भागसूचना
सप्ताशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राष्ट्रकी रक्षा तथा वृद्धिके उपाय
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राष्ट्रगुप्तिं च मे राजन् राष्ट्रस्यैव तु संग्रहम्।
सम्यग्जिज्ञासमानाय प्रब्रूहि भरतर्षभ ॥ १ ॥
मूलम्
राष्ट्रगुप्तिं च मे राजन् राष्ट्रस्यैव तु संग्रहम्।
सम्यग्जिज्ञासमानाय प्रब्रूहि भरतर्षभ ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतश्रेष्ठ नरेश्वर! अब मैं यह अच्छी तरह जानना चाहता हूँ कि राष्ट्रकी रक्षा तथा उसकी वृद्धि किस प्रकार हो सकती है, अतः आप इसी विषयका वर्णन करें॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राष्ट्रगुप्तिं च ते सम्यग् राष्ट्रस्यैव तु संग्रहम्।
हन्त सर्वं प्रवक्ष्यामि तत्त्वमेकमनाः शृणु ॥ २ ॥
मूलम्
राष्ट्रगुप्तिं च ते सम्यग् राष्ट्रस्यैव तु संग्रहम्।
हन्त सर्वं प्रवक्ष्यामि तत्त्वमेकमनाः शृणु ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! अब मैं बड़े हर्षके साथ तुम्हें राष्ट्रकी रक्षा तथा वृद्धिका सारा रहस्य बता रहा हूँ। तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रामस्याधिपतिः कार्यो दशग्राम्यास्तथा परः।
द्विगुणायाः शतस्यैवं सहस्रस्य च कारयेत् ॥ ३ ॥
मूलम्
ग्रामस्याधिपतिः कार्यो दशग्राम्यास्तथा परः।
द्विगुणायाः शतस्यैवं सहस्रस्य च कारयेत् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक गाँवका, दस गाँवोंका, बीस गाँवोंका, सौ गाँवोंका तथा हजार गाँवोंका अलग-अलग एक-एक अधिपति बनाना चाहिये॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रामीयान् ग्रामदोषांश्च ग्रामिकः प्रतिभावयेत्।
तान् ब्रूयाद् दशपायासौ स तु विंशतिपाय वै ॥ ४ ॥
सोऽपि विंशत्यधिपतिर्वृत्तं जानपदे जने।
ग्रामाणां शतपालाय सर्वमेव निवेदयेत् ॥ ५ ॥
मूलम्
ग्रामीयान् ग्रामदोषांश्च ग्रामिकः प्रतिभावयेत्।
तान् ब्रूयाद् दशपायासौ स तु विंशतिपाय वै ॥ ४ ॥
सोऽपि विंशत्यधिपतिर्वृत्तं जानपदे जने।
ग्रामाणां शतपालाय सर्वमेव निवेदयेत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गाँवके स्वामीका यह कर्त्तव्य है कि वह गाँववालोंके मामलोंका तथा गाँवमें जो-जो अपराध होते हों, उन सबका वहीं रहकर पता लगावे और उनका पूरा विवरण दस गाँवके अधिपतिके पास भेजे। इसी तरह दस गाँवोंवाला बीस गाँववालेके पास और बीस गाँवोंवाला अपने अधीनस्थ जनपदके लोगोंका सारा वृत्तान्त सौ गाँवोंवाले अधिकारीको सूचित करे। (फिर सौ गाँवोंका अधिकारी हजार गाँवोंके अधिपतिको अपने अधिकृत क्षेत्रोंकी सूचना भेजे। इसके बाद हजार गाँवोंका अधिपति स्वयं राजाके पास जाकर अपने यहाँ आये हुए सभी विवरणोंको उसके सामने प्रस्तुत करे)॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यानि ग्राम्याणि भोज्यानि ग्रामिकस्तान्युपाश्रियात्।
दशपस्तेन भर्तव्यस्तेनापि द्विगुणाधिपः ॥ ६ ॥
मूलम्
यानि ग्राम्याणि भोज्यानि ग्रामिकस्तान्युपाश्रियात्।
दशपस्तेन भर्तव्यस्तेनापि द्विगुणाधिपः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गाँवोंमें जो आय अथवा उपज हो, वह सब गाँवका अधिपति अपने ही पास रखे (तथा उसमेंसे नियत अंशका वेतनके रूपमें उपभोग करे)। उसीमेंसे नियत वेतन देकर उसे दस गाँवोंके अधिपतिका भी भरण-पोषण करना चाहिये, इसी तरह दस गाँवके अधिपतिको भी बीस गाँवोंके पालकका भरण-पोषण करना उचित है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रामं ग्रामशताध्यक्षो भोक्तुमर्हति सत्कृतः।
महान्तं भरतश्रेष्ठ सुस्फीतं जनसंकुलम् ॥ ७ ॥
तत्र ह्यनेकपायत्तं राज्ञो भवति भारत।
मूलम्
ग्रामं ग्रामशताध्यक्षो भोक्तुमर्हति सत्कृतः।
महान्तं भरतश्रेष्ठ सुस्फीतं जनसंकुलम् ॥ ७ ॥
तत्र ह्यनेकपायत्तं राज्ञो भवति भारत।
अनुवाद (हिन्दी)
जो सत्कारप्राप्त व्यक्ति सौ गाँवोंका अध्यक्ष हो, वह एक गाँवकी आमदनीको उपभोगमें ला सकता है। भरतश्रेष्ठ! वह गाँव बहुत बड़ी बस्तीवाला, मनुष्योंसे भरपूर और धन-धान्यसे सम्पन्न हो। भरतनन्दन! उसका प्रबन्ध राजाके अधीनस्थ अनेक अधिपतियोंके अधिकारमें रहना चाहिये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शाखानगरमर्हस्तु सहस्रपतिरुत्तमः ॥ ८ ॥
धान्यहैरण्यभोगेन भोक्तुं राष्ट्रियसङ्गतः ।
मूलम्
शाखानगरमर्हस्तु सहस्रपतिरुत्तमः ॥ ८ ॥
धान्यहैरण्यभोगेन भोक्तुं राष्ट्रियसङ्गतः ।
अनुवाद (हिन्दी)
सहस्र गाँवका श्रेष्ठ अधिपति एक शाखानगर (कस्बे)-की आय पानेका अधिकारी है। उस कस्बेमें जो अन्न और सुवर्णकी आय हो, उसके द्वारा वह इच्छानुसार उपभोग कर सकता है। उसे राष्ट्रवासियोंके साथ मिलकर रहना चहिये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां संग्रामकृत्यं स्याद् ग्रामकृत्यं च तेषु यत् ॥ ९ ॥
धर्मज्ञः सचिवः कश्चित् तत् तत्पश्येदतन्द्रितः।
मूलम्
तेषां संग्रामकृत्यं स्याद् ग्रामकृत्यं च तेषु यत् ॥ ९ ॥
धर्मज्ञः सचिवः कश्चित् तत् तत्पश्येदतन्द्रितः।
अनुवाद (हिन्दी)
इन अधिपतियोंके अधिकारमें जो युद्धसम्बन्धी तथा गाँवोंके प्रबन्धसम्बन्धी कार्य सौंपे गये हों, उनकी देखभाल कोई आलस्यरहित धर्मज्ञ मन्त्री किया करे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नगरे नगरे वा स्यादेकः सर्वार्थचिन्तकः ॥ १० ॥
उच्चैः स्थाने घोररूपो नक्षत्राणामिव ग्रहः।
भवेत् स तान् परिक्रामेत् सर्वानेव सभासदः ॥ ११ ॥
मूलम्
नगरे नगरे वा स्यादेकः सर्वार्थचिन्तकः ॥ १० ॥
उच्चैः स्थाने घोररूपो नक्षत्राणामिव ग्रहः।
भवेत् स तान् परिक्रामेत् सर्वानेव सभासदः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा प्रत्येक नगरमें एक ऐसा अधिकारी होना चाहिये, जो सभी कार्योंका चिन्तन और निरीक्षण कर सके। जैसे कोई भयंकर ग्रह आकाशमें नक्षत्रोंके ऊपर स्थित हो परिभ्रमण करता है, उसी प्रकार वह अधिकारी उच्चतम स्थानपर प्रतिष्ठित होकर उन सभी सभासद् आदिके निकट परिभ्रमण करे और उनके कार्योंकी जाँच-पड़ताल करता रहे॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां वृत्तिं परिणयेत् कश्चिद् राष्ट्रेषु तच्चरः।
जिघांसवः पापकामाः परस्वादायिनः शठाः ॥ १२ ॥
रक्षाभ्यधिकृता नाम तेभ्यो रक्षेदिमाः प्रजाः।
मूलम्
तेषां वृत्तिं परिणयेत् कश्चिद् राष्ट्रेषु तच्चरः।
जिघांसवः पापकामाः परस्वादायिनः शठाः ॥ १२ ॥
रक्षाभ्यधिकृता नाम तेभ्यो रक्षेदिमाः प्रजाः।
अनुवाद (हिन्दी)
उस निरीक्षकका कोई गुप्तचर राष्ट्रमें घूमता रहे और सभासद् आदिके कार्य एवं मनोभावको जानकर उसके पास सारा समाचार पहुँचाता रहे। रक्षाके कार्यमें नियुक्त हुए अधिकारी लोग प्रायः हिंसक स्वभावके हो जाते हैं। वे दूसरोंकी बुराई चाहने लगते हैं और शठतापूर्वक पराये धनका अपहरण कर लेते हैं। ऐसे लोगोंसे वह सर्वार्थचिन्तक अधिकारी इस सारी प्रजाकी रक्षा करे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विक्रयं क्रयमध्वानं भक्तं च सपरिच्छदम् ॥ १३ ॥
योगक्षेमं च सम्प्रेक्ष्य वणिजां कारयेत् करान्।
मूलम्
विक्रयं क्रयमध्वानं भक्तं च सपरिच्छदम् ॥ १३ ॥
योगक्षेमं च सम्प्रेक्ष्य वणिजां कारयेत् करान्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजाको मालकी खरीद—बिक्री, उसके मँगानेका खर्च, उसमें काम करनेवाले नौकरोंके वेतन, बचत और योग-क्षेमके निर्वाहकी ओर दृष्टि रखकर ही व्यापारियोंपर कर लगाना चाहिये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्पत्तिं दानवृत्तिं च शिल्पं सम्प्रेक्ष्य चासकृत् ॥ १४ ॥
शिल्पं प्रति करानेवं शिल्पिनः प्रति कारयेत्।
मूलम्
उत्पत्तिं दानवृत्तिं च शिल्पं सम्प्रेक्ष्य चासकृत् ॥ १४ ॥
शिल्पं प्रति करानेवं शिल्पिनः प्रति कारयेत्।
अनुवाद (हिन्दी)
इसी तरह मालकी तैयारी, उसकी खपत तथा शिल्पकी उत्तम-मध्यम आदि श्रेणियोंका बार-बार निरीक्षण करके शिल्प एवं शिल्पकारोंपर कर लगावे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उच्चावचकरा दाप्या महाराज्ञा युधिष्ठिर ॥ १५ ॥
यथा यथा न सीदेरंस्तथा कुर्यान्महीपतिः।
फलं कर्म च सम्प्रेक्ष्य ततः सर्वं प्रकल्पयेत् ॥ १६ ॥
मूलम्
उच्चावचकरा दाप्या महाराज्ञा युधिष्ठिर ॥ १५ ॥
यथा यथा न सीदेरंस्तथा कुर्यान्महीपतिः।
फलं कर्म च सम्प्रेक्ष्य ततः सर्वं प्रकल्पयेत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! महाराजको चाहिये कि वह लोगोंकी हैसियतके अनुसार भारी और हलका कर लगावे। भूपालको उतना ही कर लेना चाहिये, जितनेसे प्रजा संकटमें न पड़ जाय। उनका कार्य और लाभ देखकर ही सब कुछ करना चाहिये॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फलं कर्म च निर्हेतु न कश्चित् सम्प्रवर्तते।
यथा राजा च कर्ता च स्यातां कर्मणि भागिनौ॥१७॥
संवेक्ष्य तु तथा राज्ञा प्रणेयाः सततं कराः।
मूलम्
फलं कर्म च निर्हेतु न कश्चित् सम्प्रवर्तते।
यथा राजा च कर्ता च स्यातां कर्मणि भागिनौ॥१७॥
संवेक्ष्य तु तथा राज्ञा प्रणेयाः सततं कराः।
अनुवाद (हिन्दी)
लाभ और कर्म दोनों ही यदि निष्प्रयोजन हुए तो कोई भी काम करनेमें प्रवृत्त नहीं होगा। अतः जिस उपायसे राजा और कार्यकर्ता दोनोंको कृषि, वाणिज्य आदि कर्मके लाभका भाग प्राप्त हो, उसपर विचार करके राजाको सदैव करोंका निर्णय करना चाहिये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नोच्छिन्द्यादात्मनो मूलं परेषां चापि तृष्णया ॥ १८ ॥
ईहाद्वाराणि संरुध्य राजा सम्प्रीतदर्शनः।
प्रद्विषन्ति परिख्यातं राजानमतिखादिनम् ॥ १९ ॥
मूलम्
नोच्छिन्द्यादात्मनो मूलं परेषां चापि तृष्णया ॥ १८ ॥
ईहाद्वाराणि संरुध्य राजा सम्प्रीतदर्शनः।
प्रद्विषन्ति परिख्यातं राजानमतिखादिनम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अधिक तृष्णाके कारण अपने जीवनके मूल आधार प्रजाओंके जीवनभूत खेती-बारी आदिका उच्छेद न कर डाले। राजा लोभके दरवाजोंको बंद करके ऐसा बने कि उसका दर्शन प्रजामात्रको प्रिय लगे। यदि राजा अधिक शोषण करनेवाला विख्यात हो जाय तो सारी प्रजा उससे द्वेष करने लगती है॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रद्विष्टस्य कुतः श्रेयो नाप्रियो लभते फलम्।
वत्सौपम्येन दोग्धव्यं राष्ट्रमक्षीणबुद्धिना ॥ २० ॥
मूलम्
प्रद्विष्टस्य कुतः श्रेयो नाप्रियो लभते फलम्।
वत्सौपम्येन दोग्धव्यं राष्ट्रमक्षीणबुद्धिना ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिससे सब लोग द्वेष करते हों, उसका कल्याण कैसे हो सकता है? जो प्रजावर्गका प्रिय नहीं होता, उसे कोई लाभ नहीं मिलता। जिसकी बुद्धि नष्ट नहीं हुई है, उस राजाको चाहिये कि वह गायसे बछड़ेकी तरह राष्ट्रसे धीरे-धीरे अपने उदरकी पूर्ति करे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भृतो वत्सो जातबलः पीडां सहति भारत।
न कर्म कुरुते वत्सो भृशं दुग्धो युधिष्ठिर ॥ २१ ॥
मूलम्
भृतो वत्सो जातबलः पीडां सहति भारत।
न कर्म कुरुते वत्सो भृशं दुग्धो युधिष्ठिर ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन युधिष्ठिर! जिस गायका दूध अधिक नहीं दुहा जाता, उसका बछड़ा अधिक कालतक उसके दूधसे पुष्ट एवं बलवान् हो भारी भार ढोनेका कष्ट सहन कर लेता है; परंतु जिसका दूध अधिक दुह लिया गया हो, उसका बछड़ा कमजोर होनेके कारण वैसा काम नहीं कर पाता॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राष्ट्रमप्यतिदुग्धं हि न कर्म कुरुते महत्।
यो राष्ट्रमनुगृह्णाति परिरक्षन् स्वयं नृपः ॥ २२ ॥
संजातमुपजीवन् स लभते सुमहत् फलम्।
मूलम्
राष्ट्रमप्यतिदुग्धं हि न कर्म कुरुते महत्।
यो राष्ट्रमनुगृह्णाति परिरक्षन् स्वयं नृपः ॥ २२ ॥
संजातमुपजीवन् स लभते सुमहत् फलम्।
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार राष्ट्रका भी अधिक दोहन करनेसे वह दरिद्र हो जाता है; इस कारण वह कोई महान् कर्म नहीं कर पाता। जो राजा स्वयं रक्षामें तत्पर होकर समूचे राष्ट्रपर अनुग्रह करता है और उसकी प्राप्त हुई आयसे अपनी जीविका चलाता है, वह महान् फलका भागी होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपदर्थं च निर्यातं धनं त्विह विवर्धयेत् ॥ २३ ॥
राष्ट्रं च कोशभूतं स्यात् कोशो वेश्मगतस्तथा।
मूलम्
आपदर्थं च निर्यातं धनं त्विह विवर्धयेत् ॥ २३ ॥
राष्ट्रं च कोशभूतं स्यात् कोशो वेश्मगतस्तथा।
अनुवाद (हिन्दी)
राजाको चाहिये कि वह अपने देशमें लोगोंके पास इकट्ठे हुए धनको आपत्तिके समय काम आनेके लिये बढ़ावे और अपने राष्ट्रको घरमें रखा हुआ खजाना समझे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पौरजानपदान् सर्वान् संश्रितोपश्रितांस्तथा ।
यथाशक्त्यनुकम्पेत सर्वान् स्वल्पधनानपि ॥ २४ ॥
मूलम्
पौरजानपदान् सर्वान् संश्रितोपश्रितांस्तथा ।
यथाशक्त्यनुकम्पेत सर्वान् स्वल्पधनानपि ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नगर और ग्रामके लोग यदि साक्षात् शरणमें आये हों या किसीको मध्यस्थ बनाकर उसके द्वारा शरणागत हुए हों, राजा उन सब स्वल्प धनवालोंपर भी अपनी शक्तिके अनुसार कृपा करे॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाह्यं जनं भेदयित्वा भोक्तव्यो मध्यमः सुखम्।
एवं नास्य प्रकुप्यन्ति जनाः सुखितदुःखिताः ॥ २५ ॥
मूलम्
बाह्यं जनं भेदयित्वा भोक्तव्यो मध्यमः सुखम्।
एवं नास्य प्रकुप्यन्ति जनाः सुखितदुःखिताः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जंगली लुटेरोंको बाह्यजन कहते हैं, उनमें भेद डालकर राजा मध्यमवर्गके ग्रामीण मनुष्योंका सुखपूर्वक उपभोग करे—उनसे राष्ट्रके हितके लिये धन ले, ऐसा करनेसे सुखी और दुःखी दोनों प्रकारके मनुष्य उसपर क्रोध नहीं करते॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रागेव तु धनादानमनुभाष्य ततः पुनः।
संनिपत्य स्वविषये भयं राष्ट्रे प्रदर्शयेत् ॥ २६ ॥
मूलम्
प्रागेव तु धनादानमनुभाष्य ततः पुनः।
संनिपत्य स्वविषये भयं राष्ट्रे प्रदर्शयेत् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा पहले ही धन लेनेकी आवश्यकता बताकर फिर अपने राज्यमें सर्वत्र दौरा करे और राष्ट्रपर आनेवाले भयकी ओर सबका ध्यान आकर्षित करे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इयमापत्समुत्पन्ना परचक्रभयं महत् ।
अपि चान्ताय कल्पन्ते वेणोरिव फलागमाः ॥ २७ ॥
अरयो मे समुत्थाय बहुभिर्दस्युभिः सह।
इदमात्मवधायैव राष्ट्रमिच्छन्ति बाधितुम् ॥ २८ ॥
मूलम्
इयमापत्समुत्पन्ना परचक्रभयं महत् ।
अपि चान्ताय कल्पन्ते वेणोरिव फलागमाः ॥ २७ ॥
अरयो मे समुत्थाय बहुभिर्दस्युभिः सह।
इदमात्मवधायैव राष्ट्रमिच्छन्ति बाधितुम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह लोगोंसे कहे—‘सज्जनो! अपने देशपर यह बहुत बड़ी आपत्ति आ पहुँची है। शत्रुदलके आक्रमणका महान् भय उपस्थित है। जैसे बाँसमें फलका लगना बाँसके विनाशका ही कारण होता है, उसी प्रकार मेरे शत्रु बहुत-से लुटेरोंको साथ लेकर अपने ही विनाशके लिये उठकर मेरे इस राष्ट्रको सताना चाहते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्यामापदि घोरायां सम्प्राप्ते दारुणे भये।
परित्राणाय भवतः प्रार्थयिष्ये धनानि वः ॥ २९ ॥
मूलम्
अस्यामापदि घोरायां सम्प्राप्ते दारुणे भये।
परित्राणाय भवतः प्रार्थयिष्ये धनानि वः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस घोर आपत्ति और दारुण भयके समय मैं आप लोगोंकी रक्षाके लिये (ऋणके रूपमें) धन माँग रहा हूँ॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिदास्ये च भवतां सर्वं चाहं भयक्षये।
नारयः प्रतिदास्यन्ति यद्धरेयुर्बलादितः ॥ ३० ॥
मूलम्
प्रतिदास्ये च भवतां सर्वं चाहं भयक्षये।
नारयः प्रतिदास्यन्ति यद्धरेयुर्बलादितः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब यह भय दूर हो जायगा, उस समय सारा धन मैं आपलोगोंको लौटा दूँगा। शत्रु आकर यहाँसे बलपूर्वक जो धन लूट ले जायँगे, उसे वे कभी वापस नहीं करेंगे॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलत्रमादितः कृत्वा सर्वं वो विनशेदिति।
अपि चेत् पुत्रदारार्थमर्थसंचय इष्यते ॥ ३१ ॥
मूलम्
कलत्रमादितः कृत्वा सर्वं वो विनशेदिति।
अपि चेत् पुत्रदारार्थमर्थसंचय इष्यते ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुओंका आक्रमण होनेपर आपकी स्त्रियोंपर पहले संकट आयगा। उनके साथ ही आपका सारा धन नष्ट हो जायगा। स्त्री और पुत्रोंकी रक्षाके लिये ही धनसंग्रहकी आवश्यकता होती है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्दामि वः प्रभावेण पुत्राणामिव चोदये।
यथाशक्त्युपगृह्णामि राष्ट्रस्यापीडया च वः ॥ ३२ ॥
मूलम्
नन्दामि वः प्रभावेण पुत्राणामिव चोदये।
यथाशक्त्युपगृह्णामि राष्ट्रस्यापीडया च वः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे पुत्रोंके अभ्युदयसे पिताको प्रसन्नता होती है, उसी प्रकार मैं आपके प्रभावसे—आप लोगोंकी बढ़ती हुई समृद्धिशक्तिसे आनन्दित होता हूँ। इस समय राष्ट्रपर आये हुए संकटको टालनेके लिये मैं आप लोगोंसे आपकी शक्तिके अनुसार ही धन ग्रहण करूँगा, जिससे राष्ट्रवासियोंको किसी प्रकारका कष्ट न हो॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपत्स्वेव च वोढव्यं भवद्भिः पुङ्गवैरिव।
न च प्रियतरं कार्यं धनं कस्याञ्चिदापदि ॥ ३३ ॥
मूलम्
आपत्स्वेव च वोढव्यं भवद्भिः पुङ्गवैरिव।
न च प्रियतरं कार्यं धनं कस्याञ्चिदापदि ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे बलवान् बैल दुर्गम स्थानोंमें भी बोझ ढोकर पहुँचाते हैं, उसी प्रकार आप लोगोंको भी देशपर आयी हुई इस आपत्तिके समय कुछ भार उठाना ही चाहिये। किसी विपत्तिके समय धनको अधिक प्रिय मानकर छिपाये रखना आपके लिये उचित न होगा’॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति वाचा मधुरया श्लक्ष्णया सोपचारया।
स्वरश्मीनभ्यवसृजेद् योगमाधाय कालवित् ॥ ३४ ॥
मूलम्
इति वाचा मधुरया श्लक्ष्णया सोपचारया।
स्वरश्मीनभ्यवसृजेद् योगमाधाय कालवित् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समयकी गतिविधिको पहचाननेवाले राजाको चाहिये कि वह इसी प्रकार स्नेहयुक्त और अनुनयपूर्ण मधुर वचनोंद्वारा समझा-बुझाकर उपयुक्त उपायका आश्रय ले अपने पैदल सैनिकों या सेवकोंको प्रजाजनोंके घरपर धनसंग्रहके लिये भेजे॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राकारं भृत्यभरणं व्ययं संग्रामतो भयम्।
योगक्षेमं च सम्प्रेक्ष्य गोमिनः कारयेत् करम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
प्राकारं भृत्यभरणं व्ययं संग्रामतो भयम्।
योगक्षेमं च सम्प्रेक्ष्य गोमिनः कारयेत् करम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नगरकी रक्षाके लिये चहारदिवारी बनवानी है, सेवकों और सैनिकोंका भरण-पोषण करना है, अन्य आवश्यक व्यय करने हैं, युद्धके भयको टालना है तथा सबके योग-क्षेमकी चिन्ता करनी है, इन सब बातोंकी आवश्यकता दिखाकर राजा धनवान् वैश्योंसे कर वसूल करे॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपेक्षिता हि नश्येयुर्गोमिनोऽरण्यवासिनः ।
तस्मात् तेषु विशेषेण मृदुपूर्वं समाचरेत् ॥ ३६ ॥
मूलम्
उपेक्षिता हि नश्येयुर्गोमिनोऽरण्यवासिनः ।
तस्मात् तेषु विशेषेण मृदुपूर्वं समाचरेत् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि राजा वैश्योंके हानि-लाभकी परवा न करके उन्हें करभारसे विशेष कष्ट पहुँचाता है तो वे राज्य छोड़कर भाग जाते और वनमें जाकर रहने लगते हैं; अतः उनके प्रति विशेष कोमलताका बर्ताव करना चाहिये॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सान्त्वनं रक्षणं दानमवस्था चाप्यभीक्ष्णशः।
गोमिनां पार्थ कर्तव्यः संविभागः प्रियाणि च ॥ ३७ ॥
मूलम्
सान्त्वनं रक्षणं दानमवस्था चाप्यभीक्ष्णशः।
गोमिनां पार्थ कर्तव्यः संविभागः प्रियाणि च ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! वैश्योंको सान्त्वना दे, उनकी रक्षा करे, उन्हें धनकी सहायता दे, उनकी स्थितिको सुदृढ़ रखनेका बारंबार प्रयत्न करे, उन्हें आवश्यक वस्तुएँ अर्पित करे और सदा उनके प्रिय कार्य करता रहे॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजस्रमुपयोक्तव्यं फलं गोमिषु भारत।
प्रभावयन्ति राष्ट्रं च व्यवहारं कृषिं तथा ॥ ३८ ॥
मूलम्
अजस्रमुपयोक्तव्यं फलं गोमिषु भारत।
प्रभावयन्ति राष्ट्रं च व्यवहारं कृषिं तथा ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! व्यापारियोंको उनके परिश्रमका फल सदा देते रहना चाहिये; क्योंकि वे ही राष्ट्रके वाणिज्य, व्यवसाय तथा खेतीकी उन्नति करते हैं॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् गोमिषु यत्नेन प्रीतिं कुर्याद् विचक्षणः।
दयावानप्रमत्तश्च करान् सम्प्रणयन् मृदून् ॥ ३९ ॥
मूलम्
तस्माद् गोमिषु यत्नेन प्रीतिं कुर्याद् विचक्षणः।
दयावानप्रमत्तश्च करान् सम्प्रणयन् मृदून् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः बुद्धिमान् राजा सदा उन वैश्योंपर यत्नपूर्वक प्रेमभाव बनाये रखे। सावधानी रखकर उनके साथ दयालुताका बर्ताव करे और उनपर हलके कर लगावे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वत्र क्षेमचरणं सुलभं नाम गोमिषु।
न ह्यतः सदृशं किंचिद् वरमस्ति युधिष्ठिर ॥ ४० ॥
मूलम्
सर्वत्र क्षेमचरणं सुलभं नाम गोमिषु।
न ह्यतः सदृशं किंचिद् वरमस्ति युधिष्ठिर ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! राजाको वैश्योंके लिये ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये, जिससे वे देशमें सब ओर कुशलपूर्वक विचरण कर सकें। राजाके लिये इससे बढ़कर हितकर काम दूसरा नहीं है॥४०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि राष्ट्रगुप्त्यादिकथने सप्ताशीतितमोऽध्यायः ॥ ८७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें राष्ट्रकी रक्षा आदिका वर्णनविषयक सत्तासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८७॥