भागसूचना
सप्तनवतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शूरवीर क्षत्रियोंके कर्तव्यका तथा उनकी आत्मशुद्धि और सद्गतिका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रधर्माद्धि पापीयान्न धर्मोऽस्ति नराधिप।
अपयानेन युद्धेन राजा हन्ति महाजनम् ॥ १ ॥
मूलम्
क्षत्रधर्माद्धि पापीयान्न धर्मोऽस्ति नराधिप।
अपयानेन युद्धेन राजा हन्ति महाजनम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— नरेश्वर! क्षत्रियधर्मसे बढ़कर पापपूर्ण दूसरा कोई धर्म नहीं है; क्योंकि राजा किसी देशपर चढ़ाई करने और युद्ध छेड़नेके द्वारा महान् जन-संहार कर डालता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ स्म कर्मणा केन लोकान् जयति पार्थिवः।
विद्वन् जिज्ञासमानाय प्रब्रूहि भरतर्षभ ॥ २ ॥
मूलम्
अथ स्म कर्मणा केन लोकान् जयति पार्थिवः।
विद्वन् जिज्ञासमानाय प्रब्रूहि भरतर्षभ ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वन्! भरतश्रेष्ठ! अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि राजाको किस कर्मसे पुण्यलोकोंकी प्राप्ति होती है; अतः यही मुझे बताइये॥२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
निग्रहेण च पापानां साधूनां संग्रहेण च।
यज्ञैर्दानैश्च राजानो भवन्ति शुचयोऽमलाः ॥ ३ ॥
मूलम्
निग्रहेण च पापानां साधूनां संग्रहेण च।
यज्ञैर्दानैश्च राजानो भवन्ति शुचयोऽमलाः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! पापियोंको दण्ड देने और सत्पुरुषोंको आदरपूर्वक अपनानेसे तथा यज्ञोंका अनुष्ठान और दान करनेसे राजा लोग सब प्रकारके दोषोंसे छूटकर निर्मल एवं शुद्ध हो जाते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपरुन्धन्ति राजानो भूतानि विजयार्थिनः।
त एव विजयं प्राप्य वर्धयन्ति पुनः प्रजाः ॥ ४ ॥
मूलम्
उपरुन्धन्ति राजानो भूतानि विजयार्थिनः।
त एव विजयं प्राप्य वर्धयन्ति पुनः प्रजाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा विजयकी कामना रखकर युद्धके समय प्राणियोंको कष्ट पहुँचाते हैं, वे ही विजय प्राप्त कर लेनेके बाद पुनः सारी प्रजाकी उन्नति करते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपविध्यन्ति पापानि दानयज्ञतपोबलैः ।
अनुग्रहाय भूतानां पुण्यमेषां विवर्धते ॥ ५ ॥
मूलम्
अपविध्यन्ति पापानि दानयज्ञतपोबलैः ।
अनुग्रहाय भूतानां पुण्यमेषां विवर्धते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दान, यज्ञ और तपके प्रभावसे अपने सारे पाप नष्ट कर डालते हैं; फिर तो प्राणियोंपर अनुग्रह करनेके लिये उनके पुण्यकी वृद्धि होती है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथैव क्षेत्रनिर्याता निर्यातं क्षेत्रमेव च।
हिनस्ति धान्यं कक्षं च न च धान्यं विनश्यति॥६॥
एवं शस्त्राणि मुञ्चन्तो घ्नन्ति वध्याननेकधा।
तस्यैषां निष्कृतिः कृत्स्ना भूतानां भावनं पुनः ॥ ७ ॥
मूलम्
यथैव क्षेत्रनिर्याता निर्यातं क्षेत्रमेव च।
हिनस्ति धान्यं कक्षं च न च धान्यं विनश्यति॥६॥
एवं शस्त्राणि मुञ्चन्तो घ्नन्ति वध्याननेकधा।
तस्यैषां निष्कृतिः कृत्स्ना भूतानां भावनं पुनः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे खेतको निरानेवाला किसान जिस खेतकी निराई करता है, उसकी घास आदिके साथ-साथ कितने ही धानके पौधोंको भी काट डालता है तो भी धान नष्ट नहीं होता है (बल्कि निराई करनेके पश्चात् उसकी उपज और बढ़ती है)। इसी प्रकार जो युद्धमें नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार करके राजसैनिक वध करने योग्य शत्रुओंका अनेक प्रकारसे वध करते हैं, राजाके उस कर्मका यही पूरा-पूरा प्रायश्चित्त है कि उस युद्धके पश्चात् उस राज्यके प्राणियोंकी पुनः सब प्रकारसे उन्नति करे॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो भूतानि धनाक्रान्त्या वधात् क्लेशाच्च रक्षति।
दस्युभ्यः प्राणदानात् स धनदः सुखदो विराट् ॥ ८ ॥
मूलम्
यो भूतानि धनाक्रान्त्या वधात् क्लेशाच्च रक्षति।
दस्युभ्यः प्राणदानात् स धनदः सुखदो विराट् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा समस्त प्रजाको धनक्षय, प्राणनाश और दुःखोंसे बचाता है, लुटेरोंसे रक्षा करके जीवन-दान देता है, वह प्रजाके लिये धन और सुख देनेवाला परमेश्वर माना गया है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सर्वयज्ञैरीजानो राजाथाभयदक्षिणैः ।
अनुभूयेह भद्राणि प्राप्नोतीन्द्रसलोकताम् ॥ ९ ॥
मूलम्
स सर्वयज्ञैरीजानो राजाथाभयदक्षिणैः ।
अनुभूयेह भद्राणि प्राप्नोतीन्द्रसलोकताम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह राजा सम्पूर्ण यज्ञोंद्वारा भगवान्की आराधना करके प्राणियोंको अभय-दान देकर इहलोकमें सुख भोगता है और परलोकमें भी इन्द्रके समान स्वर्गलोकका अधिकारी होता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणार्थे समुत्पन्ने योऽरिभिः सृत्य युध्यति।
आत्मानं यूपमुत्सृज्य स यज्ञोऽनन्तदक्षिणः ॥ १० ॥
मूलम्
ब्राह्मणार्थे समुत्पन्ने योऽरिभिः सृत्य युध्यति।
आत्मानं यूपमुत्सृज्य स यज्ञोऽनन्तदक्षिणः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणकी रक्षाका अवसर आनेपर जो आगे बढ़कर शत्रुओंके साथ युद्ध छेड़ देता है और अपने शरीरको यूपकी भाँति निछावर कर देता है, उसका वह त्याग अनन्त दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञके ही तुल्य है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभीतो विकिरन् शत्रून् प्रतिगृह्य शरांस्तथा।
न तस्मात्त्रिदशाःश्रेयो भुवि पश्यन्ति किञ्चन ॥ ११ ॥
मूलम्
अभीतो विकिरन् शत्रून् प्रतिगृह्य शरांस्तथा।
न तस्मात्त्रिदशाःश्रेयो भुवि पश्यन्ति किञ्चन ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो निर्भय हो शत्रुओंपर बाणोंकी वर्षा करता और स्वयं भी बाणोंका आघात सहता है, उस क्षत्रियके लिये उस कर्मसे बढ़कर देवतालोग इस भूतलपर दूसरा कोई कल्याणकारी कार्य नहीं देखते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य शस्त्राणि यावन्ति त्वचं भिन्दन्ति संयुगे।
तावतः सोऽश्नुते लोकान् सर्वकामदुहोऽक्षयान् ॥ १२ ॥
मूलम्
तस्य शस्त्राणि यावन्ति त्वचं भिन्दन्ति संयुगे।
तावतः सोऽश्नुते लोकान् सर्वकामदुहोऽक्षयान् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धस्थलमें उस वीर योद्धाकी त्वचाको जितने शस्त्र विदीर्ण करते हैं, उतने ही सर्वकामनापूरक अक्षय लोक उसे प्राप्त होते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदस्य रुधिरं गात्रादाहवे सम्प्रवर्तते।
सह तेनैव रक्तेन सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १३ ॥
मूलम्
यदस्य रुधिरं गात्रादाहवे सम्प्रवर्तते।
सह तेनैव रक्तेन सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समरभूमिमें उसके शरीरसे जो रक्त बहता है, उस रक्तके साथ ही वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यानि दुःखानि सहते क्षत्रियो युधि तापितः।
तेन तेन तपो भूय इति धर्मविदो विदुः ॥ १४ ॥
मूलम्
यानि दुःखानि सहते क्षत्रियो युधि तापितः।
तेन तेन तपो भूय इति धर्मविदो विदुः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धमें बाणोंसे पीड़ित हुआ क्षत्रिय जो-जो दुःख सहता है, उस-उस कष्टके द्वारा उसके तपकी ही उत्तरोत्तर वृद्धि होती है; ऐसी धर्मज्ञ पुरुषोंकी मान्यता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृष्ठतो भीरवः संख्ये वर्तन्तेऽधर्मपूरुषाः।
शूराच्छरणमिच्छन्तः पर्जन्यादिव जीवनम् ॥ १५ ॥
मूलम्
पृष्ठतो भीरवः संख्ये वर्तन्तेऽधर्मपूरुषाः।
शूराच्छरणमिच्छन्तः पर्जन्यादिव जीवनम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे समस्त प्राणी बादलसे जीवनदायक जलकी इच्छा रखते हैं, उसी प्रकार शूरवीरसे अपनी रक्षा चाहते हुए डरपोक एवं नीच श्रेणीके मनुष्य युद्धमें वीर योद्धाओंके पीछे खड़े रहते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि शूरस्तथा क्षेमं प्रतिरक्षेद् यथाभये।
प्रतिरूपं जनं कुर्यान्न चेत् तद्वर्तते तथा ॥ १६ ॥
मूलम्
यदि शूरस्तथा क्षेमं प्रतिरक्षेद् यथाभये।
प्रतिरूपं जनं कुर्यान्न चेत् तद्वर्तते तथा ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अभयकालके समान ही उस भयके समय भी यदि कोई शूरवीर उस भीरु पुरुषकी सकुशल रक्षा कर लेता है तो उसके प्रति वह अपने अनुरूप उपकार एवं पुण्य करता है। यदि पृष्ठवर्ती पुरुषको वह अपने-जैसा न बना सके तो भी पूर्व कथित पुण्यका भागी तो होता ही है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि ते कृतमाज्ञाय नमस्कुर्युः सदैवतम्।
युक्तं न्याय्यं च कुर्युस्ते न च तद् वर्तते तथा॥१७॥
मूलम्
यदि ते कृतमाज्ञाय नमस्कुर्युः सदैवतम्।
युक्तं न्याय्यं च कुर्युस्ते न च तद् वर्तते तथा॥१७॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि वे रक्षा पाये हुए मनुष्य कृतज्ञ होकर सदैव उस शूरवीरके सामने नतमस्तक होते रहें, तभी उसके प्रति उचित एवं न्यायसंगत कर्तव्यका पालन कर पाते हैं; अन्यथा उनकी स्थिति इसके विपरीत होती है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरुषाणां समानानां दृश्यते महदन्तरम्।
संग्रामेऽनीकवेलायामुत्क्रुष्टेऽभिपतन्त्युत ॥ १८ ॥
मूलम्
पुरुषाणां समानानां दृश्यते महदन्तरम्।
संग्रामेऽनीकवेलायामुत्क्रुष्टेऽभिपतन्त्युत ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी पुरुष देखनेमें समान होते हैं; परंतु युद्धस्थलमें जब सैनिकोंके परस्पर भिड़नेका समय आता है और चारों ओरसे वीरोंकी पुकार होने लगती है, उस समय उनमें महान् अन्तर दृष्टिगोचर होता है। एक श्रेणीके वीर तो निर्भय होकर शत्रुओंपर टूट पड़ते हैं और दूसरी श्रेणीके लोग प्राण बचानेकी चिन्तामें पड़ जाते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतत्यभिमुखः शूरः परान् भीरुः पलायते।
आस्थाय स्वर्ग्यमध्वानं सहायान् विषमे त्यजेत् ॥ १९ ॥
मूलम्
पतत्यभिमुखः शूरः परान् भीरुः पलायते।
आस्थाय स्वर्ग्यमध्वानं सहायान् विषमे त्यजेत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूरवीर शत्रुके सम्मुख वेगसे आगे बढ़ता है और भीरु पुरुष पीठ दिखाकर भागने लगता है। वह स्वर्गलोकके मार्गपर पहुँचकर भी अपने सहायकोंको उस संकटके समय अकेला छोड़ देता है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा स्म तांस्तादृशांस्तात जनिष्ठाः पुरुषाधमान्।
ये सहायान् रणे हित्वा स्वस्तिमन्तो गृहान् ययुः ॥ २० ॥
मूलम्
मा स्म तांस्तादृशांस्तात जनिष्ठाः पुरुषाधमान्।
ये सहायान् रणे हित्वा स्वस्तिमन्तो गृहान् ययुः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! जो लोग रणभूमिमें अपने सहायकोंको छोड़कर कुशलपूर्वक अपने घर लौट जाते हैं, वैसे नराधमोंको तुम कभी पैदा मत करना॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्वस्ति तेभ्यः कुर्वन्ति देवा इन्द्रपुरोगमाः।
त्यागेन यः सहायानां स्वान् प्राणांस्त्रातुमिच्छति ॥ २१ ॥
तं इन्युः काष्ठलोष्ठैर्वा दहेयुर्वा कटाग्निना।
पशुवन्मारयेयुर्वा क्षत्रिया ये स्युरीदृशाः ॥ २२ ॥
मूलम्
अस्वस्ति तेभ्यः कुर्वन्ति देवा इन्द्रपुरोगमाः।
त्यागेन यः सहायानां स्वान् प्राणांस्त्रातुमिच्छति ॥ २१ ॥
तं इन्युः काष्ठलोष्ठैर्वा दहेयुर्वा कटाग्निना।
पशुवन्मारयेयुर्वा क्षत्रिया ये स्युरीदृशाः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके लिये इन्द्र आदि देवता अमंगल मनाते हैं। जो सहायकोंको छोड़कर अपने प्राण बचानेकी इच्छा रखता है, ऐसे कायरको उसके साथी क्षत्रिय लाठी या ढेलोंसे पीटें अथवा घासके ढेरकी आगमें जला दें या उसे पशुकी भाँति गला घोटकर मार डालें॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मः क्षत्रियस्यैष यच्छय्यामरणं भवेत्।
विसृजन् श्लेष्ममूत्राणि कृपणं परिदेवयन् ॥ २३ ॥
अविक्षतेन देहेन प्रलयं योऽधिगच्छति।
क्षत्रियो नास्य तत् कर्म प्रशंसन्ति पुराविदः ॥ २४ ॥
मूलम्
अधर्मः क्षत्रियस्यैष यच्छय्यामरणं भवेत्।
विसृजन् श्लेष्ममूत्राणि कृपणं परिदेवयन् ॥ २३ ॥
अविक्षतेन देहेन प्रलयं योऽधिगच्छति।
क्षत्रियो नास्य तत् कर्म प्रशंसन्ति पुराविदः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
खाटपर सोकर मरना क्षत्रियके लिये अधर्म है। जो क्षत्रिय कफ और मल-मूत्र छोड़ता तथा दुखी होकर विलाप करता हुआ बिना घायल हुए शरीरसे मृत्युको प्राप्त हो जाता है, उसके इस कर्मकी प्राचीन धर्मको जानने-वाले विद्वान् पुरुष प्रशंसा नहीं करते हैं॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न गृहे मरणं तात क्षत्रियाणां प्रशस्यते।
शौटीराणामशौटीर्यमधर्मं कृपणं च तत् ॥ २५ ॥
मूलम्
न गृहे मरणं तात क्षत्रियाणां प्रशस्यते।
शौटीराणामशौटीर्यमधर्मं कृपणं च तत् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि तात! वीर क्षत्रियोंका घरमें मरण हो, यह उनके लिये प्रशंसाकी बात नहीं है। वीरोंके लिये यह कायरता और दीनता अधर्मकी बात है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं दुःखं महत् कष्टं पापीय इति निष्टनन्।
प्रतिध्वस्तमुखः पूतिरमात्याननुशोचयन् ॥ २६ ॥
अरोगाणां स्पृहयते मुहुर्मृत्युमपीच्छति ।
वीरो दृप्तोऽभिमानी च नेदृशं मृत्युमर्हति ॥ २७ ॥
मूलम्
इदं दुःखं महत् कष्टं पापीय इति निष्टनन्।
प्रतिध्वस्तमुखः पूतिरमात्याननुशोचयन् ॥ २६ ॥
अरोगाणां स्पृहयते मुहुर्मृत्युमपीच्छति ।
वीरो दृप्तोऽभिमानी च नेदृशं मृत्युमर्हति ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह बड़ा दुःख है। बड़ी पीड़ा हो रही है! यह मेरे किसी महान् पापका सूचक है।’ इस प्रकार आर्तनाद करना, विकृत-मुख हो जाना, दुर्गन्धित शरीरसे मन्त्रियोंके लिये निरन्तर शोक करना, नीरोग मनुष्योंकी-सी स्थिति प्राप्त करनेकी कामना करना और वर्तमान रुग्णावस्थामें बारंबार मृत्युकी इच्छा रखना—ऐसी मौत किसी स्वाभिमानी वीरके योग्य नहीं है॥२६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रणेषु कदनं कृत्वा ज्ञातिभिः परिवारितः।
तीक्ष्णैः शस्त्रैरभिक्लिष्टः क्षत्रियो मृत्युमर्हति ॥ २८ ॥
मूलम्
रणेषु कदनं कृत्वा ज्ञातिभिः परिवारितः।
तीक्ष्णैः शस्त्रैरभिक्लिष्टः क्षत्रियो मृत्युमर्हति ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रियको तो चाहिये कि अपने सजातीय बन्धुओंसे घिरकर समरांगणमें महान् संहार मचाता हुआ तीखे शस्त्रोंसे अत्यन्त पीड़ित होकर प्राणोंका परित्याग करे—वह ऐसी ही मृत्युके योग्य है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूरो हि काममन्युभ्यामाविष्टो युध्यते भृशम्।
हन्यमानानि गात्राणि परैर्नैवावबुध्यते ॥ २९ ॥
मूलम्
शूरो हि काममन्युभ्यामाविष्टो युध्यते भृशम्।
हन्यमानानि गात्राणि परैर्नैवावबुध्यते ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूरवीर क्षत्रिय विजयकी कामना और शत्रुके प्रति रोषसे युक्त हो बड़े वेगसे युद्ध करता है। शत्रुओंद्वारा क्षत-विक्षत किये जानेवाले अपने अंगोंकी उसे सुध-बुध नहीं रहती है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स संख्ये निधनं प्राप्य प्रशस्तं लोकपूजितम्।
स्वधर्मं विपुलं प्राप्य शक्रस्येति सलोकताम् ॥ ३० ॥
मूलम्
स संख्ये निधनं प्राप्य प्रशस्तं लोकपूजितम्।
स्वधर्मं विपुलं प्राप्य शक्रस्येति सलोकताम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह युद्धमें लोकपूजित सर्वश्रेष्ठ मृत्यु एवं महान् धर्मको पाकर इन्द्रलोकमें चला जाता है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वोपायै रणमुखमातिष्ठंस्त्यक्तजीवितः ।
प्राप्नोतीन्द्रस्य सालोक्यं शूरः पृष्ठमदर्शयन् ॥ ३१ ॥
मूलम्
सर्वोपायै रणमुखमातिष्ठंस्त्यक्तजीवितः ।
प्राप्नोतीन्द्रस्य सालोक्यं शूरः पृष्ठमदर्शयन् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूरवीर प्राणोंका मोह छोड़कर युद्धके मुहानेपर खड़ा होकर सभी उपायोंसे जूझता है और शत्रुको कभी पीठ नहीं दिखाता है; ऐसा शूरवीर इन्द्रके समान लोकका अधिकारी होता है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र यत्र हतः शूरः शत्रुभिः परिवारितः।
अक्षयाल्लँभते लोकान् यदि दैन्यं न सेवते ॥ ३२ ॥
मूलम्
यत्र यत्र हतः शूरः शत्रुभिः परिवारितः।
अक्षयाल्लँभते लोकान् यदि दैन्यं न सेवते ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंसे घिरा हुआ शूरवीर यदि मनमें दीनता न लावे तो वह जहाँ कहीं भी मारा जाय, अक्षय लोकोंको प्राप्त कर लेता है॥३२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि सप्तनवतितमोऽध्यायः ॥ ९७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९७॥