक और जीभ टेढ़ी हो, वे बहुत दूरतक दौड़नेवाले तथा सुदूरवर्ती लक्ष्यको भी मार गिरानेवाले होते हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिडालकुब्जतनवस्तनुकेशास्तनुत्वचः ।
शीघ्राश्चपलवृत्ताश्च ते भवन्ति दुरासदाः ॥ १० ॥

मूलम्

बिडालकुब्जतनवस्तनुकेशास्तनुत्वचः ।
शीघ्राश्चपलवृत्ताश्च ते भवन्ति दुरासदाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका शरीर बिलावके समान कुबड़ा तथा सिरके बाल और देहकी खाल पतले होते हैं, वे शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलानेवाले चंचल और दुर्जय होते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोधानिमीलिताः केचिन्मृदुप्रकृतयस्तथा ।
तरङ्गगतिनिर्घोषास्ते नराः पारयिष्णवः ॥ ११ ॥

मूलम्

गोधानिमीलिताः केचिन्मृदुप्रकृतयस्तथा ।
तरङ्गगतिनिर्घोषास्ते नराः पारयिष्णवः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो गोहटीके समान आँखें बन्द किये रहते हैं, जिनका स्वभाव कोमल होता है तथा जिनके चलनेपर घोड़ेकी टाप पड़ने-जैसी आवाज होती है, वे मनुष्य युद्धके पार पहुँच जाते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुसंहताः सुतनवो व्यूढोरस्काः सुसंस्थिताः।
प्रवादितेषु कुप्यन्ति हृष्यन्ति कलहेषु च ॥ १२ ॥

मूलम्

सुसंहताः सुतनवो व्यूढोरस्काः सुसंस्थिताः।
प्रवादितेषु कुप्यन्ति हृष्यन्ति कलहेषु च ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके शरीर गठीले, छाती चौड़ी और अंग-प्रत्यंग सुडौल होते हैं, जो युद्धमें डटकर खड़े होनेवाले हैं, वे वीर पुरुष युद्धका धौसा सुनते ही कुपित हो उठते हैं। उन्हें लड़ने-भिड़नेमें ही आनन्द आता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गम्भीराक्षा निःसृताक्षाः पिङ्गाक्षा भ्रुकुटीमुखाः।
नकुलाक्षास्तथा चैव सर्वे शूरास्तनुत्यजः ॥ १३ ॥

मूलम्

गम्भीराक्षा निःसृताक्षाः पिङ्गाक्षा भ्रुकुटीमुखाः।
नकुलाक्षास्तथा चैव सर्वे शूरास्तनुत्यजः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी आँखें गहरी हैं अथवा बड़ी होनेके कारण निकली हुई-सी प्रतीत होती हैं या जिनके नेत्र पिंगलवर्णके हैं अथवा जिनकी आँखें नेवलेके समान भूरी-भूरी हैं और जिनके मुखपर भौंहें तनी रहती हैं, ऐसे लक्षणोंवाले सभी मनुष्य शूरवीर तथा रणभूमिमें शरीरका त्याग करनेवाले होते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिह्माक्षाः प्रललाटाश्च निर्मांसहनवोऽपि च।
वज्रबाह्वंगुलीचक्राः कृशा धमनिसंतताः ॥ १४ ॥
प्रविशन्ति च वेगेन साम्पराये ह्युपस्थिते।
वारणा इव सम्मत्तास्ते भवन्ति दुरासदाः ॥ १५ ॥

मूलम्

जिह्माक्षाः प्रललाटाश्च निर्मांसहनवोऽपि च।
वज्रबाह्वंगुलीचक्राः कृशा धमनिसंतताः ॥ १४ ॥
प्रविशन्ति च वेगेन साम्पराये ह्युपस्थिते।
वारणा इव सम्मत्तास्ते भवन्ति दुरासदाः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी आँखें तिरछी, ललाट ऊँचे और ठोड़ी मांसहीन एवं दुबली-पतली है, जिनकी भुजाओंपर वज्रका और अंगुलियोंपर चक्रका चिह्न होता है तथा जिनके शरीरकी नस-नाड़ियाँ दिखायी देती हैं, वे युद्ध उपस्थित होते ही बड़े वेगसे शत्रुओंकी सेनामें घुस जाते हैं और मतवाले हाथियोंके समान शत्रुओंके लिये दुर्जय होते हैं॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीप्तस्फुटितकेशान्ताः स्थूलपार्श्वहनूमुखाः ।
उन्नतांसाः पृथुग्रीवा विकटाः स्थूलपिण्डिकाः ॥ १६ ॥
उद्धता इव सुग्रीवा विनताविहगा इव।
पिण्डशीर्षातिवक्त्राश्च वृषदंशमुखास्तथा ॥ १७ ॥
उग्रस्वरा मन्युमन्तो युद्धेष्वारावसारिणः ।
अधर्मज्ञावलिप्ताश्च घोरा रौद्रप्रदर्शनाः ॥ १८ ॥

मूलम्

दीप्तस्फुटितकेशान्ताः स्थूलपार्श्वहनूमुखाः ।
उन्नतांसाः पृथुग्रीवा विकटाः स्थूलपिण्डिकाः ॥ १६ ॥
उद्धता इव सुग्रीवा विनताविहगा इव।
पिण्डशीर्षातिवक्त्राश्च वृषदंशमुखास्तथा ॥ १७ ॥
उग्रस्वरा मन्युमन्तो युद्धेष्वारावसारिणः ।
अधर्मज्ञावलिप्ताश्च घोरा रौद्रप्रदर्शनाः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके केशोंके अग्रभाग पीले और छितराये हुए हैं, पसलियाँ, ठोड़ी और मुँह लंबे एवं मोटे हैं, कंधे ऊँचे, गर्दन मोटी और पिण्डली भारी हैं, जो देखनेमें विकट जान पड़ते हैं, सुग्रीव जातिवाले अश्वोंके समान तथा गरुड़ पक्षीकी भाँति उद्धत स्वभावके हैं, जिनके सिर गोल और मुख विशाल हैं, जो बिलाव-जैसा मुख धारण करते हैं तथा जिनके स्वरमें कठोरता है, वे बड़े क्रोधी होते हैं और युद्धमें गर्जना करते हुए विचरते हैं। उन्हें धर्मका ज्ञान नहीं होता। वे घमंडमें भरे हुए घोर आकृतिवाले दिखायी देते हैं। उनका दर्शन ही बड़ा भयंकर है॥१६—१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यक्तात्मानः सर्व एते अन्त्यजा ह्यनिवर्तिनः।
पुरस्कार्याः सदा सैन्ये हन्यन्ते घ्नन्ति चापि ये ॥ १९ ॥

मूलम्

त्यक्तात्मानः सर्व एते अन्त्यजा ह्यनिवर्तिनः।
पुरस्कार्याः सदा सैन्ये हन्यन्ते घ्नन्ति चापि ये ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये सब-के-सब अन्त्यज (कोल-भील आदि) हैं, जो युद्धसे कभी पीछे नहीं हटते और शरीरका मोह छोड़कर लड़ते हैं। सेनामें ऐसे लोगोंको सदा पुरस्कार देना चाहिये और इन्हें सदा आगे-आगे रखना चाहिये। ये धैर्यपूर्वक शत्रुओंकी मार सहते और उन्हें भी मारते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधार्मिका भिन्नवृत्ताः सान्त्वेनैषां पराभवः।
एवमेव प्रकुप्यन्ति राज्ञोऽप्येते ह्यभीक्ष्णशः ॥ २० ॥

मूलम्

अधार्मिका भिन्नवृत्ताः सान्त्वेनैषां पराभवः।
एवमेव प्रकुप्यन्ति राज्ञोऽप्येते ह्यभीक्ष्णशः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये अधर्मी होते हैं, धर्मकी मर्यादा भंग कर देते हैं। इसी तरह ये बारंबार राजापर भी कुपित हो उठते हैं; अतः इन्हें मीठी-मीठी बातोंसे समझा-बुझाकर ही काबूमें करना चाहिये॥२०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि विजिगीषमाणवृत्ते एकाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें विजयाभिलाषी राजाका बर्तावविषयक एक सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०१॥