१०० सेनानीतिकथने

भागसूचना

शततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

सैन्यसंचालनकी रीति-नीतिका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा जयार्थिनः सेनां नयन्ति भरतर्षभ।
ईषद् धर्मं प्रपीड्यापि तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

यथा जयार्थिनः सेनां नयन्ति भरतर्षभ।
ईषद् धर्मं प्रपीड्यापि तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— भरतश्रेष्ठ पितामह! विजया-भिलाषी राजालोग जिस प्रकार धर्मका थोड़ा-सा उल्लंघन करके भी अपनी सेनाको आगे ले जाते हैं, वह मुझे बताइये॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्येन हि स्थितो धर्म उपपत्त्या तथा परे।
साध्वाचारतया केचित् तथैवौपयिकादपि ॥ २ ॥

मूलम्

सत्येन हि स्थितो धर्म उपपत्त्या तथा परे।
साध्वाचारतया केचित् तथैवौपयिकादपि ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! किन्हींका मत है कि धर्म सत्यसे ही स्थिर रहता है। दूसरे लोग युक्तिवादसे ही धर्मकी प्रतिष्ठा मानते हैं। किसी-किसीके मतमें श्रेष्ठ आचरणसे ही धर्मकी स्थिति है और कितने ही लोग यथासम्भव साम-दान आदि उपायोंके अवलम्बनसे भी धर्मकी प्रतिष्ठा स्वीकार करते हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपायधर्मान् वक्ष्यामि सिद्धार्थानर्थधर्मयोः ।
निर्मर्यादा दस्यवस्तु भवन्ति परिपन्थिनः ॥ ३ ॥
तेषां प्रतिविघातार्थं प्रवक्ष्याम्यथ नैगमम्।
कार्याणां सर्वसिद्ध्यर्थं तानुपायान् निबोध मे ॥ ४ ॥

मूलम्

उपायधर्मान् वक्ष्यामि सिद्धार्थानर्थधर्मयोः ।
निर्मर्यादा दस्यवस्तु भवन्ति परिपन्थिनः ॥ ३ ॥
तेषां प्रतिविघातार्थं प्रवक्ष्याम्यथ नैगमम्।
कार्याणां सर्वसिद्ध्यर्थं तानुपायान् निबोध मे ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! अब मैं अर्थसिद्धिके साधनभूत धर्मोंका वर्णन करूँगा। यदि डाकू और लुटेरे अर्थ और धर्मकी मर्यादा तोड़ने लगें, तब उनके विनाशके लिये वेदोंमें जो साधन बताया गया है, उसका वर्णन आरम्भ करता हूँ। तुम समस्त कार्योंकी सिद्धिके लिये उन उपायोंको मुझसे सुनो॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभे प्रज्ञे वेदितव्ये ऋज्वी वक्रा च भारत।
जानन् वक्रां न सेवेत प्रतिबाधेत चागताम् ॥ ५ ॥

मूलम्

उभे प्रज्ञे वेदितव्ये ऋज्वी वक्रा च भारत।
जानन् वक्रां न सेवेत प्रतिबाधेत चागताम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! बुद्धि दो प्रकारकी होती है। एक सरल, दूसरी कुटिल। राजाको उन दोनोंका ही ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। जहाँतक सम्भव हो, जान-बूझकर कुटिल बुद्धिका सेवन न करे। यदि वैसी बुद्धि स्वतः आ जाय तो भी उसे हटानेका ही प्रयत्न करे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमित्रा एव राजानं भेदेनोपचरन्त्युत।
तां राजा निकृतिं जानन् यथामित्रान् प्रबाधते ॥ ६ ॥

मूलम्

अमित्रा एव राजानं भेदेनोपचरन्त्युत।
तां राजा निकृतिं जानन् यथामित्रान् प्रबाधते ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वास्तवमें मित्र नहीं हैं, वे ही भीतरसे राजाके अन्तरंग व्यक्तियोंमें फूट डालनेका प्रयत्न करते हुए ऊपरसे उसकी सेवामें लगे रहते हैं। राजा उनकी इस शठताको समझे और शत्रुओंकी भाँति उनको भी मिटानेका प्रयत्न करे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजानां पार्थ वर्माणि गोवृषाजगराणि च।
शल्यकण्टकलोहानि तनुत्रचमराणि च ॥ ७ ॥
सितपीतानि शस्त्राणि संनाहाः पीतलोहिताः।
नानारञ्जनरक्ताः स्युः पताकाः केतवश्च ह ॥ ८ ॥
ऋष्टयस्तोमराः खड्गा निशिताश्च परश्वधाः।
फलकान्यथ चर्माणि प्रतिकल्प्यान्यनेकशः ॥ ९ ॥

मूलम्

गजानां पार्थ वर्माणि गोवृषाजगराणि च।
शल्यकण्टकलोहानि तनुत्रचमराणि च ॥ ७ ॥
सितपीतानि शस्त्राणि संनाहाः पीतलोहिताः।
नानारञ्जनरक्ताः स्युः पताकाः केतवश्च ह ॥ ८ ॥
ऋष्टयस्तोमराः खड्गा निशिताश्च परश्वधाः।
फलकान्यथ चर्माणि प्रतिकल्प्यान्यनेकशः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! राजाको चाहिये कि वह गाय, बैल तथा अजगरके चमड़ोंसे हाथियोंकी रक्षाके लिये कवच बनवावे। इसके सिवा लोहेकी कीलें, लोहे, कवच, चँवर, चमकीले और पानीदार शस्त्र, पीले और लाल रंगके कवच, बहुरंगी ध्वजा-पताकाएँ, ऋष्टि, तोमर, खड्ग, तीखे फरसे, फलक और ढाल—इन्हें भारी संख्यामें तैयार कराकर सदा अपने पास रखे॥७—९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिनीतानि शस्त्राणि योधाश्च कृतनिश्चयाः।
चैत्र्यां वा मार्गशीर्ष्यां वा सेनायोगः प्रशस्यते ॥ १० ॥

मूलम्

अभिनीतानि शस्त्राणि योधाश्च कृतनिश्चयाः।
चैत्र्यां वा मार्गशीर्ष्यां वा सेनायोगः प्रशस्यते ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि शस्त्र तैयार हों और योद्धा भी शत्रुओंसे भिड़नेका दृढ़ निश्चय कर चुके हों, तो चैत्र या मार्गशीर्ष मासकी पूर्णिमाको सेनाका युद्धके लिये उद्यत होकर प्रस्थान करना उत्तम माना गया है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पक्वसस्या हि पृथिवी भवत्यम्बुमती तदा।
नैवातिशीतो नात्युष्णः कालो भवति भारत ॥ ११ ॥

मूलम्

पक्वसस्या हि पृथिवी भवत्यम्बुमती तदा।
नैवातिशीतो नात्युष्णः कालो भवति भारत ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि उस समय खेती पक जाती है और भूतलपर जलकी प्रचुरता रहती है। भरतनन्दन! उस समय मौसम भी न तो अधिक ठंडा रहता है और न अधिक गरम॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् तदा योजयेत परेषां व्यसनेऽथवा।
एते हि योगाः सेनायाः प्रशस्ताः परबाधने ॥ १२ ॥

मूलम्

तस्मात् तदा योजयेत परेषां व्यसनेऽथवा।
एते हि योगाः सेनायाः प्रशस्ताः परबाधने ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये उसी समय चढ़ाई करे अथवा जिस समय शत्रु संकटमें हो, उसी अवसरपर उसपर आक्रमण कर दे। शत्रुओंको सेनाद्वारा बाधा पहुँचानेके लिये ये ही अवसर अच्छे माने गये हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलवांस्तृणवान् मार्गः समो गम्यः प्रशस्यते।
चारैः सुविदिताभ्यासः कुशलैर्वनगोचरैः ॥ १३ ॥

मूलम्

जलवांस्तृणवान् मार्गः समो गम्यः प्रशस्यते।
चारैः सुविदिताभ्यासः कुशलैर्वनगोचरैः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धके लिये यात्रा करते समय मार्ग समतल और सुगम हो तथा वहाँ जल और घास आदि सुलभ हों तो अच्छा समझा जाता है। वनमें विचरनेवाले कुशल गुप्तचरोंको मार्गके विषयमें विशेष जानकारी रहा करती है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यरण्येन शक्येत गन्तुं मृगगणैरिव।
तस्मात् सेनासु तानेव योजयन्ति जयार्थिनः ॥ १४ ॥

मूलम्

न ह्यरण्येन शक्येत गन्तुं मृगगणैरिव।
तस्मात् सेनासु तानेव योजयन्ति जयार्थिनः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वन्य पशुओंकी भाँति मनुष्य जंगलमें आसानीसे नहीं चल सकते; इसलिये विजयाभिलाषी राजा सेनाओंमें मार्गदर्शन करानेके लिये उन्हीं गुप्तचरोंको नियुक्त करते हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्रतः पुरुषानीकं शक्तं चापि कुलोद्भवम्।
आवासस्तोयवान् दुर्गः पर्याकाशः प्रशस्यते ॥ १५ ॥

मूलम्

अग्रतः पुरुषानीकं शक्तं चापि कुलोद्भवम्।
आवासस्तोयवान् दुर्गः पर्याकाशः प्रशस्यते ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सेनामें सबसे आगे कुलीन एवं शक्तिशाली पैदल सिपाहियोंको रखना चाहिये। शत्रुसे बचावके लिये सैनिकोंके रहनेका स्थान या किला ऐसा होना चाहिये, जहाँ पहुँचना कठिन हो, जिसके चारों ओर जलसे भरी हुई खाईं और ऊँचा परकोटा हो। साथ ही उसके चारों ओर खुला आकाश होना चाहिये॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परेषामुपसर्पाणं प्रतिषेधस्तथा भवेत् ।
आकाशात् तु वनाभ्याशं मन्यन्ते गुणवत्तरम् ॥ १६ ॥
बहुभिर्गुणजातैश्च ये युद्धकुशला जनाः।
उपन्यासो भवेत् तत्र बलानां नातिदूरतः ॥ १७ ॥

मूलम्

परेषामुपसर्पाणं प्रतिषेधस्तथा भवेत् ।
आकाशात् तु वनाभ्याशं मन्यन्ते गुणवत्तरम् ॥ १६ ॥
बहुभिर्गुणजातैश्च ये युद्धकुशला जनाः।
उपन्यासो भवेत् तत्र बलानां नातिदूरतः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस स्थानपर शत्रुओंके आक्रमणको रोकनेके लिये सुविधा होनी चाहिये। युद्धकुशल पुरुष सेनाकी छावनी डालनेके लिये खुले मैदानकी अपेक्षा अनेक गुणोंके कारण जंगलके निकटवर्ती स्थानको अधिक लाभदायक मानते हैं। उस वनके समीप ही सेनाका पड़ाव डालना चाहिये॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपन्यासावतरणं पदातीनां च गूहनम्।
अथ शत्रुप्रतीघातमापदर्थं परायणम् ॥ १८ ॥

मूलम्

उपन्यासावतरणं पदातीनां च गूहनम्।
अथ शत्रुप्रतीघातमापदर्थं परायणम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ व्यूह निर्माण करनेके लिये रथ और वाहनोंसे उतरना तथा पैदल सैनिकोंको छिपाकर रखना सम्भव है। वहाँ रहकर शत्रुओंके प्रहारका जवाब दिया जा सकता है और आपत्तिके समय छिप जानेका भी सुभीता रहता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्तर्षीन् पृष्ठतः कृत्वा युध्येयुरचला इव।
अनेन विधिना शत्रून् जिगीषेतापि दुर्जयान् ॥ १९ ॥

मूलम्

सप्तर्षीन् पृष्ठतः कृत्वा युध्येयुरचला इव।
अनेन विधिना शत्रून् जिगीषेतापि दुर्जयान् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

योद्धाओंको चाहिये कि वे सप्तर्षियोंको पीछे रखकर पर्वतकी तरह अविचलभावसे युद्ध करें। इस विधिसे आक्रमण करनेवाला राजा दुर्जय शत्रुओंको भी जीतनेकी आशा कर सकता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यतो वायुर्यतः सूर्यो यतः शुक्रस्ततो जयः।
पूर्वं पूर्वं ज्याय एषां संनिपाते युधिष्ठिर ॥ २० ॥

मूलम्

यतो वायुर्यतः सूर्यो यतः शुक्रस्ततो जयः।
पूर्वं पूर्वं ज्याय एषां संनिपाते युधिष्ठिर ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस ओर वायु, जिस ओर सूर्य और जिस ओर शुक्र हों, उसी ओर पृष्ठभाग रखकर युद्ध करनेसे विजय प्राप्त होती है। युधिष्ठिर! यदि ये तीनों भिन्न-भिन्न दिशाओंमें हों तो इनमें पहला-पहला श्रेष्ठ है अर्थात् वायुको पीछे रखकर शेष दोको सामने रखते हुए भी युद्ध किया जा सकता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकर्दमामनुदकाममर्यादामलोष्टकाम् ।
अश्वभूमिं प्रशंसन्ति ये युद्धकुशला जनाः ॥ २१ ॥

मूलम्

अकर्दमामनुदकाममर्यादामलोष्टकाम् ।
अश्वभूमिं प्रशंसन्ति ये युद्धकुशला जनाः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

घुड़सवार सेनाके लिये युद्धकुशल पुरुष उसी भूमिकी प्रशंसा करते हैं, जिसमें कीचड़, पानी, बाँध और ढेले न हों॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपङ्का गर्तरहिता रथभूमिः प्रशस्यते।
नीचद्रुमा महाकक्षा सोदका हस्तियोधिनाम् ॥ २२ ॥

मूलम्

अपङ्का गर्तरहिता रथभूमिः प्रशस्यते।
नीचद्रुमा महाकक्षा सोदका हस्तियोधिनाम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथसेनाके लिये वह भूमि अच्छी मानी गयी है, जहाँ कीचड़ और गड्ढे न हों। जिस भूमिमें नाटे वृक्ष, बहुत-से घास-फूस और जलाशय हों, वह गजारोही योद्धाओंके लिये अच्छी मानी गयी है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुदुर्गा महाकक्षा वेणुवेत्रसमाकुला ।
पदातीनां क्षमा भूमिः पर्वतोपवनानि च ॥ २३ ॥

मूलम्

बहुदुर्गा महाकक्षा वेणुवेत्रसमाकुला ।
पदातीनां क्षमा भूमिः पर्वतोपवनानि च ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो भूमि अत्यन्त दुर्गम, अधिक घास-फूसवाली, बाँस और बेंतोंसे भरी हुई तथा पर्वत एवं उपवनोंसे युक्त हो, वह पैदल सेनाओंके योग्य होती है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पदातिबहुला सेना दृढा भवति भारत।
रथाश्वबहुला सेना सुदिनेषु प्रशस्यते ॥ २४ ॥

मूलम्

पदातिबहुला सेना दृढा भवति भारत।
रथाश्वबहुला सेना सुदिनेषु प्रशस्यते ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! जिस सेनामें पैदलोंकी संख्या बहुत अधिक हो, वह मजबूत होती है। जिसमें रथों और घोड़ोंकी संख्या बढ़ी हुई हो, वह सेना अच्छे दिनोंमें (जबकि वर्षा न होती हो) अच्छी मानी जाती है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पदातिनागबहुला प्रावृट्काले प्रशस्यते ।
गुणानेतान् प्रसंख्याय देशकालौ प्रयोजयेत् ॥ २५ ॥

मूलम्

पदातिनागबहुला प्रावृट्काले प्रशस्यते ।
गुणानेतान् प्रसंख्याय देशकालौ प्रयोजयेत् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बरसातमें वही सेना श्रेष्ठ समझी जाती है, जिसमें पैदलों और हाथीसवारोंकी संख्या अधिक हो। इन गुणोंका विचार करके देश और कालको दृष्टिमें रखते हुए सेनाका संचालन करना चाहिये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं संचिन्त्य यो याति तिथिनक्षत्रपूजितः।
विजयं लभते नित्यं सेनां सम्यक् प्रयोजयन्।
प्रसुप्तांस्तृषितान् श्रान्तान् प्रकीर्णान्‌ नाभिघातयेत् ॥ २६ ॥

मूलम्

एवं संचिन्त्य यो याति तिथिनक्षत्रपूजितः।
विजयं लभते नित्यं सेनां सम्यक् प्रयोजयन्।
प्रसुप्तांस्तृषितान् श्रान्तान् प्रकीर्णान्‌ नाभिघातयेत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो इन सब बातोंपर विचार करके शुभ तिथि और श्रेष्ठ नक्षत्रसे युक्त होकर शत्रुपर चढ़ाई करता है, वह सेनाका ठीक ढंगसे संचालन करके सदा ही विजयलाभ करता है। जो लोग सो रहे हों, प्यासे हों, थक गये हों अथवा इधर-उधर भाग रहे हों, उनपर अघात न करे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोक्षे प्रयाणे चलने पानभोजनकालयोः।
अतिक्षिप्तान् व्यतिक्षिप्तान् निहतान् प्रतनूकृतान् ॥ २७ ॥
सुविश्रब्धान् कृतारम्भानुपन्यासान् प्रतापितान् ।
बहिश्चरानुपन्यासान् कृतवेश्मानुसारिणः ॥ २८ ॥

मूलम्

मोक्षे प्रयाणे चलने पानभोजनकालयोः।
अतिक्षिप्तान् व्यतिक्षिप्तान् निहतान् प्रतनूकृतान् ॥ २७ ॥
सुविश्रब्धान् कृतारम्भानुपन्यासान् प्रतापितान् ।
बहिश्चरानुपन्यासान् कृतवेश्मानुसारिणः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शस्त्र और कवच उतार देनेके बाद, युद्धस्थलसे प्रस्थान करते समय, घूमते-फिरते समय और खाने-पीनेके अवसरपर किसीको न मारे। इसी प्रकार जो बहुत घबराये हुए हों, पागल हो गये हों, घायल हों, दुर्बल हो गये हों, निश्चिन्त होकर बैठे हों, दूसरे किसी काममें लगे हों, लेखनका कार्य करते हों, पीड़ासे संतप्त हों, बाहर घूम रहे हों, दूरसे सामान लाकर लोगोंके निकट पहुँचानेका काम करते हों अथवा छावनीकी ओर भागे जा रहे हों, उनपर भी प्रहार न करे॥२७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारम्पर्यागते द्वारे ये केचिदनुवर्तिनः।
परिचर्यावतो द्वारे ये च केचन वर्गिणः ॥ २९ ॥

मूलम्

पारम्पर्यागते द्वारे ये केचिदनुवर्तिनः।
परिचर्यावतो द्वारे ये च केचन वर्गिणः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो परम्परासे प्राप्त हुए राजद्वारपर रक्षा आदि सेवाका कार्य करते हों अथवा जो राजसेवक मन्त्री आदिके द्वारपर पहरा देते हों तथा किसी यूथके अधिपति हों, उनको भी नहीं मारना चाहिये॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनीकं ये विभिन्दन्ति भिन्नं संस्थापयन्ति च।
समानाशनपानास्ते कार्याः द्विगुणवेतनाः ॥ ३० ॥

मूलम्

अनीकं ये विभिन्दन्ति भिन्नं संस्थापयन्ति च।
समानाशनपानास्ते कार्याः द्विगुणवेतनाः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो शत्रुकी सेनाको छिन्न-भिन्न कर डालते हैं और अपनी तितर-बितर हुई सेनाको संगठित करके दृढ़तापूर्वक स्थापित करनेकी शक्ति रखते हैं, ऐसे लोगोंको राजा अपने समान ही भोजन-पानकी सुविधा देकर सम्मानित करे और उन्हें दुगुना वेतन दे॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशाधिपतयः कार्याः शताधिपतयस्तथा ।
ततः सहस्राधिपतिं कुर्याच्छूरमतन्द्रितम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

दशाधिपतयः कार्याः शताधिपतयस्तथा ।
ततः सहस्राधिपतिं कुर्याच्छूरमतन्द्रितम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सेनामें कुछ लोगोंको दस-दस सैनिकोंका नायक बनावे, कुछको सौका तथा किसी प्रमुख और आलस्यरहित वीरको एक हजार योद्धाओंका अध्यक्ष नियुक्त करे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथामुख्यान् संनिपात्य वक्तव्याः संशपामहे।
विजयार्थं हि संग्रामे न त्यक्ष्यामः परस्परम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

यथामुख्यान् संनिपात्य वक्तव्याः संशपामहे।
विजयार्थं हि संग्रामे न त्यक्ष्यामः परस्परम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् मुख्य-मुख्य वीरोंको एकत्र करके यह प्रतिज्ञा करावे कि हम संग्राममें विजय प्राप्त करनेके लिये प्राण रहते एक-दूसरेका साथ नहीं छोड़ेंगे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहैव ते निवर्तन्तां ये च केचन भीरवः।
ये घातयेयुः प्रवरं कुर्वाणास्तुमुलं प्रति ॥ ३३ ॥

मूलम्

इहैव ते निवर्तन्तां ये च केचन भीरवः।
ये घातयेयुः प्रवरं कुर्वाणास्तुमुलं प्रति ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग डरपोक हों, वे यहींसे लौट जायँ और जो लोग भयानक संग्राम करते हुए शत्रुपक्षके प्रधान वीरका वध कर सकें, वे ही यहाँ ठहरें॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न संनिपाते प्रदरं वधं वा कुर्युरीदृशाः।
आत्मानं च स्वपक्षं च पालयन् हन्ति संयुगे ॥ ३४ ॥

मूलम्

न संनिपाते प्रदरं वधं वा कुर्युरीदृशाः।
आत्मानं च स्वपक्षं च पालयन् हन्ति संयुगे ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि ऐसे डरपोक मनुष्य घमासान युद्धमें शत्रुओंको न तो तितर-बितर करके भगा सकते हैं और न उनका वध ही कर सकते हैं। शूरवीर पुरुष ही युद्धमें अपनी और अपने पक्षके सैनिकोंकी रक्षा करता हुआ शत्रुओंका संहार कर सकता है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थनाशो वधोऽकीर्तिरयशश्च पलायने ।
अमनोज्ञासुखा वाचः पुरुषस्य पलायने ॥ ३५ ॥

मूलम्

अर्थनाशो वधोऽकीर्तिरयशश्च पलायने ।
अमनोज्ञासुखा वाचः पुरुषस्य पलायने ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सैनिकोंको यह भी समझा देना चाहिये कि युद्धके मैदानसे भागनेमें कई प्रकारके दोष हैं, एक तो अपने प्रयोजन और धनका नाश होता है। दूसरे भागते समय शत्रुके हाथसे मारे जानेका भय रहता है, तीसरे भागनेवालेकी निन्दा होती है और सब ओर उसका अपयश फैल जाता है। इसके सिवा युद्धसे भागनेपर लोगोंके मुखसे मनुष्यको तरह-तरहकी अप्रिय और दुःखदायिनी बातें भी सुननी पड़ती हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिध्वस्तोष्ठदन्तस्य न्यस्तसर्वायुधस्य च ।
अमित्रैरवरुद्धस्य द्विषतामस्तु नः सदा ॥ ३६ ॥

मूलम्

प्रतिध्वस्तोष्ठदन्तस्य न्यस्तसर्वायुधस्य च ।
अमित्रैरवरुद्धस्य द्विषतामस्तु नः सदा ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके ओठ और दाँत टूट गये हों, जिसने सारे अस्त्र-शस्त्रोंको नीचे डाल दिया हो तथा जिसे शत्रुगण सब ओरसे घेरकर खड़े हों, ऐसा योद्धा सदा हमारे शत्रुओंकी सेनामें ही रहे॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनुष्यापसदा ह्येते ये भवन्ति पराङ्‌मुखाः।
राशिवर्धनमात्रास्ते नैव ते प्रेत्य नो इह ॥ ३७ ॥

मूलम्

मनुष्यापसदा ह्येते ये भवन्ति पराङ्‌मुखाः।
राशिवर्धनमात्रास्ते नैव ते प्रेत्य नो इह ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग युद्धमें पीठ दिखाते हैं, वे मनुष्योंमें अधम हैं; केवल योद्धाओंकी संख्या बढ़ानेवाले हैं। उन्हें इहलोक या परलोकमें कहीं भी सुख नहीं मिलता॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमित्रा हृष्टमनसः प्रत्युद्यान्ति पलायिनम्।
जयिनस्तु नरास्तात चन्दनैर्मण्डनेन च ॥ ३८ ॥

मूलम्

अमित्रा हृष्टमनसः प्रत्युद्यान्ति पलायिनम्।
जयिनस्तु नरास्तात चन्दनैर्मण्डनेन च ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रु प्रसन्नचित्त होकर भागनेवाले योद्धाका पीछा करते हैं तथा तात! विजयी मनुष्य चन्दन और आभूषणोंद्वारा पूजित होते हैं॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य स्म संग्रामगता यशो वै घ्नन्ति शत्रवः।
तदसह्यतरं दुःखमहं मन्ये वधादपि ॥ ३९ ॥

मूलम्

यस्य स्म संग्रामगता यशो वै घ्नन्ति शत्रवः।
तदसह्यतरं दुःखमहं मन्ये वधादपि ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संग्रामभूमिमें आये हुए शत्रु जिसके यशका नाश कर देते हैं। उसके लिये उस दुःखको मैं मरणसे भी बढ़कर असह्य मानता हूँ॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयं जानीत धर्मस्य मूलं सर्वसुखस्य च।
या भीरूणां परा ग्लानिः शूरस्तामधिगच्छति ॥ ४० ॥

मूलम्

जयं जानीत धर्मस्य मूलं सर्वसुखस्य च।
या भीरूणां परा ग्लानिः शूरस्तामधिगच्छति ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीरो! तुम लोग युद्धमें विजयको ही धर्म एवं सम्पूर्ण सुखोंका मूल समझो। कायरों या डरपोक मनुष्योंको जिससे भारी ग्लानि होती है, वीर पुरुष उसी प्रहार और मृत्युको सहर्ष स्वीकार करता है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वयं स्वर्गमिच्छन्तः संग्रामे त्यक्तजीविताः।
जयन्तो वध्यमाना वा प्राप्नुयाम च सद्‌गतिम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

ते वयं स्वर्गमिच्छन्तः संग्रामे त्यक्तजीविताः।
जयन्तो वध्यमाना वा प्राप्नुयाम च सद्‌गतिम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः तुम लोग यह निश्चय कर लो कि हम स्वर्गकी इच्छा रखकर संग्राममें अपने प्राणोंका मोह छोड़कर लड़ेंगे। या तो विजय प्राप्त करेंगे या युद्धमें मारे जाकर सद्‌गति पायेंगे॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं संशप्तशपथाः समभित्यक्तजीविताः ।
अमित्रवाहिनीं वीराः प्रतिगाहन्त्यभीरवः ॥ ४२ ॥

मूलम्

एवं संशप्तशपथाः समभित्यक्तजीविताः ।
अमित्रवाहिनीं वीराः प्रतिगाहन्त्यभीरवः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो इस प्रकार शपथ लेकर जीवनका मोह छोड़ देते हैं, वे वीर पुरुष निर्भय होकर शत्रुओंकी सेनामें घुस जाते हैं॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्रतः पुरुषानीकमसिचर्मवतां भवेत् ।
पृष्ठतः शकटानीकं कलत्रं मध्यतस्तथा ॥ ४३ ॥

मूलम्

अग्रतः पुरुषानीकमसिचर्मवतां भवेत् ।
पृष्ठतः शकटानीकं कलत्रं मध्यतस्तथा ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सेनाके कूच करते समय सबसे आगे ढाल-तलवार धारण करनेवाले पुरुषोंकी टुकड़ी रखे। पीछेकी ओर रथियोंकी सेना खड़ी करे और बीचमें राज-स्त्रियोंको रखे॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परेषां प्रतिघातार्थं पदातीनां च बृंहणम्।
अपि तस्मिन् पुरे वृद्धा भवेयुर्ये पुरोगमाः ॥ ४४ ॥

मूलम्

परेषां प्रतिघातार्थं पदातीनां च बृंहणम्।
अपि तस्मिन् पुरे वृद्धा भवेयुर्ये पुरोगमाः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस नगरमें जो वृद्ध पुरुष अगुआ हों, वे शत्रुओंका सामना और विनाश करनेके लिये पैदल सैनिकोंको प्रोत्साहन एवं बढ़ावा दें॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये पुरस्तादभिमताः सत्त्ववन्तो मनस्विनः।
ते पूर्वमभिवर्तेरंश्चैतानेवेतरे जनाः ॥ ४५ ॥

मूलम्

ये पुरस्तादभिमताः सत्त्ववन्तो मनस्विनः।
ते पूर्वमभिवर्तेरंश्चैतानेवेतरे जनाः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पहलेसे ही अपने शौर्यके लिये सम्मानित, धैर्यवान् और मनस्वी हैं, वे आगे रहें और दूसरे लोग उन्हींके पीछे-पीछे चलें॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि चोद्धर्षणं कार्यं भीरूणामपि यत्नतः।
स्कन्धदर्शनमात्रात्तु तिष्ठेयुर्वा समीपतः ॥ ४६ ॥

मूलम्

अपि चोद्धर्षणं कार्यं भीरूणामपि यत्नतः।
स्कन्धदर्शनमात्रात्तु तिष्ठेयुर्वा समीपतः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो डरनेवाले सैनिक हों, उनका भी प्रयत्नपूर्वक उत्साह बढ़ाना चाहिये अथवा वे सेनाका विशेष समुदाय दिखानेके लिये ही आस-पास खड़े रहें॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संहतान् योधयेदल्पान् कामं विस्तारयेद् बहुन्।
सूचीमुखमनीकं स्यादल्पानां बहुभिः सह ॥ ४७ ॥

मूलम्

संहतान् योधयेदल्पान् कामं विस्तारयेद् बहुन्।
सूचीमुखमनीकं स्यादल्पानां बहुभिः सह ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि अपने पास थोड़े-से सैनिक हों तो उन्हें एक साथ संघबद्ध रखकर युद्ध करनेका आदेश देना चाहिये और यदि बहुत-से योद्धा हों तो उन्हें बहुत दूरतक इच्छानुसार फैलाकर रखना चाहिये। थोड़े-से सैनिकोंको बहुतोंके साथ युद्ध करना हो तो उनके लिये सूचीमुख नामक व्यूह उपयोगी होता है॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्प्रयुक्ते निकृष्टे वा सत्यं वा यदि वानृतम्।
प्रगृह्य बाहुन् क्रोशेत भग्ना भग्नाः परे इति ॥ ४८ ॥
आगतं मे मित्रबलं प्रहरध्वमभीतवत्।

मूलम्

सम्प्रयुक्ते निकृष्टे वा सत्यं वा यदि वानृतम्।
प्रगृह्य बाहुन् क्रोशेत भग्ना भग्नाः परे इति ॥ ४८ ॥
आगतं मे मित्रबलं प्रहरध्वमभीतवत्।

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी सेना उत्कृष्ट अवस्थामें हो या निकृष्ट अवस्थामें, बात सच्ची हो या झूठी, हाथ ऊपर उठाकर हल्ला मचाते हुए कहे, ‘वह देखो, शत्रु भाग रहे हैं, भाग रहे हैं, हमारी मित्रसेना आ गयी। अब निर्भय होकर प्रहार करो’॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्ववन्तोऽभिधावेयुः कुर्वन्तो भैरवान् रवान् ॥ ४९ ॥

मूलम्

सत्त्ववन्तोऽभिधावेयुः कुर्वन्तो भैरवान् रवान् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनी बात सुनते ही धैर्यवान् और शक्तिशाली वीर भयंकर सिंहनाद करते हुए शत्रुओंपर टूट पड़ें॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्ष्वेडाः किलकिलाशब्दाः क्रकचा गोविषाणिकाः।
भेरीमृदङ्गपणवान् नादयेयुः पुराश्चरान् ॥ ५० ॥

मूलम्

क्ष्वेडाः किलकिलाशब्दाः क्रकचा गोविषाणिकाः।
भेरीमृदङ्गपणवान् नादयेयुः पुराश्चरान् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग सेनाके आगे हों, उन्हें गर्जन-तर्जन करते और किलकारियाँ भरते हुए क्रकच, नरसिंहे, भेरी, मृदंग और ढोल आदि बाजे बजाने चाहिये॥५०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि सेनानीतिकथने शततमोऽध्यायः ॥ १०० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें सेनानीतिका वर्णनविषयक सौवाँ अध्याय पूरा हआ॥१००॥