०७३ ऐलकश्यपसंवादे

भागसूचना

त्रिसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

विद्वान् सदाचारी पुरोहितकी आवश्यकता तथा ब्राह्मण और क्षत्रियमें मेल रहनेसे लाभविषयक राजा पुरूरवाका उपाख्यान

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्ञा पुरोहितः कार्यो भवेद् विद्वान् बहुश्रुतः।
उभौ समीक्ष्य धर्मार्थावप्रमेयावनन्तरम् ॥ १ ॥

मूलम्

राज्ञा पुरोहितः कार्यो भवेद् विद्वान् बहुश्रुतः।
उभौ समीक्ष्य धर्मार्थावप्रमेयावनन्तरम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी बोले— राजन्। राजाको चाहिये कि धर्म और अर्थकी गतिको अत्यन्त गहन समझकर अविलम्ब किसी ऐसे ब्राह्मणको पुरोहित बना ले, जो विद्वान् और बहुश्रुत हो॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मात्मा मन्त्रविद् येषां राज्ञां राजन् पुरोहितः।
राजा चैवंगुणो येषां कुशलं तेषु सर्वशः ॥ २ ॥

मूलम्

धर्मात्मा मन्त्रविद् येषां राज्ञां राजन् पुरोहितः।
राजा चैवंगुणो येषां कुशलं तेषु सर्वशः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जिन राजाओंका पुरोहित धर्मात्मा एवं सलाह देनेमें कुशल होता है और जिनका राजा भी ऐसे ही गुणोंसे सम्पन्न (धर्मपरायण एवं गुप्त बातोंका जाननेवाला) होता है, उन राजा और प्रजाओंका सब प्रकारसे भला होता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(तेषामर्थश्च कामश्च धर्मश्चेति विनिश्चयः।
श्लोकांश्चोशनसा गीतांस्तान् निबोध युधिष्ठिर॥
उच्छिष्टः स भवेद् राजा यस्य नास्ति पुरोहितः।

मूलम्

(तेषामर्थश्च कामश्च धर्मश्चेति विनिश्चयः।
श्लोकांश्चोशनसा गीतांस्तान् निबोध युधिष्ठिर॥
उच्छिष्टः स भवेद् राजा यस्य नास्ति पुरोहितः।

अनुवाद (हिन्दी)

उनके धर्म, अर्थ और काम तीनोंकी निश्चय ही सिद्धि होती है। युधिष्ठिर! इस विषयमें शुक्राचार्यके गाये हुए कुछ श्लोक हैं, उन्हें तुम सुनो। जिस राजाके पास पुरोहित नहीं है, वह उच्छिष्ट (अपवित्र) हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्षसामसुराणां च पिशाचोरगपक्षिणाम् ।
शत्रूणां च भवेद् वध्यो यस्य नास्ति पुरोहितः॥

मूलम्

रक्षसामसुराणां च पिशाचोरगपक्षिणाम् ।
शत्रूणां च भवेद् वध्यो यस्य नास्ति पुरोहितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके पास पुरोहित नहीं है, वह राजा राक्षसों, असुरों, पिशाचों, नागों, पक्षियोंका तथा शत्रुओंका वध्य होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रूयात् कार्याणि सततं महोत्पातानि यानि च।
इष्टमङ्गलयुक्तानि तथाऽऽन्तःपुरिकाणि च ॥

मूलम्

ब्रूयात् कार्याणि सततं महोत्पातानि यानि च।
इष्टमङ्गलयुक्तानि तथाऽऽन्तःपुरिकाणि च ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरोहितको चाहिये कि राजाके लिये जो सदा आवश्यक कर्तव्य हों, जो-जो बड़े बड़े उत्पात होने-वाले हों, जो अभीष्ट तथा माङ्गलिक कृत्य हों तथा जो अन्तःपुरसे सम्बन्ध रखनेवाले वृत्तान्त हों, वे सब राजाको बतावे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गीतनृत्ताधिकारेषु सम्मतेषु महीपतेः ।
कर्तव्यं करणीयं वै वैश्वदेवबलिस्तथा॥

मूलम्

गीतनृत्ताधिकारेषु सम्मतेषु महीपतेः ।
कर्तव्यं करणीयं वै वैश्वदेवबलिस्तथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको प्रिय लगनेवाले जो गीत और नृत्यसम्बन्धी कार्य हों, उनमें करनेयोग्य कर्तव्यका पुरोहित निर्देश करे, बलिवैश्चदेवकर्मका सम्पादन करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नक्षत्रस्यानुकूल्येन यः संजातो नरेश्वरः।
राजशास्त्रविनीतश्च श्रेयान् राज्ञः पुरोहितः॥

मूलम्

नक्षत्रस्यानुकूल्येन यः संजातो नरेश्वरः।
राजशास्त्रविनीतश्च श्रेयान् राज्ञः पुरोहितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा अनुकूल नक्षत्रमें उत्पन्न हुआ है तथा राजशास्त्रकी पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर चुका है, उससे भी श्रेष्ठ उसका पुरोहित होना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथान्यानां निमित्तानामुत्पातानामथार्थवित् ॥
शत्रुपक्षक्षयज्ञश्च श्रेयान् सज्ञः पुरोहितः।)

मूलम्

अथान्यानां निमित्तानामुत्पातानामथार्थवित् ॥
शत्रुपक्षक्षयज्ञश्च श्रेयान् सज्ञः पुरोहितः।)

अनुवाद (हिन्दी)

जो भिन्न-भिन्न प्रकारके निमित्तों और उत्पातोंका रहस्य जानता हो तथा शत्रुपक्षके विनाशकी प्रणालीका भी जानकार हो, ऐसा श्रेष्ठतम पुरुष राजाका पुरोहित होना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभौ प्रजा वर्धयतो देवान् सर्वान् सुतान् पितॄन्।
भवेयातां स्थितौ धर्मे श्रद्धेयौ सुतपस्विनौ ॥ ३ ॥
परस्परस्य सुहृदौ विहितौ समचेतसौ।
ब्रह्मक्षत्रस्य सम्मानात् प्रजा सुखमवाप्नुयात् ॥ ४ ॥

मूलम्

उभौ प्रजा वर्धयतो देवान् सर्वान् सुतान् पितॄन्।
भवेयातां स्थितौ धर्मे श्रद्धेयौ सुतपस्विनौ ॥ ३ ॥
परस्परस्य सुहृदौ विहितौ समचेतसौ।
ब्रह्मक्षत्रस्य सम्मानात् प्रजा सुखमवाप्नुयात् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि राजा और पुरोहित धर्मनिष्ठ, श्रद्धेय तथा तपस्वी हों, एक-दूसरेके प्रति सौहार्द रखते हों और समान हृदयवाले हों तो वे दोनों मिलकर प्रजाकी वृद्धि करते हैं तथा सम्पूर्ण देवताओं एवं पितरोंको तृप्त करके पुत्र और प्रजावर्गको भी अभ्युदयशील बनाते हैं। ऐसे ब्राह्मण (पुरोहित) और क्षत्रिय (राजा) का सम्मान करनेसे प्रजाको सुखकी प्राप्ति होती है॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमाननात् तयोरेव प्रजा नश्येयुरेव हि।
ब्रह्मक्षत्रं हि सर्वेषां वर्णानां मूलमुच्यते ॥ ५ ॥

मूलम्

विमाननात् तयोरेव प्रजा नश्येयुरेव हि।
ब्रह्मक्षत्रं हि सर्वेषां वर्णानां मूलमुच्यते ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनोंका अनादर करनेसे प्रजाका विनाश ही होता है, क्योंकि ब्राह्मण और क्षत्रिय सभी वर्णोंके मूल कहे जाते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
ऐलकश्यपसंवादं तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ ६ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
ऐलकश्यपसंवादं तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस विषयमें राजा पुरूरवा और महर्षि कश्यपके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। युधिष्ठिर! तुम उसे सुनो॥६॥

मूलम् (वचनम्)

ऐल उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा हि ब्रह्म प्रजहाति क्षत्रं
क्षत्रं यदा वा प्रजहाति ब्रह्म।
अन्वग्बलं कतमेऽस्मिन् भजन्ते
तथा वर्णाः कतमेऽस्मिन् ध्रियन्ते ॥ ७ ॥

मूलम्

यदा हि ब्रह्म प्रजहाति क्षत्रं
क्षत्रं यदा वा प्रजहाति ब्रह्म।
अन्वग्बलं कतमेऽस्मिन् भजन्ते
तथा वर्णाः कतमेऽस्मिन् ध्रियन्ते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरूरवाने पूछा— महर्षे! ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों साथ रहकर ही सबल होते हैं; परंतु जब ब्राह्मण (पुरोहित) किसी कारणसे क्षत्रियको छोड़ देता है अथवा जब राजा ब्राह्मणका परित्याग कर देता है, तब अन्य वर्णके लोग इन दोनोंमेंसे किसका आश्रय ग्रहण करते हैं? तथा दोनोंमेंसे कौन सबको आश्रय देता है?॥

मूलम् (वचनम्)

कश्यप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्धं राष्ट्रं क्षत्रियस्य भवति
ब्रह्म क्षत्रं यत्र विरुद्ध्यतीह।
अन्वग्बलं दस्यवस्तद् भजन्ते
तथा वर्णं तत्र विदन्ति सन्तः ॥ ८ ॥

मूलम्

विद्धं राष्ट्रं क्षत्रियस्य भवति
ब्रह्म क्षत्रं यत्र विरुद्ध्यतीह।
अन्वग्बलं दस्यवस्तद् भजन्ते
तथा वर्णं तत्र विदन्ति सन्तः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कश्यपने कहा— राजन्! श्रेष्ठ पुरुष इस बातको जानते हैं कि संसारमें जहाँ ब्राह्मण क्षत्रियसे विरोध करता है, वहाँ क्षत्रियका राज्य छिन्न-भिन्न हो जाता है और लुटेरे दल-बलके साथ आकर उसपर अधिकार जमा लेते हैं तथा वहाँ निवास करनेवाले सभी वर्णके लोगोंको अपने अधीन कर लेते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैषां ब्रह्म च वर्धते नोत पुत्रा
न गर्गरो मथ्यते नो यजन्ते।
नैषां पुत्रा वेदमधीयते च
यदा ब्रह्म क्षत्रियाः संत्यजन्ति ॥ ९ ॥

मूलम्

नैषां ब्रह्म च वर्धते नोत पुत्रा
न गर्गरो मथ्यते नो यजन्ते।
नैषां पुत्रा वेदमधीयते च
यदा ब्रह्म क्षत्रियाः संत्यजन्ति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब क्षत्रिय ब्राह्मणको त्याग देते हैं, तब उनका वेदाध्ययन आगे नहीं बढ़ता, उनके पुत्रोंकी भी वृद्धि नहीं होती, उनके यहाँ दही-दूधका मटका नहीं मथा जाता और न वे यज्ञ ही कर पाते हैं। इतना ही नहीं, उन ब्राह्मणोंके पुत्रोंका वेदाध्ययन भी नहीं हो पाता॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैषामर्थो वर्धते जातु गेहे
नाधीयते सुप्रजा नो यजन्ते।
अपध्वस्ता दस्युभूता भवन्ति
ये ब्राह्मणान् क्षत्रियाः संत्यजन्ति ॥ १० ॥

मूलम्

नैषामर्थो वर्धते जातु गेहे
नाधीयते सुप्रजा नो यजन्ते।
अपध्वस्ता दस्युभूता भवन्ति
ये ब्राह्मणान् क्षत्रियाः संत्यजन्ति ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो क्षत्रिय ब्राह्मणोंको त्याग देते हैं, उनके घरमें कभी धनकी वृद्धि नहीं होती। उनकी संतानें न तो पढ़ती हैं और न यज्ञ ही करती हैं। वे पदभ्रष्ट होकर डाकुओंकी भाँति लूटपाट करने लगते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतौ हि नित्यं संयुक्तावितरेतरधारणे।
क्षत्रं वै ब्रह्मणो योनिर्योनिः क्षत्रस्य वै द्विजाः ॥ ११ ॥

मूलम्

एतौ हि नित्यं संयुक्तावितरेतरधारणे।
क्षत्रं वै ब्रह्मणो योनिर्योनिः क्षत्रस्य वै द्विजाः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों ब्राह्मण और क्षत्रिय सदा एक-दूसरेसे मिलकर रहें, तभी वे एक-दूसरेकी रक्षा करनेमें समर्थ होते हैं। ब्राह्मणकी उन्नतिका आधार क्षत्रिय होता है और क्षत्रियकी उन्नतिका आधार ब्राह्मण॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभावेतौ नित्यमभिप्रपन्नौ
सम्प्रापतुर्महतीं सम्प्रतिष्ठाम् ।
तयोः संधिर्भिद्यते चेत् पुराण-
स्ततः सर्वं भवति हि सम्प्रमूढम् ॥ १२ ॥

मूलम्

उभावेतौ नित्यमभिप्रपन्नौ
सम्प्रापतुर्महतीं सम्प्रतिष्ठाम् ।
तयोः संधिर्भिद्यते चेत् पुराण-
स्ततः सर्वं भवति हि सम्प्रमूढम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये दोनों जातियाँ जब सदा एक-दूसरेके आश्रित होकर रहती हैं, तब बड़ी भारी प्रतिष्ठा प्राप्त करती हैं और यदि इनकी प्राचीन कालसे चली आती हुई मैत्री टूट जाती है, तो सारा जगत् मोहग्रस्त एवं किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नात्र पारं लभते पारगामी
महागाधे नौरिव सम्प्रपन्ना ।
चातुर्वर्ण्यं भवति हि सम्प्रमूढं
प्रजास्ततः क्षयसंस्था भवन्ति ॥ १३ ॥

मूलम्

नात्र पारं लभते पारगामी
महागाधे नौरिव सम्प्रपन्ना ।
चातुर्वर्ण्यं भवति हि सम्प्रमूढं
प्रजास्ततः क्षयसंस्था भवन्ति ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे महान् एवं अगाध समुद्रमें टूटी हुई नौका पार नहीं पहुँच पाती, उसी प्रकार उस अवस्थामें मनुष्य अपनी जीवनयात्राको कुशलपूर्वक पूर्ण नहीं कर पाते हैं। चारों वर्णोंकी प्रजापर मोह छा जाता है और वह नष्ट होने लगती है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मवृक्षो रक्ष्यमाणो मधु हेम च वर्षति।
अरक्ष्यमाणः सततमश्रु पापं च वर्षति ॥ १४ ॥

मूलम्

ब्रह्मवृक्षो रक्ष्यमाणो मधु हेम च वर्षति।
अरक्ष्यमाणः सततमश्रु पापं च वर्षति ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणरूपी वृक्षकी यदि रक्षा की जाती है तो वह मधुर सुख और सुवर्णकी वर्षा करता है और यदि उसकी रक्षा नहीं की गयी तो उससे निरन्तर दुःखके आँसुओं और पापकी वृष्टि होती है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ब्रह्मचारी चरणादपेतो
यदा ब्रह्म ब्रह्मणि त्राणमिच्छेत्।
आश्चर्यतो वर्षति तत्र देव-
स्तत्राभीक्ष्णं दुःसहाश्चाविशन्ति ॥ १५ ॥

मूलम्

न ब्रह्मचारी चरणादपेतो
यदा ब्रह्म ब्रह्मणि त्राणमिच्छेत्।
आश्चर्यतो वर्षति तत्र देव-
स्तत्राभीक्ष्णं दुःसहाश्चाविशन्ति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ ब्रह्मचारी ब्राह्मण लुटेरोंके उपद्रवसे विवश हो वेदकी शाखाके स्वाध्यायसे वञ्चित होता है और उसके लिये अपनी रक्षा चाहता है, वहाँ इन्द्रदेव यदि पानी बरसावें तो आश्चर्यकी ही बात है (वहाँ प्रायः वर्षा नहीं होती है) तथा महामारी और दुर्भिक्ष आदि दुःसह उपद्रव आ पहुँचते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रियं हत्वा ब्राह्मणं वापि पापः
सभायां यत्र लभतेऽनुवादम् ।
राज्ञः सकाशे न बिभेति चापि
ततो भयं विद्यते क्षत्रियस्य ॥ १६ ॥

मूलम्

स्त्रियं हत्वा ब्राह्मणं वापि पापः
सभायां यत्र लभतेऽनुवादम् ।
राज्ञः सकाशे न बिभेति चापि
ततो भयं विद्यते क्षत्रियस्य ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब पापात्मा मनुष्य किसी स्त्री अथवा ब्राह्मणकी हत्या करके लोगोंकी सभामें साधुवाद या प्रशंसा पाता है तथा राजाके निकट भी पापसे भय नहीं मानता, उस समय क्षत्रिय राजाके लिये बड़ा भारी भय उपस्थित होता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापैः पापे क्रियमाणे हि चैल
ततो रुद्रो जायते देव एषः।
पापैः पापाः संजनयन्ति रुद्रं
ततः सर्वान् साध्वसाधून् हिनस्ति ॥ १७ ॥

मूलम्

पापैः पापे क्रियमाणे हि चैल
ततो रुद्रो जायते देव एषः।
पापैः पापाः संजनयन्ति रुद्रं
ततः सर्वान् साध्वसाधून् हिनस्ति ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इलानन्दन! जब बहुत-से पापी पापाचार करने लगते हैं, तब ये संहारकारी रुद्रदेव प्रकट हो जाते हैं। पापात्मा पुरुष अपने पापोंद्वारा ही रुद्रको प्रकट करते हैं; फिर वे रुद्रदेव साधु और असाधु सब लोगोंका संहार कर डालते हैं॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

ऐल उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुतो रुद्रः कीदृशो वापि रुद्रः
सत्त्वैः सत्त्वं दृश्यते वध्यमानम्।
एतत् सर्वं कश्यप मे प्रचक्ष्व
कुतो रुद्रो जायते देव एषः ॥ १८ ॥

मूलम्

कुतो रुद्रः कीदृशो वापि रुद्रः
सत्त्वैः सत्त्वं दृश्यते वध्यमानम्।
एतत् सर्वं कश्यप मे प्रचक्ष्व
कुतो रुद्रो जायते देव एषः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरूरवाने पूछा— कश्यपजी! ये रुद्रदेव कहाँसे आते हैं और कैसे हैं? इस जगत्‌में तो प्राणियोंद्वारा ही प्राणियोंका वध होता देखा जाता है; फिर ये रुद्रदेव किससे उत्पन्न होते हैं? ये सब बातें मुझे बताइये॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

कश्यप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मा रुद्रो हृदये मानवानां
स्वं स्वं देहं परदेहं च हन्ति।
वातोत्पातैः सदृशं रुद्रमाहु-
र्देवैर्जीमूतैः सदृशं रूपमस्य ॥ १९ ॥

मूलम्

आत्मा रुद्रो हृदये मानवानां
स्वं स्वं देहं परदेहं च हन्ति।
वातोत्पातैः सदृशं रुद्रमाहु-
र्देवैर्जीमूतैः सदृशं रूपमस्य ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कश्यपने कहा— राजन्! ये रुद्रदेव मनुष्योंके हृदयमें आत्मारूपसे निवास करते हैं और समय आनेपर अपने तथा दूसरेके शरीरोंका नाश करते हैं। विद्वान् पुरुष रुद्रको उत्पात-वायु (तूफानी हवा) के समान वेगवान् कहते हैं और उनका रूप बादलोंके समान बताते हैं॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

ऐल उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वै वातः परिवृणोति कश्चि-
न्न जीमूतो वर्षति नापि देवः।
तथायुक्तो दृश्यते मानुषेषु
कामद्वेषाद् बध्यते मुह्यते च ॥ २० ॥

मूलम्

न वै वातः परिवृणोति कश्चि-
न्न जीमूतो वर्षति नापि देवः।
तथायुक्तो दृश्यते मानुषेषु
कामद्वेषाद् बध्यते मुह्यते च ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरूरवाने कहा— कोई भी हवा किसीको आवृत नहीं करती है, न अकेले मेघ ही पानी बरसाता है, रुद्रदेव भी वर्षा नहीं करते हैं। जैसे वायु और बादलको आकाशमें संयुक्त देखा जाता है, उसी प्रकार मनुष्योंमें आत्मा मन, इन्द्रिय आदिसे संयुक्त ही देखा जाता है और वह राग द्वेषके कारण मोहग्रस्त होता है तथा मारा जाता है॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

कश्यप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथैकगेहे जातवेदाः प्रदीप्तः
कृत्स्नं ग्रामं दहते चत्वरं वा।
विमोहनं कुरुते देव एष
ततः सर्वं स्पृश्यते पुण्यपापैः ॥ २१ ॥

मूलम्

यथैकगेहे जातवेदाः प्रदीप्तः
कृत्स्नं ग्रामं दहते चत्वरं वा।
विमोहनं कुरुते देव एष
ततः सर्वं स्पृश्यते पुण्यपापैः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कश्यपने कहा— जैसे एक घरमें लगी हुई आग प्रज्वलित हो आँगन तथा सारे गाँवको जला देती है, उसी प्रकार ये रुद्रदेव किसी एक प्राणीके भीतर विशेषरूपसे प्रकट हो दूसरोंके मनमें भी मोह उत्पन्न करते हैं; फिर सारे जगत्‌का पुण्य और पापसे सम्बन्ध हो जाता है॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

ऐल उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि दण्डः स्पृशतेऽपुण्यपापं
पापैः पापे क्रियमाणे विशेषात्।
कस्य हेतोः सुकृतं नाम कुर्याद्
दुष्कृतं वा कस्य हेतोर्न कुर्यात् ॥ २२ ॥

मूलम्

यदि दण्डः स्पृशतेऽपुण्यपापं
पापैः पापे क्रियमाणे विशेषात्।
कस्य हेतोः सुकृतं नाम कुर्याद्
दुष्कृतं वा कस्य हेतोर्न कुर्यात् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरूरवाने पूछा— यदि पापियोंद्वारा विशेषरूपसे पाप और पुण्यात्माओंद्वारा विशेषरूपसे पुण्य किये जानेपर पुण्य-पापसे रहित आत्माको भी दण्ड भोगना पड़ता है, तब किसलिये कोई पुण्य करे और किसलिये पाप न करे?॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

कश्यप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

असंत्यागात् पापकृतामपापां-
स्तुल्यो दण्डः स्पृशते मिश्रभावात्।
शुष्केणार्द्रं दह्यते मिश्रभावा-
न्न मिश्रः स्यात्‌ पापकृद्भिः कथंचित् ॥ २३ ॥

मूलम्

असंत्यागात् पापकृतामपापां-
स्तुल्यो दण्डः स्पृशते मिश्रभावात्।
शुष्केणार्द्रं दह्यते मिश्रभावा-
न्न मिश्रः स्यात्‌ पापकृद्भिः कथंचित् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कश्यपने कहा— पापाचारियोंके संसर्गका त्याग न करनेसे पापहीन-धर्मात्मा पुरुषोंको भी उनसे मेल-जोल रखनेके कारण उनके समान ही दण्ड भोगना पड़ता है। ठीक उसी तरह, जैसे सूखी लकड़ियोंके साथ मिली होनेसे गीली लकड़ी भी जल जाती है। अतः विवेकी पुरुषको चाहिये कि वह पापियोंके साथ किसी तरह भी सम्पर्क न स्थापित करे॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

ऐल उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

साध्वसाधून् धारयतीह भूमिः
साध्वसाधूंस्तापयतीह सूर्यः ।
साध्वसाधूंश्चापि वातीह वायु-
रापस्तथा साध्वसाधून् पुनन्ति ॥ २४ ॥

मूलम्

साध्वसाधून् धारयतीह भूमिः
साध्वसाधूंस्तापयतीह सूर्यः ।
साध्वसाधूंश्चापि वातीह वायु-
रापस्तथा साध्वसाधून् पुनन्ति ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरूरवा बोले— इस जगत्‌में पृथ्वी तो पापियों और पुण्यात्माओंको समान रूपसे धारण करती है। सूर्य भी भले-बुरोंको एक-सा ही संताप देते हैं। वायु साधु और दुष्ट दोनोंका स्पर्श करती है और जल पापी एवं पुण्यात्मा दोनोंको पवित्र करता है॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

कश्यप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमस्मिन् वर्तते लोक एव
नामुत्रैवं वर्तते राजपुत्र ।
प्रेत्यैतयोरन्तरावान् विशेषो
यो वै पुण्यं चरते यश्च पापम् ॥ २५ ॥

मूलम्

एवमस्मिन् वर्तते लोक एव
नामुत्रैवं वर्तते राजपुत्र ।
प्रेत्यैतयोरन्तरावान् विशेषो
यो वै पुण्यं चरते यश्च पापम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कश्यपने कहा— राजकुमार! इस लोकमें ही ऐसी बात देखी जाती है, परलोकमें इस प्रकारका बर्ताव नहीं है। जो पुण्य करता है वह और जो पाप करता है वह—दोनों जब मृत्युके पश्चात् परलोकमें जाते हैं तो वहाँ उन दोनोंकी स्थितिमें बड़ा भारी अन्तर हो जाता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्यस्य लोको मधुमान् घृतार्चि-
र्हिरण्यज्योतिरमृतस्य नाभिः ।
तत्र प्रेत्य मोदते ब्रह्मचारी
न तत्र मृत्युर्न जरा नोत दुःखम् ॥ २६ ॥

मूलम्

पुण्यस्य लोको मधुमान् घृतार्चि-
र्हिरण्यज्योतिरमृतस्य नाभिः ।
तत्र प्रेत्य मोदते ब्रह्मचारी
न तत्र मृत्युर्न जरा नोत दुःखम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुण्यात्माका लोक मधुरतम सुखसे भरा होता है। वहाँ घीके चिराग जलते हैं। उसमें सुवर्णके समान प्रकाश फैला रहता है। वहाँ अमृतका केन्द्र होता है। उस लोकमें न तो मृत्यु है, न बुढ़ापा है और न दूसरा ही कोई दुःख है। ब्रह्मचारी पुरुष मृत्युके पश्चात् उसी स्वर्गादि लोकमें जाकर आनन्दका अनुभव करता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापस्य लोको निरयोऽप्रकाशो
नित्यं दुःखं शोकभूयिष्ठमेव ।
तत्रात्मानं शोचति पापकर्म
बह्वीः समाः प्रतपत्रप्रतिष्ठः ॥ २७ ॥

मूलम्

पापस्य लोको निरयोऽप्रकाशो
नित्यं दुःखं शोकभूयिष्ठमेव ।
तत्रात्मानं शोचति पापकर्म
बह्वीः समाः प्रतपत्रप्रतिष्ठः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पापीका लोक नरक है, जहाँ सदा अँधेरा छाया रहता है। वहाँ प्रतिदिन दुःख तथा अधिक-से-अधिक शोक होता है। पापात्मा पुरुष वहाँ बहुत वर्षोंतक कष्ट भोगता हुआ कभी एक स्थानपर स्थिर नहीं रहता और निरन्तर अपने लिये शोक करता रहता है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिथोभेदाद् ब्राह्मणक्षत्रियाणां
प्रजा दुःखं दुःसहं चाविशन्ति।
एवं ज्ञात्वा कार्य एवेह नित्यं
पुरोहितो नैकविद्यो नृपेण ॥ २८ ॥

मूलम्

मिथोभेदाद् ब्राह्मणक्षत्रियाणां
प्रजा दुःखं दुःसहं चाविशन्ति।
एवं ज्ञात्वा कार्य एवेह नित्यं
पुरोहितो नैकविद्यो नृपेण ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण और क्षत्रियोंमें परस्पर फूट होनेसे प्रजाको दुःसह दुःख उठाना पड़ता है। इन सब बातोंको समझ-बूझकर राजाको चाहिये कि वह सदाके लिये एक सदाचारी बहुज्ञ पुरोहित बना ही ले॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं चैवान्वभिषिच्येत तथा धर्मो विधीयते।
अग्र्यो हि ब्राह्मणः प्रोक्तः सर्वस्यैवेह धर्मतः ॥ २९ ॥

मूलम्

तं चैवान्वभिषिच्येत तथा धर्मो विधीयते।
अग्र्यो हि ब्राह्मणः प्रोक्तः सर्वस्यैवेह धर्मतः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा पहले पुरोहितका वरण कर ले। उसके बाद अपना अभिषेक करावे। ऐसा करनेसे ही धर्मका पालन होता है; क्योंकि धर्मके अनुसार ब्राह्मण यहाँ सबसे श्रेष्ठ बताया गया है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वं हि ब्रह्मणः सृष्टिरिति ब्रह्मविदो विदुः।
ज्येष्ठेनाभिजनेनास्य प्राप्तं पूर्वं यदुत्तरम् ॥ ३० ॥

मूलम्

पूर्वं हि ब्रह्मणः सृष्टिरिति ब्रह्मविदो विदुः।
ज्येष्ठेनाभिजनेनास्य प्राप्तं पूर्वं यदुत्तरम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदवेत्ता विद्वानोंका यह मत है कि सबसे पहले ब्राह्मणकी ही सृष्टि हुई है; अतः ज्येष्ठ तथा उत्तम कुलमें उत्पन्न होनेके कारण प्रत्येक उत्कृष्ट वस्तुपर सबसे पहले ब्राह्मणका ही अधिकार होता है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मान्मान्यश्च पूज्यश्च ब्राह्मणः प्रसृताग्रभुक्।
सर्वं श्रेष्ठं विशिष्टं च निवेद्यं तस्य धर्मतः ॥ ३१ ॥
अवश्यमेव कर्तव्यं राज्ञा बलवतापि हि।

मूलम्

तस्मान्मान्यश्च पूज्यश्च ब्राह्मणः प्रसृताग्रभुक्।
सर्वं श्रेष्ठं विशिष्टं च निवेद्यं तस्य धर्मतः ॥ ३१ ॥
अवश्यमेव कर्तव्यं राज्ञा बलवतापि हि।

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये ब्राह्मण सब वर्णोंका सम्माननीय और पूजनीय है। वही भोजनके लिये प्रस्तुत की हुई सब वस्तुओंको सबसे पहले भोगनेका अधिकारी है। सभी श्रेष्ठ और उत्तम पदार्थोंको धर्मके अनुसार पहले ब्राह्मणकी सेवामें ही निवेदित करना चाहिये। बलवान् राजाको भी अवश्य ऐसा ही करना चाहिये॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्म वर्धयति क्षत्रं क्षत्रतो ब्रह्म वर्धते।
एवं राज्ञा विशेषण पूज्या वै ब्राह्मणाः सदा ॥ ३२ ॥
(राज्ञः सर्वस्य चान्यस्य स्वामी राजपुरोहितः।)

मूलम्

ब्रह्म वर्धयति क्षत्रं क्षत्रतो ब्रह्म वर्धते।
एवं राज्ञा विशेषण पूज्या वै ब्राह्मणाः सदा ॥ ३२ ॥
(राज्ञः सर्वस्य चान्यस्य स्वामी राजपुरोहितः।)

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण क्षत्रियको बढ़ाता है और क्षत्रियसे ब्राह्मणकी उन्नति होती है। अतः राजाको विशेषरूपसे सदा ही ब्राह्मणोंकी पूजा करनी चाहिये; क्योंकि राजपुरोहित राजाका तथा अन्य सब लोगोंका भी स्वामी है॥३२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि ऐलकश्यपसंवादे त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें पुरूरवा और कश्यपका संवादविषयक तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७३॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ७ श्लोक मिलाकर कुल ३९ श्लोक हैं।)