भागसूचना
एकोनाशीतितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ऋत्विजोंके लक्षण, यज्ञ और दक्षिणाका महत्त्व तथा तपकी श्रेष्ठता
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वसमुत्थाः कथंशीला ऋत्विजः स्युः पितामह।
कथंविधाश्च राजेन्द्र तद् ब्रूहि वदतां वर ॥ १ ॥
मूलम्
क्वसमुत्थाः कथंशीला ऋत्विजः स्युः पितामह।
कथंविधाश्च राजेन्द्र तद् ब्रूहि वदतां वर ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— राजेन्द्र! वक्ताओंमें श्रेष्ठ पितामह! ऋत्विजोंकी उत्पत्ति किस निमित्तसे हुई है? उनके स्वभाव कैसे होने चाहिये? तथा वे किस-किस प्रकारके होते हैं? मुझे ये सब बातें बताइये॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिकर्म पराचार ऋत्विजां स्म विधीयते।
छन्दः सामादि विज्ञाय द्विजानां श्रुतमेव च ॥ २ ॥
मूलम्
प्रतिकर्म पराचार ऋत्विजां स्म विधीयते।
छन्दः सामादि विज्ञाय द्विजानां श्रुतमेव च ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! जो ब्राह्मण छन्दःशास्त्र, ‘ऋक्, ‘साम’ और ‘यजुः’ नामक तीनों वेद तथा ऋषियोंके रचे हुए स्मृति और दर्शनशास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं, वे ही ‘ऋत्विज्’ होने योग्य हैं, उन ऋत्विजोंका मुख्य आचार है—राजाके लिये ‘शान्ति’ ‘पौष्टिक’ आदि कर्मोंका अनुष्ठान॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये त्वेकरतयो नित्यं धीराश्च प्रियवादिनः।
परस्परस्य सुहृदः समन्तात् समदर्शिनः ॥ ३ ॥
मूलम्
ये त्वेकरतयो नित्यं धीराश्च प्रियवादिनः।
परस्परस्य सुहृदः समन्तात् समदर्शिनः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सदा एकमात्र यजमानके ही हित-साधनमें तत्पर रहनेवाले, धीर, प्रियवादी, एक-दूसरेके सुहृद् तथा सब ओर समान दृष्टि रखनेवाले हैं, वे ही ऋत्विज् होनेके योग्य हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनृशंसाः सत्यवाक्या अकुसीदा अथर्जवः।
अद्रोहोऽनभिमानश्च ह्रीस्तितिक्षा दमः शमः ॥ ४ ॥
यस्मिन्नेतानि दृश्यन्ते स पुरोहित उच्यते।
मूलम्
अनृशंसाः सत्यवाक्या अकुसीदा अथर्जवः।
अद्रोहोऽनभिमानश्च ह्रीस्तितिक्षा दमः शमः ॥ ४ ॥
यस्मिन्नेतानि दृश्यन्ते स पुरोहित उच्यते।
अनुवाद (हिन्दी)
जिनमें क्रूरताका सर्वथा अभाव है, जो सत्यभाषण करनेवाले और सरल हैं, जो व्याज नहीं लेते तथा जिनमें द्रोह और अभिमानका अभाव है, जिनमें लज्जा, सहनशीलता, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह आदि गुण देखे जाते हैं, वे ही पुरोहित कहलाते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धीमान् सत्यधृतिर्दान्तो भूतानामविहिंसकः ।
अकामद्वेषसंयुक्तस्त्रिभिः शुक्लैः समन्वितः ॥ ५ ॥
अहिंसको ज्ञानतृप्तः स ब्रह्मासनमर्हति।
एते महर्त्विजस्तात सर्वे मान्या यथार्हतः ॥ ६ ॥
मूलम्
धीमान् सत्यधृतिर्दान्तो भूतानामविहिंसकः ।
अकामद्वेषसंयुक्तस्त्रिभिः शुक्लैः समन्वितः ॥ ५ ॥
अहिंसको ज्ञानतृप्तः स ब्रह्मासनमर्हति।
एते महर्त्विजस्तात सर्वे मान्या यथार्हतः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी तरह जो बुद्धिमान्, सत्यको धारण करने-वाला, इन्द्रिय संयमी, किसी भी प्राणीकी हिंसा न करनेवाला तथा राग-द्वेष आदि दोषोंसे दूर रहनेवाला है, जिसके शास्त्रज्ञान, सदाचार और कुल—ये तीनों अत्यन्त शुद्ध एवं निर्दोष हैं; जो अहिंसक और ज्ञान-विज्ञानसे तृप्त है, वही ब्रह्माके आसनपर बैठनेका अधिकारी है। तात! ये सभी महान् ऋत्विज् यथायोग्य सम्मानके पात्र हैं॥५-६॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदिदं वेदवचनं दक्षिणासु विधीयते।
इदं देयमिदं देयं न क्वचिद् व्यवतिष्ठते ॥ ७ ॥
मूलम्
यदिदं वेदवचनं दक्षिणासु विधीयते।
इदं देयमिदं देयं न क्वचिद् व्यवतिष्ठते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भारत! यह जो यज्ञसम्बन्धी दक्षिणाके विषयमें वेदवाक्य उपलब्ध होता है कि ‘यह भी देना चाहिये, यह भी देना चाहिये’ यह वाक्य किसी सीमित वस्तुपर अवलम्बित नहीं है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेदं प्रतिधनं शास्त्रमापद्धर्मानुशास्त्रतः ।
आज्ञा शास्त्रस्य घोरेयं न शक्तिं समवेक्षते ॥ ८ ॥
मूलम्
नेदं प्रतिधनं शास्त्रमापद्धर्मानुशास्त्रतः ।
आज्ञा शास्त्रस्य घोरेयं न शक्तिं समवेक्षते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः दक्षिणामें दिये जानेवाले धनके विषयमें जो यह शास्त्र-वचन है, यह आपत्कालिक धर्मशास्त्रके अनुसार नहीं है। मेरी समझमें तो यह शास्त्रकी आज्ञा भयंकर है; क्योंकि यह इस बातकी ओर नहीं देखती कि दातामें कितने दानकी शक्ति है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रद्धावता च यष्टव्यमित्येषा वैदिकी श्रुतिः।
मिथ्योपेतस्य यज्ञस्य किमु श्रद्धा करिष्यति ॥ ९ ॥
मूलम्
श्रद्धावता च यष्टव्यमित्येषा वैदिकी श्रुतिः।
मिथ्योपेतस्य यज्ञस्य किमु श्रद्धा करिष्यति ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरी ओर वेदकी यह आज्ञा भी सुनी जाती है कि प्रत्येक श्रद्धालु पुरुषको यज्ञ करना चाहिये। यदि दरिद्र श्रद्धाके बलपर यज्ञमें प्रवृत्त हो और उचित दक्षिणा न दे सके तो वह यज्ञ मिथ्या भावसे युक्त होगा; उस दशामें उसकी न्यूनताकी पूर्ति श्रद्धा कैसे कर सकेगी?॥९॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वेदानां परिभवान्न शाठ्येन न मायया।
कश्चिन्महदवाप्नोति मा तेऽभूद् बुद्धिरीदृशी ॥ १० ॥
मूलम्
न वेदानां परिभवान्न शाठ्येन न मायया।
कश्चिन्महदवाप्नोति मा तेऽभूद् बुद्धिरीदृशी ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! वेदोंकी निन्दा करनेसे, शठतापूर्ण बर्तावसे तथा छल-कपटसे कोई भी महान् पद नहीं पाता है; अतः तुम्हारी बुद्धि ऐसी न हो॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञाङ्गं दक्षिणा तात वेदानां परिबृंहणम्।
न यज्ञा दक्षिणाहीनास्तारयन्ति कथंचन ॥ ११ ॥
मूलम्
यज्ञाङ्गं दक्षिणा तात वेदानां परिबृंहणम्।
न यज्ञा दक्षिणाहीनास्तारयन्ति कथंचन ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! दक्षिणा यज्ञोंका अङ्ग है। वही वेदोक्त यज्ञोंका विस्तार एवं उनमें न्यूनताकी पूर्ति करनेवाली है। दक्षिणाहीन यज्ञ किसी प्रकार भी यजमानका उद्धार नहीं कर सकते॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्तिस्तु पूर्णपात्रेण सम्मिता न समाभवत्।
अवश्यं तात यष्टव्यं त्रिभिर्वर्णैर्यथाविधि ॥ १२ ॥
मूलम्
शक्तिस्तु पूर्णपात्रेण सम्मिता न समाभवत्।
अवश्यं तात यष्टव्यं त्रिभिर्वर्णैर्यथाविधि ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ धनी और दरिद्रकी शक्तिका प्रश्न है, उधर भी शास्त्रकी दृष्टि है ही। दोनोंके लिये समान दक्षिणा नहीं रखी गयी है। (दरिद्रकी) शक्तिको पूर्णपात्रसे मापा गया है। अर्थात् जहाँ धनीके लिये बहुत धन देनेका विधान है, वहाँ दरिद्रके लिये एक पूर्णपात्र ही दक्षिणामें देनेका विधान कर दिया है; अतः तात! ब्राह्मण आदि तीनों वर्णोंके लोगोंको अवश्य ही विधिपूर्वक यज्ञोंका अनुष्ठान करना चाहिये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोमो राजा ब्राह्मणानामित्येषा वैदिकी स्थितिः।
तं च विक्रेतुमिच्छन्ति न वृथा वृत्तिरिष्यते ॥ १३ ॥
मूलम्
सोमो राजा ब्राह्मणानामित्येषा वैदिकी स्थितिः।
तं च विक्रेतुमिच्छन्ति न वृथा वृत्तिरिष्यते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदोंका यह सिद्धान्त है कि सोम ब्राह्मणोंका राजा है; परंतु यज्ञके लिये ब्राह्मणलोग उसे भी बेच देनेकी इच्छा रखते हैं। जहाँ यज्ञ आदि कोई अनिवार्य कारण उपस्थित न हो वहाँ व्यर्थ ही उदरपूर्तिके लिये सोमरसका विक्रय अभीष्ट नहीं है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन क्रीतेन यज्ञेन ततो यज्ञः प्रतायते।
इत्येवं धर्मतो ध्यातमृषिभिर्धर्मचारिभिः ॥ १४ ॥
मूलम्
तेन क्रीतेन यज्ञेन ततो यज्ञः प्रतायते।
इत्येवं धर्मतो ध्यातमृषिभिर्धर्मचारिभिः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दक्षिणाद्वारा उस सोमरसके साथ खरीद किये हुए यज्ञ-साधनोंसे यजमानके यज्ञका विस्तार होता है। धर्मका आचरण करनेवाले ऋषियोंने इस विषयमें धर्मके अनुसार ऐसा ही विचार व्यक्त किया है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुमान् यज्ञश्च सोमश्च न्यायवृत्तो यदा भवेत्।
अन्यायवृत्तः पुरुषो न परस्य न चात्मनः ॥ १५ ॥
मूलम्
पुमान् यज्ञश्च सोमश्च न्यायवृत्तो यदा भवेत्।
अन्यायवृत्तः पुरुषो न परस्य न चात्मनः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञकर्ता पुरुष, यज्ञ और सोमरस—ये तीनों जब न्याय-सम्पन्न होते हैं तब यज्ञका यथार्थरूपसे सम्पादन होता है। अन्यायपरायण पुरुष न दूसरेका भला कर सकता है, न अपना ही॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरवृत्तमास्थाय इत्येषा श्रूयते श्रुतिः।
नातिसम्यक् प्रणीतानि ब्राह्मणानां महात्मनाम् ॥ १६ ॥
मूलम्
शरीरवृत्तमास्थाय इत्येषा श्रूयते श्रुतिः।
नातिसम्यक् प्रणीतानि ब्राह्मणानां महात्मनाम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरीर-निर्वाहमात्रके लिये धन प्राप्त करके यज्ञमें प्रवृत्त हुए महामनस्वी ब्राह्मणोंद्वारा जो यज्ञ सम्पादित होते हैं, वे भी हिंसा आदि दोषोंसे युक्त होनेपर उत्तम फल नहीं देते हैं, ऐसा श्रुतिका सिद्धान्त सुननेमें आता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपो यज्ञादपि श्रेष्ठमित्येषा परमा श्रुतिः।
तत् ते तपः प्रवक्ष्यामि विद्वंस्तदपि मे शृणु ॥ १७ ॥
मूलम्
तपो यज्ञादपि श्रेष्ठमित्येषा परमा श्रुतिः।
तत् ते तपः प्रवक्ष्यामि विद्वंस्तदपि मे शृणु ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः यज्ञकी अपेक्षा भी तप श्रेष्ठ है, यह वेदका परम उत्तम वचन है। विद्वान् युधिष्ठिर! मैं तुम्हें तपका स्वरूप बताता हूँ, तुम मुझसे उसके विषयमें सुनो॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंसा सत्यवचनमानृशंस्यं दमो घृणा।
एतत् तपो विदुर्धीरा न शरीरस्य शोषणम् ॥ १८ ॥
मूलम्
अहिंसा सत्यवचनमानृशंस्यं दमो घृणा।
एतत् तपो विदुर्धीरा न शरीरस्य शोषणम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी भी प्राणीकी हिंसा न करना, सत्य बोलना, क्रूरताको त्याग देना, मन और इन्द्रियोंको संयममें रखना तथा सबके प्रति दयाभाव बनाये रखना—इन्हींको धीर पुरुषोंने तप माना है। केवल शरीरको सुखाना ही तप नहीं है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्रामाण्यं च वेदानां शास्त्राणां चाभिलङ्घनम्।
अव्यवस्था च सर्वत्र तद् वै नाशनमात्मनः ॥ १९ ॥
मूलम्
अप्रामाण्यं च वेदानां शास्त्राणां चाभिलङ्घनम्।
अव्यवस्था च सर्वत्र तद् वै नाशनमात्मनः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदको अप्रामाणिक बताना, शास्त्रोंकी आज्ञाका उल्लङ्घन करना तथा सर्वत्र अव्यवस्था पैदा करना—ये सब दुर्गुण अपना ही नाश करनेवाले हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निबोध देवहोतॄणां विधानं पार्थ यादृशम्।
चित्तिः स्रुक् चित्तमाज्यं च पवित्रं ज्ञानमुत्तमम् ॥ २० ॥
मूलम्
निबोध देवहोतॄणां विधानं पार्थ यादृशम्।
चित्तिः स्रुक् चित्तमाज्यं च पवित्रं ज्ञानमुत्तमम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! दैवी सम्पदायुक्त होताओंके यज्ञ-सम्बन्धी उपकरण जिस प्रकारके होते हैं, उन्हें सुनो। उनके सहायक चित्ति ही स्रुक् है, चित्त ही आज्य (घी) है और उत्तम ज्ञान ही पवित्री है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वं जिह्मं मृत्युपदमार्जवं ब्रह्मणः पदम्।
एतावान् ज्ञानविषयः किं प्रलापः करिष्यति ॥ २१ ॥
मूलम्
सर्वं जिह्मं मृत्युपदमार्जवं ब्रह्मणः पदम्।
एतावान् ज्ञानविषयः किं प्रलापः करिष्यति ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारी कुटिलता मृत्युका स्थान है और सरलता परब्रह्मकी प्राप्तिका स्थान है। इतना ही ज्ञानका विषय है और सब प्रलापमात्र है, वह किस काम आयेगा?॥२१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि एकोनाशीतितमोऽध्यायः ॥ ७९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७९॥