भागसूचना
सप्तसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
केकयराज तथा राक्षसका उपाख्यान और केकयराज्यकी श्रेष्ठताका विस्तृत वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
केषां प्रभवते राजा वित्तस्य भरतर्षभ।
कया च वृत्त्या वर्तेत तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
मूलम्
केषां प्रभवते राजा वित्तस्य भरतर्षभ।
कया च वृत्त्या वर्तेत तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतकुलभूषण पितामह! किन-किन मनुष्योंके धनपर राजाका अधिकार होता है? तथा राजाको कैसा बर्ताव करना चाहिये? यह मुझे बताइये॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब्राह्मणानां वित्तस्य स्वामी राजेति वैदिकम्।
ब्राह्मणानां च ये केचिद् विकर्मस्था भवन्त्युत ॥ २ ॥
मूलम्
अब्राह्मणानां वित्तस्य स्वामी राजेति वैदिकम्।
ब्राह्मणानां च ये केचिद् विकर्मस्था भवन्त्युत ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! ब्राह्मणके सिवा अन्य सभी वर्णोंके धनका स्वामी राजा होता है, यह वैदिक मत है। ब्राह्मणोंमें भी जो कोई अपने वर्णके विपरीत कर्म करते हों, उनके धनपर भी राजाका ही अधिकार है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विकर्मस्थाश्च नोपेक्ष्या विप्रा राज्ञा कथञ्चन।
इति राज्ञां पुरावृत्तमभिजल्पन्ति साधवः ॥ ३ ॥
मूलम्
विकर्मस्थाश्च नोपेक्ष्या विप्रा राज्ञा कथञ्चन।
इति राज्ञां पुरावृत्तमभिजल्पन्ति साधवः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने वर्णके विपरीत कर्मोंमें लगे हुए ब्राह्मणोंकी राजाको किसी प्रकार उपेक्षा नहीं करनी चाहिये (क्योंकि उन्हें दण्ड देकर भी राहपर लाना राजाका कर्तव्य है)। साधुपुरुष इसीको राजाओंका प्राचीनकालसे चला आता हुआ बर्ताव या धर्म कहते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य स्म विषये राज्ञः स्तेनो भवति वै द्विजः।
राज्ञ एवापराधं तं मन्यन्ते किल्बिषं नृप ॥ ४ ॥
मूलम्
यस्य स्म विषये राज्ञः स्तेनो भवति वै द्विजः।
राज्ञ एवापराधं तं मन्यन्ते किल्बिषं नृप ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! जिस राजाके राज्यमें कोई ब्राह्मण चोरी करने लग जाता है, वह राजा अपराधी माना जाता है। विचारवान् पुरुष इसे राजाका ही अपराध और पाप समझते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिशस्तमिवात्मानं मन्यन्ते येन कर्मणा।
तस्माद् राजर्षयः सर्वे ब्राह्मणानन्वपालयन् ॥ ५ ॥
मूलम्
अभिशस्तमिवात्मानं मन्यन्ते येन कर्मणा।
तस्माद् राजर्षयः सर्वे ब्राह्मणानन्वपालयन् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणमें उक्त दोष आ जाय तो उससे राजा अपने आपको कलङ्कित मानते हैं; इसीलिये सभी राजर्षियोंने ब्राह्मणोंकी सदा ही रक्षा की है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
गीतं कैकेयराजेन ह्रियमाणेन रक्षसा ॥ ६ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
गीतं कैकेयराजेन ह्रियमाणेन रक्षसा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विषयमें जानकार लोग एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। जिसमें राक्षसके द्वारा अपहृत होते समय केकयराजके प्रकट किये हुए उद्गारका वर्णन है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केकयानामधिपतिं रक्षो जग्राह दारुणम्।
स्वाध्यायेनान्वितं राजन्नरण्ये संशितव्रतम् ॥ ७ ॥
मूलम्
केकयानामधिपतिं रक्षो जग्राह दारुणम्।
स्वाध्यायेनान्वितं राजन्नरण्ये संशितव्रतम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! एक समयकी बात है, केकयराज वनमें रहकर कठोर व्रतका पालन (तप) और स्वाध्याय किया करते थे। एक दिन उन्हें एक भयंकर राक्षसने पकड़ लिया॥७॥
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः।
नानाहिताग्निर्नायज्वा मामकान्तरमाविशः ॥ ८ ॥
मूलम्
न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः।
नानाहिताग्निर्नायज्वा मामकान्तरमाविशः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह देख राजाने उस राक्षससे कहा— मेरे राज्यमें एक भी चोर, कंजूस, शराबी अथवा अग्निहोत्र और यज्ञका त्याग करनेवाला नहीं है तो भी तुम्हारा मेरे शरीरमें प्रवेश कैसे हो गया?॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च मे ब्राह्मणोऽविद्वान्नाव्रती नाप्यसोमपः।
नानाहिताग्निर्नायज्वा मामकान्तरमाविशः ॥ ९ ॥
मूलम्
न च मे ब्राह्मणोऽविद्वान्नाव्रती नाप्यसोमपः।
नानाहिताग्निर्नायज्वा मामकान्तरमाविशः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे राज्यमें एक भी ब्राह्मण ऐसा नहीं है जो विद्वान्, उत्तम व्रतका पालन करनेवाला, यज्ञमें सोमरस पीनेवाला, अग्निहोत्री और यज्ञकर्ता न हो तो भी तुमने मेरे भीतर कैसे प्रवेश किया?॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानाप्रदक्षिणैर्यज्ञैर्यजन्ते विषये मम ।
नाधीते नाव्रती कश्चिन्मामकान्तरमाविशः ॥ १० ॥
मूलम्
नानाप्रदक्षिणैर्यज्ञैर्यजन्ते विषये मम ।
नाधीते नाव्रती कश्चिन्मामकान्तरमाविशः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे राज्यमें समस्त द्विज नाना प्रकारकी उत्तम दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं। कोई भी ब्रह्मचर्यव्रतका पालन किये बिना वेदोंका अध्ययन नहीं करता। फिर भी मेरे शरीरके भीतर तुम्हारा प्रवेश कैसे हुआ?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधीयतेऽध्यापयन्ति यजन्ते याजयन्ति च।
ददति प्रतिगृह्णन्ति षट्सु कर्मस्ववस्थिताः ॥ ११ ॥
मूलम्
अधीयतेऽध्यापयन्ति यजन्ते याजयन्ति च।
ददति प्रतिगृह्णन्ति षट्सु कर्मस्ववस्थिताः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे राज्यके ब्राह्मण पढ़ते-पढ़ाते, यज्ञ करते-कराते, दान देते और लेते हैं। इस प्रकार वे ब्राह्मणोचित छः कर्मोंमें ही संलग्न रहते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजिताः संविभक्ताश्च मृदवः सत्यवादिनः।
ब्राह्मणा मे स्वकर्मस्था मामकान्तरमाविशः ॥ १२ ॥
मूलम्
पूजिताः संविभक्ताश्च मृदवः सत्यवादिनः।
ब्राह्मणा मे स्वकर्मस्था मामकान्तरमाविशः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे राज्यके सभी ब्राह्मण अपने-अपने कर्ममें तत्पर रहनेवाले हैं। कोमल स्वभाववाले तथा सत्यवादी हैं। उन सबको मेरे राज्यसे वृत्ति मिलती है, तथा वे मेरे द्वारा पूजित होते रहते हैं तो भी तुम्हारा मेरे शरीरके भीतर प्रवेश कैसे सम्भव हुआ?॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न याचन्ते प्रयच्छन्ति सत्यधर्मविशारदाः।
नाध्यापयन्त्यधीयन्ते यजन्ते याजयन्ति न ॥ १३ ॥
ब्राह्मणान् परिरक्षन्ति संग्रामेष्वपलायिनः ।
क्षत्रिया मे स्वकर्मस्था मामकान्तरमाविशः ॥ १४ ॥
मूलम्
न याचन्ते प्रयच्छन्ति सत्यधर्मविशारदाः।
नाध्यापयन्त्यधीयन्ते यजन्ते याजयन्ति न ॥ १३ ॥
ब्राह्मणान् परिरक्षन्ति संग्रामेष्वपलायिनः ।
क्षत्रिया मे स्वकर्मस्था मामकान्तरमाविशः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे राज्यमें जो क्षत्रिय हैं, वे अपने वर्णोचित कर्मोंमें लगे रहते हैं, वे वेदोंका अध्ययन तो करते हैं, परंतु अध्यापन नहीं करते; यज्ञ करते हैं, परंतु कराते नहीं हैं तथा दान देते हैं, किंतु स्वयं लेते नहीं हैं। मेरे राज्यके क्षत्रिय याचना नहीं करते; स्वयं ही याचकोंको मुँहमाँगी वस्तुएँ देते हैं। सत्यभाषी तथा धर्मसम्पादनमें कुशल हैं। वे ब्राह्मणोंकी रक्षा करते हैं और युद्धमें कभी पीठ नहीं दिखाते हैं तो भी तुम मेरे शरीरके भीतर कैसे प्रविष्ट हो गये?॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृषिगोरक्षवाणिज्यमुपजीवन्त्यमायया ।
अप्रमत्ताः क्रियावन्तः सुव्रताः सत्यवादिनः ॥ १५ ॥
संविभागं दमं शौचं सौहृदं च व्यपाश्रिताः।
मम वैश्याः स्वकर्मस्था मामकान्तरमाविशः ॥ १६ ॥
मूलम्
कृषिगोरक्षवाणिज्यमुपजीवन्त्यमायया ।
अप्रमत्ताः क्रियावन्तः सुव्रताः सत्यवादिनः ॥ १५ ॥
संविभागं दमं शौचं सौहृदं च व्यपाश्रिताः।
मम वैश्याः स्वकर्मस्था मामकान्तरमाविशः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे राज्यके वैश्य भी अपने कर्मोंमें ही लगे रहते हैं। वे छल-कपट छोड़कर खेती, गोरक्षा और व्यापारसे जीविका चलाते हैं। प्रमादमें न पड़कर सदा सत्कर्मोंमें संलग्न रहते हैं। उत्तम व्रतोंका पालन करनेवाले और सत्यवादी हैं। अतिथियोंको देकर खाते हैं, इन्द्रियोंको संयममें रखते हैं, शौचाचारका पालन करते और सबके प्रति सौहार्द बनाये रखते हैं तो भी मेरे भीतर तुम कैसे घुस आये?॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रीन् वर्णानुपजीवन्ति यथावदनसूयकाः ।
मम शूद्राः स्वकर्मस्था मामकान्तरमाविशः ॥ १७ ॥
मूलम्
त्रीन् वर्णानुपजीवन्ति यथावदनसूयकाः ।
मम शूद्राः स्वकर्मस्था मामकान्तरमाविशः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे यहाँके शूद्र भी तीनों वर्णोंकी यथावत् सेवासे जीवन-निर्वाह करते हैं तथा परदोषदर्शनसे दूर ही रहते हैं। इस प्रकार वे भी अपने कर्मोंमें ही स्थित हैं, तथापि तुम मेरे भीतर कैसे घुस आये?॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपणानाथवृद्धानां दुर्बलातुरयोषिताम् ।
संविभक्तास्मि सर्वेषां मामकान्तरमाविशः ॥ १८ ॥
मूलम्
कृपणानाथवृद्धानां दुर्बलातुरयोषिताम् ।
संविभक्तास्मि सर्वेषां मामकान्तरमाविशः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दीन, अनाथ, वृद्ध, दुर्बल, रोगी तथा स्त्री—इन सबको मैं अन्न-वस्त्र तथा औषध आदि आवश्यक वस्तुएँ देता रहता हूँ, तथापि तुम मेरे शरीरमें कैसे प्रविष्ट हो गये?॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुलदेशादिधर्माणां प्रथितानां यथाविधि ।
अव्युच्छेत्तास्मि सर्वेषां मामकान्तरमाविशः ॥ १९ ॥
मूलम्
कुलदेशादिधर्माणां प्रथितानां यथाविधि ।
अव्युच्छेत्तास्मि सर्वेषां मामकान्तरमाविशः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं अपने सुविख्यात कुल-धर्म, देश-धर्म तथा जाति-धर्मकी परम्पराका विधिपूर्वक पालन करता हुआ इन सब धर्मोंमेंसे किसीका भी लोप नहीं होने देता, तो भी तुम मेरे भीतर कैसे घुस आये?॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपस्विनो मे विषये पूजिताः परिपालिताः।
संविभक्ताश्च सत्कृत्य मामकान्तरमाविशः ॥ २० ॥
मूलम्
तपस्विनो मे विषये पूजिताः परिपालिताः।
संविभक्ताश्च सत्कृत्य मामकान्तरमाविशः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने राज्यके तपस्वी मुनियोंकी मैंने सदा ही पूजा और रक्षा की है तथा उन्हें सत्कारपूर्वक आवश्यक वस्तुएँ दी हैं। इतनेपर भी मेरे शरीरके भीतर तुम्हारा प्रवेश कैसे सम्भव हुआ है?॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नासंविभज्य भोक्तास्मि नाविशामि परस्त्रियम्।
स्वतन्त्रो जातु न क्रीडे मामकान्तरमाविशः ॥ २१ ॥
मूलम्
नासंविभज्य भोक्तास्मि नाविशामि परस्त्रियम्।
स्वतन्त्रो जातु न क्रीडे मामकान्तरमाविशः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं देवता, पितर तथा अतिथि आदिको उनका भाग अर्पण किये बिना कभी नहीं भोजन करता। परायी स्त्रीसे कभी सम्पर्क नहीं रखता तथा कभी स्वच्छन्द होकर क्रीडा नहीं करता तो भी तुमने मेरे शरीरमें कैसे प्रवेश किया?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाब्रह्मचारी भिक्षावान्भिक्षुर्वाऽब्रह्मचर्यवान् ।
अनृत्विजा हुतं नास्ति मामकान्तरमाविशः ॥ २२ ॥
मूलम्
नाब्रह्मचारी भिक्षावान्भिक्षुर्वाऽब्रह्मचर्यवान् ।
अनृत्विजा हुतं नास्ति मामकान्तरमाविशः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे राज्यमें कोई भी ब्रह्मचर्यका पालन न करनेवाला भिक्षा नहीं माँगता अथवा भिक्षु या संन्यासी ब्रह्मचर्यका पालन किये बिना नहीं रहता। बिना ऋत्विज्के मेरे यहाँ होम नहीं होता; फिर तुम कैसे मेरे भीतर घुस आये?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(कृतं राज्यं मया सर्वं राज्यस्थेनापि कार्यवत्।
नाहं व्युत्क्रमितः सत्यान्मामकान्तरमाविशः ॥)
मूलम्
(कृतं राज्यं मया सर्वं राज्यस्थेनापि कार्यवत्।
नाहं व्युत्क्रमितः सत्यान्मामकान्तरमाविशः ॥)
अनुवाद (हिन्दी)
राज्यसिंहासनपर स्थित होकर भी मैंने सारा राज्यकार्य कर्तव्य-पालनकी दृष्टिसे किया है और कभी सत्यसे मैं विचलित नहीं हुआ हूँ; तो भी मेरे शरीरके भीतर तुम्हारा प्रवेश कैसे हुआ है?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नावजानाम्यहं वैद्यान्न वृद्धान्न तपस्विनः।
राष्ट्रे स्वपति जागर्मि मामकान्तरमाविशः ॥ २३ ॥
मूलम्
नावजानाम्यहं वैद्यान्न वृद्धान्न तपस्विनः।
राष्ट्रे स्वपति जागर्मि मामकान्तरमाविशः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं विद्वानों, वृद्धों तथा तपस्वी जनोंका कभी तिरस्कार नहीं करता हूँ। जब सारा राष्ट्र सोता है, उस समय भी मैं उसकी रक्षाके लिये जागता रहता हूँ, तथापि तुम मेरे शरीरके भीतर कैसे चल आये?॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(शुक्लकर्मास्मि सर्वत्र न दुर्गतिभयं मम।
धर्मचारी गृहस्थश्च मामकान्तरमाविशः ॥)
आत्मविज्ञानसम्पन्नस्तपस्वी सर्वधर्मवित् ।
स्वामी सर्वस्य राष्ट्रस्य धीमान् मम पुरोहितः ॥ २४ ॥
मूलम्
(शुक्लकर्मास्मि सर्वत्र न दुर्गतिभयं मम।
धर्मचारी गृहस्थश्च मामकान्तरमाविशः ॥)
आत्मविज्ञानसम्पन्नस्तपस्वी सर्वधर्मवित् ।
स्वामी सर्वस्य राष्ट्रस्य धीमान् मम पुरोहितः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं सब जगह निर्दोष एवं विशुद्ध कर्म करनेवाला हूँ, मुझे कहीं भी दुर्गतिका भय नहीं है। मैं धर्मका आचरण करनेवाला गृहस्थ हूँ। तुम मेरे शरीरके भीतर कैसे आ गये? मेरे बुद्धिमान् पुरोहित आत्मज्ञानी, तपस्वी तथा सब धर्मोंके ज्ञाता हैं। वे सम्पूर्ण राष्ट्रके स्वामी हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दानेन विद्यामभिवान् छयामि
सत्येनार्थं ब्राह्मणानां च गुप्त्या।
शुश्रूषया चापि गुरूनुपैमि
न मे भयं विद्यते राक्षसेभ्यः ॥ २५ ॥
मूलम्
दानेन विद्यामभिवान् छयामि
सत्येनार्थं ब्राह्मणानां च गुप्त्या।
शुश्रूषया चापि गुरूनुपैमि
न मे भयं विद्यते राक्षसेभ्यः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं धन देकर विद्या पानेकी इच्छा रखता हूँ। सत्यके पालन तथा ब्राह्मणोंके संरक्षणद्वारा अभीष्ट अर्थ (पुण्यलोकोंपर अधिकार) पाना चाहता हूँ तथा सेवा-शुश्रूषाद्वारा गुरुजनोंको संतुष्ट करनेके लिये उनके पास जाता हूँ; अतः मुझे राक्षसोंसे कभी भय नहीं है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मे राष्ट्रे विधवा ब्रह्मबन्धु-
र्न ब्राह्मणः कितवो नोत चोरः।
अयाज्ययाजी न च पापकर्मा
न मे भयं विद्यते राक्षसेभ्यः ॥ २६ ॥
मूलम्
न मे राष्ट्रे विधवा ब्रह्मबन्धु-
र्न ब्राह्मणः कितवो नोत चोरः।
अयाज्ययाजी न च पापकर्मा
न मे भयं विद्यते राक्षसेभ्यः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे राज्यमें कोई स्त्री विधवा नहीं है तथा कोई भी ब्राह्मण अधम, धूर्त, चोर, अनधिकारियोंका यज्ञ करानेवाला और पापाचारी नहीं है; इसलिये मुझे राक्षसोंसे तनिक भी भय नहीं है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मे शस्त्रैरनिर्भिन्नं गात्रे द्व्यङ्गुलमन्तरम्।
धर्मार्थं युध्यमानस्य मामकान्तरमाविशः ॥ २७ ॥
मूलम्
न मे शस्त्रैरनिर्भिन्नं गात्रे द्व्यङ्गुलमन्तरम्।
धर्मार्थं युध्यमानस्य मामकान्तरमाविशः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे शरीरमें दो अंगुल भी ऐसा स्थान नहीं है, जो धर्मके लिये युद्ध करते समय अस्त्र-शस्त्रोंसे घायल न हुआ हो, तथापि तुम मेरे भीतर कैसे घुस आये?॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोब्राह्मणेभ्यो यज्ञेभ्यो नित्यं स्वस्त्ययनं मम।
आशासते जना राष्ट्रे मामकान्तरमाविशः ॥ २८ ॥
मूलम्
गोब्राह्मणेभ्यो यज्ञेभ्यो नित्यं स्वस्त्ययनं मम।
आशासते जना राष्ट्रे मामकान्तरमाविशः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे राज्यमें रहनेवाले लोग गौओं, ब्राह्मणों तथा यज्ञोंके लिये सदा मङ्गल-कामना करते रहते हैं, तो भी तुम मेरे शरीरके भीतर कैसे घुस आये?॥२८॥
मूलम् (वचनम्)
राक्षस उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
(नारीणां व्यभिचाराच्च अन्यायाच्च महीक्षिताम्।
विप्राणां कर्मदोषाच्च प्रजानां जायते भयम्॥
मूलम्
(नारीणां व्यभिचाराच्च अन्यायाच्च महीक्षिताम्।
विप्राणां कर्मदोषाच्च प्रजानां जायते भयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसने कहा— स्त्रियोंके व्यभिचारसे, राजाओंके अन्यायसे तथा ब्राह्मणोंके कर्मदोषसे प्रजाको भय प्राप्त होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवृष्टिर्मारको रोगः सततं क्षुद्भयानि च।
विग्रहश्च सदा तस्मिन् देशे भवति दारुणः॥
मूलम्
अवृष्टिर्मारको रोगः सततं क्षुद्भयानि च।
विग्रहश्च सदा तस्मिन् देशे भवति दारुणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस देशमें उक्त दोष होते हैं, वहाँ वर्षा नहीं होती। महामारी फैल जाती है, सदा भूखका भय बना रहता है और बड़ा भयानक संग्राम छिड़ जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यक्षरक्षःपिशाचेभ्यो नासुरेभ्यः कथञ्चन ।
भयमुत्पद्यते तत्र यत्र विप्राः सुसंयताः॥)
मूलम्
यक्षरक्षःपिशाचेभ्यो नासुरेभ्यः कथञ्चन ।
भयमुत्पद्यते तत्र यत्र विप्राः सुसंयताः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ ब्राह्मण संयमपूर्ण जीवन बिता रहे हों वहाँ यक्ष, राक्षस, पिशाच तथा असुरोंसे किसी प्रकार भय नहीं प्राप्त होता॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मात् सर्वास्ववस्थासु धर्ममेवान्ववेक्षसे ।
तस्मात् प्राप्नुहि कैकेय गृहं स्वस्ति व्रजाम्यहम् ॥ २९ ॥
मूलम्
यस्मात् सर्वास्ववस्थासु धर्ममेवान्ववेक्षसे ।
तस्मात् प्राप्नुहि कैकेय गृहं स्वस्ति व्रजाम्यहम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
केकयनरेश! तुम सभी अवस्थाओंमें धर्मपर ही दृष्टि रखते हो, इसलिये कुशलपूर्वक घरको जाओ। तुम्हारा कल्याण हो। मैं अब जाता हूँ॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषां गोब्राह्मणं रक्ष्यं प्रजा रक्ष्याश्च केकय।
न रक्षोभ्यो भयं तेषां कुत एव तु पावकात्॥३०॥
मूलम्
येषां गोब्राह्मणं रक्ष्यं प्रजा रक्ष्याश्च केकय।
न रक्षोभ्यो भयं तेषां कुत एव तु पावकात्॥३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
केकयराज! जो राजा गौओं तथा ब्राह्मणोंकी रक्षा करते हैं और प्रजाका पालन करना अपना धर्म समझते हैं, उन्हें राक्षसोंसे भय नहीं है; फिर अग्निसे तो हो ही कैसे सकता है?॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषां पुरोगमा विप्रा येषां ब्रह्म परं बलम्।
अतिथिप्रियास्तथा पौरास्ते वै स्वर्गजितो नृपाः ॥ ३१ ॥
मूलम्
येषां पुरोगमा विप्रा येषां ब्रह्म परं बलम्।
अतिथिप्रियास्तथा पौरास्ते वै स्वर्गजितो नृपाः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके आगे-आगे ब्राह्मण चलते हैं, जिनका सबसे बड़ा बल ब्राह्मण ही हैं, तथा जिनके राज्यके नागरिक अतिथि-सत्कारके प्रेमी हैं, वे नरेश निश्चय ही स्वर्गलोकपर अधिकार प्राप्त कर लेते हैं॥३१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् द्विजातीन् रक्षेत ते हि रक्षन्ति रक्षिताः।
आशीरेषां भवेद् राजन् राज्ञां सम्यक्प्रवर्तताम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
तस्माद् द्विजातीन् रक्षेत ते हि रक्षन्ति रक्षिताः।
आशीरेषां भवेद् राजन् राज्ञां सम्यक्प्रवर्तताम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! इसलिये ब्राह्मणोंकी सदा रक्षा करनी चाहिये। सुरक्षित रहनेपर वे राजाओंकी रक्षा करते हैं। ठीक-ठीक बर्ताव करनेवाले राजाओंको ब्राह्मणोंका आशीर्वाद प्राप्त होता है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् राज्ञा विशेषेण विकर्मस्था द्विजातयः।
नियम्याः संविभज्याश्च तदनुग्रहकारणात् ॥ ३३ ॥
मूलम्
तस्माद् राज्ञा विशेषेण विकर्मस्था द्विजातयः।
नियम्याः संविभज्याश्च तदनुग्रहकारणात् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः राजाओंको चाहिये कि वे विपरीत कर्म करने-वाले ब्राह्मणोंको उनपर अनुग्रह करनेके लिये ही नियन्त्रणमें रखें और उनकी आवश्यकताकी वस्तुएँ उन्हें देते रहें॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं यो वर्तते राजा पौरजानपदेष्विह।
अनुभूयेह भद्राणि प्राप्नोतीन्द्रसलोकताम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
एवं यो वर्तते राजा पौरजानपदेष्विह।
अनुभूयेह भद्राणि प्राप्नोतीन्द्रसलोकताम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा अपने नगर और राष्ट्रकी प्रजाके साथ ऐसा धर्मपूर्ण बर्ताव करता है, वह इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें इन्द्रलोक प्राप्त कर लेता है॥३४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि कैकेयोपाख्याने सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें केकयराजका उपाख्यानविषयक सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७७॥