०९४ वामदेवगीतासु

भागसूचना

चतुर्नवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

वामदेवके उपदेशमें राजा और राज्यके लिये हितकर बर्ताव

मूलम् (वचनम्)

वामदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयुद्धेनैव विजयं वर्धयेद् वसुधाधिपः।
जघन्यमाहुर्विजयं युद्धेन च नराधिप ॥ १ ॥

मूलम्

अयुद्धेनैव विजयं वर्धयेद् वसुधाधिपः।
जघन्यमाहुर्विजयं युद्धेन च नराधिप ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वामदेवजी कहते हैं— नरेश्वर! राजा युद्धके सिवा किसी और ही उपायसे पहले अपनी विजय-वृद्धिकी चेष्टा करे; युद्धसे जो विजय प्राप्त होती है, उसे निम्न श्रेणीकी बताया गया है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चाप्यलब्धं लिप्सेत मूले नातिदृढे सति।
न हि दुर्बलमूलस्य राज्ञो लाभो विधीयते ॥ २ ॥

मूलम्

न चाप्यलब्धं लिप्सेत मूले नातिदृढे सति।
न हि दुर्बलमूलस्य राज्ञो लाभो विधीयते ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि राज्यकी जड़ मजबूत न हो तो राजाको अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति—अनधिकृत देशोंपर अधिकारकी इच्छा नहीं करनी चाहिये; क्योंकि जिसके मूलमें ही दुर्बलता है, उस राजाको वैसा लाभ होना सम्भव नहीं है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य स्फीतो जनपदः सम्पन्नः प्रियराजकः।
संतुष्टपुष्टसचिवो दृढमूलः स पार्थिवः ॥ ३ ॥

मूलम्

यस्य स्फीतो जनपदः सम्पन्नः प्रियराजकः।
संतुष्टपुष्टसचिवो दृढमूलः स पार्थिवः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस राजाका देश समृद्धिशाली, धनधान्यसे सम्पन्न, राजाको प्रिय माननेवाले मनुष्योंसे परिपूर्ण और हृष्ट-पुष्ट मन्त्रियोंसे सुशोभित है, उसीकी जड़ मजबूत समझनी चाहिये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य योधाः सुसंतुष्टाः सान्त्विताः सूपधास्थिताः।
अल्पेनापि स दण्डेन महीं जयति पार्थिवः ॥ ४ ॥

मूलम्

यस्य योधाः सुसंतुष्टाः सान्त्विताः सूपधास्थिताः।
अल्पेनापि स दण्डेन महीं जयति पार्थिवः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके सैनिक संतुष्ट, राजाके द्वारा सान्त्वना-प्राप्त और शत्रुओंको धोखा देनेमें चतुर हों, वह भूपाल थोड़ी-सी सेनाके द्वारा भी पृथ्वीपर विजय पा लेता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(दण्डो हि बलवान् यत्र तत्र साम प्रयुज्यते।
प्रदानं सामपूर्वं च भेदमूलं प्रशस्यते॥

मूलम्

(दण्डो हि बलवान् यत्र तत्र साम प्रयुज्यते।
प्रदानं सामपूर्वं च भेदमूलं प्रशस्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस स्थानपर शत्रुपक्षकी सेना अधिक प्रबल हो, वहाँ पहले सामनीतिका ही प्रयोग करना उचित है। यदि उससे काम न चले तो धन या उपहार देनेकी नीतिको अपनाना चाहिये। इस दाननीतिके मूलमें भी यदि भेदनीतिका समावेश हो अर्थात् शत्रुओंमें फूट डालनेकी चेष्टा की जा रही हो तो उसे उत्तम माना गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रयाणां विफलं कर्म यदा पश्येत भूमिपः।
रन्ध्रं ज्ञात्वा ततो दण्डं प्रयुञ्जीताविचारयन्॥)

मूलम्

त्रयाणां विफलं कर्म यदा पश्येत भूमिपः।
रन्ध्रं ज्ञात्वा ततो दण्डं प्रयुञ्जीताविचारयन्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

जब राजा साम, दान और भेद—तीनोंका प्रयोग निष्फल देखे, तब शत्रुकी दुर्बलताका पता लगाकर दूसरा कोई विचार मनमें न लाते हुए दण्डनीतिका ही प्रयोग करे—शत्रुके साथ युद्ध छेड़ दे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पौरजानपदा यस्य भूतेषु च दयालवः।
सधना धान्यवन्तश्च दृढमूलः स पार्थिवः ॥ ५ ॥

मूलम्

पौरजानपदा यस्य भूतेषु च दयालवः।
सधना धान्यवन्तश्च दृढमूलः स पार्थिवः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके नगर और जनपदमें रहनेवाले लोग समस्त प्राणियोंपर दया करनेवाले और धन-धान्यसे सम्पन्न होते हैं, उस राजाकी जड़ मजबूत समझी जाती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(राष्ट्रकर्मकरा ह्येते राष्ट्रस्य च विरोधिनः।
दुर्विनीता विनीताश्च सर्वे साध्याः प्रयत्नतः॥

मूलम्

(राष्ट्रकर्मकरा ह्येते राष्ट्रस्य च विरोधिनः।
दुर्विनीता विनीताश्च सर्वे साध्याः प्रयत्नतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये नगर और जनपदके लोग राष्ट्रके कार्यकी सिद्धि करनेवाले और उसके विरोधी भी होते हैं। उद्दण्ड और विनयशील भी होते हैं। उन सबको प्रयत्नपूर्वक अपने वशमें करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चाण्डालम्लेच्छजात्याश्च पाषण्डाश्च विकर्मिणः ।
बलिनश्चाश्रमाश्चैव तथा गायकनर्तकाः ॥
यस्य राष्ट्रे वसन्त्येते धान्योपचयकारिणः।
आयवृद्धौ सहायाश्च दृढमूलः स पार्थिवः॥)

मूलम्

चाण्डालम्लेच्छजात्याश्च पाषण्डाश्च विकर्मिणः ।
बलिनश्चाश्रमाश्चैव तथा गायकनर्तकाः ॥
यस्य राष्ट्रे वसन्त्येते धान्योपचयकारिणः।
आयवृद्धौ सहायाश्च दृढमूलः स पार्थिवः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

चाण्डाल, म्लेच्छ, पाखण्डी, शास्त्र-विरुद्ध कर्म करनेवाले, बलवान्, सभी आश्रमोंके निवासी तथा गायक और नर्तक—इन सबको प्रयत्नपूर्वक वशमें करना चाहिये। जिसके राज्यमें ये सब लोग धन-धान्यकी वृद्धि करनेवाले और आय बढ़ानेमें सहायक होकर रहते हैं, उस राजाकी जड़ मजबूत समझी जाती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतापकालमधिकं यदा मन्येत चात्मनः।
तदा लिप्सेत मेधावी परभूमिधनान्युत ॥ ६ ॥

मूलम्

प्रतापकालमधिकं यदा मन्येत चात्मनः।
तदा लिप्सेत मेधावी परभूमिधनान्युत ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् राजा जब अपने प्रतापको प्रकाशित करनेका उपयुक्त अवसर समझे, तभी दूसरेका राज्य और धन लेनेकी चेष्टा करे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोगेषूदयमानस्य भूतेषु च दयावतः।
वर्धते त्वरमाणस्य विषयो रक्षितात्मनः ॥ ७ ॥

मूलम्

भोगेषूदयमानस्य भूतेषु च दयावतः।
वर्धते त्वरमाणस्य विषयो रक्षितात्मनः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके वैभव-भोग दिनोंदिन बढ़ रहे हों, जो सब प्राणियोंपर दया रखता हो, काम करनेमें फुर्तीला हो और अपने शरीरकी रक्षाका ध्यान रखता हो, उस राजाकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तक्षेदात्मानमेवं स वनं परशुना यथा।
यः सम्यग् वर्तमानेषु स्वेषु मिथ्या प्रवर्तते ॥ ८ ॥

मूलम्

तक्षेदात्मानमेवं स वनं परशुना यथा।
यः सम्यग् वर्तमानेषु स्वेषु मिथ्या प्रवर्तते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अच्छा बर्ताव करनेवाले स्वजनोंके प्रति मिथ्या व्यवहार करता है, वह इस बर्तावद्वारा कुल्हाड़ीसे जंगलकी भाँति अपने आपका ही उच्छेद कर डालता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैव द्विषन्तो हीयन्ते राज्ञो नित्यमनिघ्नतः।
क्रोधं निहन्तुं यो वेद तस्य द्वेष्टा न विद्यते॥९॥

मूलम्

नैव द्विषन्तो हीयन्ते राज्ञो नित्यमनिघ्नतः।
क्रोधं निहन्तुं यो वेद तस्य द्वेष्टा न विद्यते॥९॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि राजा कभी किसी द्वेष करनेवालेको दण्ड न दे तो उससे द्वेष करनेवालोंकी कमी नहीं होती है; परंतु जो क्रोधको मारनेकी कला जानता है, उसका कोई द्वेषी नहीं रहता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदार्यजनविद्विष्टं कर्म तन्नाचरेद् बुधः।
यत्‌ कल्याणमभिध्यायेत्‌ तत्रात्मानं नियोजयेत् ॥ १० ॥

मूलम्

यदार्यजनविद्विष्टं कर्म तन्नाचरेद् बुधः।
यत्‌ कल्याणमभिध्यायेत्‌ तत्रात्मानं नियोजयेत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसे श्रेष्ठ पुरुष बुरा समझते हों, बुद्धिमान् राजा वैसा कर्म कभी न करे। जिस कार्यको सबके लिये कल्याणकारी समझे, उसीमें अपने आपको लगावे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैनमन्येऽवजानन्ति नात्मना परितप्यते ।
कृत्यशेषेण यो राजा सुखान्यनुबुभूषति ॥ ११ ॥

मूलम्

नैनमन्येऽवजानन्ति नात्मना परितप्यते ।
कृत्यशेषेण यो राजा सुखान्यनुबुभूषति ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा अपना कर्तव्य पूर्ण करके ही सुखका अनुभव करना चाहता है, उसका न तो दूसरे लोग अनादर करते हैं और न वह स्वयं ही संतप्त होता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं वृत्तं मनुष्येषु वर्तते यो महीपतिः।
उभौ लोकौ विनिर्जित्य विजये सम्प्रतिष्ठते ॥ १२ ॥

मूलम्

इदं वृत्तं मनुष्येषु वर्तते यो महीपतिः।
उभौ लोकौ विनिर्जित्य विजये सम्प्रतिष्ठते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा प्रजाके प्रति ऐसा बर्ताव करता है, वह इहलोक और परलोक दोनोंको जीतकर विजयमें प्रतिष्ठित होता है॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तो वामदेवेन सर्वं तत् कृतवान् नृपः।
तथा कुर्वंस्त्वमप्येतौ लोकौ जेता न संशयः ॥ १३ ॥

मूलम्

इत्युक्तो वामदेवेन सर्वं तत् कृतवान् नृपः।
तथा कुर्वंस्त्वमप्येतौ लोकौ जेता न संशयः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! वामदेवजीके इस प्रकार उपदेश देनेपर राजा वसुमना सब कार्य उसी प्रकार करने लगे। यदि तुम भी ऐसा ही आचरण करोगे तो निःसंदेह लोक और परलोक दोनों सुधार लोगे॥१३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि वामदेवगीतासु चतुर्नवतितमोऽध्यायः ॥ ९४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें वामदेवगीताविषयक चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९४॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५ श्लोक मिलाकर कुल १८ श्लोक हैं)