भागसूचना
पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजाके कर्तव्यका वर्णन, युधिष्ठिरका राज्यसे विरक्त होना एवं भीष्मजीका पुनः राज्यकी महिमा सुनाना
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यया वृत्त्या महीपालो विवर्धयति मानवान्।
पुण्यांश्च लोकान् जयति तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
मूलम्
यया वृत्त्या महीपालो विवर्धयति मानवान्।
पुण्यांश्च लोकान् जयति तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! राजा जिस वृत्तिसे रहनेपर अपने प्रजाजनोंकी उन्नति करता है और स्वयं भी विशुद्ध लोकोंपर विजय प्राप्त कर लेता है, वह मुझे बताइये॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दानशीलो भवेद् राजा यज्ञशीलश्च भारत।
उपवासतपःशीलः प्रजानां पालने रतः ॥ २ ॥
मूलम्
दानशीलो भवेद् राजा यज्ञशीलश्च भारत।
उपवासतपःशीलः प्रजानां पालने रतः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— भरतनन्दन! राजाको सदा ही दानशील, यज्ञशील, उपवास और तपस्यामें तत्पर एवं प्रजा-पालनमें संलग्न रहना चाहिये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वाश्चैव प्रजा नित्यं राजा धर्मेण पालयन्।
उत्थानेन प्रदानेन पूजयेच्चापि धार्मिकान् ॥ ३ ॥
मूलम्
सर्वाश्चैव प्रजा नित्यं राजा धर्मेण पालयन्।
उत्थानेन प्रदानेन पूजयेच्चापि धार्मिकान् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त प्रजाओंका सदा धर्मपूर्वक पालन करनेवाले राजाको घरपर आये हुए धर्मात्मा पुरुषोंका खड़ा होकर स्वागत करना चाहिये और उत्तम वस्तुएँ देकर उनका आदर-सत्कार करना चाहिये॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञा हि पूजितो धर्मस्ततः सर्वत्र पूज्यते।
यद् यदाचरते राजा तत् प्रजानां स्म रोचते ॥ ४ ॥
मूलम्
राज्ञा हि पूजितो धर्मस्ततः सर्वत्र पूज्यते।
यद् यदाचरते राजा तत् प्रजानां स्म रोचते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाद्वारा जब जिस धर्मका आदर किया जाता है उसका फिर सर्वत्र आदर होने लगता है; क्योंकि राजा जो-जो कार्य करता है, प्रजावर्गको वही करना अच्छा लगता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यमुद्यतदण्डश्च भवेन्मृत्युरिवारिषु ।
निहन्यात् सर्वतो दस्यून् न कामात् कस्यचित् क्षमेत् ॥ ५ ॥
मूलम्
नित्यमुद्यतदण्डश्च भवेन्मृत्युरिवारिषु ।
निहन्यात् सर्वतो दस्यून् न कामात् कस्यचित् क्षमेत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाको चाहिये कि वह शत्रुओंको यमराजकी भाँति सदा दण्ड देनेके लिये उद्यत रहे। वह डाकुओं और लुटेरोंको सब ओरसे पकड़कर मार डाले। स्वार्थवश किसी दुष्टके अपराधको क्षमा न करे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं हि धर्मं चरन्तीह प्रजा राज्ञा सुरक्षिताः।
चतुर्थं तस्य धर्मस्य राजा भारत विन्दति ॥ ६ ॥
मूलम्
यं हि धर्मं चरन्तीह प्रजा राज्ञा सुरक्षिताः।
चतुर्थं तस्य धर्मस्य राजा भारत विन्दति ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! राजाद्वारा सुरक्षित हुई प्रजा यहाँ जिस धर्मका आचरण करती है, उसका चौथा भाग राजाको भी मिल जाता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदधीते यद् ददाति यज्जुहोति यदर्चति।
राजा चतुर्थभाक् तस्य प्रजा धर्मेण पालयन् ॥ ७ ॥
मूलम्
यदधीते यद् ददाति यज्जुहोति यदर्चति।
राजा चतुर्थभाक् तस्य प्रजा धर्मेण पालयन् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजा जो स्वाध्याय, जो दान, जो होम और जो पूजन करती है, उन पुण्य कर्मोंका एक चौथाई भाग उस प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करनेवाला नरेश प्राप्त कर लेता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् राष्ट्रेऽकुशलं किञ्चिद् राज्ञोऽरक्षयतः प्रजाः।
चतुर्थं तस्य पापस्य राजा भारत विन्दति ॥ ८ ॥
मूलम्
यद् राष्ट्रेऽकुशलं किञ्चिद् राज्ञोऽरक्षयतः प्रजाः।
चतुर्थं तस्य पापस्य राजा भारत विन्दति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! यदि राजा प्रजाकी रक्षा नहीं करता तो उसके राज्यमें प्रजा जो कुछ भी अशुभ कार्य करती है, उस पापकर्मका एक चौथाई भाग राजाको भोगना पड़ता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्याहुः सर्वमेवेति भूयोऽर्धमिति निश्चयः।
कर्मणः पृथिवीपाल नृशंसोऽनृतवागपि ॥ ९ ॥
मूलम्
अप्याहुः सर्वमेवेति भूयोऽर्धमिति निश्चयः।
कर्मणः पृथिवीपाल नृशंसोऽनृतवागपि ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीपते! कुछ लोगोंका मत है कि उपर्युक्त अवस्थामें राजाको पूरे पापका भागी होना पड़ता है, और कुछ लोगोंका यह निश्चय है कि उसको आधा पाप लगता है। ऐसा राजा क्रूर और मिथ्यावादी समझा जाता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तादृशात् किल्बिषाद् राजा शृणु येन प्रमुच्यते।
प्रत्याहर्तुमशक्यं स्याद् धनं चोरैर्हृतं यदि।
तत् स्वकोशात् प्रदेयं स्यादशक्तेनोपजीवतः ॥ १० ॥
मूलम्
तादृशात् किल्बिषाद् राजा शृणु येन प्रमुच्यते।
प्रत्याहर्तुमशक्यं स्याद् धनं चोरैर्हृतं यदि।
तत् स्वकोशात् प्रदेयं स्यादशक्तेनोपजीवतः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे पापसे राजाको किस उपायसे छुटकारा मिलता है, वह बताता हूँ, सुनो। चोरों या लुटेरोंने यदि किसीके धनका अपहरण कर लिया हो और राजा पता लगाकर उस धनको लौटा न सके तो उस असमर्थ नरेशको चाहिये कि वह अपने आश्रयमें रहनेवाले उस मनुष्यको उतना ही धन राजकीय खजानेसे दे दे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्ववर्णैः सदा रक्ष्यं ब्रह्मस्वं ब्राह्मणा यथा।
न स्थेयं विषये तेन योऽपकुर्याद् द्विजातिषु ॥ ११ ॥
मूलम्
सर्ववर्णैः सदा रक्ष्यं ब्रह्मस्वं ब्राह्मणा यथा।
न स्थेयं विषये तेन योऽपकुर्याद् द्विजातिषु ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी वर्णके लोगोंको ब्राह्मणोंके धनकी भी रक्षा उसी प्रकार करनी चाहिये जिस प्रकार स्वयं ब्राह्मणोंकी। जो ब्राह्मणोंको कष्ट पहुँचाता हो, उसे राजाको अपने राज्यमें नहीं रहने देना चाहिये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मस्वे रक्ष्यमाणे तु सर्वं भवति रक्षितम्।
तस्मात् तेषां प्रसादेन कृतकृत्यो भवेन्नृपः ॥ १२ ॥
मूलम्
ब्रह्मस्वे रक्ष्यमाणे तु सर्वं भवति रक्षितम्।
तस्मात् तेषां प्रसादेन कृतकृत्यो भवेन्नृपः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणके धनकी रक्षा की जानेपर ही सब कुछ रक्षित हो जाता है; क्योंकि उन ब्राह्मणोंकी कृपासे राजा कृतार्थ हो जाता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर्जन्यमिव भूतानि महाद्रुममिव द्विजाः।
नरास्तमुपजीवन्ति नृपं सर्वार्थसाधकम् ॥ १३ ॥
मूलम्
पर्जन्यमिव भूतानि महाद्रुममिव द्विजाः।
नरास्तमुपजीवन्ति नृपं सर्वार्थसाधकम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सब प्राणी मेघोंके और पक्षी वृक्षोंके सहारे जीवन-निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार सब मनुष्य सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि करनेवाले राजाके आश्रित होकर जीवनयापन करते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि कामात्मना राज्ञा सततं कामबुद्धिना।
नृशंसेनातिलुब्धेन शक्यं पालयितुं प्रजाः ॥ १४ ॥
मूलम्
न हि कामात्मना राज्ञा सततं कामबुद्धिना।
नृशंसेनातिलुब्धेन शक्यं पालयितुं प्रजाः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा कामासक्त हो सदा कामका ही चिन्तन करनेवाला, क्रूर और अत्यन्त लोभी होता है, वह प्रजाका पालन नहीं कर सकता॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं राज्यसुखान्वेषी राज्यमिच्छाम्यपि क्षणम्।
धर्मार्थं रोचये राज्यं धर्मश्चात्र न विद्यते ॥ १५ ॥
मूलम्
नाहं राज्यसुखान्वेषी राज्यमिच्छाम्यपि क्षणम्।
धर्मार्थं रोचये राज्यं धर्मश्चात्र न विद्यते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— पितामह! मैं राज्यसे सुख मिलनेकी आशा रखकर कभी एक क्षणके लिये भी राज्य करनेकी इच्छा नहीं करता। मैं तो धर्मके लिये ही राज्यको पसंद करता था; परंतु मालूम होता है कि इसमें धर्म नहीं है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदलं मम राज्येन यत्र धर्मो न विद्यते।
वनमेव गमिष्यामि तस्माद् धर्मचिकीर्षया ॥ १६ ॥
मूलम्
तदलं मम राज्येन यत्र धर्मो न विद्यते।
वनमेव गमिष्यामि तस्माद् धर्मचिकीर्षया ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसमें धर्म ही नहीं है, उस राज्यसे मुझे क्या लेना है? अतः अब मैं धर्म करनेकी इच्छासे वनमें ही चला जाऊँगा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र मेध्येष्वरण्येषु न्यस्तदण्डो जितेन्द्रियः।
धर्ममाराधयिष्यामि मुनिर्मूलफलाशनः ॥ १७ ॥
मूलम्
तत्र मेध्येष्वरण्येषु न्यस्तदण्डो जितेन्द्रियः।
धर्ममाराधयिष्यामि मुनिर्मूलफलाशनः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ वनके पावन प्रदेशोंमें हिंसाका सर्वथा त्याग कर दूँगा और जितेन्द्रिय हो मुनिवृत्तिसे रहकर फल-मूलका आहार करते हुए धर्मकी आराधना करूँगा॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदाहं तव या बुद्धिरानृशंस्यगुणैव सा।
न च शुद्धानृशंस्येन शक्यं राज्यमुपासितुम् ॥ १८ ॥
मूलम्
वेदाहं तव या बुद्धिरानृशंस्यगुणैव सा।
न च शुद्धानृशंस्येन शक्यं राज्यमुपासितुम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! मैं जानता हूँ कि तुम्हारी बुद्धिमें दया और कोमलतारूपी गुण ही भरा है; परंतु केवल दया एवं कोमलतासे ही राज्यका शासन नहीं किया जा सकता॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि तु त्वां मृदुप्रज्ञमत्यार्यमतिधार्मिकम्।
क्लीबं धर्मघृणायुक्तं न लोको बहु मन्यते ॥ १९ ॥
मूलम्
अपि तु त्वां मृदुप्रज्ञमत्यार्यमतिधार्मिकम्।
क्लीबं धर्मघृणायुक्तं न लोको बहु मन्यते ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारी बुद्धि अत्यन्त कोमल है। तुम बड़े सज्जन और बड़े धर्मात्मा हो। धर्मके प्रति तुम्हारा महान् अनुग्रह है। यह सब होनेपर भी संसारके लोग तुम्हें कायर समझकर अधिक आदर नहीं देंगे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृत्तं तु स्वमपेक्षस्व पितृपैतामहोचितम्।
नैव राज्ञां तथा वृत्तं यथा त्वं स्थातुमिच्छसि ॥ २० ॥
मूलम्
वृत्तं तु स्वमपेक्षस्व पितृपैतामहोचितम्।
नैव राज्ञां तथा वृत्तं यथा त्वं स्थातुमिच्छसि ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे बाप-दादोंने जिस आचार-व्यवहारको अपनाया था, उसे ही प्राप्त करनेकी तुम भी इच्छा रखो। तुम जिस तरह रहना चाहते हो, वह राजाओंका आचरण नहीं है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि वैक्लव्यसंसृष्टमानृशंस्यमिहास्थितः ।
प्रजापालनसम्भूतमाप्ता धर्मफलं ह्यसि ॥ २१ ॥
मूलम्
न हि वैक्लव्यसंसृष्टमानृशंस्यमिहास्थितः ।
प्रजापालनसम्भूतमाप्ता धर्मफलं ह्यसि ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार व्याकुलताजनित कोमलताका आश्रय लेकर तुम यहाँ प्रजापालनसे सुलभ होनेवाले धर्मके फलको नहीं पा सकोगे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्येतामाशिषं पाण्डुर्न च कुन्ती त्वयाचत।
तथैतत् प्रज्ञया तात यथाऽऽचरसि मेधया ॥ २२ ॥
मूलम्
न ह्येतामाशिषं पाण्डुर्न च कुन्ती त्वयाचत।
तथैतत् प्रज्ञया तात यथाऽऽचरसि मेधया ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! तुम अपनी बुद्धि और विचारसे जैसा आचरण करते हो, तुम्हारे विषयमें ऐसी आशा न तो पाण्डुने की थी और न कुन्तीने ही ऐसी आशा की थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शौर्यं बलं च सत्यं च पिता तव सदाब्रवीत्।
माहात्म्यं च महौदार्यं भवतः कुन्त्ययाचत ॥ २३ ॥
मूलम्
शौर्यं बलं च सत्यं च पिता तव सदाब्रवीत्।
माहात्म्यं च महौदार्यं भवतः कुन्त्ययाचत ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे पिता पाण्डु तुम्हारे लिये सदा कहा करते थे कि मेरे पुत्रमें शूरता, बल और सत्यकी वृद्धि हो। तुम्हारी माता कुन्ती भी यही इच्छा किया करती थी कि तुम्हारी महत्ता और उदारता बढ़े॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यं स्वाहा स्वधा नित्यं चोभे मानुषदैवते।
पुत्रेष्वाशासते नित्यं पितरो दैवतानि च ॥ २४ ॥
मूलम्
नित्यं स्वाहा स्वधा नित्यं चोभे मानुषदैवते।
पुत्रेष्वाशासते नित्यं पितरो दैवतानि च ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रतिदिन यज्ञ और श्राद्ध—ये दोनों कर्म क्रमशः देवताओं तथा मानव-पितरोंको आनन्दित करनेवाले हैं। देवता और पितर अपनी संतानोंसे सदा इन्हीं कर्मोंकी आशा रखते हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दानमध्ययनं यज्ञं प्रजानां परिपालनम्।
धर्ममेतदधर्मं वा जन्मनैवाभ्यजायथाः ॥ २५ ॥
मूलम्
दानमध्ययनं यज्ञं प्रजानां परिपालनम्।
धर्ममेतदधर्मं वा जन्मनैवाभ्यजायथाः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दान, वेदाध्ययन, यज्ञ तथा प्रजाका पालन—ये धर्मरूप हों या अधर्मरूप। तुम्हारा जन्म इन्हीं कर्मोंको करनेके लिये हुआ है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काले धुरि च युक्तानां वहतां भारमाहितम्।
सीदतामपि कौन्तेय न कीर्तिरवसीदति ॥ २६ ॥
मूलम्
काले धुरि च युक्तानां वहतां भारमाहितम्।
सीदतामपि कौन्तेय न कीर्तिरवसीदति ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! यथासमय भार वहन करनेमें लगाये गये पुरुषोंपर जो राज्य आदिका भार रख दिया जाता है, उसे वहन करते समय यद्यपि कष्ट उठाना पड़ता है तथापि उससे उन पुरुषोंकी कीर्ति चिरस्थायी होती है, उसका कभी क्षय नहीं होता॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समन्ततो विनियतो वहत्यस्खलितो हि यः।
निर्दोषः कर्मवचनात् सिद्धिः कर्मण एव सा ॥ २७ ॥
मूलम्
समन्ततो विनियतो वहत्यस्खलितो हि यः।
निर्दोषः कर्मवचनात् सिद्धिः कर्मण एव सा ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य सब ओरसे मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर अपने ऊपर रखे हुए कार्यभारको पूर्णरूपसे वहन करता है और कभी लड़खड़ाता नहीं है, उसे कोई दोष नहीं प्राप्त होता; क्योंकि शास्त्रमें कर्म करनेका कथन है; अतः राजाको कर्म करनेसे ही वह सिद्धि प्राप्त हो जाती है (जिसे तुम वनवास और तपस्यासे पाना चाहते हो)॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैकान्तविनिपातेन विचचारेह कश्चन ।
धर्मी गृही वा राजा वा ब्रह्मचारी यथा पुनः॥२८॥
मूलम्
नैकान्तविनिपातेन विचचारेह कश्चन ।
धर्मी गृही वा राजा वा ब्रह्मचारी यथा पुनः॥२८॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई धर्मनिष्ठ हो, गृहस्थ हो, ब्रह्मचारी हो या राजा हो, पूर्णतया धर्मका आचरण नहीं कर सकता (कुछ-न-कुछ अधर्मका मिश्रण हो ही जाता है)॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अल्पं हि सारभूयिष्ठं यत् कर्मोदारमेव तत्।
कृतमेवाकृताच्छ्रेयो न पापीयोऽस्त्यकर्मणः ॥ २९ ॥
मूलम्
अल्पं हि सारभूयिष्ठं यत् कर्मोदारमेव तत्।
कृतमेवाकृताच्छ्रेयो न पापीयोऽस्त्यकर्मणः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई काम देखनेमें छोटा होनेपर भी यदि उसमें सार अधिक हो तो वह महान् ही है। न करनेकी अपेक्षा कुछ करना ही अच्छा है; क्योंकि कर्तव्य-कर्म न करनेवालेसे बढ़कर दूसरा कोई पापी नहीं है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा कुलीनो धर्मज्ञः प्राप्नोत्यैश्वर्यमुत्तमम्।
योगक्षेमस्तदा राज्ञः कुशलायैव कल्प्यते ॥ ३० ॥
मूलम्
यदा कुलीनो धर्मज्ञः प्राप्नोत्यैश्वर्यमुत्तमम्।
योगक्षेमस्तदा राज्ञः कुशलायैव कल्प्यते ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब धर्मज्ञ एवं कुलीन मुनष्य राजाके यहाँ उत्तम ईश्वरभावको अर्थात् मन्त्री आदिके उच्च अधिकारको पाता है, तभी राजाका योग और क्षेम सिद्ध होता है, जो उसके कुशल-मङ्गलका साधक है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दानेनान्यं बलेनान्यमन्यं सूनृतया गिरा।
सर्वतः प्रतिगृह्णीयाद् राज्यं प्राप्येह धार्मिकः ॥ ३१ ॥
मूलम्
दानेनान्यं बलेनान्यमन्यं सूनृतया गिरा।
सर्वतः प्रतिगृह्णीयाद् राज्यं प्राप्येह धार्मिकः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मात्मा राजा राज्य पानेके अनन्तर किसीको दानसे, किसीको बलसे और किसीको मधुर वाणीद्वारा सब ओरसे अपने वशमें कर ले॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं हि वैद्याः कुले जाता ह्यवृत्तिभयपीडिताः।
प्राप्य तृप्ताः प्रतिष्ठन्ति धर्मःकोऽभ्यधिकस्ततः ॥ ३२ ॥
मूलम्
यं हि वैद्याः कुले जाता ह्यवृत्तिभयपीडिताः।
प्राप्य तृप्ताः प्रतिष्ठन्ति धर्मःकोऽभ्यधिकस्ततः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीवन-निर्वाहका कोई उपाय न होनेके कारण जो भयसे पीड़ित रहते हैं, ऐसे कुलीन एवं विद्वान् पुरुष जिस राजाका आश्रय लेकर संतुष्ट हो प्रतिष्ठापूर्वक रहने लगते हैं, उस राजाके लिये इससे बढ़कर धर्मकी बात और क्या होगी?॥३२॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं तात परमं स्वर्ग्यं का ततः प्रीतिरुत्तमा।
किं ततः परमैश्वर्यं ब्रूहि मे यदि पश्यसि ॥ ३३ ॥
मूलम्
किं तात परमं स्वर्ग्यं का ततः प्रीतिरुत्तमा।
किं ततः परमैश्वर्यं ब्रूहि मे यदि पश्यसि ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— तात! स्वर्ग-प्राप्तिका उत्तम साधन क्या है? उससे कौन-सी उत्तम प्रसन्नता प्राप्त होती है? तथा उसकी अपेक्षा महान् ऐश्वर्य क्या है? यदि आप इन बातोंको जानते हैं तो मुझे बताइये॥३३॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन् भयार्दितः सम्यक् क्षेमं विन्दत्यपि क्षणम्।
स स्वर्गजित्तमोऽस्माकं सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ३४ ॥
मूलम्
यस्मिन् भयार्दितः सम्यक् क्षेमं विन्दत्यपि क्षणम्।
स स्वर्गजित्तमोऽस्माकं सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! भयसे डरा हुआ मनुष्य जिसके पास जाकर एक क्षणके लिये भी भलीभाँति शान्ति पा लेता है, वही हमलोगोंमें स्वर्गलोककी प्राप्तिका सबसे बड़ा अधिकारी है, यह मैं तुमसे सच्ची बात कहता हूँ॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमेव प्रीतिमांस्तस्मात् कुरूणां कुरुसत्तम।
भव राजा जय स्वर्गं सतो रक्षासतो जहि ॥ ३५ ॥
मूलम्
त्वमेव प्रीतिमांस्तस्मात् कुरूणां कुरुसत्तम।
भव राजा जय स्वर्गं सतो रक्षासतो जहि ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये कुरुश्रेष्ठ! तुम्हीं प्रसन्नतापूर्वक कुरुदेशकी प्रजाके राजा बनो। सत्पुरुषोंकी रक्षा तथा दुष्टोंका संहार करो और इस प्रकार अपने कर्तव्यका पालन करके स्वर्गलोकपर विजय प्राप्त कर लो॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनु त्वां तात जीवन्तु सुहृदः साधुभिः सह।
पर्जन्यमिव भूतानि स्वादुद्रुममिव द्विजाः ॥ ३६ ॥
मूलम्
अनु त्वां तात जीवन्तु सुहृदः साधुभिः सह।
पर्जन्यमिव भूतानि स्वादुद्रुममिव द्विजाः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! जैसे सब प्राणी मेघके और पक्षी स्वादिष्ठ फलवाले वृक्षके सहारे जीवन-निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार साधु पुरुषोंसहित समस्त सुहृद्गण तुम्हारे आश्रयमें रहकर अपनी जीविका चलावें॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृष्टं शूरं प्रहर्तारमनृशंसं जितेन्द्रियम्।
वत्सलं संविभक्तारमुपजीवन्ति तं नराः ॥ ३७ ॥
मूलम्
धृष्टं शूरं प्रहर्तारमनृशंसं जितेन्द्रियम्।
वत्सलं संविभक्तारमुपजीवन्ति तं नराः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा निर्भय, शूरवीर, प्रहार करनेमें कुशल, दयालु, जितेन्द्रिय, प्रजावत्सल और दानी होता है, उसीका आश्रय लेकर मनुष्य जीवन-निर्वाह करते हैं॥३७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७५॥