भागसूचना
अशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजाके लिये मित्र और अमित्रकी पहचान तथा उन सबके साथ नीतिपूर्ण बर्तावका और मन्त्रीके लक्षणोंका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदप्यल्पतरं कर्म तदप्येकेन दुष्करम्।
पुरुषेणासहायेन किमु राज्ञा पितामह ॥ १ ॥
मूलम्
यदप्यल्पतरं कर्म तदप्येकेन दुष्करम्।
पुरुषेणासहायेन किमु राज्ञा पितामह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! जो छोटे-से-छोटा काम है, उसे भी बिना किसीकी सहायताके अकेले मनुष्यके द्वारा किया जाना कठिन हो जाता है। फिर राजा दूसरेकी सहायताके बिना महान् राज्यका संचालन कैसे कर सकता है?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किंशीलः किंसमाचारो राज्ञोऽथ सचिवो भवेत्।
कीदृशे विश्वसेद् राजा कीदृशे न च विश्वसेत् ॥ २ ॥
मूलम्
किंशीलः किंसमाचारो राज्ञोऽथ सचिवो भवेत्।
कीदृशे विश्वसेद् राजा कीदृशे न च विश्वसेत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः राजाकी सहायताके लिये जो सचिव (मन्त्री) हो, उसका स्वभाव और आचरण कैसा होना चाहिये? राजा कैसे मन्त्रीपर विश्वास करे और कैसे पर न करे?॥२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्विधानि मित्राणि राज्ञां राजन् भवन्त्युत।
सहार्थो भजमानश्च सहजः कृत्रिमस्तथा ॥ ३ ॥
मूलम्
चतुर्विधानि मित्राणि राज्ञां राजन् भवन्त्युत।
सहार्थो भजमानश्च सहजः कृत्रिमस्तथा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! राजाके सहायक या मित्र चार प्रकारके होते हैं—१-सहार्थ २-भजमान ३-सहज और ४-कृत्रिम1॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मात्मा पञ्चमश्चापि मित्रं नैकस्य न द्वयोः।
यतो धर्मस्ततो वा स्याद् धर्मस्थो वा ततो भवेत्॥४॥
यस्तस्यार्थो न रोचेत न तं तस्य प्रकाशयेत्।
धर्माधर्मेण राजानश्चरन्ति विजिगीषवः ॥ ५ ॥
मूलम्
धर्मात्मा पञ्चमश्चापि मित्रं नैकस्य न द्वयोः।
यतो धर्मस्ततो वा स्याद् धर्मस्थो वा ततो भवेत्॥४॥
यस्तस्यार्थो न रोचेत न तं तस्य प्रकाशयेत्।
धर्माधर्मेण राजानश्चरन्ति विजिगीषवः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके सिवा, राजाका एक पाँचवाँ मित्र धर्मात्मा पुरुष होता है, वह किसी एकका पक्षपाती नहीं होता और न दोनों पक्षोंसे वेतन लेकर कपटपूर्वक दोनोंका ही मित्र बना रहता है। जिस पक्षमें धर्म होता है, उसी ओर वह भी हो जाता है अथवा जो धर्मपरायण राजा है, वही उसका आश्रय ग्रहण कर लेता है। ऐसे धर्मात्मा पुरुषको जो कार्य न रुचे, वह उसके सामने नहीं प्रकाशित करना चाहिये; क्योंकि विजयकी इच्छा रखनेवाले राजा कभी धर्ममार्गसे चलते हैं और कभी अधर्ममार्गसे॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्णां मध्यमौ श्रेष्ठौ नित्यं शङ्क्यौ तथापरौ।
सर्वे नित्यं शङ्कितव्याः प्रत्यक्षं कार्यमात्मनः ॥ ६ ॥
मूलम्
चतुर्णां मध्यमौ श्रेष्ठौ नित्यं शङ्क्यौ तथापरौ।
सर्वे नित्यं शङ्कितव्याः प्रत्यक्षं कार्यमात्मनः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपर्युक्त चार प्रकारके मित्रोंमेंसे भजमान और सहज—ये बीचवाले दो मित्र श्रेष्ठ समझे जाते हैं, किंतु शेष दो की ओरसे सदा सशङ्क रहना चाहिये। वास्तवमें तो अपने कार्यको ही दृष्टिमें रखकर सभी प्रकारके मित्रोंसे सदा सतर्क रहना चाहिये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि राज्ञा प्रमादो वै कर्तव्यो मित्ररक्षणे।
प्रमादिनं हि राजानं लोकाः परिभवन्त्युत ॥ ७ ॥
मूलम्
न हि राज्ञा प्रमादो वै कर्तव्यो मित्ररक्षणे।
प्रमादिनं हि राजानं लोकाः परिभवन्त्युत ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाको अपने मित्रोंकी रक्षामें कभी असावधानी नहीं करनी चाहिये; क्योंकि असावधान राजाका सभी लोग तिरस्कार करते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असाधुः साधुतामेति साधुर्भवति दारुणः।
अरिश्च मित्रं भवति मित्रं चापि प्रदुष्यति ॥ ८ ॥
अनित्यचित्तः पुरुषस्तस्मिन् को जातु विश्वसेत्।
तस्मात्प्रधानं यत् कार्यं प्रत्यक्षं तत् समाचरेत् ॥ ९ ॥
मूलम्
असाधुः साधुतामेति साधुर्भवति दारुणः।
अरिश्च मित्रं भवति मित्रं चापि प्रदुष्यति ॥ ८ ॥
अनित्यचित्तः पुरुषस्तस्मिन् को जातु विश्वसेत्।
तस्मात्प्रधानं यत् कार्यं प्रत्यक्षं तत् समाचरेत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुरा मनुष्य भला और भला मनुष्य बुरा हो जाया करता है। शत्रु भी मित्र बन जाता है और मित्र भी बिगड़ जाता है; क्योंकि मनुष्यका चित्त सदैव एक-सा नहीं रहता। अतः उसपर किसी भी समय कोई कैसे विश्वास करेगा? इसलिये जो प्रधान कार्य हो, उसे अपनी आँखोंके सामने पूरा कर देना चाहिये॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकान्तेन हि विश्वासः कृत्स्नो धर्मार्थनाशकः।
अविश्वासश्च सर्वत्र मृत्युना च विशिष्यते ॥ १० ॥
मूलम्
एकान्तेन हि विश्वासः कृत्स्नो धर्मार्थनाशकः।
अविश्वासश्च सर्वत्र मृत्युना च विशिष्यते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसीपर भी किया हुआ अत्यन्त विश्वास धर्म और अर्थ दोनोंका नाश करनेवाला होता है और सर्वत्र अविश्वास करना भी मृत्युसे बढ़कर है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकालमृत्युर्विश्वासो विश्वसन् हि विपद्यते।
यस्मिन् करोति विश्वासमिच्छतस्तस्य जीवति ॥ ११ ॥
मूलम्
अकालमृत्युर्विश्वासो विश्वसन् हि विपद्यते।
यस्मिन् करोति विश्वासमिच्छतस्तस्य जीवति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरोंपर किया हुआ पूरा-पूरा विश्वास अकालमृत्युके समान है; क्योंकि अधिक विश्वास करनेवाला मनुष्य भारी विपत्तिमें पड़ जाता है। वह जिसपर विश्वास करता है, उसीकी इच्छापर उसका जीवन निर्भर होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् विश्वसितव्यं च शङ्कितव्यं च केषुचित्।
एषा नीतिगतिस्तात लक्ष्या चैव सनातनी ॥ १२ ॥
मूलम्
तस्माद् विश्वसितव्यं च शङ्कितव्यं च केषुचित्।
एषा नीतिगतिस्तात लक्ष्या चैव सनातनी ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये राजाको कुछ चुने हुए लोगोंपर विश्वास तो करना चाहिये, पर उनकी ओरसे सशङ्क भी रहना चाहिये। तात! यही सनातन नीतिकी गति है। इसे सदा दृष्टिमें रखना चाहिये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं मन्येत ममाभावादिममर्थागमं स्पृशेत्।
नित्यं तस्माच्छङ्कितव्यममित्रं तद् विदुर्बुधाः ॥ १३ ॥
मूलम्
यं मन्येत ममाभावादिममर्थागमं स्पृशेत्।
नित्यं तस्माच्छङ्कितव्यममित्रं तद् विदुर्बुधाः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अमुक व्यक्ति मेरे मरनेके बाद राजा हो सकता है और धनकी यह सारी आय अपने हाथमें ले सकता है’ ऐसी मान्यता जिसके विषयमें हो (वह भाई, पड़ोसी या पुत्र ही क्यों न हो) उससे सदा सतर्क ही रहना चाहिये; क्योंकि विद्वान् पुरुष उसे शत्रु ही समझते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य क्षेत्रादप्युदकं क्षेत्रमन्यस्य गच्छति।
न तत्रानिच्छतस्तस्य भिद्येरन् सर्वसेतवः ॥ १४ ॥
मूलम्
यस्य क्षेत्रादप्युदकं क्षेत्रमन्यस्य गच्छति।
न तत्रानिच्छतस्तस्य भिद्येरन् सर्वसेतवः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वर्षा आदिका जल जिसके खेतसे होकर दूसरेके खेतमें जाता है, उसकी इच्छाके बिना उसके खेतकी आड़ या मेड़को नहीं तोड़ना चाहिये॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैवात्युदकाद् भीतस्तस्य भेदनमिच्छति ।
यमेवंलक्षणं विद्यात् तममित्रं विनिर्दिशेत् ॥ १५ ॥
मूलम्
तथैवात्युदकाद् भीतस्तस्य भेदनमिच्छति ।
यमेवंलक्षणं विद्यात् तममित्रं विनिर्दिशेत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार आड़ न टूटनेसे जिसके खेतमें अधिक जल भर जाता है, वह भयभीत हो उस जलको निकालनेके लिये खेतकी आड़को तोड़ डालना चाहता है। जिसमें ऐसे लक्षण जान पड़ें, उसीको शत्रु समझो, अर्थात् जो अपने राज्यकी सीमाका रक्षक है, वह यदि सीमा तोड़ दे तो अपने राज्यपर भय आ सकता है; अतः उसे भी शत्रु ही समझना चाहिये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु वृद्ध्या न तृप्येत क्षये दीनतरो भवेत्।
एतदुत्तममित्रस्य निमित्तमिति चक्षते ॥ १६ ॥
मूलम्
यस्तु वृद्ध्या न तृप्येत क्षये दीनतरो भवेत्।
एतदुत्तममित्रस्य निमित्तमिति चक्षते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजाकी उन्नतिसे कभी तृप्त न हो, उत्तरोत्तर उसकी अधिक उन्नति ही चाहता रहे और अवनति होनेपर बहुत दुखी हो जाय, यही उत्तम मित्रकी पहचान बतायी गयी है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्मन्येत ममाभावादस्याभावो भवेदिति ।
तस्मिन् कुर्वीत विश्वासं यथा पितरि वै तथा ॥ १७ ॥
मूलम्
यन्मन्येत ममाभावादस्याभावो भवेदिति ।
तस्मिन् कुर्वीत विश्वासं यथा पितरि वै तथा ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके विषयमें ऐसी मान्यता हो कि मेरे न रहनेपर यह भी नहीं रहेगा, उसपर पिताके समान विश्वास करना चाहिये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं शक्त्या वर्धमानश्च सर्वतः परिबृंहयेत्।
नित्यं क्षताद् वारयति यो धर्मेष्वपि कर्मसु ॥ १८ ॥
क्षताद् भीतं विजानीयादुत्तमं मित्रलक्षणम्।
ये तस्य क्षतमिच्छन्ति ते तस्य रिपवः स्मृताः ॥ १९ ॥
मूलम्
तं शक्त्या वर्धमानश्च सर्वतः परिबृंहयेत्।
नित्यं क्षताद् वारयति यो धर्मेष्वपि कर्मसु ॥ १८ ॥
क्षताद् भीतं विजानीयादुत्तमं मित्रलक्षणम्।
ये तस्य क्षतमिच्छन्ति ते तस्य रिपवः स्मृताः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और जब अपनी वृद्धि हो तो यथाशक्ति उसे भी सब ओरसे समृद्धिशाली बनावे। जो धर्मके कार्योंमें भी राजाको सदा हानिसे बचानेका प्रयत्न करता है तथा उसकी हानिसे भयभीत हो उठता है, उसके इस स्वभावको ही उत्तम मित्रका लक्षण समझना चाहिये। जो राजाकी हानि और विनाशकी इच्छा रखते हैं, वे उसके शत्रु माने गये हैं॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यसनान्नित्यभीतो यः समृद्ध्या यो न दुष्यति।
यत् स्यादेवंविधं मित्रं तदात्मसममुच्यते ॥ २० ॥
मूलम्
व्यसनान्नित्यभीतो यः समृद्ध्या यो न दुष्यति।
यत् स्यादेवंविधं मित्रं तदात्मसममुच्यते ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मित्रपर विपत्ति आनेकी सम्भावनासे सदा डरता रहता है और उसकी उन्नति देखकर मन-ही-मन ईर्ष्या नहीं करता है, ऐसे मित्रको अपने आत्माके समान बताया गया है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपवर्णस्वरोपेतस्तितिक्षुरनसूयकः ।
कुलीनः शीलसम्पन्नः स ते स्यात् प्रत्यनन्तरः ॥ २१ ॥
मूलम्
रूपवर्णस्वरोपेतस्तितिक्षुरनसूयकः ।
कुलीनः शीलसम्पन्नः स ते स्यात् प्रत्यनन्तरः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका रूप-रंग सुन्दर और स्वर मीठा हो, जो क्षमाशील हो, निन्दक न हो तथा कुलीन और शीलवान् हो, वह तुम्हारा प्रधान सचिव होना चाहिये॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेधावी स्मृतिमान् दक्षः प्रकृत्या चानृशंस्यवान्।
यो मानितोऽमानितो वा न च दुष्येत् कदाचन ॥ २२ ॥
ऋत्विग्वा यदि वाऽऽचार्यः सखा वात्यन्तसंस्तुतः।
गृहे वसेदमात्यस्ते स स्यात् परमपूजितः ॥ २३ ॥
मूलम्
मेधावी स्मृतिमान् दक्षः प्रकृत्या चानृशंस्यवान्।
यो मानितोऽमानितो वा न च दुष्येत् कदाचन ॥ २२ ॥
ऋत्विग्वा यदि वाऽऽचार्यः सखा वात्यन्तसंस्तुतः।
गृहे वसेदमात्यस्ते स स्यात् परमपूजितः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी बुद्धि अच्छी और स्मरणशक्ति तीव्र हो, जो कार्यसाधनमें कुशल और स्वभावतः दयालु हो तथा कभी मान या अपमान हो जानेपर जिसके हृदयमें द्वेष या दुर्भाव नहीं पैदा होता हो, ऐसा मनुष्य यदि ऋत्विज्, आचार्य अथवा अत्यन्त प्रशंसित मित्र हो तो वह मन्त्री बनकर तुम्हारे घरमें रहे तथा तुम्हें उसका विशेष आदर सम्मान करना चाहिये॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ते विद्यात् परं मन्त्रं प्रकृतिं चार्थधर्मयोः।
विश्वासस्ते भवेत् तत्र यथा पितरि वै तथा ॥ २४ ॥
मूलम्
स ते विद्यात् परं मन्त्रं प्रकृतिं चार्थधर्मयोः।
विश्वासस्ते भवेत् तत्र यथा पितरि वै तथा ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह तुम्हारे उत्तम-से-उत्तम गोपनीय मन्त्र तथा धर्म और अर्थकी प्रकृति1 को भी जाननेका अधिकारी है। उसपर तुम्हारा वैसा ही विश्वास होना चाहिये, जैसा कि एक पुत्रका पितापर होता है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव द्वौ न त्रयः कार्या न मृष्येरन् परस्परम्।
एकार्थे ह्येव भूतानां भेदो भवति सर्वदा ॥ २५ ॥
मूलम्
नैव द्वौ न त्रयः कार्या न मृष्येरन् परस्परम्।
एकार्थे ह्येव भूतानां भेदो भवति सर्वदा ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक कामपर एक ही व्यक्तिको नियुक्त करना चाहिये, दो या तीनको नहीं; क्योंकि वे आपसमें एक-दूसरेको सहन नहीं कर पाते; एक कार्यपर नियुक्त हुए अनेक व्यक्तियोंमें प्रायः सदा मतभेद हो ही जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीर्तिप्रधानो यस्तु स्याद् यश्च स्यात् समये स्थितः।
समर्थान् यश्च न द्वेष्टि नानर्थान् कुरुते च यः॥२६॥
यो न कामाद् भयाल्लोभात् क्रोधाद् वा धर्ममुत्सृजेत्।
दक्षः पर्याप्तवचनः स ते स्यात् प्रत्यनन्तरः ॥ २७ ॥
मूलम्
कीर्तिप्रधानो यस्तु स्याद् यश्च स्यात् समये स्थितः।
समर्थान् यश्च न द्वेष्टि नानर्थान् कुरुते च यः॥२६॥
यो न कामाद् भयाल्लोभात् क्रोधाद् वा धर्ममुत्सृजेत्।
दक्षः पर्याप्तवचनः स ते स्यात् प्रत्यनन्तरः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कीर्तिको प्रधानता देता है और मर्यादाके भीतर स्थित रहता है, जो सामर्थ्यशाली पुरुषोंसे द्वेष और अनर्थ नहीं करता है, जो कामनासे, भयसे, लोभसे अथवा क्रोधसे भी धर्मका त्याग नहीं करता, जिसमें कार्यकुशलता तथा आवश्यकताके अनुरूप बातचीत करनेकी पूरी योग्यता हो, वही पुरुष तुम्हारा प्रधानमन्त्री होना चाहिये॥२६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुलीनः शीलसम्पन्नस्तितिक्षुरविकत्थनः ।
शूरश्चार्याश्च विद्वांश्च प्रतिपत्तिविशारदः ॥ २८ ॥
एते ह्यमात्याः कर्तव्याः सर्वकर्मस्ववस्थिताः।
पूजिताः संविभक्ताश्च सुसहायाः स्वनुष्ठिताः ॥ २९ ॥
मूलम्
कुलीनः शीलसम्पन्नस्तितिक्षुरविकत्थनः ।
शूरश्चार्याश्च विद्वांश्च प्रतिपत्तिविशारदः ॥ २८ ॥
एते ह्यमात्याः कर्तव्याः सर्वकर्मस्ववस्थिताः।
पूजिताः संविभक्ताश्च सुसहायाः स्वनुष्ठिताः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कुलीन, शीलसम्पन्न, सहनशील, झूठी आत्मप्रशंसा न करनेवाले, शूरवीर, श्रेष्ठ, विद्वान् तथा कर्तव्य-अकर्तव्यको समझनेमें कुशल हों, उन्हें तुम्हें मन्त्रिपदपर प्रतिष्ठित करना चाहिये। वे तुम्हारे सभी कार्योंमें नियुक्त होनेयोग्य हैं। उन्हें तुम सत्कारपूर्वक सुख और सुविधाकी वस्तुएँ देना। इस प्रकार आदरपूर्वक अपनाये जानेपर वे तुम्हारे अच्छे सहायक सिद्ध होंगे॥२८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्स्नमेते विनिक्षिप्ताः प्रतिरूपेषु कर्मसु।
युक्ता महत्सु कार्येषु श्रेयांस्युत्थापयन्त्युत ॥ ३० ॥
मूलम्
कृत्स्नमेते विनिक्षिप्ताः प्रतिरूपेषु कर्मसु।
युक्ता महत्सु कार्येषु श्रेयांस्युत्थापयन्त्युत ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्हें इनकी योग्यताके अनुरूप कर्मोंमें पूरा अधिकार देकर लगा दिया जाय तो ये बड़े-बड़े कार्योंके साधनमें तत्पर हो राजाके लिये कल्याणकी वृद्धि कर सकते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते कर्माणि कुर्वन्ति स्पर्धमाना मिथः सदा।
अनुतिष्ठन्ति चैवार्थमाचक्षाणाः परस्परम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
एते कर्माणि कुर्वन्ति स्पर्धमाना मिथः सदा।
अनुतिष्ठन्ति चैवार्थमाचक्षाणाः परस्परम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि ये सदा परस्पर होड़ लगाकर कार्य करते हैं और एक-दूसरेसे सलाह लेकर अर्थकी सिद्धिके विषयमें विचार करते रहते हैं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञातिभ्यश्चैव बुद्ध्येथा मृत्योरिव भयं सदा।
उपराजेव राजर्धिं ज्ञातिर्न सहते सदा ॥ ३२ ॥
मूलम्
ज्ञातिभ्यश्चैव बुद्ध्येथा मृत्योरिव भयं सदा।
उपराजेव राजर्धिं ज्ञातिर्न सहते सदा ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! तुम अपने कुटुम्बीजनोंसे सदा उसी प्रकार भय मानना, जैसे लोग मृत्युसे डरते रहते हैं। जिस प्रकार पड़ोसी राजा अपने पासके राजाकी उन्नति देख नहीं सकता, उसी प्रकार एक कुटुम्बी दूसरे कुटुम्बीका अभ्युदय कभी नहीं सह सकता॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋजोर्मृदोर्वदान्यस्य ह्रीमतः सत्यवादिनः ।
नान्यो ज्ञातेर्महाबाहो विनाशमभिनन्दति ॥ ३३ ॥
मूलम्
ऋजोर्मृदोर्वदान्यस्य ह्रीमतः सत्यवादिनः ।
नान्यो ज्ञातेर्महाबाहो विनाशमभिनन्दति ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! जो सरल, कोमल स्वभाववाला, उदार, लज्जाशील और सत्यवादी है; ऐसे राजाके विनाशका समर्थन कुटुम्बीके सिवा दूसरा नहीं कर सकता॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अज्ञातिनोऽपि न सुखा नावज्ञेयास्ततः परम्।
अज्ञातिमन्तं पुरुषं परे चाभिभवन्त्युत ॥ ३४ ॥
मूलम्
अज्ञातिनोऽपि न सुखा नावज्ञेयास्ततः परम्।
अज्ञातिमन्तं पुरुषं परे चाभिभवन्त्युत ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके कुटुम्बी या सगे-सम्बन्धी नहीं हैं, वह भी सुखी नहीं होता; इसलिये कुटुम्बीजनोंकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। भाई-बन्धु या कुटुम्बीजनोंसे रहित पुरुषको दूसरे लोग दबाते रहते हैं॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निकृतस्य नरैरन्यैर्ज्ञातिरेव परायणम् ।
नान्यैर्निकारं सहते ज्ञातिर्ज्ञातेः कथञ्चन ॥ ३५ ॥
मूलम्
निकृतस्य नरैरन्यैर्ज्ञातिरेव परायणम् ।
नान्यैर्निकारं सहते ज्ञातिर्ज्ञातेः कथञ्चन ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरोंके दबानेपर उस मनुष्यको उसके सगे भाई-बन्धु ही सहारा देते हैं। दूसरे लोग किसी सजातीय बन्धुका अपमान करें तो जाति-भाई उसको किसी तरह सहन नहीं कर सकते हैं॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मानमेव जानाति निकृतं बान्धवैरपि।
तेषु सन्ति गुणाश्चैव नैर्गुण्यं चैव लक्ष्यते ॥ ३६ ॥
मूलम्
आत्मानमेव जानाति निकृतं बान्धवैरपि।
तेषु सन्ति गुणाश्चैव नैर्गुण्यं चैव लक्ष्यते ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि सगे-सम्बन्धी भी किसी पुरुषका अपमान करें तो उसकी जातिके लोग उसे अपना ही अपमान समझते हैं। इस प्रकार कुटुम्बीजनोंमें गुण भी हैं और अवगुण भी दिखायी देते हैं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाज्ञातिरनुगृह्णाति न चाज्ञातिर्नमस्यति ।
उभयं ज्ञातिवर्गेषु दृश्यते साध्वसाधु च ॥ ३७ ॥
मूलम्
नाज्ञातिरनुगृह्णाति न चाज्ञातिर्नमस्यति ।
उभयं ज्ञातिवर्गेषु दृश्यते साध्वसाधु च ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरी जातिका मनुष्य न अनुग्रह करता है, न नमस्कार। इस प्रकार जाति-भाइयोंमें भलाई और बुराई दोनों देखनेमें आती हैं॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्मानयेत् पूजयेच्च वाचा नित्यं च कर्मणा।
कुर्याच्च प्रियमेतेभ्यो नाप्रियं किञ्चिदाचरेत् ॥ ३८ ॥
मूलम्
सम्मानयेत् पूजयेच्च वाचा नित्यं च कर्मणा।
कुर्याच्च प्रियमेतेभ्यो नाप्रियं किञ्चिदाचरेत् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाका कर्तव्य है कि वह सदा अपने जातीय बन्धुओंका वाणी और क्रियाद्वारा आदर-सत्कार करे। वह प्रतिदिन उनका प्रिय ही करता रहे। कभी कोई अप्रिय कार्य न करे॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वस्तवदविश्वस्तस्तेषु वर्तेत सर्वदा ।
न हि दोषो गुणो वेति निरूप्यस्तेषु दृश्यते ॥ ३९ ॥
मूलम्
विश्वस्तवदविश्वस्तस्तेषु वर्तेत सर्वदा ।
न हि दोषो गुणो वेति निरूप्यस्तेषु दृश्यते ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनपर विश्वास तो न करे; परंतु विश्वास करनेवालेकी ही भाँति सदा उनके साथ बर्ताव करे। उनमें दोष है या गुण इसका निर्णय करनेकी आवश्यकता नहीं दिखायी देती है॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्यैवं वर्तमानस्य पुरुषस्याप्रमादिनः ।
अमित्राः संप्रसीदन्ति तथा मित्रीभवन्त्यपि ॥ ४० ॥
मूलम्
अस्यैवं वर्तमानस्य पुरुषस्याप्रमादिनः ।
अमित्राः संप्रसीदन्ति तथा मित्रीभवन्त्यपि ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष सदा सावधान रहकर ऐसा बर्ताव करता है, उसके शत्रु भी प्रसन्न हो जाते हैं और उसके साथ मित्रताका बर्ताव करने लगते हैं॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एवं वर्तते नित्यं ज्ञातिसम्बन्धिमण्डले।
मित्रेष्वमित्रे मध्यस्थे चिरं यशसि तिष्ठति ॥ ४१ ॥
मूलम्
य एवं वर्तते नित्यं ज्ञातिसम्बन्धिमण्डले।
मित्रेष्वमित्रे मध्यस्थे चिरं यशसि तिष्ठति ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कुटुम्बी, सगे-सम्बन्धी, मित्र, शत्रु तथा मध्यस्थ व्यक्तियोंकी मण्डलीमें सदा इसी नीतिसे व्यवहार करता है, वह चिरकालतक यशस्वी बना रहता है॥४१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि अशीतितमोऽध्यायः ॥ ८० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८०॥
-
सहार्थ मित्र उनको कहते हैं, जो किसी शर्तपर एक-दूसरेकी सहायताके लिये मित्रता करते हैं। ‘अमुक शत्रुपर हम दोनों मिलकर चढ़ाई करें, विजय होनेपर दोनों उसके राज्यको आधा-आधा बाँट लेंगे’—इत्यादि शर्तें सहार्थ मित्रोंमें होती हैं। जिनके साथ परम्परागत वंशसम्बन्धसे मित्रता हो, वे ‘भजमान’ कहलाते हैं। जन्मसे ही साथ रहनेसे अथवा घनिष्ठ सम्बन्ध होनेके कारण जिनमें परस्पर स्वाभाविक मैत्री हो जाती है वे ‘सहज’ मित्र कहे गये हैं; और धन आदि देकर अपनाये हुए लोग ‘कृत्रिम’ मित्र कहलाते हैं। ↩︎ ↩︎