भागसूचना
एकोननवतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजाके कर्तव्यका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनस्पतीन् भक्ष्यफलात् न च्छिन्द्युर्विषये तव।
ब्राह्मणानां मूलफलं धर्म्यमाहुर्मनीषिणः ॥ १ ॥
मूलम्
वनस्पतीन् भक्ष्यफलात् न च्छिन्द्युर्विषये तव।
ब्राह्मणानां मूलफलं धर्म्यमाहुर्मनीषिणः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! जिन वृक्षोंके फल खानेके काम आते हैं, उनको तुम्हारे राज्यमें कोई काटने न पावे, इसका ध्यान रखना चाहिये। मनीषी पुरुष मूल और फलको धर्मतः ब्राह्मणोंका धन बताते हैं। इसलिये भी उनको काटना ठीक नहीं है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणेभ्योऽतिरिक्तं च भुञ्जीरन्नितरे जनाः।
न ब्राह्मणापराधेन हरेदन्यः कथंचन ॥ २ ॥
मूलम्
ब्राह्मणेभ्योऽतिरिक्तं च भुञ्जीरन्नितरे जनाः।
न ब्राह्मणापराधेन हरेदन्यः कथंचन ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणोंसे जो बच जाये, उसीको दूसरे लोग अपने उपभोगमें लावें। ब्राह्मणका अपराध करके अर्थात् उसे भोग वस्तु न देकर दूसरा कोई किसी प्रकार भी उसका अपहरण न करे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विप्रश्चेत् त्यागमातिष्ठेदात्मार्थे वृत्तिकर्शितः ।
परिकल्प्यास्य वृत्तिः स्यात् सदारस्य नराधिप ॥ ३ ॥
मूलम्
विप्रश्चेत् त्यागमातिष्ठेदात्मार्थे वृत्तिकर्शितः ।
परिकल्प्यास्य वृत्तिः स्यात् सदारस्य नराधिप ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यदि ब्राह्मण अपने लिये जीविकाका प्रबन्ध न होनेसे दुर्बल हो जाय और उस राज्यको छोड़कर अन्यत्र जाने लगे तो राजाका कर्तव्य है कि परिवारसहित उस ब्राह्मणके लिये जीविकाकी व्यवस्था करे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चेन्नोपनिवर्तेत वाच्यो ब्राह्मणसंसदि।
कस्मिन्निदानीं मर्यादामयं लोकः करिष्यति ॥ ४ ॥
मूलम्
स चेन्नोपनिवर्तेत वाच्यो ब्राह्मणसंसदि।
कस्मिन्निदानीं मर्यादामयं लोकः करिष्यति ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेपर भी यदि वह ब्राह्मण न लौटे तो ब्राह्मणोंके समाजमें जाकर राजा उससे यों कहे—‘ब्रह्मन्! यदि आप यहाँसे चले जायँगे तो ये प्रजावर्गके लोग किसके आश्रयमें रहकर धर्ममर्यादाका पालन करेंगे?’॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंशयं निवर्तेत न चेद् वक्ष्यत्यतः परम्।
पूर्वं परोक्षं कर्तव्यमेतत् कौन्तेय शाश्वतम् ॥ ५ ॥
मूलम्
असंशयं निवर्तेत न चेद् वक्ष्यत्यतः परम्।
पूर्वं परोक्षं कर्तव्यमेतत् कौन्तेय शाश्वतम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना सुनकर वह निश्चय ही लौट आयेगा। यदि इतनेपर भी वह कुछ न बोले तो राजाको इस प्रकार कहना चाहिये—‘भगवन्! मेरे द्वारा जो पहले अपराध बन गये हों, उन्हें आप भूल जायँ, कुन्तीनन्दन! इस प्रकार विनयपूर्वक ब्राह्मणको प्रसन्न करना राजाका सनातन कर्तव्य है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहुरेतज्जना नित्यं न चैतच्छ्रद्दधाम्यहम्।
निमन्त्र्यश्च भवेद् भोगैरवृत्त्या च तदाचरेत् ॥ ६ ॥
मूलम्
आहुरेतज्जना नित्यं न चैतच्छ्रद्दधाम्यहम्।
निमन्त्र्यश्च भवेद् भोगैरवृत्त्या च तदाचरेत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोग कहते हैं कि ब्राह्मणको भोग-सामग्रीका अभाव हो तो उसे भोग अर्पित करनेके लिये निमन्त्रित करे और यदि उसके पास जीविकाका अभाव हो तो उसके लिये जीविकाकी व्यवस्था करे, परंतु मैं इस बातपर विश्वास नहीं करता; (क्योंकि ब्राह्मणमें भोगेच्छाका होना सम्भव नहीं है)॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं लोकानामिह जीवनम् ।
ऊर्ध्वं चैव त्रयी विद्या सा भूतान् भावयत्युत ॥ ७ ॥
मूलम्
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं लोकानामिह जीवनम् ।
ऊर्ध्वं चैव त्रयी विद्या सा भूतान् भावयत्युत ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
खेती, पशुपालन और वाणिज्य—ये तो इसी लोकमें लोगोंकी जीविकाके साधन हैं; परंतु तीनों वेद ऊपरके लोकोंमें भी रक्षा करते हैं। वे ही यज्ञोंद्वारा समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति और वृद्धिमें हेतु हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यां प्रवर्तमानायां ये स्युस्तत्परिपन्थिनः।
दस्यवस्तद्वधायेह ब्रह्मा क्षत्रमथासृजत् ॥ ८ ॥
मूलम्
तस्यां प्रवर्तमानायां ये स्युस्तत्परिपन्थिनः।
दस्यवस्तद्वधायेह ब्रह्मा क्षत्रमथासृजत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग उस वेदविद्याके अध्ययनाध्यापनमें अथवा वेदोक्त यज्ञ-यागादि कर्मोंमें बाधा पहुँचाते हैं, वे डकैत हैं। उन डाकुओंका वध करनेके लिये ही ब्रह्माजीने क्षत्रिय जातिकी सृष्टि की है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शत्रून् जय प्रजा रक्ष यजस्व क्रतुभिर्नृप।
युध्यस्व समरे वीरो भूत्वा कौरवनन्दन ॥ ९ ॥
मूलम्
शत्रून् जय प्रजा रक्ष यजस्व क्रतुभिर्नृप।
युध्यस्व समरे वीरो भूत्वा कौरवनन्दन ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! कौरवनन्दन! तुम शत्रुओंको जीतो, प्रजाकी रक्षा करो, नाना प्रकारके यज्ञ करते रहो और समरभूमिमें वीरतापूर्वक लड़ो॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संरक्ष्यान् पालयेद् राजा स राजा राजसत्तमः।
ये केचित् तान् न रक्षन्ति तैरर्थो नास्ति कश्चन॥१०॥
मूलम्
संरक्ष्यान् पालयेद् राजा स राजा राजसत्तमः।
ये केचित् तान् न रक्षन्ति तैरर्थो नास्ति कश्चन॥१०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो रक्षा करनेके योग्य पुरुषोंकी रक्षा करता है, वही राजा समस्त राजाओंमें शिरोमणि है। जो रक्षाके पात्र मनुष्योंकी रक्षा नहीं करते, उन राजाओंकी जगत्को कोई आवश्यकता नहीं है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदैव राज्ञा योद्धव्यं सर्वलोकाद् युधिष्ठिर।
तस्माद्धेतोर्हि युञ्जीत मनुष्यानेव मानवः ॥ ११ ॥
मूलम्
सदैव राज्ञा योद्धव्यं सर्वलोकाद् युधिष्ठिर।
तस्माद्धेतोर्हि युञ्जीत मनुष्यानेव मानवः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! राजाको सब लोगोंकी भलाईके लिये सदा ही युद्ध करना अथवा उसके लिये उद्यत रहना चाहिये। अतः वह मानवशिरोमणि नरेश शत्रुओंकी गतिविधिको जाननेके लिये मनुष्योंको ही गुप्तचर नियत कर दे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आन्तरेभ्यः परान् रक्षन् परेभ्यः पुनरान्तरान्।
परान् परेभ्यः स्वान् स्वेभ्यः सर्वान् पालय नित्यदा ॥ १२ ॥
मूलम्
आन्तरेभ्यः परान् रक्षन् परेभ्यः पुनरान्तरान्।
परान् परेभ्यः स्वान् स्वेभ्यः सर्वान् पालय नित्यदा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! जो लोग अपने अन्तरंग हों, उनसे बाहरी लोगोंकी रक्षा करो और बाहरी लोगोंसे सदा अन्तरंग व्यक्तियोंको बचाओ। इसी प्रकार बाहरी व्यक्तियोंकी बाहरके लोगोंसे और समस्त आत्मीयजनोंकी आत्मीयोंसे सदा रक्षा करते रहो॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मानं सर्वतो रक्षन् राजन् रक्षस्व मेदिनीम्।
आत्ममूलमिदं सर्वमाहुर्वै विदुषो जनाः ॥ १३ ॥
मूलम्
आत्मानं सर्वतो रक्षन् राजन् रक्षस्व मेदिनीम्।
आत्ममूलमिदं सर्वमाहुर्वै विदुषो जनाः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तुम सब ओरसे अपनी रक्षा करते हुए ही इस सारी पृथ्वीकी रक्षा करो; क्योंकि विद्वान् पुरुषोंका कहना है कि इन सबका मूल अपना सुरक्षित शरीर ही है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं छिद्रं को नु सङ्गो मे किं वास्त्यविनिपातितम्।
कुतो मामाश्रयेद् दोष इति नित्यं विचिन्तयेत् ॥ १४ ॥
मूलम्
किं छिद्रं को नु सङ्गो मे किं वास्त्यविनिपातितम्।
कुतो मामाश्रयेद् दोष इति नित्यं विचिन्तयेत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझमें कौन-सी दुर्बलता है, किस तरहकी आसक्ति है और कौन-सी ऐसी बुराई है, जो अबतक दूर नहीं हुई है और किस कारणसे मुझपर दोष आता है? इन सब बातोंका राजाको सदा विचार करते रहना चाहिये॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतीतदिवसे वृत्तं प्रशंसन्ति न वा पुनः।
गुप्तैश्चारैरनुमतैः पृथिवीमनुसारयेत् ॥ १५ ॥
मूलम्
अतीतदिवसे वृत्तं प्रशंसन्ति न वा पुनः।
गुप्तैश्चारैरनुमतैः पृथिवीमनुसारयेत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कलतक मेरा जैसा बर्ताव रहा है, उसकी लोग प्रशंसा करते हैं या नहीं? इस बातका पता लगानेके लिये अपने विश्वासपात्र गुप्तचरोंको पृथ्वीपर सब ओर घुमाते रहना चाहिये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानीयुर्यदि ते वृत्तं प्रशंसन्ति न वा पुनः।
कच्चिद् रोचेज्जनपदे कच्चिद् राष्ट्रे च मे यशः ॥ १६ ॥
मूलम्
जानीयुर्यदि ते वृत्तं प्रशंसन्ति न वा पुनः।
कच्चिद् रोचेज्जनपदे कच्चिद् राष्ट्रे च मे यशः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके द्वारा यह भी पता लगाना चाहिये कि यदि अबसे लोग मेरे बर्तावको जान लें तो उसकी प्रशंसा करेंगे या नहीं। क्या बाहरके गाँवोंमें और समूचे राष्ट्रमें मेरा यश लोगोंको अच्छा लगता है?॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मज्ञानां धृतिमतां संग्रामेष्वपलायिनाम् ।
राष्ट्रे तु येऽनुजीवन्ति ये तु राज्ञोऽनुजीविनः ॥ १७ ॥
अमात्यानां च सर्वेषां मध्यस्थानां च सर्वशः।
ये च त्वाभिप्रशंसेयुर्निन्देयुरथवा पुनः ॥ १८ ॥
सर्वान् सुपरिणीतांस्तान् कारयेथा युधिष्ठिर।
मूलम्
धर्मज्ञानां धृतिमतां संग्रामेष्वपलायिनाम् ।
राष्ट्रे तु येऽनुजीवन्ति ये तु राज्ञोऽनुजीविनः ॥ १७ ॥
अमात्यानां च सर्वेषां मध्यस्थानां च सर्वशः।
ये च त्वाभिप्रशंसेयुर्निन्देयुरथवा पुनः ॥ १८ ॥
सर्वान् सुपरिणीतांस्तान् कारयेथा युधिष्ठिर।
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! जो धर्मज्ञ, धैर्यवान् और संग्राममें कभी पीठ न दिखानेवाले शूरवीर हैं, जो राज्यमें रहकर जीविका चलाते हैं अथवा राजाके आश्रित रहकर जीते हैं तथा जो मन्त्रिगण और तटस्थवर्गके लोग हैं, वे सब तुम्हारी प्रशंसा करें या निन्दा, तुम्हें सबका सत्कार ही करना चाहिये॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकान्तेन हि सर्वेषां न शक्यं तात रोचितुम्।
मित्रामित्रमथो मध्यं सर्वभूतेषु भारत ॥ १९ ॥
मूलम्
एकान्तेन हि सर्वेषां न शक्यं तात रोचितुम्।
मित्रामित्रमथो मध्यं सर्वभूतेषु भारत ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! किसीका कोई भी काम सबको सर्वथा अच्छा ही लगे, ऐसा सम्भव नहीं है, भरतनन्दन! सभी प्राणियोंके शत्रु, मित्र और मध्यस्थ होते हैं॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुल्यबाहुबलानां च तुल्यानां च गुणैरपि।
कथं स्यादधिकः कश्चित् स च भुञ्जीत मानवान् ॥ २० ॥
मूलम्
तुल्यबाहुबलानां च तुल्यानां च गुणैरपि।
कथं स्यादधिकः कश्चित् स च भुञ्जीत मानवान् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! जो बाहुबलमें एक समान हैं और गुणोंमें भी एक समान हैं, उनमेंसे कोई एक मनुष्य सबसे अधिक कैसे हो जाता है, जो अन्य सब मनुष्योंपर शासन करने लगता है?॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्चरा ह्यचरानद्युरदंष्ट्रान् दंष्ट्रिणस्तथा ।
आशीविषा इव क्रुद्धा भुजङ्गान् भुजगा इव ॥ २१ ॥
मूलम्
यच्चरा ह्यचरानद्युरदंष्ट्रान् दंष्ट्रिणस्तथा ।
आशीविषा इव क्रुद्धा भुजङ्गान् भुजगा इव ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! जैसे क्रोधमें भरे हुए बड़े-बड़े विषधर सर्प दूसरे छोटे सर्पोंको खा जाते हैं, जिस प्रकार पैरोंसे चलनेवाले प्राणी न चलनेवाले प्राणियोंको अपने उपभोगमें लाते हैं और दाढ़वाले जन्तु बिना दाढ़वाले जीवोंको अपना आहार बना लेते हैं (उसी प्राकृतिक नियमके अनुसार बहुसंख्यक दुर्बल मनुष्योंपर एक सबल मनुष्य शासन करने लगता है)॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतेभ्यश्चाप्रमत्तः स्यात् सदा शत्रोर्युधिष्ठिर।
भारुण्डसदृशा ह्येते निपतन्ति प्रमादतः ॥ २२ ॥
मूलम्
एतेभ्यश्चाप्रमत्तः स्यात् सदा शत्रोर्युधिष्ठिर।
भारुण्डसदृशा ह्येते निपतन्ति प्रमादतः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! इन सभी हिंसक जन्तुओं तथा शत्रुकी ओरसे राजाको सदा सावधान रहना चाहिये; क्योंकि असावधान होनेपर ये गिद्ध पक्षियोंके समान सहसा टूट पड़ते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चित् ते वणिजो राष्ट्रे नोद्विजन्ति करार्दिताः।
क्रीणन्तो बहुनाल्पेन कान्तारकृतविश्रमाः ॥ २३ ॥
मूलम्
कच्चित् ते वणिजो राष्ट्रे नोद्विजन्ति करार्दिताः।
क्रीणन्तो बहुनाल्पेन कान्तारकृतविश्रमाः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऊँचे या नीचे भावसे माल खरीदनेवाले और व्यापारके लिये दुर्गम प्रदेशोंमें विचरनेवाले वैश्य तुम्हारे राज्यमें करके भारी भारसे पीड़ित हो उद्विग्न तो नहीं होते हैं?॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चित् कृषिकरा राष्ट्रं न जहत्यतिपीडिताः।
ये वहन्ति धुरं राज्ञां ते भरन्तीतरानपि ॥ २४ ॥
मूलम्
कच्चित् कृषिकरा राष्ट्रं न जहत्यतिपीडिताः।
ये वहन्ति धुरं राज्ञां ते भरन्तीतरानपि ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसानलोग अधिक लगान लिये जानेके कारण अत्यन्त कष्ट पाकर तुम्हारा राज्य छोड़कर तो नहीं जा रहे हैं। क्योंकि किसान ही राजाओंका भार ढोते हैं और वे ही दूसरे लोगोंका भी भरण-पोषण करते हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतो दत्तेन जीवन्ति देवाः पितृगणास्तथा।
मानुषोरगरक्षांसि वयांसि पशवस्तथा ॥ २५ ॥
मूलम्
इतो दत्तेन जीवन्ति देवाः पितृगणास्तथा।
मानुषोरगरक्षांसि वयांसि पशवस्तथा ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्हींके दिये हुए अन्नसे देवता, पितर, मनुष्य, सर्प, राक्षस और पशु-पक्षी—सबकी जीविका चलती है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषा ते राष्ट्रवृत्तिश्च राज्ञां गुप्तिश्च भारत।
एतमेवार्थमाश्रित्य भूयो वक्ष्यामि पाण्डव ॥ २६ ॥
मूलम्
एषा ते राष्ट्रवृत्तिश्च राज्ञां गुप्तिश्च भारत।
एतमेवार्थमाश्रित्य भूयो वक्ष्यामि पाण्डव ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! यह मैंने राजाके राष्ट्रके साथ किये जानेवाले बर्तावका वर्णन किया। इसीसे राजाओंकी रक्षा होती है। पाण्डुकुमार! इसी विषयको लेकर मैं आगेकी भी बात कहूँगा॥२६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि राष्ट्रगुप्तौ एकोननवतितमोऽध्यायः ॥ ८९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें राष्ट्रकी रक्षाविषयक नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८९॥