भागसूचना
पञ्चनवतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
विजयाभिलाषी राजाके धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीतिका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ यो विजिगीषेत क्षत्रियः क्षत्रियं युधि।
कस्तस्य विजये धर्मो ह्येतं पृष्टो वदस्व मे ॥ १ ॥
मूलम्
अथ यो विजिगीषेत क्षत्रियः क्षत्रियं युधि।
कस्तस्य विजये धर्मो ह्येतं पृष्टो वदस्व मे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! यदि कोई क्षत्रिय राजा दूसरे क्षत्रिय नरेशपर युद्धमें विजय पाना चाहे तो उसे अपनी जीतके लिये किस धर्मका पालन करना चाहिये? इस समय यही मेरा आपसे प्रश्न है, आप मुझे इसका उत्तर दीजिये॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ससहायोऽसहायो वा राष्ट्रमागम्य भूमिपः।
ब्रूयादहं वो राजेति रक्षिष्यामि च वः सदा ॥ २ ॥
मम धर्मबलिं दत्त किं वा मां प्रतिपत्स्यथ।
ते चेत् तमागतं तत्र वृणुयुः कुशलं भवेत् ॥ ३ ॥
मूलम्
ससहायोऽसहायो वा राष्ट्रमागम्य भूमिपः।
ब्रूयादहं वो राजेति रक्षिष्यामि च वः सदा ॥ २ ॥
मम धर्मबलिं दत्त किं वा मां प्रतिपत्स्यथ।
ते चेत् तमागतं तत्र वृणुयुः कुशलं भवेत् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! पहले राजा सहायकोंके साथ अथवा बिना सहायकोंके ही जिसपर विजय पाना चाहता हो, उस राज्यमें जाकर वहाँके लोगोंसे कहे कि मैं तुम्हारा राजा हूँ और सदा तुमलोगोंकी रक्षा करूँगा, मुझे धर्मके अनुसार कर दो अथवा मेरे साथ युद्ध करो। उसके ऐसा कहनेपर यदि वे उस समागत नरेशका अपने राजाके रूपमें वरण कर लें तो सबकी कुशल हो॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते चेदक्षत्रियाः सन्तो विरुध्येरन् कथंचन।
सर्वोपायैर्नियन्तव्या विकर्मस्था नराधिप ॥ ४ ॥
मूलम्
ते चेदक्षत्रियाः सन्तो विरुध्येरन् कथंचन।
सर्वोपायैर्नियन्तव्या विकर्मस्था नराधिप ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! यदि वे क्षत्रिय न होकर भी किसी प्रकार विरोध करें तो वर्ण-विपरीत कर्ममें लगे हुए उन सब मनुष्योंका सभी उपायोंसे दमन करना चाहिये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशस्त्रं क्षत्रियं मत्वा शस्त्रं गृह्णाद् यथापरः।
त्राणायाप्यसमर्थं तं मन्यमानमतीव च ॥ ५ ॥
मूलम्
अशस्त्रं क्षत्रियं मत्वा शस्त्रं गृह्णाद् यथापरः।
त्राणायाप्यसमर्थं तं मन्यमानमतीव च ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि उस देशका क्षत्रिय शस्त्रहीन हो और अपनी रक्षा करनेमें भी अपनेको अत्यन्त असमर्थ मानता हो तो वहाँका क्षत्रियेतर मनुष्य भी देशकी रक्षाके लिये शस्त्र ग्रहण कर सकता है॥५॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथः यः क्षत्रियो राजा क्षत्रियं प्रत्युपाव्रजेत्।
कथं सम्प्रति योद्धव्यस्तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ६ ॥
मूलम्
अथः यः क्षत्रियो राजा क्षत्रियं प्रत्युपाव्रजेत्।
कथं सम्प्रति योद्धव्यस्तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! यदि कोई क्षत्रिय राजा दूसरे क्षत्रिय राजापर चढ़ाई कर दे तो उस समय उसे उसके साथ किस प्रकार युद्ध करना चाहिये यह मुझे बताइये॥६॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैवासन्नद्धकवचो योद्धव्यः क्षत्रियो रणे।
एक एकेन वाच्यश्च विसृजेति क्षिपामि च ॥ ७ ॥
मूलम्
नैवासन्नद्धकवचो योद्धव्यः क्षत्रियो रणे।
एक एकेन वाच्यश्च विसृजेति क्षिपामि च ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! जो कवच बाँधे हुए न हो, उस क्षत्रियके साथ रणभूमिमें युद्ध नहीं करना चाहिये। एक योद्धा दूसरे एकाकी योद्धासे कहे ‘तुम मुझपर शस्त्र छोड़ो। मैं भी तुमपर प्रहार करता हूँ’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेत् सन्नद्ध आगच्छेत् सन्नद्धव्यं ततो भवेत्।
स चेत् ससैन्य आगच्छेत् ससैन्यस्तमथाह्वयेत् ॥ ८ ॥
मूलम्
स चेत् सन्नद्ध आगच्छेत् सन्नद्धव्यं ततो भवेत्।
स चेत् ससैन्य आगच्छेत् ससैन्यस्तमथाह्वयेत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि वह कवच बाँधकर सामने आ जाय तो स्वयं भी कवच धारण कर ले। यदि विपक्षी सेनाके साथ आवे तो स्वयं भी सेनाके साथ आकर शत्रुको ललकारे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्निकृत्या युद्ध्येत निकृत्या प्रतियोधयेत्।
अथ चेद् धर्मतो युद्ध्येद् धर्मेणैव निवारयेत् ॥ ९ ॥
मूलम्
स चेन्निकृत्या युद्ध्येत निकृत्या प्रतियोधयेत्।
अथ चेद् धर्मतो युद्ध्येद् धर्मेणैव निवारयेत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि वह छलसे युद्ध करे तो स्वयं भी उसी रीतिसे उसका सामना करे और यदि वह धर्मसे युद्ध आरम्भ करे तो धर्मसे ही उसका सामना करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाश्वेन रथिनं यायादुदियाद् रथिनं रथी।
व्यसने न प्रहर्तव्यं न भीताय जिताय च ॥ १० ॥
मूलम्
नाश्वेन रथिनं यायादुदियाद् रथिनं रथी।
व्यसने न प्रहर्तव्यं न भीताय जिताय च ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घोड़ेके द्वारा रथीपर आक्रमण न करे। रथीका सामना रथीको ही करना चाहिये। यदि शत्रु किसी संकटमें पड़ जाय तो उसपर प्रहार न करे। डरे और पराजित हुए शत्रुपर भी कभी प्रहार नहीं करना चाहिये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इषुर्लिप्तो न कर्णी स्यादसतामेतदायुधम्।
यथार्थमेव योद्धव्यं न क्रुद्ध्येत जिघांसतः ॥ ११ ॥
मूलम्
इषुर्लिप्तो न कर्णी स्यादसतामेतदायुधम्।
यथार्थमेव योद्धव्यं न क्रुद्ध्येत जिघांसतः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धमें विषलिप्त और कर्णी बाणका प्रयोग नहीं करना चाहिये। ये दुष्टोंके अस्त्र हैं। यथार्थ रीतिसे ही युद्ध करना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति युद्धमें किसीका वध करना चाहता हो तो उसपर क्रोध नहीं करना चाहिये (किंतु यथायोग्य प्रतीकार करना चाहिये)॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधूनां तु मिथो भेदात् साधुश्चेद् व्यसनी भवेत्।
निष्प्राणो नाभिहन्तव्यो नानपत्यः कथंचन ॥ १२ ॥
मूलम्
साधूनां तु मिथो भेदात् साधुश्चेद् व्यसनी भवेत्।
निष्प्राणो नाभिहन्तव्यो नानपत्यः कथंचन ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब श्रेष्ठ पुरुषोंमें परस्पर भेद होनेसे कोई श्रेष्ठ पुरुष संकटमें पड़ जाय, तब उसपर प्रहार नहीं करना चाहिये। जो बलहीन और संतानहीन हो, उसपर तो किसी प्रकार भी आघात न करे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भग्नशस्त्रो विपन्नश्च कृत्तज्यो हतवाहनः।
चिकित्स्यः स्यात् स्वविषये प्राप्यो वा स्वगृहे भवेत् ॥ १३ ॥
मूलम्
भग्नशस्त्रो विपन्नश्च कृत्तज्यो हतवाहनः।
चिकित्स्यः स्यात् स्वविषये प्राप्यो वा स्वगृहे भवेत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके शस्त्र टूट गये हों, जो विपत्तिमें पड़ गया हो, जिसके धनुषकी डोरी कट गयी हो तथा जिसके वाहन मार डाले गये हों, ऐसे मनुष्यपर भी प्रहार न करे। ऐसा पुरुष यदि अपने राज्यमें या अधिकारमें आ जाय तो उसके घावोंकी चिकित्सा करानी चाहिये अथवा उसे उसके घर पहुँचा देना चाहिये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्व्रणश्च स मोक्तव्य एष धर्मः सनातनः।
तस्माद् धर्मेण योद्धव्यमिति स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥ १४ ॥
मूलम्
निर्व्रणश्च स मोक्तव्य एष धर्मः सनातनः।
तस्माद् धर्मेण योद्धव्यमिति स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु जिसके कोई घाव न हो, उसे न छोड़े। यह सनातनधर्म है। अतः धर्मके अनुसार युद्ध करना चाहिये, यह स्वायम्भुव मनुका कथन है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्सु नित्यः सतां धर्मस्तमास्थाय न नाशयेत्।
यो वै जयत्यधर्मेण क्षत्रियो धर्मसंगरः ॥ १५ ॥
आत्मानमात्मना हन्ति पापो निकृतिजीवनः।
मूलम्
सत्सु नित्यः सतां धर्मस्तमास्थाय न नाशयेत्।
यो वै जयत्यधर्मेण क्षत्रियो धर्मसंगरः ॥ १५ ॥
आत्मानमात्मना हन्ति पापो निकृतिजीवनः।
अनुवाद (हिन्दी)
सज्जनोंका धर्म सदा सत्पुरुषोंमें ही रहा है। अतः उसका आश्रय लेकर उसे नष्ट न करे। धर्मयुद्धमें तत्पर हुआ जो क्षत्रिय अधर्मसे विजय पाता है, छल-कपटको जीविकाका साधन बनानेवाला वह पापी स्वयं ही अपना नाश करता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्म चैतदसाधूनामसाधून् साधुना जयेत् ॥ १६ ॥
धर्मेण निधनं श्रेयो न जयः पापकर्मणा।
मूलम्
कर्म चैतदसाधूनामसाधून् साधुना जयेत् ॥ १६ ॥
धर्मेण निधनं श्रेयो न जयः पापकर्मणा।
अनुवाद (हिन्दी)
यह तो दुष्टोंका काम है। श्रेष्ठ पुरुषको तो दुष्टोंपर भी धर्मसे ही विजय पानी चाहिये। धर्मपूर्वक युद्ध करते हुए मर जाना भी अच्छा है; परंतु पापकर्मके द्वारा विजय पाना अच्छा नहीं है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाधर्मश्चरितो राजन् सद्यः फलति गौरिव ॥ १७ ॥
मूलानि च प्रशाखाश्च दहन् समधिगच्छति।
मूलम्
नाधर्मश्चरितो राजन् सद्यः फलति गौरिव ॥ १७ ॥
मूलानि च प्रशाखाश्च दहन् समधिगच्छति।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जैसे पृथ्वीमें बोये हुए बीजका फल तत्काल नहीं मिलता, उसी प्रकार किये हुए पापका भी फल तुरंत नहीं मिलता है; परंतु जब वह फल प्राप्त होता है, तब मूल और शाखा दोनोंको जलाकर भस्म कर देता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पापेन कर्मणा वित्तं लब्ध्वा पापः प्रहृष्यति ॥ १८ ॥
स वर्धमानः स्तेयेन पापः पापे प्रसज्जति।
न धर्मोऽस्तीति मन्वानः शुचीनवहसन्निव ॥ १९ ॥
अश्रद्दधानश्च भवेद् विनाशमुपगच्छति ।
सम्बद्धो वारुणैः पाशैरमर्त्य इव मन्यते ॥ २० ॥
मूलम्
पापेन कर्मणा वित्तं लब्ध्वा पापः प्रहृष्यति ॥ १८ ॥
स वर्धमानः स्तेयेन पापः पापे प्रसज्जति।
न धर्मोऽस्तीति मन्वानः शुचीनवहसन्निव ॥ १९ ॥
अश्रद्दधानश्च भवेद् विनाशमुपगच्छति ।
सम्बद्धो वारुणैः पाशैरमर्त्य इव मन्यते ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पापी मनुष्य पापकर्मके द्वारा धन पाकर हर्षसे खिल उठता है। वह पापी चोरीसे ही बढ़ता हुआ पापमें आसक्त हो जाता है और यह समझकर कि धर्म है ही नहीं, पवित्रात्मा पुरुषोंकी हँसी उड़ाता है। धर्ममें उसकी तनिक भी श्रद्धा नहीं रह जाती और पापके ही द्वारा वह विनाशके मुखमें जा पड़ता है। वह अपनेको देवताओं-सा अजर-अमर मानता है; परंतु उसे वरुणके पाशोंमें बँधना पड़ता है॥१८—२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महादृतिरिवाध्मातः सुकृते नैव वर्तते।
ततः समूलो ह्रियते नदीं कूलादिव द्रुमः ॥ २१ ॥
मूलम्
महादृतिरिवाध्मातः सुकृते नैव वर्तते।
ततः समूलो ह्रियते नदीं कूलादिव द्रुमः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे चमड़ेकी थैली हवा भरनेसे फूल जाती है, वैसे ही पापी भी पापसे फूल उठता है। वह पुण्यकर्ममें कभी प्रवृत्त ही नहीं होता है, तदनन्तर जैसे नदीके तटपर खड़ा हुआ वृक्ष वहाँसे जड़सहित उखड़कर नदीमें बह जाता है, उसी प्रकार वह पापी भी समूल नष्ट हो जाता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैनमभिनिन्दन्ति भिन्नं कुम्भमिवाश्मनि ।
तस्माद् धर्मेण विजयं कोशं लिप्सेत भूमिपः ॥ २२ ॥
मूलम्
अथैनमभिनिन्दन्ति भिन्नं कुम्भमिवाश्मनि ।
तस्माद् धर्मेण विजयं कोशं लिप्सेत भूमिपः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पत्थरपर पटके हुए घड़ेके समान उसके टूक-टूक हो जाते हैं और सभी लोग उसकी निन्दा करते हैं; अतः राजाको चाहिये कि वह धर्मपूर्वक ही धन और विजय प्राप्त करनेकी इच्छा करे॥२२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि विजिगीषमाणवृत्ते पञ्चनवतितमोऽध्यायः ॥ ९५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें विजयाभिलाषी राजाका बर्तावविषयक पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९५॥