०८१ वासुदेवनारदसंवादः

भागसूचना

एकाशीतितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कुटुम्बीजनोंमें दलबंदी होनेपर उस कुलके प्रधान पुरुषको क्या करना चाहिये? इसके विषयमें श्रीकृष्ण और नारदजीका संवाद

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमग्राह्यके तस्मिन् ज्ञातिसम्बन्धिमण्डले ।
मित्रेष्वमित्रेष्वपि च कथं भावो विभाव्यते ॥ १ ॥

मूलम्

एवमग्राह्यके तस्मिन् ज्ञातिसम्बन्धिमण्डले ।
मित्रेष्वमित्रेष्वपि च कथं भावो विभाव्यते ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! यदि सजातीय बन्धुओं और सगे-सम्बन्धियोंके समुदायको पारस्परिक स्पर्धाके कारण वशमें करना असम्भव हो जाय, कुटुम्बीजनोंमें ही यदि दो दल हों तो एकका आदर करनेसे दूसरा दल रुष्ट हो ही जाता है। ऐसी परिस्थितिके कारण यदि मित्र भी शत्रु बन जायँ, तब उन सबके चित्तको किस प्रकार वशमें किया जा सकता है?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
संवादं वासुदेवस्य सुरर्षेर्नारदस्य च ॥ २ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
संवादं वासुदेवस्य सुरर्षेर्नारदस्य च ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें मनीषी पुरुष देवर्षि नारद और भगवान् श्रीकृष्णके भूतपूर्व संवादरूप इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥२॥

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नासुहृत् परमं मन्त्र नारदार्हति वेदितुम्।
अपण्डितो वापि सुहृत् पण्डितो वाप्यनात्मवान् ॥ ३ ॥

मूलम्

नासुहृत् परमं मन्त्र नारदार्हति वेदितुम्।
अपण्डितो वापि सुहृत् पण्डितो वाप्यनात्मवान् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समय भगवान् श्रीकृष्णने कहा— देवर्षे! जो व्यक्ति सुहृद् न हो, जो सुहृद् तो हो किंतु पण्डित न हो तथा जो सुहृद् और पण्डित तो हो किंतु अपने मनको वशमें न कर सका हो—ये तीनों ही परम गोपनीय मन्त्रणाको सुनने या जाननेके अधिकारी नहीं हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स ते सौहृदमास्थाय किञ्चिद् वक्ष्यामि नारद।
कृत्स्नं बुद्धिबलं प्रेक्ष्य सम्पृच्छेस्त्रिदिवंगम ॥ ४ ॥

मूलम्

स ते सौहृदमास्थाय किञ्चिद् वक्ष्यामि नारद।
कृत्स्नं बुद्धिबलं प्रेक्ष्य सम्पृच्छेस्त्रिदिवंगम ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वर्गमें विचरनेवाले नारदजी! मैं आपके सौहार्दपर भरोसा रखकर आपसे कुछ निवेदन करूँगा। मनुष्य किसी व्यक्तिमें बुद्धि-बलकी पूर्णता देखकर ही उससे कुछ पूछता या जिज्ञासा प्रकट करता है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दास्यमैश्वर्यवादेन ज्ञातीनां न करोम्यहम्।
अर्धं भोक्तास्मि भोगानां वाग्दुरुक्तानि च क्षमे ॥ ५ ॥

मूलम्

दास्यमैश्वर्यवादेन ज्ञातीनां न करोम्यहम्।
अर्धं भोक्तास्मि भोगानां वाग्दुरुक्तानि च क्षमे ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अपनी प्रभुता प्रकाशित करके जाति-भाइयों, कुटुम्बीजनोंको अपना दास बनाना नहीं चाहता। मुझे जो भोग प्राप्त होते हैं, उनका आधा भाग ही अपने उपभोगमें लाता हूँ, शेष आधा भाग कुटुम्बीजनोंके लिये ही छोड़ देता हूँ। और उनकी कड़वी बातोंको सुनकर भी क्षमा कर देता हूँ॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरणीमग्निकामो वा मथ्नाति हृदयं मम।
वाचा दुरुक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा ॥ ६ ॥

मूलम्

अरणीमग्निकामो वा मथ्नाति हृदयं मम।
वाचा दुरुक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवर्षे! जैसे अग्निको प्रकट करनेकी इच्छावाला पुरुष अरणीकाष्ठका मन्थन करता है, उसी प्रकार इन कुटुम्बीजनोंका कटुवचन मेरे हृदयको सदा मथता और जलाता रहता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्यं पुनर्गदे।
रूपेण मत्तः प्रद्युम्नः सोऽसहायोऽस्मि नारद ॥ ७ ॥

मूलम्

बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्यं पुनर्गदे।
रूपेण मत्तः प्रद्युम्नः सोऽसहायोऽस्मि नारद ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी! बड़े भाई बलराममें सदा ही असीम बल है; वे उसीमें मस्त रहते हैं। छोटे भाई गदमें अत्यन्त सुकुमारता है (अतः वह परिश्रमसे दूर भागता है); रह गया बेटा प्रद्युम्न, सो वह अपने रूप-सौन्दर्यके अभिमानसे ही मतवाला बना रहता है। इस प्रकार इन सहायकोंके होते हुए भी मैं असहाय हूँ॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्ये हि सुमहाभागा बलवन्तो दुरुत्सहाः।
नित्योत्थानेन सम्पन्ना नारदान्धकवृष्णयः ॥ ८ ॥

मूलम्

अन्ये हि सुमहाभागा बलवन्तो दुरुत्सहाः।
नित्योत्थानेन सम्पन्ना नारदान्धकवृष्णयः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी! अन्धक तथा वृष्णिवंशमें और भी बहुत-से वीर पुरुष हैं, जो महान् सौभाग्यशाली, बलवान् एवं दुःसह पराक्रमी हैं, वे सब-के-सब सदा उद्योगशील बने रहते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य न स्युर्न वै स स्याद् यस्य स्युः कृत्स्नमेव तत्।
द्वाभ्यां निवारितो नित्यं वृणोम्येकतरं न च ॥ ९ ॥

मूलम्

यस्य न स्युर्न वै स स्याद् यस्य स्युः कृत्स्नमेव तत्।
द्वाभ्यां निवारितो नित्यं वृणोम्येकतरं न च ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये वीर जिसके पक्षमें न हों, उसका जीवित रहना असम्भव है और जिसके पक्षमें ये चले जायँ, वह सारा-का-सारा समुदाय ही विजयी हो जाय। परंतु आहुक और अक्रूरने आपसमें वैमनस्य रखकर मुझे इस तरह अवरुद्ध कर दिया है कि मैं इनमेंसे किसी एकका पक्ष नहीं ले सकता॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्यातां यस्याहुकाक्रूरौ किं नु दुःखतरं ततः।
यस्य चापि न तौ स्यातां किं नु दुःखतरं ततः॥१०॥

मूलम्

स्यातां यस्याहुकाक्रूरौ किं नु दुःखतरं ततः।
यस्य चापि न तौ स्यातां किं नु दुःखतरं ततः॥१०॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपसमें लड़नेवाले आहुक और अक्रूर दोनों ही जिसके स्वजन हों, उसके लिये इससे बढ़कर दुःखकी बात और क्या होगी? और वे दोनों ही जिसके सुहृद् न हों, उसके लिये भी इससे बढ़कर और दुःख क्या हो सकता है? (क्योंकि ऐसे मित्रोंका न रहना भी महान् दुःखदायी होता है)॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं कितवमातेव द्वयोरपि महामते।
एकस्य जयमाशंसे द्वितीयस्यापराजयम् ॥ ११ ॥

मूलम्

सोऽहं कितवमातेव द्वयोरपि महामते।
एकस्य जयमाशंसे द्वितीयस्यापराजयम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामते! जैसे दो जुआरियोंकी एक ही माता एककी जीत चाहती है तो दूसरेकी भी पराजय नहीं चाहती, उसी प्रकार मैं भी इन दोनों सुहृदोंमेंसे एककी विजयकामना करता हूँ तो दूसरेकी भी पराजय नहीं चाहता॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममैवं क्लिश्यमानस्य नारदोभयतः सदा।
वक्तुमर्हसि यच्छ्रेयो ज्ञातीनामात्मनस्तथा ॥ १२ ॥

मूलम्

ममैवं क्लिश्यमानस्य नारदोभयतः सदा।
वक्तुमर्हसि यच्छ्रेयो ज्ञातीनामात्मनस्तथा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी! इस प्रकार मैं सदा उभय पक्षका हित चाहनेके कारण दोनों ओरसे कष्ट पाता रहता हूँ। ऐसी दशामें मेरा अपना तथा इन जाति-भाइयोंका भी जिस प्रकार भला हो, वह उपाय आप बतानेकी कृपा करें॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपदो द्विविधाः कृष्ण बाह्याश्चाभ्यन्तराश्च ह।
प्रादुर्भवन्ति वार्ष्णेय स्वकृता यदि वान्यतः ॥ १३ ॥

मूलम्

आपदो द्विविधाः कृष्ण बाह्याश्चाभ्यन्तराश्च ह।
प्रादुर्भवन्ति वार्ष्णेय स्वकृता यदि वान्यतः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीने कहा— वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! आपत्तियाँ दो प्रकारकी होती हैं—एक बाह्य और दूसरी आभ्यन्तर। वे दोनों ही स्वकृत1 और परकृत2-भेदसे दो-दो प्रकारकी होती हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेयमाभ्यन्तरा तुभ्यमापत् कृच्छ्रा स्वकर्मजा।
अक्रूरभोजप्रभवा सर्वे ह्येते त्वदन्वयाः ॥ १४ ॥

मूलम्

सेयमाभ्यन्तरा तुभ्यमापत् कृच्छ्रा स्वकर्मजा।
अक्रूरभोजप्रभवा सर्वे ह्येते त्वदन्वयाः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अक्रूर और आहुकसे उत्पन्न हुई यह कष्टदायिनी आपत्ति जो आपको प्राप्त हुई है, आभ्यन्तर है और अपनी ही करतूतोंसे प्रकट हुई है। ये सभी जिनके नाम आपने गिनाये हैं, आपके ही वंशके हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थहेतोर्हि कामाद् वा वाचा बीभत्सयापि वा।
आत्मना प्राप्तमैश्वर्यमन्यत्र प्रतिपादितम् ॥ १५ ॥

मूलम्

अर्थहेतोर्हि कामाद् वा वाचा बीभत्सयापि वा।
आत्मना प्राप्तमैश्वर्यमन्यत्र प्रतिपादितम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने स्वयं जिस ऐश्वर्यको प्राप्त किया था, उसे किसी प्रयोजनवश या स्वेच्छासे अथवा कटुवचनसे डरकर दूसरेको दे दिया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतमूलमिदानीं तज्ज्ञातिवृन्दं सहायवन् ।
न शक्यं पुनरादातुं वान्तमन्नमिव त्वया ॥ १६ ॥

मूलम्

कृतमूलमिदानीं तज्ज्ञातिवृन्दं सहायवन् ।
न शक्यं पुनरादातुं वान्तमन्नमिव त्वया ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सहायशाली श्रीकृष्ण! इस समय उग्रसेनको दिया हुआ वह ऐश्वर्य दृढ़मूल हो चुका है। उग्रसेनके साथ जातिके लोग भी सहायक हैं; अतः उगले हुए अन्नकी भाँति आप उस दिये हुए ऐश्वर्यको वापस नहीं ले सकते॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बभ्रूग्रसेनयो राज्यं नाप्तुं शक्यं कथंचन।
ज्ञातिभेदभयात् कृष्ण त्वया चापि विशेषतः ॥ १७ ॥

मूलम्

बभ्रूग्रसेनयो राज्यं नाप्तुं शक्यं कथंचन।
ज्ञातिभेदभयात् कृष्ण त्वया चापि विशेषतः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! अक्रूर और उग्रसेनके अधिकारमें गये हुए राज्यको भाई-बन्धुओंमें फूट पड़नेके भयसे अन्यकी तो कौन कहे इतने शक्तिशाली होकर स्वयं भी आप किसी तरह वापस नहीं ले सकते॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्च सिध्येत् प्रयत्नेन कृत्वा कर्म सुदुष्करम्।
महाक्षयं व्ययो वा स्याद् विनाशो वा पुनर्भवेत् ॥ १८ ॥

मूलम्

तच्च सिध्येत् प्रयत्नेन कृत्वा कर्म सुदुष्करम्।
महाक्षयं व्ययो वा स्याद् विनाशो वा पुनर्भवेत् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े प्रयत्नसे अत्यन्त दुष्कर कर्म महान् संहाररूप युद्ध करनेपर राज्यको वापस लेनेका कार्य सिद्ध हो सकता है, परंतु इसमें धनका बहुत व्यय और असंख्य मनुष्योंका पुनः विनाश होगा॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनायसेन शस्त्रेण मृदुना हृदयच्छिदा।
जिह्वामुद्धर सर्वेषां परिमृज्यानुमृज्य च ॥ १९ ॥

मूलम्

अनायसेन शस्त्रेण मृदुना हृदयच्छिदा।
जिह्वामुद्धर सर्वेषां परिमृज्यानुमृज्य च ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः श्रीकृष्ण! आप एक ऐसे कोमल शस्त्रसे, जो लोहेका बना हुआ न होनेपर भी हृदयको छेद डालनेमें समर्थ है, परिमार्जन1 और अनुमार्जन2 करके उन सबकी जीभ उखाड़ लें—उन्हें मूक बना दें (जिससे फिर कलहका आरम्भ न हो)॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनायसं मुने शस्त्रं मृदु विद्यामहं कथम्।
येनैषामुद्धरे जिह्वां परिमृज्यानुमृज्य च ॥ २० ॥

मूलम्

अनायसं मुने शस्त्रं मृदु विद्यामहं कथम्।
येनैषामुद्धरे जिह्वां परिमृज्यानुमृज्य च ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा— मुने! बिना लोहेके बने हुए उस कोमल शस्त्रको मैं कैसे जानूँ, जिसके द्वारा परिमार्जन और अनुमार्जन करके इन सबकी जिह्वाको उखाड़ लूँ॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्त्यान्नदानं सततं तितिक्षार्जवमार्दवम् ।
यथार्हप्रतिपूजा च शस्त्रमेतदनायसम् ॥ २१ ॥

मूलम्

शक्त्यान्नदानं सततं तितिक्षार्जवमार्दवम् ।
यथार्हप्रतिपूजा च शस्त्रमेतदनायसम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीने कहा— श्रीकृष्ण! अपनी शक्तिके अनुसार सदा अन्नदान करना, सहनशीलता, सरलता, कोमलता तथा यथायोग्य पूजन (आदर-सत्कार) करना—यही बिना लोहेका बना हुआ शस्त्र है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञातीनां वक्तुकामानां कटुकानि लघूनि च।
गिरा त्वं हृदयं वाचं शमयस्व मनांसि च ॥ २२ ॥

मूलम्

ज्ञातीनां वक्तुकामानां कटुकानि लघूनि च।
गिरा त्वं हृदयं वाचं शमयस्व मनांसि च ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब सजातीय बन्धु आपके प्रति कड़वी तथा ओछी बातें कहना चाहें, उस समय आप मधुर वचन बोलकर उनके हृदय, वाणी तथा मनको शान्त कर दें॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामहापुरुषः कश्चिन्नानात्मा नासहायवान् ।
महतीं धुरमाधत्ते तामुद्यम्योरसा वह ॥ २३ ॥

मूलम्

नामहापुरुषः कश्चिन्नानात्मा नासहायवान् ।
महतीं धुरमाधत्ते तामुद्यम्योरसा वह ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो महापुरुष नहीं है, जिसने अपने मनको वशमें नहीं किया है तथा जो सहायकोंसे सम्पन्न नहीं है, वह कोई भारी भार नहीं उठा सकता। अतः आप ही इस गुरुतर भारको हृदयसे उठाकर वहन करें॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्व एव गुरुं भारमनड्‌वान् वहते समे।
दुर्गे प्रतीतः सुगवो भारं वहति दुर्वहम् ॥ २४ ॥

मूलम्

सर्व एव गुरुं भारमनड्‌वान् वहते समे।
दुर्गे प्रतीतः सुगवो भारं वहति दुर्वहम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समतल भूमिपर सभी बैल भारी भार वहन कर लेते हैं; परंतु दुर्गम भूमिपर कठिनाईसे वहन करनेयोग्य गुरुतर भारको अच्छे बैल ही ढोते हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भेदाद् विनाशः संघानां संघमुख्योऽसि केशव।
यथा त्वां प्राप्य नोत्सीदेदयं संघस्तथा कुरु ॥ २५ ॥

मूलम्

भेदाद् विनाशः संघानां संघमुख्योऽसि केशव।
यथा त्वां प्राप्य नोत्सीदेदयं संघस्तथा कुरु ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केशव! आप इस यादवसंघके मुखिया हैं। यदि इसमें फूट हो गयी तो इस समूचे संघका विनाश हो जायगा; अतः आप ऐसा करें जिससे आपको पाकर इस संघका—इस यादवगणतन्त्र राज्यका मूलोच्छेद न हो जाय॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नान्यत्र बुद्धिक्षान्तिभ्यां नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात् ।
नान्यत्र धनसंत्यागाद् गणः प्राज्ञेऽवतिष्ठते ॥ २६ ॥

मूलम्

नान्यत्र बुद्धिक्षान्तिभ्यां नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात् ।
नान्यत्र धनसंत्यागाद् गणः प्राज्ञेऽवतिष्ठते ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धि, क्षमा और इन्द्रिय-निग्रहके बिना तथा धन वैभवका त्याग किये बिना कोई गण अथवा संघ किसी बुद्धिमान् पुरुषकी आज्ञाके अधीन नहीं रहता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वपक्षोद्भावनं सदा।
ज्ञातीनामविनाशः स्याद् यथा कृष्ण तथा कुरु ॥ २७ ॥

मूलम्

धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वपक्षोद्भावनं सदा।
ज्ञातीनामविनाशः स्याद् यथा कृष्ण तथा कुरु ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! सदा अपने पक्षकी ऐसी उन्नति होनी चाहिये जो धन, यश तथा आयुकी वृद्धि करनेवाली हो और कुटुम्बीजनोंमेंसे किसीका विनाश न हो। यह सब जैसे भी सम्भव हो, वैसा ही कीजिये॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आयत्यां च तदात्वे च न तेऽस्त्यविदितं प्रभो।
षाड्‌गुण्यस्य विधानेन यात्रायानविधौ तथा ॥ २८ ॥

मूलम्

आयत्यां च तदात्वे च न तेऽस्त्यविदितं प्रभो।
षाड्‌गुण्यस्य विधानेन यात्रायानविधौ तथा ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय—इन छहों गुणोंके यथासमय प्रयोगसे तथा शत्रुपर चढ़ाई करनेके लिये यात्रा करनेपर वर्तमान या भविष्यमें क्या परिणाम निकलेगा? यह सब आपसे छिपा नहीं है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यादवाः कुकुरा भोजाः सर्वे चान्धकवृष्णयः।
त्वय्यासक्ता महाबाहो लोका लोकेश्चराश्च ये ॥ २९ ॥
उपासते हि त्वद्‌बुद्धिमृषयश्चापि माधव।

मूलम्

यादवाः कुकुरा भोजाः सर्वे चान्धकवृष्णयः।
त्वय्यासक्ता महाबाहो लोका लोकेश्चराश्च ये ॥ २९ ॥
उपासते हि त्वद्‌बुद्धिमृषयश्चापि माधव।

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहु माधव! कुकुर, भोज, अन्धक और वृष्णिवंशके सभी यादव आपमें प्रेम रखते हैं। दूसरे लोग और लोकेश्वर भी आपमें अनुराग रखते हैं। औरोंकी तो बात ही क्या है? बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी आपकी बुद्धिका आश्रय लेते हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं गुरुः सर्वभूतानां जानीषे त्वं गतागतम्।
त्वामासाद्य यदुश्रेष्ठमेधन्ते यादवाः सुखम् ॥ ३० ॥

मूलम्

त्वं गुरुः सर्वभूतानां जानीषे त्वं गतागतम्।
त्वामासाद्य यदुश्रेष्ठमेधन्ते यादवाः सुखम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप समस्त प्राणियोंके गुरु हैं। भूत, वर्तमान और भविष्यको जानते हैं। आप-जैसे यदुकुलतिलक महापुरुषका आश्रय लेकर ही समस्त यादव सुखपूर्वक अपनी उन्नति करते हैं॥३०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि वासुदेवनारदसंवादो नामैकाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें श्रीकृष्ण-नारदसंवाद नामक इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८१॥


  1. जो आपत्तियाँ स्वतः अपने ही करतूतोंसे आती हैं, उन्हें स्वकृत कहते हैं। ↩︎ ↩︎

  2. जिन्हें लानेमें दूसरे लोग निमित्त बनते हैं, वे विपत्तियाँ परकृत कहलाती हैं। ↩︎ ↩︎