०८८ कोशसंचयप्रकारकथने

भागसूचना

अष्टाशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

प्रजासे कर लेने तथा कोश-संग्रह करनेका प्रकार

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा राजा समर्थोऽपि कोशार्थी स्यान्महामते।
कथं प्रवर्तेत तदा तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

यदा राजा समर्थोऽपि कोशार्थी स्यान्महामते।
कथं प्रवर्तेत तदा तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— परम बुद्धिमान् पितामह! जब राजा पूर्णतः समर्थ हो—उसपर कोई संकट न आया हो, तो भी यदि वह अपना कोश बढ़ाना चाहे तो उसे किस तरहका उपाय काममें लाना चाहिये, यह मुझे बताइये॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथादेशं यथाकालं यथाबुद्धि यथाबलम्।
अनुशिष्यात् प्रजा राजा धर्मार्थी तद्धिते रतः ॥ २ ॥

मूलम्

यथादेशं यथाकालं यथाबुद्धि यथाबलम्।
अनुशिष्यात् प्रजा राजा धर्मार्थी तद्धिते रतः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! धर्मकी इच्छा रखनेवाले राजाको देश और कालकी परिस्थितिका ध्यान रखते हुए अपनी बुद्धि और बलके अनुसार प्रजाके हितसाधनमें संलग्न रहकर उसे अपने अनुशासनमें रखना चाहिये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा तासां च मन्येत श्रेय आत्मन एव च।
तथा कर्माणि सर्वाणि राजा राष्ट्रेषु वर्तयेत् ॥ ३ ॥

मूलम्

यथा तासां च मन्येत श्रेय आत्मन एव च।
तथा कर्माणि सर्वाणि राजा राष्ट्रेषु वर्तयेत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकारसे काम करनेपर प्रजाओंकी तथा अपनी भी भलाई समझमें आवे, वैसे ही समस्त कार्योंका राजा अपने राष्ट्रमें प्रचार करे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मधुदोहं दुहेद् राष्ट्रं भ्रमरा इव पादपम्।
वत्सापेक्षी दुहेच्चैव स्तनांश्च न विकुट्‌टयेत् ॥ ४ ॥

मूलम्

मधुदोहं दुहेद् राष्ट्रं भ्रमरा इव पादपम्।
वत्सापेक्षी दुहेच्चैव स्तनांश्च न विकुट्‌टयेत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे भौंरा धीरे-धीरे फूल एवं वृक्षका रस लेता है, वृक्षको काटता नहीं है, जैसे मनुष्य बछड़ेको कष्ट न देकर धीरे-धीरे गायको दुहता है, उसके थनोंको कुचल नहीं डालता है, उसी प्रकार राजा कोमलताके साथ ही राष्ट्ररूपी गौका दोहन करे, उसे कुचले नहीं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलौकावत् पिबेद् राष्ट्रं मृदुनैव नराधिपः।
व्याघ्रीव च हरेत् पुत्रान् संदशेन्न च पीडयेत् ॥ ५ ॥

मूलम्

जलौकावत् पिबेद् राष्ट्रं मृदुनैव नराधिपः।
व्याघ्रीव च हरेत् पुत्रान् संदशेन्न च पीडयेत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे जोंक धीरे-धीरे शरीरका रक्त चूसती है, उसी प्रकार राजा भी कोमलताके साथ ही राष्ट्रसे कर वसूल करे। जैसे बाघिन अपने बच्चेको दाँतसे पकड़कर इधर-उधर ले जाती है; परंतु न तो उसे काटती है और न उसके शरीरमें पीड़ा ही पहुँचने देती है, उसी तरह राजा कोमल उपायोंसे ही राष्ट्रका दोहन करे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा शल्यकवानाखुः पदं धूनयते सदा।
अतीक्ष्णेनाभ्युपायेन तथा राष्ट्रं समापिबेत् ॥ ६ ॥

मूलम्

यथा शल्यकवानाखुः पदं धूनयते सदा।
अतीक्ष्णेनाभ्युपायेन तथा राष्ट्रं समापिबेत् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे तीखे दाँतोंवाला चूहा सोये हुए मनुष्यके पैरके मांसको ऐसी कोमलतासे काटता है कि वह मनुष्य केवल पैरको कम्पित करता है, उसे पीड़ाका ज्ञान नहीं हो पाता। उसी प्रकार राजा कोमल उपायोंसे ही राष्ट्रसे कर ले, जिससे प्रजा दुखी न हो॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अल्पेनाल्पेन देयेन वर्धमानं प्रदापयेत्।
ततो भूयस्ततो भूयः क्रमवृद्धिं समाचरेत् ॥ ७ ॥

मूलम्

अल्पेनाल्पेन देयेन वर्धमानं प्रदापयेत्।
ततो भूयस्ततो भूयः क्रमवृद्धिं समाचरेत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह पहले थोड़ा-थोड़ा कर लेकर फिर धीरे-धीरे उसे बढ़ावे और उस बढ़े हुए करको वसूल करे। उसके बाद समयानुसार फिर उसमें थोड़ी-थोड़ी वृद्धि करते हुए क्रमशः बढ़ाता रहे (ताकि किसीको विशेष भार न जान पड़े)॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दमयन्निव दम्यानि शश्वद् भारं विवर्धयेत्।
मृदुपूर्वं प्रयत्नेन पाशानभ्यवहारयेत् ॥ ८ ॥

मूलम्

दमयन्निव दम्यानि शश्वद् भारं विवर्धयेत्।
मृदुपूर्वं प्रयत्नेन पाशानभ्यवहारयेत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे बछड़ोंको पहले-पहल बोझ ढोनेका अभ्यास करानेवाला पुरुष उन्हें प्रयत्नपूर्वक नाथता है और धीरे-धीरे उनपर अधिक भार लादता ही रहता है, उसी प्रकार प्रजापर भी करका भार पहले कम रखे; फिर उसे धीरे-धीरे बढ़ावे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकृत्पाशावकीर्णास्ते न भविष्यन्ति दुर्दमाः।
उचितेनैव भोक्तव्यास्ते भविष्यन्ति यत्नतः ॥ ९ ॥

मूलम्

सकृत्पाशावकीर्णास्ते न भविष्यन्ति दुर्दमाः।
उचितेनैव भोक्तव्यास्ते भविष्यन्ति यत्नतः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि उनको एक साथ नाथकर उनपर भारी भार लादना चाहे तो उन्हें काबूमें लाना कठिन हो जायगा; अतः उचित ढंगसे प्रयत्नपूर्वक एक-एकको नाथकर उन्हें भार ढोनेके उपयोगमें लाना चाहिये। ऐसा करनेसे वे पूरा भार वहन करनेके योग्य हो जायँगे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् सर्वसमारम्भो दुर्लभः पुरुषं प्रति।
यथामुख्यान् सान्त्वयित्वा भोक्तव्य इतरो जनः ॥ १० ॥

मूलम्

तस्मात् सर्वसमारम्भो दुर्लभः पुरुषं प्रति।
यथामुख्यान् सान्त्वयित्वा भोक्तव्य इतरो जनः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः राजाके लिये भी सभी पुरुषोंको एक साथ वशमें करनेका प्रयत्न दुष्कर है, इसलिये उसे चाहिये कि प्रधान-प्रधान मनुष्योंको मधुर वचनोंद्वारा सान्त्वना देकर वशमें कर ले; फिर अन्य साधारण मनुष्योंको यथेष्ट उपयोगमें लाता रहे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तान् भेदयित्वा तु परस्परविवक्षितान्।
भुञ्जीत सान्त्वयंश्चैव यथासुखमयत्नतः ॥ ११ ॥

मूलम्

ततस्तान् भेदयित्वा तु परस्परविवक्षितान्।
भुञ्जीत सान्त्वयंश्चैव यथासुखमयत्नतः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उन परस्पर विचार करनेवाले मनुष्योंमें भेद डलवाकर राजा सबको सान्त्वना प्रदान करता हुआ बिना किसी प्रयत्नके सुखपूर्वक सबका उपभोग करे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चास्थाने न चाकाले करांस्तेभ्यो निपातयेत्।
आनुपूर्व्येण सान्त्वेन यथाकालं यथाविधि ॥ १२ ॥

मूलम्

न चास्थाने न चाकाले करांस्तेभ्यो निपातयेत्।
आनुपूर्व्येण सान्त्वेन यथाकालं यथाविधि ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको चाहिये कि परिस्थिति और समयके प्रतिकूल प्रजापर करका बोझ न डाले। समयके अनुसार प्रजाको समझा-बुझाकर उचित रीतिसे क्रमशः कर वसूल करे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपायान् प्रब्रवीम्येतान् न मे माया विवक्षिता।
अनुपायेन दमयन् प्रकोपयति वाजिनः ॥ १३ ॥

मूलम्

उपायान् प्रब्रवीम्येतान् न मे माया विवक्षिता।
अनुपायेन दमयन् प्रकोपयति वाजिनः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मैं ये उत्तम उपाय बतला रहा हूँ। मुझे छल-कपट या कूटनीतिकी बात बताना यहाँ अभीष्ट नहीं है। जो लोग उचित उपायका आश्रय न लेकर मनमाने तौरपर घोड़ोंका दमन करना चाहते हैं, वे उन्हें कुपित कर देते हैं (इसी तरह जो अयोग्य उपायसे प्रजाको दबाते हैं, वे उनके मनमें रोष उत्पन्न कर देते हैं)॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पानागारनिवेशाश्च वेश्याः प्रापणिकास्तथा ।
कुशीलवाः सकितवा ये चान्ये केचिदीदृशाः ॥ १४ ॥
नियम्याः सर्व एवैते ये राष्ट्रस्योपघातकाः।
एते राष्ट्रेऽभितिष्ठन्तो बाधन्ते भद्रिकाः प्रजाः ॥ १५ ॥

मूलम्

पानागारनिवेशाश्च वेश्याः प्रापणिकास्तथा ।
कुशीलवाः सकितवा ये चान्ये केचिदीदृशाः ॥ १४ ॥
नियम्याः सर्व एवैते ये राष्ट्रस्योपघातकाः।
एते राष्ट्रेऽभितिष्ठन्तो बाधन्ते भद्रिकाः प्रजाः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शराबखाना खोलनेवाले, वेश्याएँ, कुट्टनियाँ, वेश्याओंके दलाल, जुआरी तथा ऐसे ही बुरे पेशे करनेवाले और भी जितने लोग हों, वे समूचे राष्ट्रको हानि पहुँचानेवाले हैं; अतः इन सबको दण्ड देकर दबाये रखना चाहिये। यदि ये राज्यमें टिके रहते हैं तो कल्याणमार्गपर चलनेवाली प्रजाको बड़ी बाधाएँ पहुँचाते हैं॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न केनचिद् याचितव्यः कश्चित्किञ्चिदनापदि।
इति व्यवस्था भूतानां पुरस्तान्मनुना कृता ॥ १६ ॥

मूलम्

न केनचिद् याचितव्यः कश्चित्किञ्चिदनापदि।
इति व्यवस्था भूतानां पुरस्तान्मनुना कृता ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुजीने बहुत पहलेसे समस्त प्राणियोंके लिये यह नियम बना दिया है कि आपत्तिकालको छोड़कर अन्य समयमें कोई किसीसे कुछ न माँगे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे तथानुजीवेयुर्न कुर्युः कर्म चेदिह।
सर्व एव इमे लोका न भवेयुरसंशयम् ॥ १७ ॥

मूलम्

सर्वे तथानुजीवेयुर्न कुर्युः कर्म चेदिह।
सर्व एव इमे लोका न भवेयुरसंशयम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि ऐसी व्यवस्था न होती तो सब लोग भीख माँगकर ही गुजारा करते, कोई भी यहाँ कर्म नहीं करता। ऐसी दशामें ये सम्पूर्ण जगत्‌के लोग निःसंदेह नष्ट हो जाते॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभुर्नियमने राजा य एतान् न नियच्छति।
भुङ्‌क्ते स तस्य पापस्य चतुर्भागमिति श्रुतिः ॥ १८ ॥

मूलम्

प्रभुर्नियमने राजा य एतान् न नियच्छति।
भुङ्‌क्ते स तस्य पापस्य चतुर्भागमिति श्रुतिः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा इन सबको नियमके अंदर रखनेमें समर्थ होकर भी इन्हें काबूमें नहीं रखता, वह इनके किये हुए पापका चौथाई भाग स्वयं भोगता है, ऐसा श्रुतिका कथन है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोक्ता तस्य तु पापस्य सुकृतस्य यथा तथा।
नियन्तव्याः सदा राज्ञा पापा ये स्युर्नराधिप ॥ १९ ॥

मूलम्

भोक्ता तस्य तु पापस्य सुकृतस्य यथा तथा।
नियन्तव्याः सदा राज्ञा पापा ये स्युर्नराधिप ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! राजा जैसे प्रजाके पापका चतुर्थांश भोगता है उसी प्रकार पुण्यका भी चतुर्थांश उसे प्राप्त होता है; अतः राजाको चाहिये कि वह सदा पापियोंको दण्ड देकर उन्हें दबाये रखे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतपापस्त्वसौ राजा य एतान् न नियच्छति।
तथा कृतस्य धर्मस्य चतुर्भागमुपाश्नुते ॥ २० ॥

मूलम्

कृतपापस्त्वसौ राजा य एतान् न नियच्छति।
तथा कृतस्य धर्मस्य चतुर्भागमुपाश्नुते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा इन पापियोंको नियन्त्रणमें नहीं रखता, वह स्वयं भी पापाचारी माना जाता है तथा जो पापियोंका दमन करता है, वह प्रजाके किये हुए धर्मका चौथाई भाग स्वयं प्राप्त कर लेता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थानान्येतानि संयम्य प्रसंगो भूतिनाशनः।
कामे प्रसक्तः पुरुषः किमकार्यं विवर्जयेत् ॥ २१ ॥

मूलम्

स्थानान्येतानि संयम्य प्रसंगो भूतिनाशनः।
कामे प्रसक्तः पुरुषः किमकार्यं विवर्जयेत् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऊपर जो मदिरालय तथा वेश्यालय आदि स्थान बताये गये हैं, उनपर रोक लगा देनी चाहिये; क्योंकि इससे कामविषयक आसक्ति बढ़ती है। जो धन-वैभव तथा कल्याणका नाश करनेवाली है। काममें आसक्त हुआ पुरुष कौन-सा ऐसा न करनेयोग्य काम है, जिसे छोड़ दे?॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मद्यमांसपरस्वानि तथा दारा धनानि च।
आहरेद् रागवशगस्तथा शास्त्रं प्रदर्शयेत् ॥ २२ ॥

मूलम्

मद्यमांसपरस्वानि तथा दारा धनानि च।
आहरेद् रागवशगस्तथा शास्त्रं प्रदर्शयेत् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आसक्तिके वशीभूत हुआ मानव मांस खाता, मदिरा पीता और परधन तथा परस्त्रीका अपहरण करता है। साथ ही दूसरोंको भी यही सब करनेका उपदेश देता है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपद्येव तु याचन्ते येषां नास्ति परिग्रहः।
दातव्यं धर्मतस्तेभ्यस्त्वनुक्रोशाद् भयान्न तु ॥ २३ ॥

मूलम्

आपद्येव तु याचन्ते येषां नास्ति परिग्रहः।
दातव्यं धर्मतस्तेभ्यस्त्वनुक्रोशाद् भयान्न तु ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन लोगोंके पास कुछ भी संग्रह नहीं है, वे यदि आपत्तिके समय ही याचना करें तो उन्हें धर्म समझकर और दया करके ही देना चाहिये, किसी भय या दबावमें पड़कर नहीं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा ते राष्ट्रे याचनका भूवन्मा चापि दस्यवः।
एषां दातार एवैते नैते भूतस्य भावकाः ॥ २४ ॥

मूलम्

मा ते राष्ट्रे याचनका भूवन्मा चापि दस्यवः।
एषां दातार एवैते नैते भूतस्य भावकाः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे राज्यमें भिखमंगे और लुटेरे न हों; क्योंकि ये प्रजाके धनको केवल छीननेवाले हैं, उनके ऐश्वर्यको बढ़ानेवाले नहीं हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये भूतान्यनुगृह्णन्ति वर्धयन्ति च ये प्रजाः।
ते ते राष्ट्रेषु वर्तन्तां मा भूतानामभावकाः ॥ २५ ॥

मूलम्

ये भूतान्यनुगृह्णन्ति वर्धयन्ति च ये प्रजाः।
ते ते राष्ट्रेषु वर्तन्तां मा भूतानामभावकाः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सब प्राणियोंपर दया करते और प्रजाकी उन्नतिमें योग देते हैं, वे तुम्हारे राष्ट्रमें निवास करें। जो लोग प्राणियोंका विनाश करनेवाले हैं, वे न रहें॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दण्ड्यास्ते च महाराज धनादानप्रयोजकाः।
प्रयोगं कारयेयुस्तान् यथाबलिकरांस्तथा ॥ २६ ॥

मूलम्

दण्ड्यास्ते च महाराज धनादानप्रयोजकाः।
प्रयोगं कारयेयुस्तान् यथाबलिकरांस्तथा ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! जो राजकर्मचारी उचितसे अधिक कर वसूल करते या कराते हों, वे तुम्हारे हाथसे दण्ड पानेके योग्य हैं। दूसरे अधिकारी आकर उन्हें ठीक-ठीक भेंट या कर लेनेका अभ्यास करावें॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं यच्चान्यत्‌ किंचिदीदृशम् ।
पुरुषैः कारयेत् कर्म बहुभिः कर्मभेदतः ॥ २७ ॥

मूलम्

कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं यच्चान्यत्‌ किंचिदीदृशम् ।
पुरुषैः कारयेत् कर्म बहुभिः कर्मभेदतः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

खेती, गोरक्षा, वाणिज्य तथा इस तरहके अन्य व्यवसायोंको जो जिस कर्मको करनेमें कुशल हो, तदनुसार अधिक आदमियोंके द्वारा सम्पन्न कराना चाहिये॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नरश्चेत्कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं चाप्यनुष्ठितः ।
संशयं लभते किंचित् तेन राजा विगर्ह्यते ॥ २८ ॥

मूलम्

नरश्चेत्कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं चाप्यनुष्ठितः ।
संशयं लभते किंचित् तेन राजा विगर्ह्यते ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य यदि कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य आरम्भ कर दे तथा चारों ओर लुटेरोंके आक्रमणसे कुछ-कुछ प्राण-संशयकी-सी स्थितिमें पहुँच जाय तो इससे राजाकी बड़ी निन्दा होती है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनिनः पूजयेन्नित्यं पानाच्छादनभोजनैः ।
वक्तव्याश्चानुगृह्णीध्वं प्रजाः सह मयेति वै ॥ २९ ॥

मूलम्

धनिनः पूजयेन्नित्यं पानाच्छादनभोजनैः ।
वक्तव्याश्चानुगृह्णीध्वं प्रजाः सह मयेति वै ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको चाहिये कि वह देशके धनी व्यक्तियोंका सदा भोजन-वस्त्र और अन्नपान आदिके द्वारा आदर-सत्कार करे और उनसे विनयपूर्वक कहे, ‘आपलोग मेरे सहित मेरी इन प्रजाओंपर कृपादृष्टि रखें’॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गमेतन्महद् राज्ये धनिनो नाम भारत।
ककुदं सर्वभूतानां धनस्थो नात्र संशयः ॥ ३० ॥

मूलम्

अङ्गमेतन्महद् राज्ये धनिनो नाम भारत।
ककुदं सर्वभूतानां धनस्थो नात्र संशयः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! धनीलोग राष्ट्रके मुख्य अंग हैं। धनवान् पुरुष समस्त प्राणियोंमें प्रधान होता है, इसमें संशय नहीं है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राज्ञः शूरो धनस्थश्च स्वामी धार्मिक एव च।
तपस्वी सत्यवादी च बुद्धिमांश्चापि रक्षति ॥ ३१ ॥

मूलम्

प्राज्ञः शूरो धनस्थश्च स्वामी धार्मिक एव च।
तपस्वी सत्यवादी च बुद्धिमांश्चापि रक्षति ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान्, शूरवीर, धनी, धर्मनिष्ठ, स्वामी, तपस्वी, सत्यवादी तथा बुद्धिमान् मनुष्य ही प्रजाकी रक्षा करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् सर्वेषु भूतेषु प्रीतिमान् भव पार्थिव।
सत्यमार्जवमक्रोधमानृशंस्यं च पालय ॥ ३२ ॥

मूलम्

तस्मात् सर्वेषु भूतेषु प्रीतिमान् भव पार्थिव।
सत्यमार्जवमक्रोधमानृशंस्यं च पालय ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः भूपाल! तुम समस्त प्राणियोंसे प्रेम रखो तथा सत्य, सरलता, क्रोधहीनता और दयालुता आदि सद्धर्मोंका पालन करो॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं दण्डं च कोशं च मित्रं भूमिं च लप्स्यसि।
सत्यार्जवपरो राजन् मित्रकोशबलान्वितः ॥ ३३ ॥

मूलम्

एवं दण्डं च कोशं च मित्रं भूमिं च लप्स्यसि।
सत्यार्जवपरो राजन् मित्रकोशबलान्वितः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! ऐसा करनेसे तुम्हें दण्डधारणकी शक्ति, खजाना, मित्र तथा राज्यकी भी प्राप्ति होगी। तुम सत्य और सरलतामें तत्पर रहकर मित्र, कोश और बलसे सम्पन्न हो जाओगे॥३३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि कोशसंचयप्रकारकथने अष्टाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें कोशसंग्रहके प्रकारका वर्णनविषयक अट्ठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८८॥