भागसूचना
अष्टनवतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
इन्द्र और अम्बरीषके संवादमें नदी और यज्ञके रूपकोंका वर्णन तथा समरभूमिमें जूझते हुए मारे जानेवाले शूरवीरोंको उत्तम लोकोंकी प्राप्तिका कथन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये लोका युध्यमानानां शूराणामनिवर्तिनाम्।
भवन्ति निधनं प्राप्य तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
मूलम्
ये लोका युध्यमानानां शूराणामनिवर्तिनाम्।
भवन्ति निधनं प्राप्य तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! जो शूरवीर शत्रुके साथ डटकर युद्ध करते हैं और कभी पीठ नहीं दिखाते, वे समरांगणमें मृत्युको प्राप्त होकर किन लोकोंमें जाते हैं, यह मुझे बताइये॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
अम्बरीषस्य संवादमिन्द्रस्य च युधिष्ठिर ॥ २ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
अम्बरीषस्य संवादमिन्द्रस्य च युधिष्ठिर ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें अम्बरीष और इन्द्रके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्बरीषो हि नाभागिः स्वर्गं गत्वा सुदुर्लभम्।
ददर्श सुरलोकस्थं शक्रेण सचिवं सह ॥ ३ ॥
मूलम्
अम्बरीषो हि नाभागिः स्वर्गं गत्वा सुदुर्लभम्।
ददर्श सुरलोकस्थं शक्रेण सचिवं सह ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाभागपुत्र अम्बरीषने अत्यन्त दुर्लभ स्वर्गलोकमें जाकर देखा कि उनका सेनापति देवलोकमें इन्द्रके साथ विराजमान है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वतेजोमयं दिव्यं विमानवरमास्थितम् ।
उपर्युपरि गच्छन्तं स्वं वै सेनापतिं प्रभुम् ॥ ४ ॥
स दृष्ट्वोपरि गच्छन्तं सेनापतिमुदारधीः।
ऋद्धिं दृष्ट्वा सुदेवस्य विस्मितः प्राह वासवम् ॥ ५ ॥
मूलम्
सर्वतेजोमयं दिव्यं विमानवरमास्थितम् ।
उपर्युपरि गच्छन्तं स्वं वै सेनापतिं प्रभुम् ॥ ४ ॥
स दृष्ट्वोपरि गच्छन्तं सेनापतिमुदारधीः।
ऋद्धिं दृष्ट्वा सुदेवस्य विस्मितः प्राह वासवम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह सम्पूर्णतः तेजस्वी, दिव्य एवं श्रेष्ठ विमानपर बैठकर ऊपर-ऊपर चला जा रहा था। अपने शक्तिशाली सेनापतिको अपनेसे भी ऊपर होकर जाते देख सुदेवकी उस समृद्धिका प्रत्यक्ष दर्शन करके उदारबुद्धि राजा अम्बरीष आश्चर्यसे चकित हो उठे और इन्द्रदेवसे बोले॥४-५॥
मूलम् (वचनम्)
अम्बरीष उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सागरान्तां महीं कृत्स्नामनुशास्य यथाविधि।
चातुर्वर्ण्ये यथाशास्त्रं प्रवृत्तौ धर्मकाम्यया ॥ ६ ॥
मूलम्
सागरान्तां महीं कृत्स्नामनुशास्य यथाविधि।
चातुर्वर्ण्ये यथाशास्त्रं प्रवृत्तौ धर्मकाम्यया ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अम्बरीषने पूछा— देवराज! मैं समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वीका विधिपूर्वक शासन और संरक्षण करता था। शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार धर्मकी कामनासे चारों वर्णोंके पालनमें तत्पर रहता था॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मचर्येण घोरेण गुर्वाचारेण सेवया।
वेदानधीत्य धर्मेण राजशास्त्रं च केवलम् ॥ ७ ॥
मूलम्
ब्रह्मचर्येण घोरेण गुर्वाचारेण सेवया।
वेदानधीत्य धर्मेण राजशास्त्रं च केवलम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने घोर ब्रह्मचर्यका पालन करके गुरुके बताये हुए आचार और गुरुकी सेवाके द्वारा धर्मपूर्वक वेदोंका अध्ययन किया तथा राजशास्त्रकी विशेष शिक्षा प्राप्त की॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिथीनन्नपानेन पितॄंश्च स्वधया तथा।
ऋषीन् स्वाध्यायदीक्षाभिर्देवान् यज्ञैरनुत्तमैः ॥ ८ ॥
मूलम्
अतिथीनन्नपानेन पितॄंश्च स्वधया तथा।
ऋषीन् स्वाध्यायदीक्षाभिर्देवान् यज्ञैरनुत्तमैः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सदा ही अन्न-पान देकर अतिथियोंका, श्राद्धकर्म करके पितरोंका, स्वाध्यायकी दीक्षा लेकर ऋषियोंका तथा उत्तमोत्तम यज्ञोंका अनुष्ठान करके देवताओंका पूजन किया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रधर्मे स्थितो भूत्वा यथाशास्त्रं यथाविधि।
उदीक्षमाणः पृतनां जयामि युधि वासव ॥ ९ ॥
मूलम्
क्षत्रधर्मे स्थितो भूत्वा यथाशास्त्रं यथाविधि।
उदीक्षमाणः पृतनां जयामि युधि वासव ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवेन्द्र! मैं शास्त्रोक्त विधिके अनुसार क्षत्रिय-धर्ममें स्थित होकर सेनाकी देख-भाल करता और युद्धमें शत्रुओंपर विजय पाता था॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवराज सुदेवोऽयं मम सेनापतिः पुरा।
आसीद् योधः प्रशान्तात्मा सोऽयं कस्मादतीव माम् ॥ १० ॥
मूलम्
देवराज सुदेवोऽयं मम सेनापतिः पुरा।
आसीद् योधः प्रशान्तात्मा सोऽयं कस्मादतीव माम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवराज! यह सुदेव पहले मेरा सेनापति था। शान्त स्वभावका एक सैनिक था; फिर यह मुझे लाँघकर कैसे जा रहा है?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेन क्रतुभिर्मुख्यैर्नेष्टं नापि द्विजातयः।
तर्पिता विधिवच्छक्र सोऽयं कस्मादतीव माम् ॥ ११ ॥
(ऐश्वर्यमीदृशं प्राप्तः सर्वदेवैः सुदुर्लभम्।
मूलम्
अनेन क्रतुभिर्मुख्यैर्नेष्टं नापि द्विजातयः।
तर्पिता विधिवच्छक्र सोऽयं कस्मादतीव माम् ॥ ११ ॥
(ऐश्वर्यमीदृशं प्राप्तः सर्वदेवैः सुदुर्लभम्।
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रदेव! इसने न तो बड़े-बड़े यज्ञ किये और न विधिपूर्वक ब्राह्मणोंको ही तृप्त किया। वही यह सुदेव आज मुझको लाँघकर ऊपर-ऊपरसे कैसे जा रहा है? इसे ऐसा ऐश्वर्य कहाँसे प्राप्त हो गया, जो सम्पूर्ण देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है?॥११॥
मूलम् (वचनम्)
शक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदनेन कृतं कर्म प्रत्यक्षं ते महीपते॥
पुरा पालयतः सम्यक् पृथिवीं धर्मतो नृप।
मूलम्
यदनेन कृतं कर्म प्रत्यक्षं ते महीपते॥
पुरा पालयतः सम्यक् पृथिवीं धर्मतो नृप।
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने कहा— पृथ्वीनाथ! नरेश्वर! पूर्वकालमें जब आप धर्मके अनुसार भलीभाँति इस पृथ्वीका पालन कर रहे थे, उस समय सुदेवने जो पराक्रम किया था, उसे आपने प्रत्यक्ष देखा था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शत्रवो निर्जिताः सर्वे ये तवाहितकारिणः॥
संयमो वियमश्चैव सुयमश्च महाबलः।
राक्षसा दुर्जया लोके त्रयस्ते युद्धदुर्मदाः।
पुत्रास्ते शतशृङ्गस्य राक्षसस्य महीपते॥
मूलम्
शत्रवो निर्जिताः सर्वे ये तवाहितकारिणः॥
संयमो वियमश्चैव सुयमश्च महाबलः।
राक्षसा दुर्जया लोके त्रयस्ते युद्धदुर्मदाः।
पुत्रास्ते शतशृङ्गस्य राक्षसस्य महीपते॥
अनुवाद (हिन्दी)
महीपाल! उन दिनों आपके तीन शत्रु थे—संयम, वियम और महाबली सुयम। वे सब-के-सब आपका अहित करनेवाले थे। वे शतशृंग नामक राक्षसके पुत्र थे। लोकोंमें किसीके लिये भी उन तीनों रणदुर्मद राक्षसोंपर विजय पाना कठिन था। सुदेवने उन सबको परास्त कर दिया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तस्मिन् शुभे काले तव यज्ञं वितन्वतः।
अश्वमेधं महायागं देवानां हितकाम्यया।
तस्य ते खलु विघ्नार्थं आगता राक्षसास्त्रयः॥
मूलम्
अथ तस्मिन् शुभे काले तव यज्ञं वितन्वतः।
अश्वमेधं महायागं देवानां हितकाम्यया।
तस्य ते खलु विघ्नार्थं आगता राक्षसास्त्रयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समय जब आप देवताओंके हितकी इच्छासे शुभ मुहूर्तमें अश्वमेध नामक महायज्ञका अनुष्ठान कर रहे थे, उन्हीं दिनों आपके उस यज्ञमें विघ्न डालनेके लिये वे तीनों राक्षस वहाँ आ पहुँचे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटीशतपरीवारां राक्षसानां महाचमूम् ।
परिगृह्य ततः सर्वाः प्रजा बन्दीकृतास्तव॥
विह्वलाश्च प्रजाः सर्वाः सर्वे च तव सैनिकाः।
मूलम्
कोटीशतपरीवारां राक्षसानां महाचमूम् ।
परिगृह्य ततः सर्वाः प्रजा बन्दीकृतास्तव॥
विह्वलाश्च प्रजाः सर्वाः सर्वे च तव सैनिकाः।
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने सौ करोड़ राक्षसोंकी विशाल सेना साथ लेकर आक्रमण किया और आपकी समस्त प्रजाओंको पकड़कर बंदी बना लिया। उस समय आपकी समस्त प्रजा और सारे सैनिक व्याकुल हो उठे थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निराकृतस्त्वया चासीत् सुदेवः सैन्यनायकः।
तत्रामात्यवचः श्रुत्वा निरस्तः सर्वकर्मसु॥
मूलम्
निराकृतस्त्वया चासीत् सुदेवः सैन्यनायकः।
तत्रामात्यवचः श्रुत्वा निरस्तः सर्वकर्मसु॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दिनों सेनापतिके विरुद्ध मन्त्रीकी बात सुनकर आपने सेनापति सुदेवको अधिकारसे वंचित करके सब कार्योंसे अलग कर दिया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा तेषां वचो भूयः सोपधं वसुधाधिप।
सर्वसैन्यसमायुक्तः सुदेवः प्रेरितस्त्वया ॥
राक्षसानां वधार्थाय दुर्जयानां नराधिप।
मूलम्
श्रुत्वा तेषां वचो भूयः सोपधं वसुधाधिप।
सर्वसैन्यसमायुक्तः सुदेवः प्रेरितस्त्वया ॥
राक्षसानां वधार्थाय दुर्जयानां नराधिप।
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! नरेश्वर! फिर उन्हीं मन्त्रियोंकी कपटपूर्ण बात सुनकर आपने उन दुर्जय राक्षसोंके वधके लिये सेनासहित सुदेवको युद्धमें जानेकी आज्ञा दे दी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाजित्वा राक्षसीं सेनां पुनरागमनं तव॥
बन्दीमोक्षमकृत्वा च न चागमनमिष्यते।
मूलम्
नाजित्वा राक्षसीं सेनां पुनरागमनं तव॥
बन्दीमोक्षमकृत्वा च न चागमनमिष्यते।
अनुवाद (हिन्दी)
और जाते समय यह कहा—‘राक्षसोंकी सेनाको पराजित करके उनके कैदमें पड़ी हुई प्रजा और सैनिकोंका उद्धार किये बिना तुम यहाँ लौटकर मत आना’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुदेवस्तद्वचः श्रुत्वा प्रस्थानमकरोन्नृप ॥
सम्प्राप्तश्च स तं देशं यत्र बन्दीकृताः प्रजाः।
पश्यति स्म महाघोरां राक्षसानां महाचमूम्॥
मूलम्
सुदेवस्तद्वचः श्रुत्वा प्रस्थानमकरोन्नृप ॥
सम्प्राप्तश्च स तं देशं यत्र बन्दीकृताः प्रजाः।
पश्यति स्म महाघोरां राक्षसानां महाचमूम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! आपकी वह बात सुनकर सुदेवने तुरंत ही प्रस्थान किया और वह उस स्थानपर गया, जहाँ आपकी प्रजा बंदी बना ली गयी थी। उसने वहाँ राक्षसोंकी महाभयंकर विशाल सेना देखी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा संचिन्तयामास सुदेवो वाहिनीपतिः।
नेयं शक्या चमूर्जेतुमपि सेन्द्रैः सुरासुरैः॥
नाम्बरीषः कलामेकामेषां क्षपयितुं क्षमः।
दिव्यास्त्रबलभूयिष्ठः किमहं पुनरीदृशः ॥
मूलम्
दृष्ट्वा संचिन्तयामास सुदेवो वाहिनीपतिः।
नेयं शक्या चमूर्जेतुमपि सेन्द्रैः सुरासुरैः॥
नाम्बरीषः कलामेकामेषां क्षपयितुं क्षमः।
दिव्यास्त्रबलभूयिष्ठः किमहं पुनरीदृशः ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे देखकर सेनापति सुदेवने सोचा कि यह विशाल वाहिनी तो इन्द्र आदि देवताओं तथा असुरोंसे भी नहीं जीती जा सकती। महाराज अम्बरीष दिव्य अस्त्र एवं दिव्य बलसे सम्पन्न हैं, परंतु वे इस सेनाके सोलहवें भागका भी संहार करनेमें समर्थ नहीं हैं। जब उनकी यह दशा है, तब मेरे-जैसा साधारण सैनिक इस सेनापर कैसे विजय पा सकता है?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सेनां पुनः सर्वां प्रेषयामास पार्थिव।
यत्र त्वं सहितः सर्वैर्मन्त्रिभिः सोपधैर्नृप॥
मूलम्
ततः सेनां पुनः सर्वां प्रेषयामास पार्थिव।
यत्र त्वं सहितः सर्वैर्मन्त्रिभिः सोपधैर्नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यह सोचकर सुदेवने फिर सारी सेनाको वहीं वापस भेज दिया, जहाँ आप उन समस्त कपटी मन्त्रियोंके साथ विराजमान थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रुद्रं महादेवं प्रपन्नो जगतः प्रतिम्।
श्मशाननिलयं देवं तुष्टाव वृषभध्वजम्॥
मूलम्
ततो रुद्रं महादेवं प्रपन्नो जगतः प्रतिम्।
श्मशाननिलयं देवं तुष्टाव वृषभध्वजम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सुदेवने श्मशानवासी महादेव जगदीश्वर रुद्रदेवकी शरण ली और उन भगवान् वृषभध्वजका स्तवन किया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तुत्वा शस्त्रं समादाय स्वशिरश्छेत्तुमुद्यतः।
कारुण्याद् देवदेवेन गृहीतस्तस्य दक्षिणः॥
सपाणिः सह शस्त्रेण दृष्ट्वा चेदमुवाच ह।
मूलम्
स्तुत्वा शस्त्रं समादाय स्वशिरश्छेत्तुमुद्यतः।
कारुण्याद् देवदेवेन गृहीतस्तस्य दक्षिणः॥
सपाणिः सह शस्त्रेण दृष्ट्वा चेदमुवाच ह।
अनुवाद (हिन्दी)
स्तुति करके वह खड्ग हाथमें लेकर अपना सिर काटनेको उद्यत हो गया। तब देवाधिदेव महादेवने करुणावश सुदेवका वह खड्गसहित दाहिना हाथ पकड़ लिया और उसकी ओर स्नेहपूर्वक देखकर इस प्रकार कहा॥
मूलम् (वचनम्)
रुद्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमिदं साहसं पुत्र कर्तुकामो वदस्व मे।
मूलम्
किमिदं साहसं पुत्र कर्तुकामो वदस्व मे।
अनुवाद (हिन्दी)
रुद्र बोले— पुत्र! तुम ऐसा साहस क्यों करना चाहते हो? मुझसे कहो॥
मूलम् (वचनम्)
इन्द्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स उवाच महादेवं शिरसा त्ववनीं गतः॥
भगवन् वाहिनीमेनां राक्षसानां सुरेश्वर।
अशक्तोऽहं रणे जेतुं तस्मात् त्यक्ष्यामि जीवितम्॥
गतिर्भव महादेव ममार्तस्य जगत्पते।
नागन्तव्यमजित्वा च मामाह जगतीपतिः॥
अम्बरीषो महादेव क्षारितः सचिवैः सह।
तमुवाच महादेवः सुदेवं पतितं क्षितौ।
अधोमुखं महात्मानं सत्त्वानां हितकाम्यया॥
धनुर्वेदं समाहूय सगुणं सहविग्रहम्।
रथनागाश्वकलिलं दिव्यास्त्रसमलंकृतम् ॥
रथं च सुमहाभागं येन तत् त्रिपुरं हतम्।
धनुः पिनाकं खड्गं च रौद्रमस्त्रं च शङ्करः॥
निजघानासुरान् सर्वान् येन देवस्त्रयम्बकः।
उवाच च महादेवः सुदेवं वाहिनीपतिम्॥
मूलम्
स उवाच महादेवं शिरसा त्ववनीं गतः॥
भगवन् वाहिनीमेनां राक्षसानां सुरेश्वर।
अशक्तोऽहं रणे जेतुं तस्मात् त्यक्ष्यामि जीवितम्॥
गतिर्भव महादेव ममार्तस्य जगत्पते।
नागन्तव्यमजित्वा च मामाह जगतीपतिः॥
अम्बरीषो महादेव क्षारितः सचिवैः सह।
तमुवाच महादेवः सुदेवं पतितं क्षितौ।
अधोमुखं महात्मानं सत्त्वानां हितकाम्यया॥
धनुर्वेदं समाहूय सगुणं सहविग्रहम्।
रथनागाश्वकलिलं दिव्यास्त्रसमलंकृतम् ॥
रथं च सुमहाभागं येन तत् त्रिपुरं हतम्।
धनुः पिनाकं खड्गं च रौद्रमस्त्रं च शङ्करः॥
निजघानासुरान् सर्वान् येन देवस्त्रयम्बकः।
उवाच च महादेवः सुदेवं वाहिनीपतिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र कहते हैं— राजन्! तब सुदेवने महादेवजीको पृथ्वीपर मस्तक रखकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा—‘भगवन्! सुरेश्वर! मैं इस राक्षस सेनाको युद्धमें नहीं जीत सकता; इसलिये इस जीवनको त्याग देना चाहता हूँ। महादेव! जगत्पते! आप मुझ आर्तको शरण दें। मन्त्रियोंसहित महाराज अम्बरीष मुझपर कुपित हुए बैठे हैं। उन्होंने स्पष्टरूपसे आज्ञा दी है कि इस सेनाको पराजित किये बिना तुम लौटकर न आना।’ तब महादेवजीने पृथ्वीपर नीचे मुख किये पड़े हुए महामना सुदेवसे समस्त प्राणियोंके हितकी कामनासे कुछ कहनेकी इच्छा की। पहले उन्होंने गुण और शरीरसहित धनुर्वेदको बुलाकर रथ, हाथी और घोड़ोंसे भरी हुई सेनाका आवाहन किया, जो दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंसे विभूषित थी। इसके बाद उन्होंने उस महान् भाग्यशाली रथको भी वहाँ उपस्थित कर दिया, जिससे उन्होंने त्रिपुरका नाश किया था। फिर पिनाक नामक धनुष, अपना खड्ग तथा अस्त्र भी भगवान् शंकरने दे दिया, जिसके द्वारा उन भगवान् त्रिलोचनने समस्त असुरोंका संहार किया था। तदनन्तर महादेवजीने सेनापति सुदेवसे इस प्रकार कहा॥
मूलम् (वचनम्)
रुद्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथादस्मात् सुदेव त्वं दुर्जयस्तु सुरासुरैः।
मायया मोहितो भूमौ न पदं कर्तुमर्हसि॥
अत्रस्थस्त्रिदशान् सर्वान् जेष्यसे सर्वदानवान्।
राक्षसाश्च पिशाचाश्च न शक्ता द्रष्टुमीदृशम्॥
रथं सूर्यसहस्राभं किमु योद्धुं त्वया सह।
मूलम्
रथादस्मात् सुदेव त्वं दुर्जयस्तु सुरासुरैः।
मायया मोहितो भूमौ न पदं कर्तुमर्हसि॥
अत्रस्थस्त्रिदशान् सर्वान् जेष्यसे सर्वदानवान्।
राक्षसाश्च पिशाचाश्च न शक्ता द्रष्टुमीदृशम्॥
रथं सूर्यसहस्राभं किमु योद्धुं त्वया सह।
अनुवाद (हिन्दी)
रुद्र बोले— सुदेव! तुम इस रथके कारण देवताओं और असुरोंके लिये भी दुर्जय हो गये हो, परंतु किसी मायासे मोहित होकर अपना पैर पृथ्वीपर न रख देना। इसपर बैठे रहोगे तो समस्त देवताओं और दानवोंको जीत लोगे। यह रथ सहस्रों सूर्योंके समान तेजस्वी है। राक्षस और पिशाच ऐसे तेजस्वी रथकी ओर देख भी नहीं सकते; फिर तुम्हारे साथ युद्ध करनेकी तो बात ही क्या है?॥
मूलम् (वचनम्)
इन्द्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स जित्वा राक्षसान् सर्वान् कृत्वा बन्दीविमोक्षणम्।
घातयित्वा च तान् सर्वान् बाहुयुद्धेत्वयं हतः।
वियमं प्राप्य भूपाल वियमश्च निपातितः॥)
मूलम्
स जित्वा राक्षसान् सर्वान् कृत्वा बन्दीविमोक्षणम्।
घातयित्वा च तान् सर्वान् बाहुयुद्धेत्वयं हतः।
वियमं प्राप्य भूपाल वियमश्च निपातितः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र कहते हैं— राजन्! तत्पश्चात् सुदेवने उस रथके द्वारा समस्त राक्षसोंको जीतकर बंदी प्रजाओंको बन्धनसे छुड़ा दिया और समस्त शत्रुओंका संहार करके वियमके साथ बाहुयुद्ध करते समय स्वयं भी मारा गया, साथ ही इसने उस युद्धमें वियमको भी मार डाला॥
मूलम् (वचनम्)
इन्द्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्य विततस्तात सुदेवस्य बभूव ह।
संग्रामयज्ञः सुमहान् यश्चान्यो युद्ध्यते नरः ॥ १२ ॥
मूलम्
एतस्य विततस्तात सुदेवस्य बभूव ह।
संग्रामयज्ञः सुमहान् यश्चान्यो युद्ध्यते नरः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र बोले— तात! इस सुदेवने बड़े विस्तारके साथ महान् रणयज्ञ सम्पन्न किया था। दूसरा भी जो मनुष्य युद्ध करता है, उसके द्वारा इसी तरह संग्राम-यज्ञ सम्पादित होता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संनद्धो दीक्षितः सर्वो योधः प्राप्य चमूमुखम्।
युद्धयज्ञाधिकारस्थो भवतीति विनिश्चयः ॥ १३ ॥
मूलम्
संनद्धो दीक्षितः सर्वो योधः प्राप्य चमूमुखम्।
युद्धयज्ञाधिकारस्थो भवतीति विनिश्चयः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कवच धारण करके युद्धकी दीक्षा लेनेवाला प्रत्येक योद्धा सेनाके मुहानेपर जाकर इसी प्रकार संग्रामयज्ञका अधिकारी होता है। यह मेरा निश्चित मत है॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
अम्बरीष उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानि यज्ञे हवींष्यस्मिन् किमाज्यं का च दक्षिणा।
ऋत्विजश्चात्र के प्रोक्तास्तन्मे ब्रूहि शतक्रतो ॥ १४ ॥
मूलम्
कानि यज्ञे हवींष्यस्मिन् किमाज्यं का च दक्षिणा।
ऋत्विजश्चात्र के प्रोक्तास्तन्मे ब्रूहि शतक्रतो ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अम्बरीषने पूछा— शतक्रतो! इस रणयज्ञमें कौन-सा हविष्य है? क्या घृत है? कौन-सी दक्षिणा है और इसमें कौन-कौन-से ऋत्विज् बताये गये हैं? यह मुझसे कहिये॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
इन्द्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋत्विजः कुञ्जरास्तत्र वाजिनोऽध्वर्यवस्तथा ।
हवींषि परमांसानि रुधिरं त्वाज्यमुच्यते ॥ १५ ॥
मूलम्
ऋत्विजः कुञ्जरास्तत्र वाजिनोऽध्वर्यवस्तथा ।
हवींषि परमांसानि रुधिरं त्वाज्यमुच्यते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने कहा— राजन्! इस युद्धयज्ञमें हाथी ही ऋत्विज् हैं, घोड़े अध्वर्यु हैं, शत्रुओंका मांस ही हविष्य है और उनके रक्तको ही घृत कहा जाता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृगालगृध्रकाकोलाः सदस्यास्तत्र पत्रिणः ।
आज्यशेषं पिबन्त्येते हविः प्राश्नन्ति चाध्वरे ॥ १६ ॥
मूलम्
शृगालगृध्रकाकोलाः सदस्यास्तत्र पत्रिणः ।
आज्यशेषं पिबन्त्येते हविः प्राश्नन्ति चाध्वरे ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सियार, गीध, कौए तथा अन्य मांसभक्षी पक्षी उस यज्ञशालाके सदस्य हैं, जो यज्ञावशिष्ट घृत (रक्त) को पीते और उस यज्ञमें अर्पित हविष्य (मांस) को खाते हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रासतोमरसंघाताः खड्गशक्तिपरश्वधाः ।
ज्वलन्तो निशिताः पीताः स्रुचस्तस्याथ सत्रिणः ॥ १७ ॥
मूलम्
प्रासतोमरसंघाताः खड्गशक्तिपरश्वधाः ।
ज्वलन्तो निशिताः पीताः स्रुचस्तस्याथ सत्रिणः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रास, तोमरसमूह, खड्ग, शक्ति, फरसे आदि चमचमाते हुए तीखे और पानीदार शस्त्र यज्ञकर्ताके लिये स्रुक्का काम देते हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चापवेगायतस्तीक्ष्णः परकायावभेदनः ।
ऋजुः सुनिशितः पीतः सायकश्च स्रुवो महान् ॥ १८ ॥
मूलम्
चापवेगायतस्तीक्ष्णः परकायावभेदनः ।
ऋजुः सुनिशितः पीतः सायकश्च स्रुवो महान् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनुषके वेगसे दूरतक जानेके कारण जो विशाल आकार धारण करता है, वह शत्रुके शरीरको विदीर्ण करनेवाला तीखा, सीधा, पैना और पानीदार बाण ही यजमानके हाथमें स्थित महान् स्रुव है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वीपिचर्मावनद्धश्च नागदन्तकृतत्सरुः ।
हस्तिहस्तहरः खड्गः स्फ्यो भवेत् तस्य संयुगे ॥ १९ ॥
मूलम्
द्वीपिचर्मावनद्धश्च नागदन्तकृतत्सरुः ।
हस्तिहस्तहरः खड्गः स्फ्यो भवेत् तस्य संयुगे ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो व्याघ्रचर्मकी म्यानमें बँधा रहता है, जिसकी मूँठ हाथीके दाँतकी बनी होती है तथा जो गजराजोंके शुण्डदण्डको काट लेता है, वह खड्ग उस युद्धमें स्फ्यका काम देता है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्वलितैर्निशितैः प्रासशक्त्यृष्टिसपरश्वधैः ।
शैक्यायसमयैस्तीक्ष्णैरभिघातो भवेद् वसु ॥ २० ॥
संख्यासमयविस्तीर्णमभिजातोद्भवं बहु ।
मूलम्
ज्वलितैर्निशितैः प्रासशक्त्यृष्टिसपरश्वधैः ।
शैक्यायसमयैस्तीक्ष्णैरभिघातो भवेद् वसु ॥ २० ॥
संख्यासमयविस्तीर्णमभिजातोद्भवं बहु ।
अनुवाद (हिन्दी)
उज्ज्वल और तेज धारवाले, सम्पूर्णतः लोहेके बने हुए तथा तीखे प्रास, शक्ति, ऋष्टि और परशु आदि अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा जो आघात किया जाता है, वही उस युद्धयज्ञका बहुसंख्यक, अधिक समयसाध्य और कुलीन पुरुषद्वारा संगृहीत नाना प्रकारका द्रव्य है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवेगाद् यच्च रुधिरं संग्रामे स्रवते भुवि ॥ २१ ॥
सास्य पूर्णाहुतिर्होमे समृद्धा सर्वकामधुक्।
मूलम्
आवेगाद् यच्च रुधिरं संग्रामे स्रवते भुवि ॥ २१ ॥
सास्य पूर्णाहुतिर्होमे समृद्धा सर्वकामधुक्।
अनुवाद (हिन्दी)
वीरोंके शरीरसे संग्रामभूमिमें बड़े वेगसे जो रक्तकी धारा बहती है, वही उस युद्धयज्ञके होममें समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली समृद्धिशालिनी पूर्णाहुति है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छिन्धि भिन्धीति यः शब्दः श्रूयते वाहिनीमुखे ॥ २२ ॥
सामानि सामगास्तस्य गायन्ति यमसादने।
हविर्धानं तु तस्याहुः परेषां वाहिनीमुखम् ॥ २३ ॥
मूलम्
छिन्धि भिन्धीति यः शब्दः श्रूयते वाहिनीमुखे ॥ २२ ॥
सामानि सामगास्तस्य गायन्ति यमसादने।
हविर्धानं तु तस्याहुः परेषां वाहिनीमुखम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सेनाके मुहानेपर जो ‘काट डालो’, फाड़ डालो’ आदिका भयंकर शब्द सुना जाता है, वही सामगान है। सैनिकरूपी सामगायक शत्रुओंको यमलोकमें भेजनेके लिये मानो सामगान करते हैं। शत्रुओंकी सेनाका प्रमुख भाग उस वीर यजमानके लिये हविर्धान (हविष्य रखनेका पात्र) बताया गया है॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुञ्जराणां हयानां च वर्मिणां च समुच्चयः।
अग्निः श्येनचितो नाम स च यज्ञे विधीयते ॥ २४ ॥
मूलम्
कुञ्जराणां हयानां च वर्मिणां च समुच्चयः।
अग्निः श्येनचितो नाम स च यज्ञे विधीयते ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाथी, घोड़े और कवचधारी वीर पुरुषोंके समूह ही उस युद्धयज्ञके श्येनचित नामक अग्नि हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तिष्ठते कबन्धोऽत्र सहस्रे निहते तु यः।
स यूपस्तस्य शूरस्य खादिरोऽष्टास्रिरुच्यते ॥ २५ ॥
मूलम्
उत्तिष्ठते कबन्धोऽत्र सहस्रे निहते तु यः।
स यूपस्तस्य शूरस्य खादिरोऽष्टास्रिरुच्यते ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहस्रों वीरोंके मारे जानेपर जो कबन्ध खड़े दिखायी देते हैं, वे ही मानो उस शूरवीरके यज्ञमें खदिरकाष्ठके बने हुए आठ कोणवाले यूप कहे गये हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इडोपहूताः क्रोशन्ति कुञ्जरास्त्वंकुशेरिताः ।
व्याघुष्टतलनादेन वषट्कारेण पार्थिव ॥ २६ ॥
उद्गाता तत्र संग्रामे त्रिसामा दुन्दुभिर्नृप।
मूलम्
इडोपहूताः क्रोशन्ति कुञ्जरास्त्वंकुशेरिताः ।
व्याघुष्टतलनादेन वषट्कारेण पार्थिव ॥ २६ ॥
उद्गाता तत्र संग्रामे त्रिसामा दुन्दुभिर्नृप।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वाणीद्वारा ललकारने और महावतोंके अंकुशोंकी मार खानेपर हाथी जो चिग्घाड़ते हैं, कोलाहल और करतलध्वनिके साथ होनेवाली वह चिग्घाड़नेकी आवाज उस यज्ञमें वषट्कार है। नरेश्वर! संग्राममें जिस दुन्दुभिकी गम्भीर ध्वनि होती है, वही सामवेदके तीन मन्त्रोंका पाठ करनेवाला उद्गाता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मस्वे ह्रियमाणे तु त्यक्त्वा युद्धे प्रियां तनुम् ॥ २७ ॥
आत्मानं यूपमुत्सृज्य स यज्ञोऽनन्तदक्षिणः।
मूलम्
ब्रह्मस्वे ह्रियमाणे तु त्यक्त्वा युद्धे प्रियां तनुम् ॥ २७ ॥
आत्मानं यूपमुत्सृज्य स यज्ञोऽनन्तदक्षिणः।
अनुवाद (हिन्दी)
जब लुटेरे ब्राह्मणके धनका अपहरण करते हों, उस समय वीर पुरुष उनके साथ किये जानेवाले युद्धमें अपने प्रिय शरीरके त्यागके लिये जो उद्यम करता है अथवा जो देहरूपी यूपका उत्सर्ग करके प्रहार ही कर बैठता है, उसका वह युद्ध ही अनन्त दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञ कहलाता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भर्तुरर्थे च यः शूरो विक्रमेद् वाहिनीमुखे ॥ २८ ॥
न भयाद् विनिवर्तेत तस्य लोका यथा मम।
मूलम्
भर्तुरर्थे च यः शूरो विक्रमेद् वाहिनीमुखे ॥ २८ ॥
न भयाद् विनिवर्तेत तस्य लोका यथा मम।
अनुवाद (हिन्दी)
जो शूरवीर अपने स्वामीके लिये सेनाके मुहानेपर खड़ा होकर पराक्रम प्रकट करता है और भयसे कभी पीठ नहीं दिखाता, उसको मेरे समान लोकोंकी प्राप्ति होती है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नीलचर्मावृतैः खड्गैर्बाहुभिः परिघोपमैः ॥ २९ ॥
यस्य वेदिरुपस्तीर्णा तस्य लोका यथा मम।
मूलम्
नीलचर्मावृतैः खड्गैर्बाहुभिः परिघोपमैः ॥ २९ ॥
यस्य वेदिरुपस्तीर्णा तस्य लोका यथा मम।
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके युद्ध-यज्ञकी वेदी नीले चमड़ेकी बनी हुई म्यानके भीतर रखी जानेवाली तलवारों तथा परिघके समान मोटी-मोटी भुजाओंसे बिछ जाती है, उसे वैसे ही लोक प्राप्त होते हैं, जैसे मुझे मिले हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु नापेक्षते कंचित् सहायं विजये स्थितः ॥ ३० ॥
विगाह्य वाहिनीमध्यं तस्य लोका यथा मम।
मूलम्
यस्तु नापेक्षते कंचित् सहायं विजये स्थितः ॥ ३० ॥
विगाह्य वाहिनीमध्यं तस्य लोका यथा मम।
अनुवाद (हिन्दी)
जो विजयके लिये युद्धमें डटा रहकर शत्रुकी सेनामें घुस जाता है और दूसरे किसी भी सहायककी अपेक्षा नहीं रखता, उसे मेरे समान ही लोक प्राप्त होते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य शोणितसंघाता भेरीमण्डूककच्छपा ॥ ३१ ॥
वीरास्थिशर्करा दुर्गा मांसशोणितकर्दमा ।
असिचर्मप्लवा घोरा केशशैवलशाद्वला ॥ ३२ ॥
अश्वनागरथैश्चैव संच्छिन्नैः कृतसंक्रमा ।
पताकाध्वजवानीरा हतवारणवाहिनी ॥ ३३ ॥
शोणितोदा सुसम्पूर्णा दुस्तरा पारगैर्नरैः।
हतनागमहानक्रा परलोकवहाशिवा ॥ ३४ ॥
ऋष्टिखड्गमहानौका गृध्रकङ्कबलप्लवा ।
पुरुषादानुचरिता भीरूणां कश्मलावहा ॥ ३५ ॥
नदी योधस्य संग्रामे तदस्यावभृथं स्मृतम्।
मूलम्
यस्य शोणितसंघाता भेरीमण्डूककच्छपा ॥ ३१ ॥
वीरास्थिशर्करा दुर्गा मांसशोणितकर्दमा ।
असिचर्मप्लवा घोरा केशशैवलशाद्वला ॥ ३२ ॥
अश्वनागरथैश्चैव संच्छिन्नैः कृतसंक्रमा ।
पताकाध्वजवानीरा हतवारणवाहिनी ॥ ३३ ॥
शोणितोदा सुसम्पूर्णा दुस्तरा पारगैर्नरैः।
हतनागमहानक्रा परलोकवहाशिवा ॥ ३४ ॥
ऋष्टिखड्गमहानौका गृध्रकङ्कबलप्लवा ।
पुरुषादानुचरिता भीरूणां कश्मलावहा ॥ ३५ ॥
नदी योधस्य संग्रामे तदस्यावभृथं स्मृतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
जिस योद्धाके युद्धरूपी यज्ञमें रक्तकी नदी प्रवाहित होती है, उसके लिये वह अवभृथस्नानके समान पुण्यजनक है। रक्त ही उस नदीकी जलराशि है, नगाड़े ही मेढक और कछुओंके समान हैं, वीरोंकी हड्डियाँ ही छोटे-छोटे कंकड़ और बालूके समान हैं, उसमें प्रवेश पाना अत्यन्त कठिन है, मांस और रक्त ही उस नदीकी कीच हैं, ढाल और तलवार ही उसमें नौकाके समान हैं, वह भयानक नदी केशरूपी सेवार और घाससे ढकी हुई है। कटे हुए घोड़े, हाथी और रथ ही उसमें उतरनेके लिये सीढ़ी हैं, ध्वजा-पताका तटवर्ती बेंतकी लताके समान हैं, मारे गये हाथियोंको भी वह बहा ले जानेवाली है, रक्तरूपी जलसे वह लबालब भरी है, पार जानेकी इच्छावाले मनुष्योंके लिये वह अत्यन्त दुस्तर है, मरे हुए हाथी बड़े-बड़े मगरमच्छके समान हैं, वह परलोककी ओर प्रवाहित होनेवाली नदी अमंगलमयी प्रतीत होती है, ऋष्टि और खड्ग—ये उससे पार होनेके लिये विशाल नौकाके समान हैं। गीध-कंक और काक छोटी-छोटी नौकाओंके समान हैं, उसके आस-पास राक्षस विचरते हैं तथा वह भीरु पुरुषोंको मोहमें डालनेवाली है॥३१—३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदिर्यस्य त्वमित्राणां शिरोभ्यश्च प्रकीर्यते ॥ ३६ ॥
अश्वस्कन्धैर्गजस्कन्धैस्तस्य लोका यथा मम।
मूलम्
वेदिर्यस्य त्वमित्राणां शिरोभ्यश्च प्रकीर्यते ॥ ३६ ॥
अश्वस्कन्धैर्गजस्कन्धैस्तस्य लोका यथा मम।
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके युद्ध-यज्ञकी वेदी शत्रुओंके मस्तकों, घोड़ोंकी गर्दनों और हाथियोंके कंधोंसे बिछ जाती है, उस वीरको मेरे-जैसे ही लोक प्राप्त होते हैं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पत्नीशाला कृता यस्य परेषां वाहिनीमुखम् ॥ ३७ ॥
हविर्धानं स्ववाहिन्यास्तदस्याहुर्मनीषिणः ।
मूलम्
पत्नीशाला कृता यस्य परेषां वाहिनीमुखम् ॥ ३७ ॥
हविर्धानं स्ववाहिन्यास्तदस्याहुर्मनीषिणः ।
अनुवाद (हिन्दी)
जो वीर शत्रुसेना के मुहानेको पत्नीशाला बना लेता है, मनीषी पुरुष उसके लिये अपनी सेनाके प्रमुख भागको युद्ध-यज्ञके हवनीय पदार्थोंके रखनेका पात्र बताते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदस्या दक्षिणा योधा आग्नीध्रश्चोत्तरां दिशम् ॥ ३८ ॥
शत्रुसेनाकलत्रस्य सर्वलोका न दूरतः।
मूलम्
सदस्या दक्षिणा योधा आग्नीध्रश्चोत्तरां दिशम् ॥ ३८ ॥
शत्रुसेनाकलत्रस्य सर्वलोका न दूरतः।
अनुवाद (हिन्दी)
जिस वीरके लिये दक्षिणदिशामें स्थित योद्धा सदस्य हैं, उत्तरदिशावर्ती योद्धा आग्नीध्र (ऋत्विक्) हैं एवं शत्रुसेना पत्नीस्वरूप है, उसके लिये समस्त पुण्यलोक दूर नहीं हैं॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा तूभयतो व्यूहे भवत्याकाशमग्रतः ॥ ३९ ॥
सास्य वेदिस्तदा यज्ञैर्नित्यं वेदास्त्रयोऽग्नयः।
मूलम्
यदा तूभयतो व्यूहे भवत्याकाशमग्रतः ॥ ३९ ॥
सास्य वेदिस्तदा यज्ञैर्नित्यं वेदास्त्रयोऽग्नयः।
अनुवाद (हिन्दी)
जब अपनी सेना तथा शत्रुसेना एक-दूसरेके सामने व्यूह बनाकर उपस्थित होती है, उस समय दोनोंमेंसे जिसके सम्मुख केवल जनशून्य आकाश रह जाता है, वह निर्जन आकाश ही उस वीरके लिये युद्ध-यज्ञकी वेदी है। उस स्थानपर मानो सदा यज्ञ होता है तथा तीनों वेद और त्रिविध अग्नि सदा ही प्रतिष्ठित रहते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु योधः परावृत्तः संत्रस्तो हन्यते परैः ॥ ४० ॥
अप्रतिष्ठः स नरकं याति नास्त्यत्र संशयः।
मूलम्
यस्तु योधः परावृत्तः संत्रस्तो हन्यते परैः ॥ ४० ॥
अप्रतिष्ठः स नरकं याति नास्त्यत्र संशयः।
अनुवाद (हिन्दी)
जो योद्धा भयभीत हो पीठ दिखाकर भागता है और उसी अवस्थामें शत्रुओंद्वारा मारा जाता है, वह कहीं भी न ठहरकर सीधा नरकमें गिरता है, इसमें संशय नहीं है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य शोणितवेगेन वेदिः स्यात् सम्परिप्लुता ॥ ४१ ॥
केशमांसास्थिसम्पूर्णा स गच्छेत् परमां गतिम्।
मूलम्
यस्य शोणितवेगेन वेदिः स्यात् सम्परिप्लुता ॥ ४१ ॥
केशमांसास्थिसम्पूर्णा स गच्छेत् परमां गतिम्।
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके रक्तके वेगसे केश, मांस और हड्डियोंसे भरी हुई रणयज्ञकी वेदी आप्लावित हो उठती है, वह वीर योद्धा परम गतिको प्राप्त होता है॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु सेनापतिं हत्वा तद्यानमधिरोहति ॥ ४२ ॥
स विष्णुविक्रमक्रामी बृहस्पतिसमः प्रभुः।
मूलम्
यस्तु सेनापतिं हत्वा तद्यानमधिरोहति ॥ ४२ ॥
स विष्णुविक्रमक्रामी बृहस्पतिसमः प्रभुः।
अनुवाद (हिन्दी)
जो योद्धा शत्रुके सेनापतिका वध करके उसके रथपर आरूढ़ हो जाता है, वह भगवान् विष्णुके समान पराक्रमशाली, बृहस्पतिके समान बुद्धिमान् तथा शक्तिशाली वीर समझा जाता है॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नायकं तत्कुमारं वा यो वा स्याद् यत्र पूजितः॥४३॥
जीवग्राहं प्रगृह्णाति तस्य लोका यथा मम।
मूलम्
नायकं तत्कुमारं वा यो वा स्याद् यत्र पूजितः॥४३॥
जीवग्राहं प्रगृह्णाति तस्य लोका यथा मम।
अनुवाद (हिन्दी)
जो शत्रुपक्षके सेनापति, उसके पुत्र अथवा उस पक्षके किसी भी सम्मानित वीरको जीते-जी पकड़ लेता है, उसको मेरे-जैसे लोक प्राप्त होते हैं॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहवे तु हतं शूरं न शोचेत कथंचन ॥ ४४ ॥
अशोच्यो हि हतः शूरः स्वर्गलोके महीयते।
मूलम्
आहवे तु हतं शूरं न शोचेत कथंचन ॥ ४४ ॥
अशोच्यो हि हतः शूरः स्वर्गलोके महीयते।
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धस्थलमें मारे गये शूरवीरके लिये किसी प्रकार भी शोक नहीं करना चाहिये। वह मारा गया शूरवीर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है, अतः कदापि शोचनीय नहीं है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यन्नं नोदकं तस्य न स्नानं नाप्यशौचकम् ॥ ४५ ॥
हतस्य कर्तुमिच्छन्ति तस्य लोकान् शृणुष्व मे।
मूलम्
न ह्यन्नं नोदकं तस्य न स्नानं नाप्यशौचकम् ॥ ४५ ॥
हतस्य कर्तुमिच्छन्ति तस्य लोकान् शृणुष्व मे।
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धमें मारे गये वीरके लिये उसके आत्मीयजन न तो स्नान करना चाहते हैं, न अशौचसम्बन्धी कृत्यका पालन, न अन्नदान (श्राद्ध) करनेकी इच्छा करते हैं, और न जलदान (तर्पण) करनेकी। उसे जो लोक प्राप्त होते हैं, उन्हें मुझसे सुनो॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वराप्सरःसहस्राणि शूरमायोधने हतम् ॥ ४६ ॥
त्वरमाणाभिधावन्ति मम भर्ता भवेदिति।
मूलम्
वराप्सरःसहस्राणि शूरमायोधने हतम् ॥ ४६ ॥
त्वरमाणाभिधावन्ति मम भर्ता भवेदिति।
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धस्थलमें मारे गये शूरवीरकी ओर सहस्रों सुन्दरी अप्सराएँ यह आशा लेकर बड़ी उतावलीके साथ दौड़ी जाती हैं कि यह मेरा पति हो जाय॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् तपश्च पुण्यं च धर्मश्चैव सनातनः ॥ ४७ ॥
चत्वारश्चाश्रमास्तस्य यो युद्धमनुपालयेत् ।
मूलम्
एतत् तपश्च पुण्यं च धर्मश्चैव सनातनः ॥ ४७ ॥
चत्वारश्चाश्रमास्तस्य यो युद्धमनुपालयेत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
जो युद्धधर्मका निरन्तर पालन करता है, उसके लिये यही तपस्या, पुण्य, सनातनधर्म तथा चारों आश्रमोंके नियमोंका पालन है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृद्धबालौ न हन्तव्यौ न च स्त्री नैव पृष्ठतः॥४८॥
तृणपूर्णमुखश्चैव तवास्मीति च यो वदेत्।
मूलम्
वृद्धबालौ न हन्तव्यौ न च स्त्री नैव पृष्ठतः॥४८॥
तृणपूर्णमुखश्चैव तवास्मीति च यो वदेत्।
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धमें वृद्ध, बालक और स्त्रियोंका वध नहीं करना चाहिये, किसी भागते हुएकी पीठमें आघात नहीं करना चाहिये, जो मुँहमें तिनका लिये शरण में आ जाय और कहने लगे कि मैं आपका ही हूँ, उसका भी वध नहीं करना चाहिये॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जम्भं वृत्रं बलं पाकं शतमायं विरोचनम् ॥ ४९ ॥
दुर्वार्यं चैव नमुचिं नैकमायं च शम्बरम्।
विप्रचित्तिं च दैतेयं दनोः पुत्रांश्च सर्वशः।
प्रह्रादं च निहत्याजौ ततो देवाधिपोऽभवम् ॥ ५० ॥
मूलम्
जम्भं वृत्रं बलं पाकं शतमायं विरोचनम् ॥ ४९ ॥
दुर्वार्यं चैव नमुचिं नैकमायं च शम्बरम्।
विप्रचित्तिं च दैतेयं दनोः पुत्रांश्च सर्वशः।
प्रह्रादं च निहत्याजौ ततो देवाधिपोऽभवम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जम्भ, वृत्रासुर, बलासुर, पाकासुर, सैकड़ों माया जाननेवाले विरोचन, दुर्जय वीर नमुचि, विविधमायाविशारद शम्बरासुर, दैत्यवंशी विप्रचित्ति, सम्पूर्ण दानवदल तथा प्रह्लादको भी युद्धमें मारकर मैं देवराजके पदपर प्रतिष्ठित हुआ हूँ॥४९-५०॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येतच्छक्रवचनं निशम्य प्रतिगृह्य च।
योधानामात्मनः सिद्धिमम्बरीषोऽभिपन्नवान् ॥ ५१ ॥
मूलम्
इत्येतच्छक्रवचनं निशम्य प्रतिगृह्य च।
योधानामात्मनः सिद्धिमम्बरीषोऽभिपन्नवान् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इन्द्रका यह वचन सुनकर राजा अम्बरीषने मन-ही-मन इसे स्वीकार किया और वे यह मान गये कि योद्धाओंको स्वतः सिद्धि प्राप्त होती है॥५१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि इन्द्राम्बरीषसंवादे अष्टनवतितमोऽध्यायः ॥ ९८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें इन्द्र और अम्बरीषका संवादविषयक अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९८॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणत्य अधिक पाठके २३ श्लोक मिलाकर कुछ ७४ श्लोक हैं)