०९३ वामदेवगीतासु

भागसूचना

त्रिनवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

वामदेवजीके द्वारा राजोचित बर्तावका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

वामदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्राधर्मं प्रणयते दुबले बलवत्तरः।
तां वृत्तिमुपजीवन्ति ये भवन्ति तदन्वयाः ॥ १ ॥

मूलम्

यत्राधर्मं प्रणयते दुबले बलवत्तरः।
तां वृत्तिमुपजीवन्ति ये भवन्ति तदन्वयाः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वामदेवजी कहते हैं— राजन्! जिस राज्यमें अत्यन्त बलवान् राजा दुर्बल प्रजापर अधर्म या अत्याचार करने लगता है, वहाँ उसके अनुचर भी उसी बर्तावको अपनी जीविकाका साधन बना लेते हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजानमनुवर्तन्ते तं पापाभिप्रवर्तकम् ।
अविनीतमनुष्यं तत् क्षिप्रं राष्ट्रं विनश्यति ॥ २ ॥

मूलम्

राजानमनुवर्तन्ते तं पापाभिप्रवर्तकम् ।
अविनीतमनुष्यं तत् क्षिप्रं राष्ट्रं विनश्यति ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे उस पापप्रवर्तक राजाका ही अनुसरण करते हैं; अतः उद्दण्ड मनुष्योंसे भरा हुआ वह राष्ट्र शीघ्र ही नष्ट हो जाता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् वृत्तमुपजीवन्ति प्रकृतिस्थस्य मानवाः।
तदेव विषमस्थस्य स्वजनोऽपि न मृष्यते ॥ ३ ॥

मूलम्

यद् वृत्तमुपजीवन्ति प्रकृतिस्थस्य मानवाः।
तदेव विषमस्थस्य स्वजनोऽपि न मृष्यते ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अच्छी अवस्थामें रहनेपर मनुष्यके जिस बर्तावका दूसरे लोग भी आश्रय लेते हैं, संकटमें पड़ जानेपर उसी मनुष्यके उसी बर्तावको उसके स्वजन भी नहीं सहन करते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहसप्रकृतिर्यत्र किंचिदुल्बणमाचरेत् ।
अशास्त्रलक्षणो राजा क्षिप्रमेव विनश्यति ॥ ४ ॥

मूलम्

साहसप्रकृतिर्यत्र किंचिदुल्बणमाचरेत् ।
अशास्त्रलक्षणो राजा क्षिप्रमेव विनश्यति ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुःसाहसी प्रकृतिवाला जो राजा जहाँ कुछ उद्दण्डतापूर्ण बर्ताव करता है, वहाँ शास्त्रोक्त मर्यादाका उल्लंघन करनेवाला वह राजा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽत्यन्ताचरितां वृत्तिं क्षत्रियो नानुवर्तते।
जितानामजितानां च क्षत्रधर्मादपैति सः ॥ ५ ॥

मूलम्

योऽत्यन्ताचरितां वृत्तिं क्षत्रियो नानुवर्तते।
जितानामजितानां च क्षत्रधर्मादपैति सः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो क्षत्रिय राज्यमें रहनेवाले विजित या अविजित मनुष्योंकी अत्यन्त आचरणमें लायी हुई वृत्तिका अनुवर्तन नहीं करता (अर्थात् उन लोगोंको अपने परम्परागत आचार-विचारका पालन नहीं करने देता) वह क्षत्रिय-धर्मसे गिर जाता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विषन्तं कृतकल्याणं गृहीत्वा नृपतिं रणे।
यो न मानयते द्वेषात् क्षत्रधर्मादपैति सः ॥ ६ ॥

मूलम्

द्विषन्तं कृतकल्याणं गृहीत्वा नृपतिं रणे।
यो न मानयते द्वेषात् क्षत्रधर्मादपैति सः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कोई राजा पहलेका उपकारी हो और किसी कारणवश वर्तमानकालमें द्वेष करने लगा हो तो उस समय जो भूपाल उसे युद्धमें बंदी बनाकर द्वेषवश उसका सम्मान नहीं करता, वह भी क्षत्रियधर्मसे गिर जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्तः स्यात् सुसुखो राजा कुर्यात् करणमापदि।
प्रियो भवति भूतानां न च विभ्रश्यते श्रियः ॥ ७ ॥

मूलम्

शक्तः स्यात् सुसुखो राजा कुर्यात् करणमापदि।
प्रियो भवति भूतानां न च विभ्रश्यते श्रियः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा यदि समर्थ हो तो उत्तम सुखका अनुभव करे और करावे तथा आपत्तिमें पड़ जाय तो उसके निवारणका प्रयत्न करे। ऐसा करनेसे वह सब प्राणियोंका प्रिय होता है और कभी राजलक्ष्मीसे भ्रष्ट नहीं होता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्रियं यस्य कुर्वीत भूयस्तस्य प्रियं चरेत्।
नचिरेण प्रियः स स्याद् योऽप्रियः प्रियमाचरेत् ॥ ८ ॥

मूलम्

अप्रियं यस्य कुर्वीत भूयस्तस्य प्रियं चरेत्।
नचिरेण प्रियः स स्याद् योऽप्रियः प्रियमाचरेत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको चाहिये कि यदि किसीका अप्रिय किया हो तो फिर उसका प्रिय भी करे। इस प्रकार यदि अप्रिय पुरुष भी प्रिय करने लगता है तो थोड़े ही समयमें वह प्रिय हो जाता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृषावादं परिहरेत् कुर्यात् प्रियमयाचितः।
न कामान्न च संरम्भान्न द्वेषाद् धर्ममुत्सृजेत् ॥ ९ ॥

मूलम्

मृषावादं परिहरेत् कुर्यात् प्रियमयाचितः।
न कामान्न च संरम्भान्न द्वेषाद् धर्ममुत्सृजेत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मिथ्या भाषण करना छोड़ दे, बिना याचना या प्रार्थना किये ही दूसरोंका प्रिय करे। किसी कामनासे, क्रोधसे तथा द्वेषसे भी धर्मका त्याग न करे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(अमाययैव वर्तेत न च सत्यं त्यजेद् बुधः।
दमं धर्मं च शीलं च क्षत्रधर्मं प्रजाहितम्॥)
नापत्रपेत प्रश्नेषु नाविभाव्यां गिरं सृजेत्।
न त्वरेत न चासूयेत् तथा संगृह्यते परः ॥ १० ॥

मूलम्

(अमाययैव वर्तेत न च सत्यं त्यजेद् बुधः।
दमं धर्मं च शीलं च क्षत्रधर्मं प्रजाहितम्॥)
नापत्रपेत प्रश्नेषु नाविभाव्यां गिरं सृजेत्।
न त्वरेत न चासूयेत् तथा संगृह्यते परः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान् राजा छल-कपट छोड़कर ही बर्ताव करे। सत्यको कभी न छोड़े। इन्द्रिय-संयम, धर्माचरण, सुशीलता, क्षत्रियधर्म तथा प्रजाके हितका कभी परित्याग न करे। यदि कोई कुछ पूछे तो उसका उत्तर देनेमें संकोच न करे, बिना विचारे कोई बात मुँहसे न निकाले, किसी काममें जल्दबाजी न करे और किसीकी निन्दा न करे, ऐसा बर्ताव करनेसे शत्रु भी अपने वशमें हो जाता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रिये नातिभृशं हृष्येदप्रिये न च संज्वरेत्।
न तप्येदर्थकृच्छ्रेषु प्रजाहितमनुस्मरन् ॥ ११ ॥

मूलम्

प्रिये नातिभृशं हृष्येदप्रिये न च संज्वरेत्।
न तप्येदर्थकृच्छ्रेषु प्रजाहितमनुस्मरन् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि अपना प्रिय हो जाय तो बहुत प्रसन्न न हो और अप्रिय हो जाय तो अत्यन्त चिन्ता न करे। यदि आर्थिक संकट आ पड़े तो प्रजाके हितका चिन्तन करते हुए तनिक भी संतप्त न हो॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः प्रियं कुरुते नित्यं गुणतो वसुधाधिपः।
तस्य कर्माणि सिद्ध्यन्ति न च संत्यज्यते श्रिया ॥ १२ ॥

मूलम्

यः प्रियं कुरुते नित्यं गुणतो वसुधाधिपः।
तस्य कर्माणि सिद्ध्यन्ति न च संत्यज्यते श्रिया ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो भूपाल अपने गुणोंसे सदा सबका प्रिय करता है, उसके सभी कर्म सफल होते हैं और सम्पत्ति कभी उसका साथ नहीं छोड़ती॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवृत्तं प्रतिकूलेषु वर्तमानमनुप्रिये ।
भक्तं भजेत नृपतिः सदैव सुसमाहितः ॥ १३ ॥

मूलम्

निवृत्तं प्रतिकूलेषु वर्तमानमनुप्रिये ।
भक्तं भजेत नृपतिः सदैव सुसमाहितः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा सदा सावधान रहकर अपने उस सेवकको हर तहरसे अपनावे, जो प्रतिकूल कार्योंसे अलग रहता हो और राजाका निरन्तर प्रिय करनेमें ही संलग्न हो॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्रकीर्णेन्द्रियग्राममत्यन्तानुगतं शुचिम् ।
शक्तं चैवानुरक्तं च युञ्ज्यान्महति कर्मणि ॥ १४ ॥

मूलम्

अप्रकीर्णेन्द्रियग्राममत्यन्तानुगतं शुचिम् ।
शक्तं चैवानुरक्तं च युञ्ज्यान्महति कर्मणि ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो बड़े-बड़े काम हों, उनपर जितेन्द्रिय, अत्यन्त अनुगत, पवित्र आचार-विचारवाले, शक्तिशाली और अनुरक्त पुरुषको नियुक्त करे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतैर्गुणैर्युक्तो योऽनुरज्यति भूमिपम् ।
भर्तुरर्थेष्वप्रमत्तं नियुज्यादर्थकर्मणि ॥ १५ ॥

मूलम्

एवमेतैर्गुणैर्युक्तो योऽनुरज्यति भूमिपम् ।
भर्तुरर्थेष्वप्रमत्तं नियुज्यादर्थकर्मणि ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार जिसमें वे सब गुण मौजूद हों, जो राजाको प्रसन्न भी रख सकता हो तथा स्वामीका कार्य सिद्ध करनेके लिये सतत सावधान रहता हो, उसको धनकी व्यवस्थाके कार्यमें लगावे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूढमैन्द्रियकं लुब्धमनार्यचरितं शठम् ।
अनतीतोपधं हिंस्रं दुर्बुद्धिमबहुश्रुतम् ॥ १६ ॥
त्यक्तोदात्तं मद्यरतं द्यूतस्त्रीमृगयापरम् ।
कार्ये महति युञ्जानो हीयते नृपतिः श्रिया ॥ १७ ॥

मूलम्

मूढमैन्द्रियकं लुब्धमनार्यचरितं शठम् ।
अनतीतोपधं हिंस्रं दुर्बुद्धिमबहुश्रुतम् ॥ १६ ॥
त्यक्तोदात्तं मद्यरतं द्यूतस्त्रीमृगयापरम् ।
कार्ये महति युञ्जानो हीयते नृपतिः श्रिया ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मूर्ख, इन्द्रियलोलुप, लोभी, दुराचारी, शठ, कपटी, हिंसक, दुर्बद्धि, अनेक शास्त्रोंके ज्ञानसे शून्य, उच्चभावनासे रहित, शराबी, जुआरी, स्त्रीलम्पट और मृगयासक्त पुरुषको जो राजा महत्त्वपूर्ण कार्योंपर नियुक्त करता है, वह लक्ष्मीसे हीन हो जाता है॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्षितात्मा च यो राजा रक्ष्यान् यश्चानुरक्षति।
प्रजाश्च तस्य वर्धन्ते ध्रुवं च महदश्नुते ॥ १८ ॥

मूलम्

रक्षितात्मा च यो राजा रक्ष्यान् यश्चानुरक्षति।
प्रजाश्च तस्य वर्धन्ते ध्रुवं च महदश्नुते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो नरेश अपने शरीरकी रक्षा करके रक्षणीय पुरुषोंकी भी सदा रक्षा करता है, उसकी प्रजा अभ्युदयशील होती है और वह राजा भी निश्चय ही महान् फलका भागी होता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये केचित् भूमिपतयः सर्वांस्तानन्ववेक्षयेत्।
सुहृद्भिरनभिख्यातैस्तेन राजातिरिच्यते ॥ १९ ॥

मूलम्

ये केचित् भूमिपतयः सर्वांस्तानन्ववेक्षयेत्।
सुहृद्भिरनभिख्यातैस्तेन राजातिरिच्यते ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा अपने अप्रसिद्ध सुहृदोंके द्वारा गुप्तरूपसे समस्त भूपतियोंकी अवस्थाका निरीक्षण कराता है, वह अपने इस बर्तावके द्वारा सर्वश्रेष्ठ हो जाता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपकृत्य बलस्थस्य दूरस्थोऽस्मीति नाश्वसेत्।
श्येनाभिपतनैरेते निपतन्ति प्रमाद्यतः ॥ २० ॥

मूलम्

अपकृत्य बलस्थस्य दूरस्थोऽस्मीति नाश्वसेत्।
श्येनाभिपतनैरेते निपतन्ति प्रमाद्यतः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी बलवान् शत्रुका अपकार करके हम दूर जाकर रहेंगे, ऐसा समझकर निश्चिन्त नहीं होना चाहिये; क्योंकि जैसे बाज पक्षी झपट्टा मारता है, उसी प्रकार ये दूरस्थ शत्रु भी असावधानीकी अवस्थामें टूट पड़ते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृढमूलस्त्वदुष्टात्मा विदित्वा बलमात्मनः ।
अबलानभियुञ्जीत न तु ये बलवत्तराः ॥ २१ ॥

मूलम्

दृढमूलस्त्वदुष्टात्मा विदित्वा बलमात्मनः ।
अबलानभियुञ्जीत न तु ये बलवत्तराः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा अपनेको दृढ़मूल (अपनी राजधानीको सुरक्षित) करके विरोधी लोगोंको दूर रखकर अपनी शक्तिको समझ ले; फिर अपनेसे दुर्बल शत्रुपर ही आक्रमण करे। जो अपनेसे प्रबल हों, उनपर आक्रमण न करे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विक्रमेण महीं लब्ध्वा प्रजा धर्मेण पालयेत्।
आहवे निधनं कुर्याद् राजा धर्मपरायणः ॥ २२ ॥

मूलम्

विक्रमेण महीं लब्ध्वा प्रजा धर्मेण पालयेत्।
आहवे निधनं कुर्याद् राजा धर्मपरायणः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पराक्रमसे इस पृथ्वीको प्राप्त करके धर्मपरायण राजा अपनी प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करे तथा युद्धमें शत्रुओंका संहार कर डाले॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मरणान्तमिदं सर्वं नेह किञ्चिदनामयम्।
तस्माद् धर्मे स्थितो राजा प्रजा धर्मेण पालयेत् ॥ २३ ॥

मूलम्

मरणान्तमिदं सर्वं नेह किञ्चिदनामयम्।
तस्माद् धर्मे स्थितो राजा प्रजा धर्मेण पालयेत् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस जगत्‌के सभी पदार्थ अन्तमें नष्ट होनेवाले हैं; यहाँ कोई भी वस्तु नीरोग या अविनाशी नहीं है। इसलिये राजाको धर्मपर स्थित रहकर प्रजाका धर्मके अनुसार ही पालन करना चाहिये॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्षाधिकरणं युद्धं तथा धर्मानुशासनम्।
मन्त्रचिन्ता सुखं काले पञ्चभिर्वर्धते मही ॥ २४ ॥

मूलम्

रक्षाधिकरणं युद्धं तथा धर्मानुशासनम्।
मन्त्रचिन्ता सुखं काले पञ्चभिर्वर्धते मही ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रक्षाके स्थान दुर्ग आदि, युद्ध, धर्मके अनुसार राज्यका शासन, मन्त्र-चिन्तन तथा यथासमय सबको सुख प्रदान करना—इन पाँचोंके द्वारा राज्यकी वृद्धि होती है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतानि यस्य गुप्तानि स राजा राजसत्तमः।
सततं वर्तमानोऽत्र राजा धत्ते महीमिमाम् ॥ २५ ॥

मूलम्

एतानि यस्य गुप्तानि स राजा राजसत्तमः।
सततं वर्तमानोऽत्र राजा धत्ते महीमिमाम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसकी ये सब बातें गुप्त या सुरक्षित रहती हैं, वह राजा समस्त राजाओंमें श्रेष्ठ माना जाता है। इनके पालनमें सदा संलग्न रहनेवाला नरेश ही इस पृथ्वीकी रक्षा कर सकता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतान्येकेन शक्यानि सातत्येनानुवीक्षितुम् ।
तेषु सर्वं प्रतिष्ठाप्य राजा भुङ्क्ते चिरं महीम् ॥ २६ ॥

मूलम्

नैतान्येकेन शक्यानि सातत्येनानुवीक्षितुम् ।
तेषु सर्वं प्रतिष्ठाप्य राजा भुङ्क्ते चिरं महीम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक ही पुरुष इन सभी बातोंपर सदा ध्यान नहीं रख सकता, इसलिये इन सबका भार सुयोग्य अधिकारियोंको सौंपकर राजा चिरकालतक इस भूतलका राज्य भोग सकता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दातारं संविभक्तारं मार्दवोपगतं शुचिम्।
असंत्यक्तमनुष्यं च तं जनाः कुर्वते नृपम् ॥ २७ ॥

मूलम्

दातारं संविभक्तारं मार्दवोपगतं शुचिम्।
असंत्यक्तमनुष्यं च तं जनाः कुर्वते नृपम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष दानशील, सबके लिये सम्यक् विभागपूर्वक आवश्यक वस्तुओंका वितरण करनेवाला, मृदुलस्वभाव, शुद्ध आचार-विचारवाला तथा मनुष्योंका त्याग न करनेवाला होता है, उसीको लोग राजा बनाते हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु निःश्रेयसं श्रुत्वा ज्ञानं तत् प्रतिपद्यते।
आत्मनो मतमुत्सृज्य तं लोकोऽनुविधीयते ॥ २८ ॥

मूलम्

यस्तु निःश्रेयसं श्रुत्वा ज्ञानं तत् प्रतिपद्यते।
आत्मनो मतमुत्सृज्य तं लोकोऽनुविधीयते ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कल्याणकारी उपदेश सुनकर अपने मतका आग्रह छोड़ उस ज्ञानको ग्रहण कर लेता है, उसके पीछे यह सारा जगत् चलता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽर्थकामस्य वचनं प्रातिकूल्यान्न मृष्यते।
शृणोति प्रतिकूलानि सर्वदा विमना इव ॥ २९ ॥
अग्राम्यचरितां वृत्तिं यो न सेवेत नित्यदा।
जितानामजितानां च क्षत्रधर्मादपैति सः ॥ ३० ॥

मूलम्

योऽर्थकामस्य वचनं प्रातिकूल्यान्न मृष्यते।
शृणोति प्रतिकूलानि सर्वदा विमना इव ॥ २९ ॥
अग्राम्यचरितां वृत्तिं यो न सेवेत नित्यदा।
जितानामजितानां च क्षत्रधर्मादपैति सः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनके प्रतिकूल होनेके कारण अपने ही प्रयोजनकी सिद्धि चाहनेवाले सुहृद्‌की बात नहीं सहन करता और अपनी अर्थसिद्धिके विरोधी वचनोंको भी सुनता है, सदा अनमना-सा रहता है, जो बुद्धिमान् शिष्ट पुरुषोंद्वारा आचरणमें लाये हुए बर्तावका सदा सेवन नहीं करता एवं पराजित या अपराजित व्यक्तियोंको उनके परम्परागत आचारका पालन नहीं करने देता, वह क्षत्रिय-धर्मसे गिर जाता है॥२९-३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निगृहीतादमात्याच्च स्त्रीभ्यश्चैव विशेषतः ।
पर्वताद्‌ विषमाद् दुर्गाद्धस्तिनोऽश्वात्‌ सरीसृपात्।
एतेभ्यो नित्ययुक्तः सन् रक्षेदात्मानमेव तु ॥ ३१ ॥

मूलम्

निगृहीतादमात्याच्च स्त्रीभ्यश्चैव विशेषतः ।
पर्वताद्‌ विषमाद् दुर्गाद्धस्तिनोऽश्वात्‌ सरीसृपात्।
एतेभ्यो नित्ययुक्तः सन् रक्षेदात्मानमेव तु ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसको कभी कैद किया गया हो ऐसे मन्त्रीसे, विशेषतः स्त्रियोंसे, विषम पर्वतसे, दुर्गम स्थानसे तथा हाथी, घोड़े और सर्पसे सदा सावधान रहकर राजा अपनी रक्षा करे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुख्यानमात्यान्‌ यो हित्वा निहीनान् कुरुते प्रियान्।
स वै व्यसनमासाद्य गाधमार्तो न विन्दति ॥ ३२ ॥

मूलम्

मुख्यानमात्यान्‌ यो हित्वा निहीनान् कुरुते प्रियान्।
स वै व्यसनमासाद्य गाधमार्तो न विन्दति ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो प्रधान मन्त्रियोंका त्याग करके निम्नश्रेणीके मनुष्योंको अपना प्रिय बनाता है, वह संकटके घोर समुद्रमें पड़कर पीड़ित हो कहीं आश्रय नहीं पाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः कल्याणगुणान् ज्ञातीन् प्रद्वेषान्नो बुभूषति।
अदृढात्मा दृढक्रोधः स मृत्योर्वसतेऽन्तिके ॥ ३३ ॥

मूलम्

यः कल्याणगुणान् ज्ञातीन् प्रद्वेषान्नो बुभूषति।
अदृढात्मा दृढक्रोधः स मृत्योर्वसतेऽन्तिके ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो द्वेषवश कल्याणकारी गुणोंवाले अपने सजातीय बन्धुओं एवं कुटुम्बीजनोंका सम्मान नहीं करता, जिसका चित्त चंचल है तथा जो क्रोधको दृढ़ता-पूर्वक पकड़े रहनेवाला है, वह सदा मृत्युके समीप निवास करता है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ यो गुणसम्पन्नान् हृदयस्याप्रियानपि।
प्रियेण कुरुते वश्यांश्चिरं यशसि तिष्ठति ॥ ३४ ॥

मूलम्

अथ यो गुणसम्पन्नान् हृदयस्याप्रियानपि।
प्रियेण कुरुते वश्यांश्चिरं यशसि तिष्ठति ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा हृदयको प्रिय लगनेवाले न होनेपर भी गुणवान् पुरुषोंको प्रीतिजनक बर्तावद्वारा अपने वशमें कर लेता है, वह दीर्घकालतक यशस्वी बना रहता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाकाले प्रणयेदर्थान्नाप्रिये जातु संज्वरेत्।
प्रिये नातिभृशं तुष्येद् युज्येतारोग्यकर्मणि ॥ ३५ ॥

मूलम्

नाकाले प्रणयेदर्थान्नाप्रिये जातु संज्वरेत्।
प्रिये नातिभृशं तुष्येद् युज्येतारोग्यकर्मणि ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको चाहिये कि वह असमयमें कर लगाकर धन-संग्रहकी चेष्टा न करे। कोई अप्रिय कार्य हो जानेपर कभी चिन्ताकी आगमें न जले और प्रिय कार्य बन जानेपर अत्यन्त हर्षसे फूल न उठे और अपने शरीरको नीरोग बनाये रखनेके कार्यमें तत्पर रहे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

के वानुरक्ताः राजानः के भयात् समुपाश्रिताः।
मध्यस्थदोषाः के चैषामिति नित्यं विचिन्तयेत् ॥ ३६ ॥

मूलम्

के वानुरक्ताः राजानः के भयात् समुपाश्रिताः।
मध्यस्थदोषाः के चैषामिति नित्यं विचिन्तयेत् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस बातका ध्यान रखे कि कौन राजा मुझसे प्रेम रखते हैं? कौन भयके कारण मेरा आश्रय लिये हुए हैं? इनमेंसे कौन मध्यस्थ हैं और कौन-कौन नरेश मेरे शत्रु बने हुए हैं?॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न जातु बलवान् भूत्वा दुर्बले विश्वसेत् क्वचित्।
भारुण्डसदृशा ह्येते निपतन्ति प्रमाद्यतः ॥ ३७ ॥

मूलम्

न जातु बलवान् भूत्वा दुर्बले विश्वसेत् क्वचित्।
भारुण्डसदृशा ह्येते निपतन्ति प्रमाद्यतः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा स्वयं बलवान् होकर भी कभी अपने दुर्बल शत्रुका विश्वास न करे; क्योंकि ये असावधानीकी दशामें बाज पक्षीकी तरह झपट्टा मारते हैं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि सर्वगुणैर्युक्तं भर्तारं प्रियवादिनम्।
अभिद्रुह्यति पापात्मा न तस्माद् विश्वसेज्जनात् ॥ ३८ ॥

मूलम्

अपि सर्वगुणैर्युक्तं भर्तारं प्रियवादिनम्।
अभिद्रुह्यति पापात्मा न तस्माद् विश्वसेज्जनात् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पापात्मा मनुष्य अपने सर्वगुणसम्पन्न और सर्वदा प्रिय वचन बोलनेवाले स्वामीसे भी अकारण द्रोह करता है, उसपर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं राजोपनिषदं ययातिः स्माह नाहुषः।
मनुष्यविषये युक्तो हन्ति शत्रूननुत्तमान् ॥ ३९ ॥

मूलम्

एवं राजोपनिषदं ययातिः स्माह नाहुषः।
मनुष्यविषये युक्तो हन्ति शत्रूननुत्तमान् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नहुषपुत्र राजा ययातिने मानवमात्रके हितमें तत्पर हो इस राजोपनिषद्‌का वर्णन किया है। जो इसमें निष्ठा रखकर इसके अनुसार चलता है, वह बड़े-बड़े शत्रुओंका विनाश कर डालता है॥३९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि वामदेवगीतासु त्रिनवतितमोऽध्यायः ॥ ९३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें वामदेवगीताविषयक तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९३॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ४० श्लोक हैं)