०९२ वामदेवगीतासु

भागसूचना

द्विनवतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजाके धर्मपूर्वक आचारके विषयमें वामदेवजीका वसुमनाको उपदेश

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं धर्मे स्थातुमिच्छन् राजा वर्तेत धार्मिकः।
पृच्छामि त्वां कुरुश्रेष्ठ तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

कथं धर्मे स्थातुमिच्छन् राजा वर्तेत धार्मिकः।
पृच्छामि त्वां कुरुश्रेष्ठ तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— कुरुश्रेष्ठ पितामह! धर्मात्मा राजा यदि धर्ममें स्थित रहना चाहे तो उसे किस प्रकार बर्ताव करना चाहिये? यह मैं आपसे पूछता हूँ; आप मुझे बताइये॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
गीतं दृष्टार्थतत्त्वेन वामदेवेन धीमता ॥ २ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
गीतं दृष्टार्थतत्त्वेन वामदेवेन धीमता ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! इस विषयमें लोग तत्त्वज्ञानी महात्मा वामदेवजीद्वारा दिये हुए उपदेशरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा वसुमना नाम ज्ञानवान् धृतिमान् शुचिः।
महर्षिं परिपप्रच्छ वामदेवं तपस्विनम् ॥ ३ ॥

मूलम्

राजा वसुमना नाम ज्ञानवान् धृतिमान् शुचिः।
महर्षिं परिपप्रच्छ वामदेवं तपस्विनम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसुमना नामक एक प्रसिद्ध राजा हो गये हैं, जो ज्ञानवान्, धैर्यवान् और पवित्र आचार-विचारवाले थे। उन्होंने एक दिन तपस्वी महर्षि वामदेवजीसे पूछा—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मार्थसहितैर्वाक्यैर्भगवन्ननुशाधि माम् ।
येन वृत्तेन वै तिष्ठन् न हीयेयं स्वधर्मतः ॥ ४ ॥

मूलम्

धर्मार्थसहितैर्वाक्यैर्भगवन्ननुशाधि माम् ।
येन वृत्तेन वै तिष्ठन् न हीयेयं स्वधर्मतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! मैं किस बर्तावका पालन करता रहूँ, जिससे अपने धर्मसे कभी न गिरूँ। आप अपने अर्थ और धर्मयुक्त वचनोंद्वारा मुझे इसी बातका उपदेश दीजिये’॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमब्रवीद् वामदेवस्तेजस्वी तपतां वरः।
हेमवर्णं सुखासीनं ययातिमिव नाहुषम् ॥ ५ ॥

मूलम्

तमब्रवीद् वामदेवस्तेजस्वी तपतां वरः।
हेमवर्णं सुखासीनं ययातिमिव नाहुषम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब तपस्वी पुरुषोंमें श्रेष्ठ तेजस्वी महर्षि वामदेवने नहुषपुत्र ययातिके समान सुखपूर्वक बैठे हुए सुवर्णकी-सी कान्तिवाले राजा वसुमनासे कहा॥५॥

मूलम् (वचनम्)

वामदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्ममेवानुवर्तस्व न धर्माद् विद्यते परम्।
धर्मे स्थिता हि राजानो जयन्ति पृथिवीमिमाम् ॥ ६ ॥

मूलम्

धर्ममेवानुवर्तस्व न धर्माद् विद्यते परम्।
धर्मे स्थिता हि राजानो जयन्ति पृथिवीमिमाम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वामदेवजी बोले— राजन्! तुम धर्मका ही अनुसरण करो। धर्मसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है; क्योंकि धर्ममें स्थित रहनेवाले राजा इस सारी पृथ्वीको जीत लेते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थसिद्धेः परं धर्मं मन्यते यो महीपतिः।
वृद्ध्यां च कुरुते बुद्धिं स धर्मेण विराजते ॥ ७ ॥

मूलम्

अर्थसिद्धेः परं धर्मं मन्यते यो महीपतिः।
वृद्ध्यां च कुरुते बुद्धिं स धर्मेण विराजते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो भूपाल धर्मको अर्थ-सिद्धिकी अपेक्षा भी बड़ा मानता है और उसीको बढ़ानेमें अपने मन और बुद्धिका उपयोग करता है, वह धर्मके कारण बड़ी शोभा पाता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मदर्शी यो राजा बलादेव प्रवर्तते।
क्षिप्रमेवापयातोऽस्मादुभौ प्रथममध्यमौ ॥ ८ ॥

मूलम्

अधर्मदर्शी यो राजा बलादेव प्रवर्तते।
क्षिप्रमेवापयातोऽस्मादुभौ प्रथममध्यमौ ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके विपरीत जो राजा अधर्मपर ही दृष्टि रखकर बलपूर्वक उसमें प्रवृत्त होता है, उसे धर्म और अर्थ दोनों पुरुषार्थ शीघ्र छोड़कर चल देते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असत्पापिष्ठसचिवो वध्यो लोकस्य धर्महा।
सहैव परिवारेण क्षिप्रमेवावसीदति ॥ ९ ॥

मूलम्

असत्पापिष्ठसचिवो वध्यो लोकस्य धर्महा।
सहैव परिवारेण क्षिप्रमेवावसीदति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दुष्ट एवं पापिष्ठ मन्त्रियोंकी सहायतासे धर्मको हानि पहुँचाता है, वह सब लोगोंका वध्य हो जाता है और अपने परिवारके साथ ही शीघ्र संकटमें पड़ जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थानामननुष्ठाता कामचारी विकत्थनः ।
अपि सर्वां महीं लब्ध्वा क्षिप्रमेव विनश्यति ॥ १० ॥

मूलम्

अर्थानामननुष्ठाता कामचारी विकत्थनः ।
अपि सर्वां महीं लब्ध्वा क्षिप्रमेव विनश्यति ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा अर्थ-सिद्धिकी चेष्टा नहीं करता और स्वेच्छाचारी हो बढ़-बढ़कर बातें बनाता है, वह सारी पृथ्वीका राज्य पाकर भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाददानः कल्याणमनसूयुर्जितेन्द्रियः ।
वर्धते मतिमान् राजा स्रोतोभिरिव सागरः ॥ ११ ॥

मूलम्

अथाददानः कल्याणमनसूयुर्जितेन्द्रियः ।
वर्धते मतिमान् राजा स्रोतोभिरिव सागरः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु जो कल्याणकारी गुणोंको ग्रहण करनेवाला, अनिन्दक, जितेन्द्रिय और बुद्धिमान् होता है, वह राजा उसी प्रकार वृद्धिको प्राप्त होता है, जैसे नदियोंके प्रवाहसे समुद्र॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न पूर्णोऽस्मीति मन्येत धर्मतः कामतोऽर्थतः।
बुद्धितो मित्रतश्चापि सततं वसुधाधिपः ॥ १२ ॥

मूलम्

न पूर्णोऽस्मीति मन्येत धर्मतः कामतोऽर्थतः।
बुद्धितो मित्रतश्चापि सततं वसुधाधिपः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको चाहिये कि वह सदा धर्म, अर्थ, काम, बुद्धि और मित्रोंसे सम्पन्न होनेपर भी कभी अपनेको पूर्ण न माने—सदा उन सबके संग्रहको बढ़ानेकी ही चेष्टा करे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतेष्वेव हि सर्वेषु लोकयात्रा प्रतिष्ठिता।
एतानि शृण्वल्ँलभते यशः कीर्तिं श्रियं प्रजाः ॥ १३ ॥

मूलम्

एतेष्वेव हि सर्वेषु लोकयात्रा प्रतिष्ठिता।
एतानि शृण्वल्ँलभते यशः कीर्तिं श्रियं प्रजाः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाकी जीवनयात्रा इन्हीं सबोंपर अवलम्बित है। इन सबको सुनने और ग्रहण करनेसे राजाको यश, कीर्ति, लक्ष्मी और प्रजाकी प्राप्ति होती है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं यो धर्मसंरम्भी धर्मार्थपरिचिन्तकः।
अर्थान् समीक्ष्य भजते स ध्रुवं महदश्नुते ॥ १४ ॥

मूलम्

एवं यो धर्मसंरम्भी धर्मार्थपरिचिन्तकः।
अर्थान् समीक्ष्य भजते स ध्रुवं महदश्नुते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो इस प्रकार धर्मके प्रति आग्रह रखनेवाला एवं धर्म और अर्थका चिन्तन करनेवाला है तथा अर्थपर भलीभाँति विचार करके उसका सेवन करता है, वह निश्चय ही महान् फलका भागी होता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदाता ह्यनतिस्नेहो दण्डेनावर्तयन् प्रजाः।
साहसप्रकृती राजा क्षिप्रमेव विनश्यति ॥ १५ ॥

मूलम्

अदाता ह्यनतिस्नेहो दण्डेनावर्तयन् प्रजाः।
साहसप्रकृती राजा क्षिप्रमेव विनश्यति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दुःसाहसी, दान न देनेवाला और स्नेहशून्य तथा दण्डके द्वारा प्रजाको बार-बार सताता है, वह राजा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ पापकृतं बुद्ध्या न च पश्यत्यबुद्धिमान्।
अकीर्त्याभिसमायुक्तो भूयो नरकमश्नुते ॥ १६ ॥

मूलम्

अथ पापकृतं बुद्ध्या न च पश्यत्यबुद्धिमान्।
अकीर्त्याभिसमायुक्तो भूयो नरकमश्नुते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो बुद्धिहीन राजा पाप करके भी अपनी बुद्धिके द्वारा अपनेको पापी नहीं समझता, वह इस लोकमें अपकीर्तिसे कलंकित हो परलोकमें नरकका भागी होता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ मानयितुर्दाम्नः श्लक्ष्णस्य वशवर्तिनः।
व्यसनं स्वमिवोत्पन्नं विजिघांसन्ति मानवाः ॥ १७ ॥

मूलम्

अथ मानयितुर्दाम्नः श्लक्ष्णस्य वशवर्तिनः।
व्यसनं स्वमिवोत्पन्नं विजिघांसन्ति मानवाः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सबका मान करनेवाला, दानी, स्नेहयुक्त तथा दूसरोंके वशवर्ती होकर रहता है, उसपर यदि कोई संकट आ जाय तो सब लोग उसे अपना ही संकट मानकर उसको मिटानेकी चेष्टा करते हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य नास्ति गुरुर्धर्मे न चान्यानपि पृच्छति।
सुखतन्त्रोऽर्थलाभेषु न चिरं सुखमश्नुते ॥ १८ ॥

मूलम्

यस्य नास्ति गुरुर्धर्मे न चान्यानपि पृच्छति।
सुखतन्त्रोऽर्थलाभेषु न चिरं सुखमश्नुते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसको धर्मके विषयमें शिक्षा देनेवाला कोई गुरु नहीं है और जो दूसरोंसे भी कुछ नहीं पूछता है तथा धन मिल जानेपर सुखभोगमें आसक्त हो जाता है, वह दीर्घकालतक सुख नहीं भोग पाता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुप्रधानो धर्मेषु स्वयमर्थानवेक्षिता ।
धर्मप्रधानो लाभेषु स चिरं सुखमश्नुते ॥ १९ ॥

मूलम्

गुरुप्रधानो धर्मेषु स्वयमर्थानवेक्षिता ।
धर्मप्रधानो लाभेषु स चिरं सुखमश्नुते ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धर्मके विषयमें गुरुको प्रधान मानकर उनके उपदेशके अनुसार चलता है, जो स्वयं ही अर्थ-सम्बन्धी सारे कार्योंको देखता है तथा सब प्रकारके लाभोंमें धर्मको ही प्रधान लाभ समझता है, वह चिरकालतक सुखका उपभोग करता है॥१९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि वामदेवगीतासु द्विनवतितमोऽध्यायः ॥ ९२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें वामदेवजीकी गीताविषयक बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥९२॥