भागसूचना
चतुःसप्ततितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्राह्मण और क्षत्रियके मेलसे लाभका प्रतिपादन करनेवाला मुचुकुन्दका उपाख्यान
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
योगक्षेमो हि राष्ट्रस्य राजन्यायत्त उच्यते।
योगक्षेमो हि राज्ञो हि समायत्तः पुरोहिते ॥ १ ॥
मूलम्
योगक्षेमो हि राष्ट्रस्य राजन्यायत्त उच्यते।
योगक्षेमो हि राज्ञो हि समायत्तः पुरोहिते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! राष्ट्रका योगक्षेम राजाके अधीन बताया जाता है; परंतु राजाका योगक्षेम पुरोहितके अधीन है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्रादृष्टं भयं ब्रह्म प्रजानां शमयत्युत।
दृष्टं च राजा बाहुभ्यां तद् राज्यं सुखमेधते ॥ २ ॥
मूलम्
यत्रादृष्टं भयं ब्रह्म प्रजानां शमयत्युत।
दृष्टं च राजा बाहुभ्यां तद् राज्यं सुखमेधते ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ ब्राह्मण अपने तेजसे प्रजाके अदृष्ट भयका निवारण करता है और राजा अपने बाहुबलसे दृष्ट भयको दूर करता है, वह राज्य-सुखसे उत्तरोत्तर उन्नति करता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
मुचुकुन्दस्य संवादं राज्ञो वैश्रवणस्य च ॥ ३ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
मुचुकुन्दस्य संवादं राज्ञो वैश्रवणस्य च ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विषयमें विज्ञ पुरुष मुचुकुन्द और राजा कुबेरके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुचुकुन्दो विजित्येमां पृथिवी पृथिवीपतिः।
जिज्ञासमानः स्वबलमभ्ययादलकाधिपम् ॥ ४ ॥
मूलम्
मुचुकुन्दो विजित्येमां पृथिवी पृथिवीपतिः।
जिज्ञासमानः स्वबलमभ्ययादलकाधिपम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहते हैं, पृथ्वीपति राजा मुचुकुन्दने इस पृथ्वीको जीतकर अपने बलकी परीक्षा लेनेके लिये अलकापति कुबेरपर चढ़ाई की॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वैश्रवणो राजा राक्षसानसृजत् तदा।
ते बलान्यवमृद्नन्त मुचुकुन्दस्य नैर्ऋताः ॥ ५ ॥
मूलम्
ततो वैश्रवणो राजा राक्षसानसृजत् तदा।
ते बलान्यवमृद्नन्त मुचुकुन्दस्य नैर्ऋताः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब राजा कुबेरने उनका सामना करनेके लिये राक्षसोंकी सेना भेजी। उन राक्षसोंने मुचुकुन्दकी सेनाओंको कुचलना आरम्भ किया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हन्यमाने सैन्ये स्वे मुचुकुन्दो नराधिपः।
गर्हयामास विद्वांसं पुरोहितमरिंदमः ॥ ६ ॥
मूलम्
स हन्यमाने सैन्ये स्वे मुचुकुन्दो नराधिपः।
गर्हयामास विद्वांसं पुरोहितमरिंदमः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अपनी सेनाको मारी जाती देखकर शत्रुदमन राजा मुचुकुन्दने अपने विद्वान् पुरोहित वसिष्ठजीको इसके लिये उलाहना दिया॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत उग्रं तपस्तप्त्वा वसिष्ठो धर्मवित्तमः।
रक्षांस्युपावधीत् तस्य पन्थानं चाप्यविन्दत ॥ ७ ॥
मूलम्
तत उग्रं तपस्तप्त्वा वसिष्ठो धर्मवित्तमः।
रक्षांस्युपावधीत् तस्य पन्थानं चाप्यविन्दत ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महर्षि वसिष्ठजीने घोर तपस्या करके उन राक्षसोंका विनाश कर डाला और राजाके लिये विजय पानेका मार्ग प्राप्त कर लिया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वैश्रवणो राजा मुचुकुन्दमदर्शयत्।
वध्यमानेषु सैन्येषु वचनं चेदमब्रवीत् ॥ ८ ॥
मूलम्
ततो वैश्रवणो राजा मुचुकुन्दमदर्शयत्।
वध्यमानेषु सैन्येषु वचनं चेदमब्रवीत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद राजा कुबेरने, अपनी सेनाको मरते देखकर राजा मुचुकुन्दको दर्शन दिया और इस प्रकार कहा॥८॥
मूलम् (वचनम्)
धनद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलवन्तस्त्वया पूर्वे राजानः सपुरोहिताः।
न चैवं समवर्तन्त यथा त्वमिह वर्तसे ॥ ९ ॥
मूलम्
बलवन्तस्त्वया पूर्वे राजानः सपुरोहिताः।
न चैवं समवर्तन्त यथा त्वमिह वर्तसे ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुबेर बोले— राजन्! पहले भी तुम्हारे समान बलवान् राजा हो चुके हैं और उन्हें भी पुरोहितोंकी सहायता प्राप्त थी, परंतु मेरे साथ यहाँ तुम जैसा बर्ताव कर रहे हो, वैसा किसीने नहीं किया था॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते खल्वपि कृतास्त्राश्च बलवन्तश्च भूमियाः।
आगम्य पर्युपासन्ते मामीशं सुखदुःखयोः ॥ १० ॥
मूलम्
ते खल्वपि कृतास्त्राश्च बलवन्तश्च भूमियाः।
आगम्य पर्युपासन्ते मामीशं सुखदुःखयोः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे भूपाल भी अस्त्रविद्याके ज्ञाता तथा बलवान् थे और मुझे सुख एवं दुःख देनेमें समर्थ ईश्वर मानकर मेरे पास आते और मेरी उपासना करते थे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्यस्ति बाहुवीर्यं ते तद् दर्शयितुमर्हसि।
किं ब्राह्मणबलेन त्वमतिमात्रं प्रवर्तसे ॥ ११ ॥
मूलम्
यद्यस्ति बाहुवीर्यं ते तद् दर्शयितुमर्हसि।
किं ब्राह्मणबलेन त्वमतिमात्रं प्रवर्तसे ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! यदि तुम्हारी भुजाओंमें कुछ बल है तो उसे दिखाओ। ब्राह्मणके बलपर इतना घमण्ड क्यों कर रहे हो?॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुचुकुन्दस्ततः क्रुद्धः प्रत्युवाच धनेश्वरम्।
न्यायपूर्वमसंरब्धमसम्भ्रान्तमिदं वचः ॥ १२ ॥
मूलम्
मुचुकुन्दस्ततः क्रुद्धः प्रत्युवाच धनेश्वरम्।
न्यायपूर्वमसंरब्धमसम्भ्रान्तमिदं वचः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर मुचुकुन्द कुपित हो उठे और धनाध्यक्ष कुबेरसे यह न्याययुक्त, रोषरहित तथा सम्भ्रमशून्य वचन बोले—॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मक्षत्रमिदं सृष्टमेकयोनि स्वयम्भुवा ।
पृथग्बलविधानं तन्न लोकं परिपालयेत् ॥ १३ ॥
मूलम्
ब्रह्मक्षत्रमिदं सृष्टमेकयोनि स्वयम्भुवा ।
पृथग्बलविधानं तन्न लोकं परिपालयेत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजराज! ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनोंकी उत्पत्तिका स्थान एक ही है। दोनोंको स्वयम्भू ब्रह्माजीने ही पैदा किया है। यदि उनका बल और प्रयत्न अलग-अलग हो जाय तो वे संसारकी रक्षा नहीं कर सकते॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपो मन्त्रबलं नित्यं ब्राह्मणेषु प्रतिष्ठितम्।
अस्त्रबाहुबलं नित्यं क्षत्रियेषु प्रतिष्ठितम् ॥ १४ ॥
मूलम्
तपो मन्त्रबलं नित्यं ब्राह्मणेषु प्रतिष्ठितम्।
अस्त्रबाहुबलं नित्यं क्षत्रियेषु प्रतिष्ठितम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्राह्मणोंमें सदा तप और मन्त्रका बल उपस्थित होता है और क्षत्रियोंमें अस्त्र तथा भुजाओंका॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताभ्यां सम्भूय कर्तव्यं प्रजानां परिपालनम्।
तथा च मां प्रवर्तन्तं किं गर्हस्यलकाधिप ॥ १५ ॥
मूलम्
ताभ्यां सम्भूय कर्तव्यं प्रजानां परिपालनम्।
तथा च मां प्रवर्तन्तं किं गर्हस्यलकाधिप ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अलकापते! अतः ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनोंको एक साथ मिलकर ही प्रजाका पालन करना चाहिये। मैं भी इसी नीतिके अनुसार कार्य कर रहा हूँ; फिर आप मेरी निन्दा क्यों करते हैं?॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽब्रवीद् वैश्रवणो राजानं सपुरोहितम्।
नाहं राज्यमनिर्दिष्टं कस्मैचिद् विदधाम्युत ॥ १६ ॥
नाच्छिन्दे चाप्यनिर्दिष्टमिति जानीहि पार्थिव।
प्रशाधि पृथिवीं कृत्स्नां मद्दत्तामखिलामिमाम्।
एवमुक्तः प्रत्युवाच मुचुकुन्दो महीपतिः ॥ १७ ॥
मूलम्
ततोऽब्रवीद् वैश्रवणो राजानं सपुरोहितम्।
नाहं राज्यमनिर्दिष्टं कस्मैचिद् विदधाम्युत ॥ १६ ॥
नाच्छिन्दे चाप्यनिर्दिष्टमिति जानीहि पार्थिव।
प्रशाधि पृथिवीं कृत्स्नां मद्दत्तामखिलामिमाम्।
एवमुक्तः प्रत्युवाच मुचुकुन्दो महीपतिः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कुबेरने पुरोहितसहित राजा मुचुकुन्दसे कहा—‘पृथ्वीपते! मैं ईश्वरकी आज्ञाके बिना न तो किसीको राज्य देता हूँ और न भगवान्की अनुमतिके बिना दूसरेका राज्य छीनता ही हूँ। इस बातको तुम अच्छी तरह समझ लो। यद्यपि ऐसी ही बात है तो भी आज मैं तुम्हें इस सारी पृथ्वीका राज्य दे रहा हूँ। तुम मेरी दी हुई इस सम्पूर्ण पृथ्वीका शासन करो’। उनके ऐसा कहनेपर राजा मुचुकुन्दने इस प्रकार उत्तर दिया॥१६-१७॥
मूलम् (वचनम्)
मुचुकुन्द उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं राज्यं भवद्दत्तं भोक्तुमिच्छामि पार्थिव।
बाहुवीर्यार्जितं राज्यमश्नीयामिति कामये ॥ १८ ॥
मूलम्
नाहं राज्यं भवद्दत्तं भोक्तुमिच्छामि पार्थिव।
बाहुवीर्यार्जितं राज्यमश्नीयामिति कामये ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुचुकुन्द बोले— राजाधिराज! मैं आपके दिये हुए राज्यको नहीं भोगना चाहता। मेरी तो यही इच्छा है कि मैं अपने बाहुबलसे उपार्जित राज्यका उपभोग करूँ॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वैश्रवणो राजा विस्मयं परमं ययौ।
क्षत्रधर्मे स्थितं दृष्ट्वा मुचुकुन्दमसम्भ्रमम् ॥ १९ ॥
मूलम्
ततो वैश्रवणो राजा विस्मयं परमं ययौ।
क्षत्रधर्मे स्थितं दृष्ट्वा मुचुकुन्दमसम्भ्रमम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! राजा मुचुकुन्दको बिना किसी घबराहटके इस प्रकार क्षत्रियधर्ममें स्थित हुआ देख कुबेरको बड़ा विस्मय हुआ॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो राजा मुचुकुन्दः सोऽन्वशासद् वसुन्धराम्।
बाहुवीर्यार्जितां सम्यक्क्षत्रधर्ममनुव्रतः ॥ २० ॥
मूलम्
ततो राजा मुचुकुन्दः सोऽन्वशासद् वसुन्धराम्।
बाहुवीर्यार्जितां सम्यक्क्षत्रधर्ममनुव्रतः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर क्षत्रियधर्मका ठीक-ठीक पालन करनेवाले राजा मुचुकुन्दने अपने बाहुबलसे प्राप्त की हुई इस वसुधाका शासन किया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं यो धर्मविद् राजा ब्रह्मपूर्वं प्रवर्तते।
जयत्यविजितामुर्वीं यशश्च महदश्नुते ॥ २१ ॥
मूलम्
एवं यो धर्मविद् राजा ब्रह्मपूर्वं प्रवर्तते।
जयत्यविजितामुर्वीं यशश्च महदश्नुते ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जो धर्मज्ञ राजा पहले ब्राह्मणका आश्रय लेकर उसकी सहायतासे राज्यकार्यमें प्रवृत्त होता है, वह बिना जीती हुई पृथ्वीको भी जीतकर महान् यशका भागी होता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्योदकी ब्राह्मणःस्यान्नित्यशस्त्रश्च क्षत्रियः ।
तयोर्हि सर्वमायत्तं यत् किञ्चिज्जगतीगतम् ॥ २२ ॥
मूलम्
नित्योदकी ब्राह्मणःस्यान्नित्यशस्त्रश्च क्षत्रियः ।
तयोर्हि सर्वमायत्तं यत् किञ्चिज्जगतीगतम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणको प्रतिदिन स्नान करके जलसम्बन्धी कृत्य—संध्या-वन्दन, तर्पण आदि कर्म करने चाहिये और क्षत्रियको सदा शस्त्रविद्याका अभ्यास बढ़ाना चाहिये। इस भूतलपर जो कोई भी वस्तु है, वह सब इन्हीं दोनोंके अधीन है॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि मुचुकुन्दोपाख्याने चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें मुचुकुन्दका उपाख्यानविषयक चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७४॥