०७१

भागसूचना

एकसप्ततितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धर्मपूर्वक प्रजाका पालन ही राजाका महान् धर्म है, इसका प्रतिपादन

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं राजा प्रजा रक्षन्नाधिबन्धेन युज्यते।
धर्मेण नापराध्नोति तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

कथं राजा प्रजा रक्षन्नाधिबन्धेन युज्यते।
धर्मेण नापराध्नोति तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! किस प्रकार प्रजाका पालन करनेवाला राजा चिन्तामें नहीं पड़ता और धर्मके विषयमें अपराधी नहीं होता, यह मुझे बताइये॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

समासेनैव ते राजन् धर्मान् वक्ष्यामि शाश्वतान्।
विस्तरेणैव धर्माणां न जात्वन्तमवाप्नुयात् ॥ २ ॥

मूलम्

समासेनैव ते राजन् धर्मान् वक्ष्यामि शाश्वतान्।
विस्तरेणैव धर्माणां न जात्वन्तमवाप्नुयात् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! मैं संक्षेपसे ही तुम्हारे लिये सनातन राजधर्मोंका वर्णन करूँगा। विस्तारसे वर्णन आरम्भ करूँ तो उन धर्मोंका कभी अन्त ही नहीं हो सकता॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मनिष्ठान् श्रुतवतो वेदव्रतसमाहितान् ।
अर्चयित्वा यजेथास्त्वं गृहे गुणवतो द्विजान् ॥ ३ ॥
प्रत्युत्थायोपसंगृह्य चरणावभिवाद्य च ।
अथ सर्वाणि कुर्वीथाः कार्याणि सपुरोहितः ॥ ४ ॥

मूलम्

धर्मनिष्ठान् श्रुतवतो वेदव्रतसमाहितान् ।
अर्चयित्वा यजेथास्त्वं गृहे गुणवतो द्विजान् ॥ ३ ॥
प्रत्युत्थायोपसंगृह्य चरणावभिवाद्य च ।
अथ सर्वाणि कुर्वीथाः कार्याणि सपुरोहितः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब घरपर वेदव्रतपरायण, शास्त्रज्ञ एवं धर्मिष्ठ गुणवान् ब्राह्मण पधारें, उस समय उन्हें देखते ही खड़े हो उनका स्वागत करो। उनके चरण पकड़कर प्रणाम करो और उनकी विधिपूर्वक अर्चन करके पूजा करो। तदनन्तर पुरोहितको साथ लेकर समस्त आवश्यक कार्य सम्पन्न करो॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मकार्याणि निर्वर्त्य मङ्गलानि प्रयुज्य च।
ब्राह्मणान् वाचयेथास्त्वमर्थसिद्धिजयाशिषः ॥ ५ ॥

मूलम्

धर्मकार्याणि निर्वर्त्य मङ्गलानि प्रयुज्य च।
ब्राह्मणान् वाचयेथास्त्वमर्थसिद्धिजयाशिषः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले संध्या-वन्दन आदि धार्मिक कृत्य पूर्ण करके माङ्गलिक वस्तुओंका दर्शन करनेके पश्चात् ब्राह्मणोंद्वारा स्वस्तिवाचन कराओ और अर्थसिद्धि एवं विजयके लिये उनके आशीर्वाद ग्रहण करो॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्जवेन च सम्पन्नो धृत्या बुद्ध्या च भारत।
यथार्थं प्रतिगृह्णीयात् कामक्रोधौ च वर्जयेत् ॥ ६ ॥

मूलम्

आर्जवेन च सम्पन्नो धृत्या बुद्ध्या च भारत।
यथार्थं प्रतिगृह्णीयात् कामक्रोधौ च वर्जयेत् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! राजाको चाहिये कि वह सरल स्वभावसे सम्पन्न हो, धैर्य तथा बुद्धिके बलसे सत्यको ही ग्रहण करे और काम-क्रोधका परित्याग कर दे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामक्रोधौ पुरस्कृत्य योऽर्थं राजानुतिष्ठति।
न स धर्मं न चाप्यर्थं प्रतिगृह्णाति बालिशः ॥ ७ ॥

मूलम्

कामक्रोधौ पुरस्कृत्य योऽर्थं राजानुतिष्ठति।
न स धर्मं न चाप्यर्थं प्रतिगृह्णाति बालिशः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा काम और क्रोधका आश्रय लेकर धन पैदा करना चाहता है, वह मूर्ख न तो धर्मको पाता है और न धन ही उसके हाथ लगता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा स्म लुब्धांश्च मूर्खांश्च कामार्थे च प्रयूयुजः।
अलुब्धान् बुद्धिसम्पन्नान् सर्वकर्मसु योजयेत् ॥ ८ ॥

मूलम्

मा स्म लुब्धांश्च मूर्खांश्च कामार्थे च प्रयूयुजः।
अलुब्धान् बुद्धिसम्पन्नान् सर्वकर्मसु योजयेत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम लोभी और मूर्ख मनुष्योंको काम और अर्थके साधनमें न लगाओ। जो लोभरहित और बुद्धिमान् हों, उन्हींको समस्त कार्योंमें नियुक्त करना चाहिये॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूर्खो ह्यधिकृतोऽर्थेषु कार्याणामविशारदः ।
प्रजाः क्लिश्नात्ययोगेन कामक्रोधसमन्वितः ॥ ९ ॥

मूलम्

मूर्खो ह्यधिकृतोऽर्थेषु कार्याणामविशारदः ।
प्रजाः क्लिश्नात्ययोगेन कामक्रोधसमन्वितः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कार्यसाधनमें कुशल नहीं है और काम तथा क्रोधके वशमें पड़ा हुआ है, ऐसे मूर्ख मनुष्यको यदि अर्थसंग्रहका अधिकारी बना दिया जाय तो वह अनुचित उपायसे प्रजाओंको क्लेश पहुँचाता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलिषष्ठेन शुल्केन दण्डेनाथापराधिनाम् ।
शास्त्रानीतेन लिप्सेथा वेतनेन धनागमम् ॥ १० ॥

मूलम्

बलिषष्ठेन शुल्केन दण्डेनाथापराधिनाम् ।
शास्त्रानीतेन लिप्सेथा वेतनेन धनागमम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजाकी आयका छठा भाग करके रूपमें ग्रहण करके; उचित शुल्क या टैक्स लेकर, अपराधियोंको आर्थिक दण्ड देकर तथा शास्त्रके अनुसार व्यापारियोंकी रक्षा आदि करनेके कारण उनके दिये हुए वेतन लेकर इन्हीं उपायों तथा मार्गोंसे राजाको धन-संग्रहकी इच्छा रखनी चाहिये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दापयित्वा करं धर्म्यं राष्ट्रं नीत्या यथाविधि।
तथैतं कल्पयेद् राजा योगक्षेममतन्द्रितः ॥ ११ ॥

मूलम्

दापयित्वा करं धर्म्यं राष्ट्रं नीत्या यथाविधि।
तथैतं कल्पयेद् राजा योगक्षेममतन्द्रितः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजासे धर्मानुकूल कर ग्रहण करके राज्यका नीतिके अनुसार विधिपूर्वक पालन करते हुए राजाको आलस्य छोड़कर प्रजावर्गके योगक्षेमकी व्यवस्था करनी चाहिये॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोपायितारं दातारं धर्मनित्यमतन्द्रितम् ।
अकामद्वेषसंयुक्तमनुरज्यन्ति मानवाः ॥ १२ ॥

मूलम्

गोपायितारं दातारं धर्मनित्यमतन्द्रितम् ।
अकामद्वेषसंयुक्तमनुरज्यन्ति मानवाः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा आलस्य छोड़कर रण-द्वेषसे रहित हो सदा प्रजाकी रक्षा करता है, दान देता है तथा निरन्तर धर्म एवं न्यायमें तत्पर रहता है, उसके प्रति प्रजावर्गके सभी लोग अनुरक्त होते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा स्माधर्मेण लोभेन लिप्सेथास्त्वं धनागमम्।
धर्मार्थावध्रुवौ तस्य यो न शास्त्रपरो भवेत् ॥ १३ ॥

मूलम्

मा स्माधर्मेण लोभेन लिप्सेथास्त्वं धनागमम्।
धर्मार्थावध्रुवौ तस्य यो न शास्त्रपरो भवेत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तुम लोभवश अधर्ममार्गसे धन पानेकी कभी इच्छा न करना; क्योंकि जो लोग शास्त्रके अनुसार नहीं चलते हैं, उनके धर्म और अर्थ दोनों ही अस्थिर एवं अनिश्चित होते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपशास्त्रपरो राजा धर्मार्थान्नाधिगच्छति ।
अस्थाने चास्य तद् वित्तं सर्वमेव विनश्यति ॥ १४ ॥

मूलम्

अपशास्त्रपरो राजा धर्मार्थान्नाधिगच्छति ।
अस्थाने चास्य तद् वित्तं सर्वमेव विनश्यति ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शास्त्रसे विपरीत चलनेवाला राजा न तो धर्मकी सिद्धि कर पाता है और न अर्थकी ही। यदि उसे धन मिल भी जाय तो वह सारा ही बुरे कामोंमें नष्ट हो जाता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थमूलोऽपि हिंसां च कुरुते स्वयमात्मनः।
करैरशास्त्रदृष्टैर्हि मोहात् सम्पीडयन् प्रजाः ॥ १५ ॥

मूलम्

अर्थमूलोऽपि हिंसां च कुरुते स्वयमात्मनः।
करैरशास्त्रदृष्टैर्हि मोहात् सम्पीडयन् प्रजाः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धनका लोभी राजा मोहवश प्रजासे शास्त्रविरुद्ध अधिक कर लेकर उसे कष्ट पहुँचाता है, वह अपने ही हाथों अपना विनाश करता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊधश्छिन्द्यात् तु यो धेन्वाः क्षीरार्थी न लभेत्‌ पयः।
एवं राष्ट्रमयोगेन पीडितं न विवर्धते ॥ १६ ॥

मूलम्

ऊधश्छिन्द्यात् तु यो धेन्वाः क्षीरार्थी न लभेत्‌ पयः।
एवं राष्ट्रमयोगेन पीडितं न विवर्धते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे दूध चाहनेवाला मनुष्य यदि गायका थन काट ले तो इससे वह दूध नहीं पा सकता, उसी प्रकार राज्यमें रहनेवाली प्रजाका अनुचित उपायसे शोषण किया जाय तो उससे राष्ट्रकी उन्नति नहीं होती॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो हि दोग्ध्रीमुपास्ते च स नित्यं विन्दते पयः।
एवं राष्ट्रमुपायेन भुञ्जानो लभते फलम् ॥ १७ ॥

मूलम्

यो हि दोग्ध्रीमुपास्ते च स नित्यं विन्दते पयः।
एवं राष्ट्रमुपायेन भुञ्जानो लभते फलम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दूध देनेवाली गायकी प्रतिदिन सेवा करता है, वही दूध पाता है; इसी प्रकार उचित उपायसे राष्ट्रकी रक्षा करनेवाला राजा ही उससे लाभ उठाता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ राष्ट्रमुपायेन भुज्यमानं सुरक्षितम्।
जनयत्यतुलां नित्यं कोशवृद्धिं युधिष्ठिर ॥ १८ ॥

मूलम्

अथ राष्ट्रमुपायेन भुज्यमानं सुरक्षितम्।
जनयत्यतुलां नित्यं कोशवृद्धिं युधिष्ठिर ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! न्यायसंगत उपायसे राष्ट्रको सुरक्षित रखते हुए उसका उपभोग किया जाय अर्थात् करके रूपमें उससे धन लिया जाय तो वह सदा राजाके कोशकी अनुपम वृद्धि करता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दोग्ध्री धान्यं हिरण्यं च मही राज्ञा सुरक्षिता।
नित्यं स्वेभ्यः परेभ्यश्च तृप्ता माता यथा पयः ॥ १९ ॥

मूलम्

दोग्ध्री धान्यं हिरण्यं च मही राज्ञा सुरक्षिता।
नित्यं स्वेभ्यः परेभ्यश्च तृप्ता माता यथा पयः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे माता स्वयं तृप्त रहनेपर ही बालकको यथेष्ट दूध पिलाती है, उसी प्रकार राजासे सुरक्षित होनेपर ही यह दुधारू गायके समान पृथ्वी राजाके स्वजनों तथा दूसरे लोगोंको सदा अन्न एवं सुवर्ण देती है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मालाकारोपमो राजन् भव माऽऽङ्गारिकोपमः।
तथायुक्तश्चिरं राज्यं भोक्तं शक्ष्यसि पालयन् ॥ २० ॥

मूलम्

मालाकारोपमो राजन् भव माऽऽङ्गारिकोपमः।
तथायुक्तश्चिरं राज्यं भोक्तं शक्ष्यसि पालयन् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! तुम मालीके समान बनो। कोयला बनानेवालेके समान न बनो (माली वृक्षकी जड़को सींचता और उसकी रक्षा करता है, तब उससे फल और फूल ग्रहण करता है, परंतु कोयला बनानेवाला वृक्षको समूल नष्ट कर देता है; उसी प्रकार तुम भी माली बनकर राज्यरूपी उद्यानको सींचकर सुरक्षित रखो और फल-फूलकी तरह प्रजासे न्यायोचित कर लेते रहो, कोयला बनानेवालेकी तरह सारे राज्यको जलाकर भस्म न करो), ऐसा करके प्रजापालनमें तत्पर रहकर तुम दीर्घकालतक राज्यका उपभोग कर सकोगे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परचक्राभियानेन यदि ते स्याद् धनक्षयः।
अथ साम्नैव लिप्सेथा धनमब्राह्मणेषु यत् ॥ २१ ॥

मूलम्

परचक्राभियानेन यदि ते स्याद् धनक्षयः।
अथ साम्नैव लिप्सेथा धनमब्राह्मणेषु यत् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि शत्रुओंके आक्रमणसे तुम्हारे धनका नाश हो जाय तो भी सान्त्वनापूर्ण मधुर वाणीद्वारा ही ब्राह्मणेतर प्रजासे धन लेनेकी इच्छा रखो॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा स्म ते ब्राह्मणं दृष्ट्वा धनस्थं प्रचलेन्मनः।
अन्त्यायामप्यवस्थायां किमु स्फीतस्य भारत ॥ २२ ॥

मूलम्

मा स्म ते ब्राह्मणं दृष्ट्वा धनस्थं प्रचलेन्मनः।
अन्त्यायामप्यवस्थायां किमु स्फीतस्य भारत ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! धनसम्पन्न अवस्थाकी तो बात ही क्या है? तुम अत्यन्त निर्धन अवस्थामें पड़ जाओ तो भी ब्राह्मणको धनी देखकर उसका धन लेनेके लिये तुम्हारा मन चञ्चल नहीं होना चाहिये॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनानि तेभ्यो दद्यास्त्वं यथाशक्ति यथार्हतः।
सान्त्वयन् परिरक्षंश्च स्वर्गमाप्स्यसि दुर्जयम् ॥ २३ ॥

मूलम्

धनानि तेभ्यो दद्यास्त्वं यथाशक्ति यथार्हतः।
सान्त्वयन् परिरक्षंश्च स्वर्गमाप्स्यसि दुर्जयम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तुम ब्राह्मणोंको सान्त्वना देते और उनकी रक्षा करते हुए उन्हें यथाशक्ति यथायोग्य धन देते रहना, इससे तुम्हें दुर्जय स्वर्गलोककी प्राप्ति होगी॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं धर्मेण वृत्तेन प्रजास्त्वं परिपालय।
स्वन्तं पुण्यं यशो नित्यं प्राप्स्यसे कुरुनन्दन ॥ २४ ॥

मूलम्

एवं धर्मेण वृत्तेन प्रजास्त्वं परिपालय।
स्वन्तं पुण्यं यशो नित्यं प्राप्स्यसे कुरुनन्दन ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! इस प्रकार तुम धर्मानुकूल बर्ताव करते हुए प्रजाजनोंका पालन करो। इससे परिणाममें सुखद पुण्य तथा चिरस्थायी यश प्राप्त कर लोगे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मेण व्यवहारेण प्रजाः पालय पाण्डव।
युधिष्ठिर यथा युक्तो नाधिबन्धेन योक्ष्यसे ॥ २५ ॥

मूलम्

धर्मेण व्यवहारेण प्रजाः पालय पाण्डव।
युधिष्ठिर यथा युक्तो नाधिबन्धेन योक्ष्यसे ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर! तुम धर्मानुकूल बर्ताव करते हुए प्रजाका पालन करते रहो, जिससे युक्त रहकर तुम्हें कभी भी चिन्ता या पश्चात्ताप न हो॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष एव परो धर्मो यद् राजा रक्षति प्रजाः।
भूतानां हि यथा धर्मो रक्षणं परमा दया ॥ २६ ॥

मूलम्

एष एव परो धर्मो यद् राजा रक्षति प्रजाः।
भूतानां हि यथा धर्मो रक्षणं परमा दया ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा जो प्रजाकी रक्षा करता है, यही उसका सबसे बड़ा धर्म है। समस्त प्राणियोंकी रक्षा तथा उनके प्रति परम दया ही महान् धर्म है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादेवं परं धर्मं मन्यन्ते धर्मकोविदाः।
यो राजा रक्षणे युक्तो भूतेषु कुरुते दयाम् ॥ २७ ॥

मूलम्

तस्मादेवं परं धर्मं मन्यन्ते धर्मकोविदाः।
यो राजा रक्षणे युक्तो भूतेषु कुरुते दयाम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये जो राजा प्रजापालनमें तत्पर रहकर प्राणियोंपर दया करता है, उसके इस बर्तावको धर्मज्ञ पुरुष परम धर्म मानते हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदह्ना कुरुते पापमरक्षन् भयतः प्रजाः।
राजा वर्षसहस्रेण तस्यान्तमधिगच्छति ॥ २८ ॥

मूलम्

यदह्ना कुरुते पापमरक्षन् भयतः प्रजाः।
राजा वर्षसहस्रेण तस्यान्तमधिगच्छति ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा प्रजाकी भयसे रक्षा न करनेके कारण एक दिनमें जिस पापका भागी होता है, उसका परिणाम उसे एक हजार वर्षोंतक भोगना पड़ता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदह्ना कुरुते धर्मं प्रजा धर्मेण पालयन्।
दशवर्षसहस्राणि तस्य भुंक्ते फलं दिवि ॥ २९ ॥

मूलम्

यदह्ना कुरुते धर्मं प्रजा धर्मेण पालयन्।
दशवर्षसहस्राणि तस्य भुंक्ते फलं दिवि ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करनेके कारण राजा एक दिनमें जिस धर्मका भागी होता है, उसका फल वह दस हजार वर्षोंतक स्वर्गलोकमें रहकर भोगता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्विष्टिः स्वधीतिः सुतपा लोकाञ्जयति यावतः।
क्षणेन तानवाप्नोति प्रजा धर्मेण पालयन् ॥ ३० ॥

मूलम्

स्विष्टिः स्वधीतिः सुतपा लोकाञ्जयति यावतः।
क्षणेन तानवाप्नोति प्रजा धर्मेण पालयन् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तम यज्ञके द्वारा गृहस्थ-धर्मका, उत्तम स्वाध्यायके द्वारा ब्रह्मचर्यका तथा श्रेष्ठ तपके द्वारा वानप्रस्थ-धर्मका पालन करनेवाला पुरुष जितने पुण्यलोकोंपर अधिकार प्राप्त करता है, धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करनेवाला राजा उन्हें क्षणभरमें पा लेता है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं धर्मं प्रयत्नेन कौन्तेय परिपालय।
ततः पुण्यफलं लब्ध्वा नाधिबन्धेन योक्ष्यसे ॥ ३१ ॥

मूलम्

एवं धर्मं प्रयत्नेन कौन्तेय परिपालय।
ततः पुण्यफलं लब्ध्वा नाधिबन्धेन योक्ष्यसे ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक धर्मका पालन करो। इससे पुण्यका फल पाकर तुम कभी चिन्तामें नहीं पड़ोगे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गलोके सुमहतीं श्रियं प्राप्स्यसि पाण्डव।
असम्भवश्च धर्माणामीदृशानामराजसु ॥ ३२ ॥

मूलम्

स्वर्गलोके सुमहतीं श्रियं प्राप्स्यसि पाण्डव।
असम्भवश्च धर्माणामीदृशानामराजसु ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! धर्मपालन करनेसे स्वर्गलोकमें तुम्हें बड़ी भारी सुख-सम्पत्ति प्राप्त होगी। जो राजा नहीं हैं, उन्हें ऐसे धर्मोंका लाभ मिलना असम्भव है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् राजैव नान्योऽस्ति यो धर्मफलमाप्नुयात्।
स राज्यं धृतिमान् प्राप्य धर्मेण परिपालय।
इन्द्रं तर्पय सोमेन कामैश्च सुहृदो जनान् ॥ ३३ ॥

मूलम्

तस्माद् राजैव नान्योऽस्ति यो धर्मफलमाप्नुयात्।
स राज्यं धृतिमान् प्राप्य धर्मेण परिपालय।
इन्द्रं तर्पय सोमेन कामैश्च सुहृदो जनान् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये धर्मात्मा राजा ही ऐसे धर्मका फल पाता है, दूसरा नहीं। तुम धैर्यवान् तो हो ही। यह राज्य पाकर धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करो। यज्ञमें सोमरसद्वारा इन्द्रको तृप्त करो और मनोवांछित वस्तु प्रदान करके सुहृदोंको संतुष्ट करो॥३३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि एकसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७१॥