०९९ विजिगीषमाणवृत्ते

भागसूचना

नवनवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

शूरवीरोंको स्वर्ग और कायरोंको नरककी प्राप्तिके विषयमें मिथिलेश्वर जनकका इतिहास

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
प्रतर्दनो मैथिलश्च संग्रामं यत्र चक्रतुः ॥ १ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
प्रतर्दनो मैथिलश्च संग्रामं यत्र चक्रतुः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! इसी विषयमें विज्ञ पुरुष उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जिससे यह पता चलता है कि किसी समय राजा प्रतर्दन तथा मिथिलेश्वर जनकने परस्पर संग्राम किया था॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञोपवीती संग्रामे जनको मैथिलो यथा।
योधानुद्धर्षयामास तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ २ ॥

मूलम्

यज्ञोपवीती संग्रामे जनको मैथिलो यथा।
योधानुद्धर्षयामास तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! यज्ञोपवीतधारी मिथिलापति जनकने रणभूमिमें अपने योद्धाओंको जिस प्रकार उत्साहित किया था, वह सुनो॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनको मैथिलो राजा महात्मा सर्वतत्त्ववित्।
योधान् स्वान् दर्शयामास स्वर्गं नरकमेव च ॥ ३ ॥

मूलम्

जनको मैथिलो राजा महात्मा सर्वतत्त्ववित्।
योधान् स्वान् दर्शयामास स्वर्गं नरकमेव च ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मिथिलाके राजा जनक बड़े महात्मा और सम्पूर्ण तत्त्वोंके ज्ञाता थे। उन्होंने अपने योद्धाओंको योगबलसे स्वर्ग और नरकका प्रत्यक्ष दर्शन कराया और इस प्रकार कहा—॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभीरूणामिमे लोका भास्वन्तो हन्त पश्यत।
पूर्णा गन्धर्वकन्याभिः सर्वकामदुहोऽक्षयाः ॥ ४ ॥

मूलम्

अभीरूणामिमे लोका भास्वन्तो हन्त पश्यत।
पूर्णा गन्धर्वकन्याभिः सर्वकामदुहोऽक्षयाः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीरो! देखो, ये जो तेजस्वी लोक दृष्टिगोचर हो रहे हैं, ये निर्भय होकर युद्ध करनेवाले वीरोंको प्राप्त होते हैं। ये अविनाशी लोक असंख्य गन्धर्वकन्याओं (अप्सराओं) से भरे हुए हैं और सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति करनेवाले हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमे पलायमानानां नरकाः प्रत्युपस्थिताः।
अकीर्तिः शाश्वती चैव यतितव्यमनन्तरम् ॥ ५ ॥

मूलम्

इमे पलायमानानां नरकाः प्रत्युपस्थिताः।
अकीर्तिः शाश्वती चैव यतितव्यमनन्तरम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘और देखो, ये जो तुम्हारे सामने नरक उपस्थित हुए हैं, युद्धमें पीठ दिखाकर भागनेवालोंको मिलते हैं। साथ ही इस जगत्‌में उनकी सदा रहनेवाली अपकीर्ति फैल जाती है; अतः अब तुम लोगोंको विजयके लिये प्रयत्न करना चाहिये॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् दृष्ट्वारीन् विजयत भूत्वा संत्यागबुद्धयः।
नरकस्याप्रतिष्ठस्य मा भूत वशवर्तिनः ॥ ६ ॥

मूलम्

तान् दृष्ट्वारीन् विजयत भूत्वा संत्यागबुद्धयः।
नरकस्याप्रतिष्ठस्य मा भूत वशवर्तिनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन स्वर्ग और नरक दोनों प्रकारके लोकोंका दर्शन करके तुम लोग युद्धमें प्राण-विसर्जनके लिये दृढ़ निश्चयके साथ डट जाओ और शत्रुओंपर विजय प्राप्त करो। जिसकी कहीं भी प्रतिष्ठा नहीं है, उस नरकके अधीन न होओ॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यागमूलं हि शूराणां स्वर्गद्वारमनुत्तमम्।
इत्युक्तास्ते नृपतिना योधाः परपुरंजय ॥ ७ ॥
अजयन्त रणे शत्रून् हर्षयन्तो नरेश्वरम्।
तस्मादात्मवता नित्यं स्थातव्यं रणमूर्धनि ॥ ८ ॥

मूलम्

त्यागमूलं हि शूराणां स्वर्गद्वारमनुत्तमम्।
इत्युक्तास्ते नृपतिना योधाः परपुरंजय ॥ ७ ॥
अजयन्त रणे शत्रून् हर्षयन्तो नरेश्वरम्।
तस्मादात्मवता नित्यं स्थातव्यं रणमूर्धनि ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शूरवीरोंको जो सर्वोत्तम स्वर्गलोकका द्वार प्राप्त होता है, उसमें उनका त्याग ही मूल कारण है’। शत्रुनगरीपर विजय पानेवाले युधिष्ठिर! राजा जनकके ऐसा कहनेपर उन योद्धाओंने रणभूमिमें अपने महाराजका हर्ष बढ़ाते हुए उनके शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर ली; अतः मनस्वी वीरको सदा युद्धके मुहानेपर डटे रहना चाहिये॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजानां रथिनो मध्ये रथानामनु सादिनः।
सादिनामन्तरे स्थाप्यं पादातमपि दंशितम् ॥ ९ ॥

मूलम्

गजानां रथिनो मध्ये रथानामनु सादिनः।
सादिनामन्तरे स्थाप्यं पादातमपि दंशितम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गजारोहियोंके बीचमें रथियोंको खड़ा करे। रथियोंके पीछे घुड़सवारोंकी सेना रखे और उनके बीचमें कवच एवं अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित पैदलोंकी सेना खड़ी करे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एवं व्यूहते राजा स नित्यं जयति द्विषः।
तस्मादेवं विधातव्यं नित्यमेव युधिष्ठिर ॥ १० ॥

मूलम्

य एवं व्यूहते राजा स नित्यं जयति द्विषः।
तस्मादेवं विधातव्यं नित्यमेव युधिष्ठिर ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा अपनी सेनाका इस प्रकार व्यूह बनाता है, वह सदा शत्रुओंपर विजय पाता है; अतः युधिष्ठिर! तुम्हें भी सदा इसी प्रकार व्यूहरचना करनी चाहिये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे स्वर्गतिमिच्छन्ति सुयुद्धेनातिमन्यवः ।
क्षोभयेयुरनीकानि सागरं मकरा यथा ॥ ११ ॥

मूलम्

सर्वे स्वर्गतिमिच्छन्ति सुयुद्धेनातिमन्यवः ।
क्षोभयेयुरनीकानि सागरं मकरा यथा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी क्षत्रिय उत्तम युद्धके द्वारा स्वर्गलोक प्राप्त करनेकी इच्छा करते हैं; अतः जैसे मकर समुद्रमें क्षोभ उत्पन्न कर देते हैं, उसी प्रकार वे अत्यन्त कुपित हो शत्रुओंकी सेनाओंमें हलचल मचा देते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हर्षयेयुर्विषण्णांश्च व्यवस्थाप्य परस्परम् ।
जितां च भूमिं रक्षेत भग्नान् नात्यनुसारयेत् ॥ १२ ॥

मूलम्

हर्षयेयुर्विषण्णांश्च व्यवस्थाप्य परस्परम् ।
जितां च भूमिं रक्षेत भग्नान् नात्यनुसारयेत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि अपने सैनिक विषादग्रस्त या शिथिल हो रहे हों तो उनका पूर्ववत् व्यूह बनाकर उन्हें परस्पर स्थापित करे और उन समस्त योद्धाओंका हर्ष एवं उत्साह बढ़ावे। जो भूमि जीत ली गयी हो, उसकी रक्षा करे; परंतु शत्रुओंके जो सैनिक पराजित होकर भाग रहे हों, उनका बहुत दूरतक पीछा नहीं करना चाहिये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनरावर्तमानानां निराशानां च जीविते।
वेगः सुदुःसहो राजंस्तस्मान्नात्यनुसारयेत् ॥ १३ ॥

मूलम्

पुनरावर्तमानानां निराशानां च जीविते।
वेगः सुदुःसहो राजंस्तस्मान्नात्यनुसारयेत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो जीवनसे निराश होकर पुनः युद्धके लिये लौट पड़ते हैं, उनका वेग अत्यन्त दुःसह होता है; अतः भागते हुओंके पीछे अधिक नहीं पड़ना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि प्रहर्तुमिच्छन्ति शूराः प्रद्रवतो भृशम्।
तस्मात् पलायमानानां कुर्यान्नात्यनुसारणम् ॥ १४ ॥

मूलम्

न हि प्रहर्तुमिच्छन्ति शूराः प्रद्रवतो भृशम्।
तस्मात् पलायमानानां कुर्यान्नात्यनुसारणम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शूरवीर जोर-जोरसे भागते हुए योद्धाओंपर प्रहार करना नहीं चाहते हैं; अतः पलायन करनेवाले सैनिकोंका अधिक दूरतक पीछा नहीं करना चाहिये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चराणामचरा ह्यन्नमदंष्ट्रा दंष्ट्रिणामपि ।
आपः पिपासतामन्नमन्नं शूरस्य कातराः ॥ १५ ॥

मूलम्

चराणामचरा ह्यन्नमदंष्ट्रा दंष्ट्रिणामपि ।
आपः पिपासतामन्नमन्नं शूरस्य कातराः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चलनेवाले प्राणियोंके अन्न हैं स्थावर, दाँतवाले जीवोंके अन्न हैं बिना दाँतके प्राणी, प्यासोंका अन्न है पानी और शूरवीरोंके अन्न हैं कायर॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समानपृष्ठोदरपाणिपादाः
पराभवं भीरवो वै व्रजन्ति।
अतो भयार्ताः प्रणिपत्य भूयः
कृत्वाञ्जलीनुपतिष्ठन्ति शूरान् ॥ १६ ॥

मूलम्

समानपृष्ठोदरपाणिपादाः
पराभवं भीरवो वै व्रजन्ति।
अतो भयार्ताः प्रणिपत्य भूयः
कृत्वाञ्जलीनुपतिष्ठन्ति शूरान् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीरों और कायरोंके पेट, पीठ, हाथ और पैर समान ही होते हैं; तो भी कायर पुरुष जगत्‌में अपमानको प्राप्त होते हैं। अतः भयसे आतुर हुए वे मनुष्य हाथ जोड़कर बारंबार प्रणाम करते हुए सदा शूरवीरोंकी शरणमें आते हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूरबाहुषु लोकोऽयं लम्बते पुत्रवत् सदा।
तस्मात् सर्वास्ववस्थासु शूरः सम्मानमर्हति ॥ १७ ॥

मूलम्

शूरबाहुषु लोकोऽयं लम्बते पुत्रवत् सदा।
तस्मात् सर्वास्ववस्थासु शूरः सम्मानमर्हति ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे पुत्र सदा पितापर अवलम्बित होता है, उसी प्रकार यह सारा जगत् शूरवीरकी भुजाओंपर ही टिका हुआ है; इसलिये सभी अवस्थाओंमें वीर पुरुष सम्मान पानेके योग्य है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि शौर्यात् परं किंचित् त्रिषु लोकेषु विद्यते।
शूरः सर्वं पालयति सर्वं शूरे प्रतिष्ठितम् ॥ १८ ॥

मूलम्

न हि शौर्यात् परं किंचित् त्रिषु लोकेषु विद्यते।
शूरः सर्वं पालयति सर्वं शूरे प्रतिष्ठितम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीनों लोकोंमें शूरवीरतासे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। शूरवीर सबका पालन करता है और सारा जगत् उसीके आधारपर टिका हुआ है॥१८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि विजिगीषमाणवृत्ते नवनवतितमोऽध्यायः ॥ ९९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें विजयाभिलाषी राजाका बर्तावविषयक निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९९॥