०९६ विजिगीषमाणवृत्ते

भागसूचना

षण्णवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजाके छलरहित धर्मयुक्त बर्तावकी प्रशंसा

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाधर्मेण महीं जेतुं लिप्सेत जगतीपतिः।
अधर्मविजयं लब्ध्वा को नु मन्येत भूमिपः ॥ १ ॥

मूलम्

नाधर्मेण महीं जेतुं लिप्सेत जगतीपतिः।
अधर्मविजयं लब्ध्वा को नु मन्येत भूमिपः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! किसी भी भूपालको अधर्मके द्वारा पृथ्वीपर विजय प्राप्त करनेकी इच्छा कभी नहीं करनी चाहिये। अधर्मसे विजय पाकर कौन राजा सम्मानित हो सकता है?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मयुक्तो विजयो ह्यध्रुवोऽस्वर्ग्य एव च।
सादयत्येष राजानं महीं च भरतर्षभ ॥ २ ॥

मूलम्

अधर्मयुक्तो विजयो ह्यध्रुवोऽस्वर्ग्य एव च।
सादयत्येष राजानं महीं च भरतर्षभ ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अधर्मसे पायी हुई विजय स्वर्गसे गिरानेवाली और अस्थायी होती है। भरतश्रेष्ठ! ऐसी विजय राजा और राज्य दोनोंका पतन कर देती है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशीर्णकवचं चैव तवास्मीति च वादिनम्।
कृताञ्जलिं न्यस्तशस्त्रं गृहीत्वा न हि हिंसयेत् ॥ ३ ॥

मूलम्

विशीर्णकवचं चैव तवास्मीति च वादिनम्।
कृताञ्जलिं न्यस्तशस्त्रं गृहीत्वा न हि हिंसयेत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका कवच छिन्न-भिन्न हो गया हो, जो ‘मैं आपका ही हूँ’ ऐसा कह रहा हो और हाथ जोड़े खड़ा हो अथवा जिसने हथियार रख दिये हों, ऐसे विपक्षी योद्धाको कैद करके मारे नहीं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलेन विजितो यश्च न तं युध्येत भूमिपः।
संवत्सरं विप्रणयेत् तस्माज्जातः पुनर्भवेत् ॥ ४ ॥

मूलम्

बलेन विजितो यश्च न तं युध्येत भूमिपः।
संवत्सरं विप्रणयेत् तस्माज्जातः पुनर्भवेत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो बलके द्वारा पराजित कर दिया गया हो, उसके साथ राजा कदापि युद्ध न करे। उसे कैद करके एक सालतक अनुकूल रहनेकी शिक्षा दे; फिर उसका नया जन्म होता है। वह विजयी राजाके लिये पुत्रके समान हो जाता है (इसलिये एक साल बाद उसे छोड़ देना चाहिये)॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नार्वाक्संवत्सरात् कन्या प्रष्टव्या विक्रमाहृता।
एवमेव धनं सर्वं यच्चान्यत्सहसाऽऽहृतम् ॥ ५ ॥

मूलम्

नार्वाक्संवत्सरात् कन्या प्रष्टव्या विक्रमाहृता।
एवमेव धनं सर्वं यच्चान्यत्सहसाऽऽहृतम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि राजा किसी कन्याको अपने पराक्रमसे हरकर ले आवे तो एक सालतक उससे कोई प्रश्न न करे (एक सालके बाद पूछनेपर यदि वह कन्या किसी दूसरेको वरण करना चाहे तो उसे लौटा देना चाहिये)। इसी प्रकार सहसा छलसे अपहरण करके लाये हुए सम्पूर्ण धनके विषयमें भी समझना चाहिये (उसे भी एक सालके बाद उसके स्वामीको लौटा देना चाहिये)॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु वध्यधनं तिष्ठेत् पिबेयुर्ब्राह्मणाः पयः।
युञ्जीरन्नप्यनडुहः क्षन्तव्यं वा तदा भवेत् ॥ ६ ॥

मूलम्

न तु वध्यधनं तिष्ठेत् पिबेयुर्ब्राह्मणाः पयः।
युञ्जीरन्नप्यनडुहः क्षन्तव्यं वा तदा भवेत् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चोर आदि अपराधियोंका धन लाया गया हो तो उसे अपने पास न रखे (सार्वजनिक कार्योंमें लगा दे) और यदि गौ छीनकर लायी गयी हो तो उसका दूध स्वयं न पीकर ब्राह्मणोंको पिलावे। बैल हों तो उन्हें ब्राह्मणलोग ही गाड़ी आदिमें जोतें अथवा उन सब अपहृत वस्तुओं या धनका स्वामी आकर क्षमा-प्रार्थना करे तो उसे क्षमा करके उसका धन उसे लौटा देना चाहिये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्ञा राजैव योद्धव्यस्तथा धर्मो विधीयते।
नान्यो राजानमभ्यस्येदराजन्यः कथञ्चन ॥ ७ ॥

मूलम्

राज्ञा राजैव योद्धव्यस्तथा धर्मो विधीयते।
नान्यो राजानमभ्यस्येदराजन्यः कथञ्चन ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको राजाके साथ ही युद्ध करना चाहिये। उसके लिये यही धर्म विहित है। जो राजा या राजकुमार नहीं है, उसे किसी प्रकार भी राजापर अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार नहीं करना चाहिये॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनीकयोः संहतयोर्यदीयाद् ब्राह्मणोऽन्तरा ।
शान्तिमिच्छन्नुभयतो न योद्धव्यं तदा भवेत् ॥ ८ ॥

मूलम्

अनीकयोः संहतयोर्यदीयाद् ब्राह्मणोऽन्तरा ।
शान्तिमिच्छन्नुभयतो न योद्धव्यं तदा भवेत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों ओरकी सेनाओंके भिड़ जानेपर यदि उनके बीचमें संधि करानेकी इच्छासे ब्राह्मण आ जाय तो दोनों पक्षवालोंको तत्काल युद्ध बंद कर देना चाहिये॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मर्यादां शाश्वतीं भिन्द्याद् ब्राह्मणं योऽभिलङ्घयेत्।
अथ चेल्लङ्घयेदेव मर्यादां क्षत्रियब्रुवः ॥ ९ ॥
असंख्येयस्तदूर्ध्वं स्यादनादेयश्च संसदि ।

मूलम्

मर्यादां शाश्वतीं भिन्द्याद् ब्राह्मणं योऽभिलङ्घयेत्।
अथ चेल्लङ्घयेदेव मर्यादां क्षत्रियब्रुवः ॥ ९ ॥
असंख्येयस्तदूर्ध्वं स्यादनादेयश्च संसदि ।

अनुवाद (हिन्दी)

इन दोनोंमेंसे जो कोई भी पक्ष ब्राह्मणका तिरस्कार करता है, वह सनातनकालसे चली आयी हुई मर्यादाको तोड़ता है। यदि अपनेको क्षत्रिय कहनेवाला अधम योद्धा उस मर्यादाका उल्लंघन कर ही डाले तो उसके बादसे उसे क्षत्रियजातिके अंदर नहीं गिनना चाहिये और क्षत्रियोंकी सभामें उसे स्थान भी नहीं देना चाहिये॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु धर्मविलोपेन मर्यादाभेदनेन च ॥ १० ॥
तां वृत्तिं नानुवर्तेत विजिगीषुर्महीपतिः।
धर्मलब्धाद्धि विजयाल्लाभः कोऽभ्यधिको भवेत् ॥ ११ ॥

मूलम्

यस्तु धर्मविलोपेन मर्यादाभेदनेन च ॥ १० ॥
तां वृत्तिं नानुवर्तेत विजिगीषुर्महीपतिः।
धर्मलब्धाद्धि विजयाल्लाभः कोऽभ्यधिको भवेत् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कोई धर्मका लोप और मर्यादाको भंग करके विजय पाता है, उसके इस बर्तावका विजयाभिलाषी नरेशको अनुसरण नहीं करना चाहिये। धर्मके द्वारा प्राप्त हुई विजयसे बढ़कर दूसरा कौन-सा लाभ हो सकता है?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहसानार्यभूतानि क्षिप्रमेव प्रसादयेत् ।
सान्त्वेन भोगदानेन स राज्ञां परमो नयः ॥ १२ ॥

मूलम्

सहसानार्यभूतानि क्षिप्रमेव प्रसादयेत् ।
सान्त्वेन भोगदानेन स राज्ञां परमो नयः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विजयी राजाको चाहिये कि वह मधुर वचन बोलकर और उपभोगकी वस्तुएँ देकर अनार्य (म्लेच्छ आदि) प्रजाको शीघ्रतापूर्वक प्रसन्न कर ले। यही राजाओंकी सर्वोत्तम नीति है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुज्यमाना ह्ययोगेन स्वराष्ट्रादभितापिताः ।
अमित्रास्तमुपासीरन् व्यसनौघप्रतीक्षिणः ॥ १३ ॥

मूलम्

भुज्यमाना ह्ययोगेन स्वराष्ट्रादभितापिताः ।
अमित्रास्तमुपासीरन् व्यसनौघप्रतीक्षिणः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि ऐसा न करके अनुचित कठोरताके द्वारा उनपर शासन किया जाता है तो वे दुखी होकर अपने देशसे चले जाते हैं और शत्रु बनकर विजयी राजाकी विपत्तिके समयकी बाट देखते हुए कहीं पड़े रहते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमित्रोपग्रहं चास्य ते कुर्युः क्षिप्रमापदि।
संतुष्टाः सर्वतो राजन् राजव्यसनकाङ्क्षिणः ॥ १४ ॥

मूलम्

अमित्रोपग्रहं चास्य ते कुर्युः क्षिप्रमापदि।
संतुष्टाः सर्वतो राजन् राजव्यसनकाङ्क्षिणः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जब विजयी राजापर कोई विपत्ति आ जाती है, तब वे राजापर संकट पड़नेकी इच्छा रखनेवाले लोग विपक्षियोंद्वारा सब प्रकारसे संतुष्ट हो राजाके शत्रुओंका पक्ष ग्रहण कर लेते हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामित्रो विनिकर्तव्यो नातिच्छेद्यः कथञ्चन।
जीवितं ह्यप्यतिच्छिन्नः संत्यजेच्च कदाचन ॥ १५ ॥

मूलम्

नामित्रो विनिकर्तव्यो नातिच्छेद्यः कथञ्चन।
जीवितं ह्यप्यतिच्छिन्नः संत्यजेच्च कदाचन ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुके साथ छल नहीं करना चाहिये। उसे किसी प्रकार भी अत्यन्त उच्छिन्न करना उचित नहीं है। अत्यन्त क्षत-विक्षत कर देनेपर वह कभी अपने जीवनका त्याग भी कर सकता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अल्पेनापि च संयुक्तस्तुष्यत्येव नराधिपः।
शुद्धं जीवितमेवापि तादृशो बहु मन्यते ॥ १६ ॥

मूलम्

अल्पेनापि च संयुक्तस्तुष्यत्येव नराधिपः।
शुद्धं जीवितमेवापि तादृशो बहु मन्यते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा थोड़े-से लाभसे भी संयुक्त होनेपर संतुष्ट हो जाता है। वैसा नरेश निर्दोष जीवनको ही बहुत अधिक महत्त्व देता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य स्फीतो जनपदः सम्पन्नः प्रियराजकः।
संतुष्टभृत्यसचिवो दृढमूलः स पार्थिवः ॥ १७ ॥

मूलम्

यस्य स्फीतो जनपदः सम्पन्नः प्रियराजकः।
संतुष्टभृत्यसचिवो दृढमूलः स पार्थिवः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस राजाका देश समृद्धिशाली, धन-धान्यसे सम्पन्न तथा राजभक्त होता है और जिसके सेवक एवं मन्त्री संतुष्ट रहते हैं, उसीकी जड़ मजबूत मानी जाती है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋत्विक्पुरोहिताचार्या ये चान्ये श्रुतसत्तमाः।
पूजार्हाः पूजिता यस्य स वै लोकविदुच्यते ॥ १८ ॥

मूलम्

ऋत्विक्पुरोहिताचार्या ये चान्ये श्रुतसत्तमाः।
पूजार्हाः पूजिता यस्य स वै लोकविदुच्यते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा ऋत्विज्, पुरोहित, आचार्य तथा अन्यान्य पूजाके पात्र शास्त्रज्ञोंका सत्कार करता है, वही लोक-गतिको जाननेवाला कहा जाता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतेनैव च वृत्तेन महीं प्राप सुरोत्तमः।
अनेन चेन्द्रविषयं विजिगीषन्ति पार्थिवाः ॥ १९ ॥

मूलम्

एतेनैव च वृत्तेन महीं प्राप सुरोत्तमः।
अनेन चेन्द्रविषयं विजिगीषन्ति पार्थिवाः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी बर्तावसे देवराज इन्द्रने राज्य पाया था और इसी बर्तावके द्वारा भूपालगण स्वर्गलोकपर विजय पाना चाहते हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमिवर्जं धनं राजा जित्वा राजन् महाहवे।
अपि चान्नौषधीः शश्वदाजहार प्रतर्दनः ॥ २० ॥

मूलम्

भूमिवर्जं धनं राजा जित्वा राजन् महाहवे।
अपि चान्नौषधीः शश्वदाजहार प्रतर्दनः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! पूर्वकालमें राजा प्रतर्दन महासमरमें विजय प्राप्त करके पराजित राजाकी भूमिको छोड़कर शेष सारा धन, अन्न एवं औषध अपनी राजधानीमें ले आये॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निहोत्राग्निशेषं च हविर्भोजनमेव च।
आजहार दिवोदासस्ततो विप्रकृतोऽभवत् ॥ २१ ॥

मूलम्

अग्निहोत्राग्निशेषं च हविर्भोजनमेव च।
आजहार दिवोदासस्ततो विप्रकृतोऽभवत् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा दिवोदास अग्निहोत्र, यज्ञका अंगभूत हविष्य तथा भोजन भी हर लाये थे। इसीसे वे तिरस्कृत हुए॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सराजकानि राष्ट्राणि नाभागो दक्षिणां ददौ।
अन्यत्र श्रोत्रियस्वाच्च तापसार्थाच्च भारत ॥ २२ ॥

मूलम्

सराजकानि राष्ट्राणि नाभागो दक्षिणां ददौ।
अन्यत्र श्रोत्रियस्वाच्च तापसार्थाच्च भारत ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! राजा नाभागने श्रोत्रिय और तापसके धनको छोड़कर शेष सारा राष्ट्र दक्षिणारूपमें ब्राह्मणोंको दे दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उच्चावचानि वित्तानि धर्मज्ञानां युधिष्ठिर।
आसन् राज्ञां पुराणानां सर्वं तन्मम रोचते ॥ २३ ॥

मूलम्

उच्चावचानि वित्तानि धर्मज्ञानां युधिष्ठिर।
आसन् राज्ञां पुराणानां सर्वं तन्मम रोचते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! प्राचीन धर्मज्ञ राजाओंके पास जो नाना प्रकारके धन थे, वे सब मुझे भी अच्छे लगते हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वविद्यातिरेकेण जयमिच्छेन्महीपतिः ।
न मायया न दम्भेन य इच्छेद् भूतिमात्मनः ॥ २४ ॥

मूलम्

सर्वविद्यातिरेकेण जयमिच्छेन्महीपतिः ।
न मायया न दम्भेन य इच्छेद् भूतिमात्मनः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस राजाको अपना वैभव बढ़ानेकी इच्छा हो, वह सम्पूर्ण विद्याओंके उत्कर्षद्वारा विजय पानेकी इच्छा करे; दम्भ या पाखण्डद्वारा नहीं॥२४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि विजिगीषमाणवृत्ते षण्णवतितमोऽध्यायः ॥ ९६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें विजयाभिलाषी राजाका बर्तावविषयक छियानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९६॥