भागसूचना
अष्टषष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
वसुमना और बृहस्पतिके संवादमें राजाके न होनेसे प्रजाकी हानि और होनेसे लाभका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमाहुर्दैवतं विप्रा राजानं भरतर्षभ।
मनुष्याणामधिपतिं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
मूलम्
किमाहुर्दैवतं विप्रा राजानं भरतर्षभ।
मनुष्याणामधिपतिं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतश्रेष्ठ पितामह! जो मनुष्योंका अधिपति है, उस राजाको ब्राह्मणलोग देवस्वरूप क्यों बताते हैं? यह मुझे बतानेकी कृपा करें॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
बृहस्पतिं वसुमना यथा पप्रच्छ भारत ॥ २ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
बृहस्पतिं वसुमना यथा पप्रच्छ भारत ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— भारत! इस विषयमें जानकार लोग उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जिसके अनुसार राजा वसुमनाने बृहस्पतिजीसे यही बात पूछी थी॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा वसुमना नाम कौसल्यो धीमतां वरः।
महर्षिं किल पप्रच्छ कृतप्रज्ञं बृहस्पतिम् ॥ ३ ॥
मूलम्
राजा वसुमना नाम कौसल्यो धीमतां वरः।
महर्षिं किल पप्रच्छ कृतप्रज्ञं बृहस्पतिम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहते हैं, प्राचीन कालमें बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ कोसल-नरेश राजा वसुमनाने शुद्ध बुद्धिवाले महर्षि बृहस्पतिसे कुछ प्रश्न किया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वं वैनयिकं कृत्वा विनयज्ञो बृहस्पतिम्।
दक्षिणानन्तरो भूत्वा प्रणम्य विधिपूर्वकम् ॥ ४ ॥
विधिं पप्रच्छ राज्यस्य सर्वलोकहिते रतः।
प्रजानां सुखमन्विच्छन् धर्मशीलं बृहस्पतिम् ॥ ५ ॥
मूलम्
सर्वं वैनयिकं कृत्वा विनयज्ञो बृहस्पतिम्।
दक्षिणानन्तरो भूत्वा प्रणम्य विधिपूर्वकम् ॥ ४ ॥
विधिं पप्रच्छ राज्यस्य सर्वलोकहिते रतः।
प्रजानां सुखमन्विच्छन् धर्मशीलं बृहस्पतिम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा वसुमना सम्पूर्ण लोकोंके हितमें तत्पर रहनेवाले थे। वे विनय प्रकट करनेकी कलाको जानते थे। बृहस्पतिजीके आनेपर उन्होंने उठकर उनका अभिवादन किया और चरणप्रक्षालन आदि सारा विनयसम्बन्धी बर्ताव पूर्ण करके महर्षिकी परिक्रमा करनेके अनन्तर उन्होंने विधिपूर्वक उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया। फिर प्रजाके सुखकी इच्छा रखते हुए राजाने धर्मशील बृहस्पतिसे राज्यसंचालनकी विधिके विषयमें इस प्रकार प्रश्न उपस्थित किया॥४-५॥
मूलम् (वचनम्)
वसुमना उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
केन भूतानि वर्धन्ते क्षयं गच्छन्ति केन वा।
कमर्चन्तो महाप्राज्ञ सुखमव्ययमाप्नुयुः ॥ ६ ॥
मूलम्
केन भूतानि वर्धन्ते क्षयं गच्छन्ति केन वा।
कमर्चन्तो महाप्राज्ञ सुखमव्ययमाप्नुयुः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसुमना बोले— महामते! राज्यमें रहनेवाले प्राणियोंकी वृद्धि कैसे होती है? उनका ह्रास कैसे हो सकता है? किस देवताकी पूजा करनेवाले लोगोंको अक्षय सुखकी प्राप्ति हो सकती है?॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं पृष्टो महाप्राज्ञः कौसल्येनामितौजसा।
राजसत्कारमव्यग्रं शशंसास्मै बृहस्पतिः ॥ ७ ॥
मूलम्
एवं पृष्टो महाप्राज्ञः कौसल्येनामितौजसा।
राजसत्कारमव्यग्रं शशंसास्मै बृहस्पतिः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अमित तेजस्वी कोसलनरेशके इस प्रकार प्रश्न करनेपर महाज्ञानी बृहस्पतिजीने शान्तभावसे राजाके सत्कारकी आवश्यकता बताते हुए इस प्रकार उत्तर देना आरम्भ किया॥
मूलम् (वचनम्)
बृहस्पतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजमूलो महाप्राज्ञ धर्मो लोकस्य लक्ष्यते।
प्रजा राजभयादेव न खादन्ति परस्परम् ॥ ८ ॥
मूलम्
राजमूलो महाप्राज्ञ धर्मो लोकस्य लक्ष्यते।
प्रजा राजभयादेव न खादन्ति परस्परम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहस्पतिजीने कहा— महाप्राज्ञ! लोकमें जो धर्म देखा जाता है, उसका मूल कारण राजा ही है। राजाके भयसे ही प्रजा एक-दूसरेको हड़प नहीं लेती है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा ह्येवाखिलं लोकं समुदीर्णं समुत्सुकम्।
प्रसादयति धर्मेण प्रसाद्य च विराजते ॥ ९ ॥
मूलम्
राजा ह्येवाखिलं लोकं समुदीर्णं समुत्सुकम्।
प्रसादयति धर्मेण प्रसाद्य च विराजते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा ही मर्यादाका उल्लंघन करनेवाले तथा अनुचित भोगोंमें आसक्त हो उनकी प्राप्तिके लिये उत्कण्ठित रहनेवाले सारे जगत्के लोगोंको धर्मानुकूल शासनद्वारा प्रसन्न रखता है और स्वयं भी प्रसन्नतापूर्वक रहकर अपने तेजसे प्रकाशित होता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा ह्यनुदये राजन् भूतानि शशिसूर्ययोः।
अन्धे तमसि मज्जेयुरपश्यन्तः परस्परम् ॥ १० ॥
यथा ह्यनुदके मत्स्या निराक्रन्दे विहङ्गमाः।
विहरेयुर्यथाकामं विहिंसन्तः पुनः पुनः ॥ ११ ॥
विमथ्यातिक्रमेरंश्च विषह्यापि परस्परम् ।
अभावमचिरेणैव गच्छेयुर्नात्र संशयः ॥ १२ ॥
एवमेव विना राज्ञा विनश्येयुरिमाः प्रजाः।
अन्धे तमसि मज्जेयुरगोपाः पशवो यथा ॥ १३ ॥
मूलम्
यथा ह्यनुदये राजन् भूतानि शशिसूर्ययोः।
अन्धे तमसि मज्जेयुरपश्यन्तः परस्परम् ॥ १० ॥
यथा ह्यनुदके मत्स्या निराक्रन्दे विहङ्गमाः।
विहरेयुर्यथाकामं विहिंसन्तः पुनः पुनः ॥ ११ ॥
विमथ्यातिक्रमेरंश्च विषह्यापि परस्परम् ।
अभावमचिरेणैव गच्छेयुर्नात्र संशयः ॥ १२ ॥
एवमेव विना राज्ञा विनश्येयुरिमाः प्रजाः।
अन्धे तमसि मज्जेयुरगोपाः पशवो यथा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जैसे सूर्य और चन्द्रमाका उदय न होनेपर समस्त प्राणी घोर अन्धकारमें डूब जाते हैं और एक-दूसरेको देख नहीं पाते हैं, जैसे थोड़े जलवाले तालाबमें मत्स्यगण तथा रक्षकरहित उपवनमें पक्षियोंके झुंड परस्पर एक-दूसरेपर बारंबार चोट करते हुए इच्छानुसार विचरण करते हैं, वे कभी तो अपने प्रहारसे दूसरोंको कुचलते और मथते हुए आगे बढ़ जाते हैं और कभी स्वयं दूसरेकी चोट खाकर व्याकुल हो उठते हैं। इस प्रकार आपसमें लड़ते हुए वे थोड़े ही दिनोंमें नष्टप्राय हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं है। इसी तरह राजाके बिना वे सारी प्रजाएँ आपसमें लड़-झगड़कर बात-की-बातमें नष्ट हो जायँगी और बिना चरवाहेके पशुओंकी भाँति दुःखके घोर अन्धकारमें डूब जायँगी॥१०—१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरेयुर्बलवन्तोऽपि दुर्बलानां परिग्रहान् ।
हन्युर्व्यायच्छमानांश्च यदि राजा न पालयेत् ॥ १४ ॥
मूलम्
हरेयुर्बलवन्तोऽपि दुर्बलानां परिग्रहान् ।
हन्युर्व्यायच्छमानांश्च यदि राजा न पालयेत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि राजा प्रजाकी रक्षा न करे तो बलवान् मनुष्य दुर्बलोंकी बहू-बेटियोंको हर ले जायँ और अपने घरबारकी रक्षाके लिये प्रयत्न करनेवालोंको मार डालें॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममेदमिति लोकेऽस्मिन् न भवेत् सम्परिग्रहः।
न दारा न च पुत्रः स्यान्न धनं न परिग्रहः।
विष्वग्लोपः प्रवर्तेत यदि राजा न पालयेत् ॥ १५ ॥
मूलम्
ममेदमिति लोकेऽस्मिन् न भवेत् सम्परिग्रहः।
न दारा न च पुत्रः स्यान्न धनं न परिग्रहः।
विष्वग्लोपः प्रवर्तेत यदि राजा न पालयेत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि राजा रक्षा न करे तो इस जगत्में स्त्री, पुत्र, धन अथवा घरबार कोई भी ऐसा संग्रह सम्भव नहीं हो सकता, जिसके लिये कोई कह सके कि यह मेरा है, सब ओर सबकी सारी सम्पत्तिका लोप हो जाय॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यानं वस्त्रमलङ्कारान् रत्नानि विविधानि च।
हरेयुः सहसा पापा यदि राजा न पालयेत् ॥ १६ ॥
मूलम्
यानं वस्त्रमलङ्कारान् रत्नानि विविधानि च।
हरेयुः सहसा पापा यदि राजा न पालयेत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि राजा प्रजाका पालन न करे तो पापाचारी लुटेरे सहसा आक्रमण करके वाहन, वस्त्र, आभूषण और नाना प्रकारके रत्न लूट ले जायँ॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतेद् बहुविधं शस्त्रं बहुधा धर्मचारिषु।
अधर्मः प्रगृहीतः स्याद् यदि राजा न पालयेत् ॥ १७ ॥
मूलम्
पतेद् बहुविधं शस्त्रं बहुधा धर्मचारिषु।
अधर्मः प्रगृहीतः स्याद् यदि राजा न पालयेत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि राजा रक्षा न करे तो धर्मात्मा पुरुषोंपर बारंबार नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंकी मार पड़े और विवश होकर लोगोंको अधर्मका मार्ग ग्रहण करना पड़े॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातरं पितरं वृद्धमाचार्यमतिथिं गुरुम्।
क्लिश्नीयुरपि हिंस्युर्वा यदि राजा न पालयेत् ॥ १८ ॥
मूलम्
मातरं पितरं वृद्धमाचार्यमतिथिं गुरुम्।
क्लिश्नीयुरपि हिंस्युर्वा यदि राजा न पालयेत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि राजा पालन न करे तो दुराचारी मनुष्य माता, पिता, वृद्ध, आचार्य, अतिथि और गुरुको क्लेश पहुँचावें अथवा मार डालें॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वधबन्धपरिक्लेशो नित्यमर्थवतां भवेत् ।
ममत्वं च न विन्देयुर्यदि राजा न पालयेत् ॥ १९ ॥
मूलम्
वधबन्धपरिक्लेशो नित्यमर्थवतां भवेत् ।
ममत्वं च न विन्देयुर्यदि राजा न पालयेत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि राजा रक्षा न करे तो धनवानोंको प्रतिदिन वध या बन्धनका क्लेश उठाना पड़े और किसी भी वस्तुको वे अपनी न कह सकें॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्ताश्चाकाल एव स्युर्लोकोऽयं दस्युसाद् भवेत्।
पतेयुर्नरकं घोरं यदि राजा न पालयेत् ॥ २० ॥
मूलम्
अन्ताश्चाकाल एव स्युर्लोकोऽयं दस्युसाद् भवेत्।
पतेयुर्नरकं घोरं यदि राजा न पालयेत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि राजा प्रजाका पालन न करे तो अकालमें ही लोगोंकी मृत्यु होने लगे, यह समस्त जगत् डाकुओंके अधीन हो जाय और (पापके कारण) घोर नरकमें गिर जाय॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न योनिदोषो वर्तेत न कृषिर्न वणिक्पथः।
मज्जेद् धर्मस्त्रयी न स्याद् यदि राजा न पालयेत्॥२१॥
मूलम्
न योनिदोषो वर्तेत न कृषिर्न वणिक्पथः।
मज्जेद् धर्मस्त्रयी न स्याद् यदि राजा न पालयेत्॥२१॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि राजा पालन न करे तो व्यभिचारसे किसीको घृणा न हो, खेती नष्ट हो जाय, व्यापार चौपट हो जाय, धर्म डूब जाय और तीनों वेदोंका कहीं पता न चले॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न यज्ञाः सम्प्रवर्तेयुर्विधिवत् स्वाप्तदक्षिणाः।
न विवाहाः समाजो वा यदि राजा न पालयेत्॥२२॥
मूलम्
न यज्ञाः सम्प्रवर्तेयुर्विधिवत् स्वाप्तदक्षिणाः।
न विवाहाः समाजो वा यदि राजा न पालयेत्॥२२॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि राजा जगत्की रक्षा न करे तो विधिवत् पर्याप्त दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञोंका अनुष्ठान बंद हो जाय, विवाह न हो और सामाजिक कार्य रुक जायँ॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वृषाः सम्प्रवर्तेरन् न मथ्येरंश्च गर्गराः।
घोषाः प्रणाशं गच्छेयुर्यदि राजा न पालयेत् ॥ २३ ॥
मूलम्
न वृषाः सम्प्रवर्तेरन् न मथ्येरंश्च गर्गराः।
घोषाः प्रणाशं गच्छेयुर्यदि राजा न पालयेत् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि राजा पशुओंका पालन न करे तो साँड़ गायोंमें गर्भाधान न करें, दूध-दहीसे भरे हुए घड़े या मटके कभी महे न जायँ और गोशाले नष्ट हो जायँ॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रस्तमुद्विग्नहृदयं हाहाभूतमचेतनम् ।
क्षणेन विनशेत् सर्वं यदि राजा न पालयेत् ॥ २४ ॥
मूलम्
त्रस्तमुद्विग्नहृदयं हाहाभूतमचेतनम् ।
क्षणेन विनशेत् सर्वं यदि राजा न पालयेत् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि राजा रक्षा न करे तो सारा जगत् भयभीत, उद्विग्नचित्त, हाहाकारपरायण तथा अचेत हो क्षणभरमें नष्ट हो जाय॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न संवत्सरसत्राणि तिष्ठेयुरकुतोभयाः ।
विधिवद् दक्षिणावन्ति यदि राजा न पालयेत् ॥ २५ ॥
मूलम्
न संवत्सरसत्राणि तिष्ठेयुरकुतोभयाः ।
विधिवद् दक्षिणावन्ति यदि राजा न पालयेत् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि राजा पालन न करे तो उनमें विधिपूर्वक दक्षिणाओंसे युक्त वार्षिक यज्ञ बेखटके न चल सकें॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणाश्चतुरो वेदान् नाधीयीरंस्तपस्विनः ।
विद्यास्नाता व्रतस्नाता यदि राजा न पालयेत् ॥ २६ ॥
मूलम्
ब्राह्मणाश्चतुरो वेदान् नाधीयीरंस्तपस्विनः ।
विद्यास्नाता व्रतस्नाता यदि राजा न पालयेत् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि राजा पालन न करे तो विद्या पढ़कर स्नातक हुए ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन करनेवाले और तपस्वी तथा ब्राह्मण लोग चारों वेदोंका अध्ययन छोड़ दें॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न लभेद् धर्मसंश्लेषं हतविप्रहतो जनः।
हर्ता स्वस्थेन्द्रियो गच्छेद् यदि राजा न पालयेत् ॥ २७ ॥
मूलम्
न लभेद् धर्मसंश्लेषं हतविप्रहतो जनः।
हर्ता स्वस्थेन्द्रियो गच्छेद् यदि राजा न पालयेत् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि राजा पालन न करे तो मनुष्य हताहत होकर धर्मका सम्पर्क छोड़ दें और चोर घरका मालमत्ता लेकर अपने शरीर और इन्द्रियोंपर आँच आये बिना ही सकुशल लौट जायँ॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हस्ताद्धस्तं परिमुषेद् भिद्येरन् सर्वसेतवः।
भयार्तं विद्रवेत् सर्वं यदि राजा न पालयेत् ॥ २८ ॥
मूलम्
हस्ताद्धस्तं परिमुषेद् भिद्येरन् सर्वसेतवः।
भयार्तं विद्रवेत् सर्वं यदि राजा न पालयेत् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि राजा पालन न करे तो चोर और लुटेरे हाथमें रखी हुई वस्तुको भी हाथसे छीन ले जायँ, सारी मर्यादाएँ टूट जायँ और सब लोग भयसे पीड़ित हो चारों ओर भागते फिरें॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनयाः सम्प्रवर्तेरन् भवेद् वै वर्णसंकरः।
दुर्भिक्षमाविशेद् राष्ट्रं यदि राजा न पालयेत् ॥ २९ ॥
मूलम्
अनयाः सम्प्रवर्तेरन् भवेद् वै वर्णसंकरः।
दुर्भिक्षमाविशेद् राष्ट्रं यदि राजा न पालयेत् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि राजा पालन न करे तो सब ओर अन्याय एवं अत्याचार फैल जाय, वर्णसंकर संतानें पैदा होने लगें और समूचे देशमें अकाल पड़ जाय॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विवृत्य हि यथाकामं गृहद्वाराणि शेरते।
मनुष्या रक्षिता राज्ञा समन्तादकुतोभयाः ॥ ३० ॥
मूलम्
विवृत्य हि यथाकामं गृहद्वाराणि शेरते।
मनुष्या रक्षिता राज्ञा समन्तादकुतोभयाः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजासे रक्षित हुए मनुष्य सब ओरसे निर्भय हो जाते हैं और अपनी इच्छाके अनुसार घरके दरवाजे खोलकर सोते हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाक्रुष्टं सहते कश्चित् कुतो वा हस्तलाघवम्।
यदि राजा न सम्यग् गां रक्षयत्यपि धार्मिकः ॥ ३१ ॥
मूलम्
नाक्रुष्टं सहते कश्चित् कुतो वा हस्तलाघवम्।
यदि राजा न सम्यग् गां रक्षयत्यपि धार्मिकः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि धर्मात्मा राजा भलीभाँति पृथ्वीकी रक्षा न करे तो कोई भी मनुष्य गाली-गलौज अथवा हाथसे पीटे जानेका अपमान कैसे सहन करे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रियश्चापुरुषा मार्गं सर्वालङ्कारभूषिताः ।
निर्भयाः प्रतिपद्यन्ते यदि रक्षति भूमिपः ॥ ३२ ॥
मूलम्
स्त्रियश्चापुरुषा मार्गं सर्वालङ्कारभूषिताः ।
निर्भयाः प्रतिपद्यन्ते यदि रक्षति भूमिपः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि पृथ्वीका पालन करनेवाला राजा अपने राज्यकी रक्षा करता है तो समस्त आभूषणोंसे विभूषित हुई सुन्दरी स्त्रियाँ किसी पुरुषको साथ लिये बिना भी निर्भय होकर मार्गसे आती-जाती हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्ममेव प्रपद्यन्ते न हिंसन्ति परस्परम्।
अनुगृह्णन्ति चान्योन्यं यदा रक्षति भूमिपः ॥ ३३ ॥
मूलम्
धर्ममेव प्रपद्यन्ते न हिंसन्ति परस्परम्।
अनुगृह्णन्ति चान्योन्यं यदा रक्षति भूमिपः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब राजा रक्षा करता है, तब सब लोग धर्मका ही पालन करते हैं, कोई किसीकी हिंसा नहीं करते और सभी एक-दूसरेपर अनुग्रह रखते हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यजन्ते च महायज्ञैस्त्रयो वर्णाः पृथग्विधैः।
युक्ताश्चाधीयते विद्यां यदा रक्षति भूमिपः ॥ ३४ ॥
मूलम्
यजन्ते च महायज्ञैस्त्रयो वर्णाः पृथग्विधैः।
युक्ताश्चाधीयते विद्यां यदा रक्षति भूमिपः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब राजा रक्षा करता है, तब तीनों वर्णोंके लोग नाना प्रकारके बड़े-बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं और मनोयोगपूर्वक विद्याध्ययनमें लगे रहते हैं॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वार्तामूलो ह्ययं लोकस्त्रय्या वै धार्यते सदा।
तत् सर्वं वर्तते सम्यग् यदा रक्षति भूमिपः ॥ ३५ ॥
मूलम्
वार्तामूलो ह्ययं लोकस्त्रय्या वै धार्यते सदा।
तत् सर्वं वर्तते सम्यग् यदा रक्षति भूमिपः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
खेती आदि समुचित जीविकाकी व्यवस्था ही इस जगत्के जीवनका मूल है तथा वृष्टि आदिकी हेतुभूत त्रयी विद्यासे ही सदा जगत्का धारण-पोषण होता है। जब राजा प्रजाकी रक्षा करता है, तभी वह सब कुछ ठीक ढंगसे चलता रहता है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा राजा धुरं श्रेष्ठामादाय वहति प्रजाः।
महता बलयोगेन तदा लोकः प्रसीदति ॥ ३६ ॥
मूलम्
यदा राजा धुरं श्रेष्ठामादाय वहति प्रजाः।
महता बलयोगेन तदा लोकः प्रसीदति ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब राजा विशाल सैनिक-शक्तिके सहयोगसे भारी भार उठाकर प्रजाकी रक्षाका भार वहन करता है, तब यह सम्पूर्ण जगत् प्रसन्न होता है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्याभावेन भूतानामभावः स्यात् समन्ततः।
भावे च भावो नित्यं स्यात् कस्तं न प्रतिपूजयेत्॥३७॥
मूलम्
यस्याभावेन भूतानामभावः स्यात् समन्ततः।
भावे च भावो नित्यं स्यात् कस्तं न प्रतिपूजयेत्॥३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके न रहनेपर सब ओरसे समस्त प्राणियोंका अभाव होने लगता है और जिसके रहनेपर सदा सबका अस्तित्व बना रहता है, उस राजाका पूजन (आदर-सत्कार) कौन नहीं करेगा?॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य यो वहते भारं सर्वलोकभयावहम्।
तिष्ठन् प्रियहिते राज्ञ उभौ लोकाविमौ जयेत् ॥ ३८ ॥
मूलम्
तस्य यो वहते भारं सर्वलोकभयावहम्।
तिष्ठन् प्रियहिते राज्ञ उभौ लोकाविमौ जयेत् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो उस राजाके प्रिय एवं हितसाधनमें संलग्न रहकर उसके सर्वलोकभयंकर शासन-भारको वहन करता है, वह इस लोक और परलोक दोनोंपर विजय पाता है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तस्य पुरुषः पापं मनसाप्यनुचिन्तयेत्।
असंशयमिह क्लिष्टः प्रेत्यापि नरकं व्रजेत् ॥ ३९ ॥
मूलम्
यस्तस्य पुरुषः पापं मनसाप्यनुचिन्तयेत्।
असंशयमिह क्लिष्टः प्रेत्यापि नरकं व्रजेत् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष मनसे भी राजाके अनिष्टका चिन्तन करता है, वह निश्चय ही इह लोकमें कष्ट भोगता है और मरनेके बाद भी नरकमें पड़ता है॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि जात्ववमन्तव्यो मनुष्य इति भूमिपः।
महती देवता ह्येषा नररूपेण तिष्ठति ॥ ४० ॥
मूलम्
न हि जात्ववमन्तव्यो मनुष्य इति भूमिपः।
महती देवता ह्येषा नररूपेण तिष्ठति ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह भी एक मनुष्य है’ ऐसा समझकर कभी भी पृथ्वीपालक नरेशकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये; क्योंकि राजा मनुष्यरूपमें एक महान् देवता है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुरुते पञ्चरूपाणि कालयुक्तानि यः सदा।
भवत्यग्निस्तथाऽऽदित्यो मृत्युर्वैश्रवणो यमः ॥ ४१ ॥
मूलम्
कुरुते पञ्चरूपाणि कालयुक्तानि यः सदा।
भवत्यग्निस्तथाऽऽदित्यो मृत्युर्वैश्रवणो यमः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा ही सदा समयानुसार पाँच रूप धारण करता है। वह कभी अग्नि, कभी सूर्य, कभी मृत्यु, कभी कुबेर और कभी यमराज बन जाता है॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा ह्यासीदतः पापान् दहत्युग्रेण तेजसा।
मिथ्योपचरितो राजा तदा भवति पावकः ॥ ४२ ॥
मूलम्
यदा ह्यासीदतः पापान् दहत्युग्रेण तेजसा।
मिथ्योपचरितो राजा तदा भवति पावकः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब पापात्मा मनुष्य राजाके साथ मिथ्या बर्ताव करके उसे ठगते हैं, तब वह अग्निस्वरूप हो जाता है और अपने उग्र तेजसे समीप आये हुए उन पापियोंको जलाकर भस्म कर देता है॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा पश्यति चारेण सर्वभूतानि भूमिपः।
क्षेमं च कृत्वा व्रजति तदा भवति भास्करः ॥ ४३ ॥
मूलम्
यदा पश्यति चारेण सर्वभूतानि भूमिपः।
क्षेमं च कृत्वा व्रजति तदा भवति भास्करः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब राजा गुप्तचरोंद्वारा समस्त प्रजाओंकी देख-भाल करता है और उन सबकी रक्षा करता हुआ चलता है, तब वह सूर्यरूप होता है॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशुचींश्च यदा क्रुद्धः क्षिणोति शतशो नरान्।
सपुत्रपौत्रान् सामात्यांस्तदा भवति सोऽन्तकः ॥ ४४ ॥
मूलम्
अशुचींश्च यदा क्रुद्धः क्षिणोति शतशो नरान्।
सपुत्रपौत्रान् सामात्यांस्तदा भवति सोऽन्तकः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब राजा कुपित होकर अशुद्धाचारी सैकड़ों मनुष्योंका उनके पुत्र, पौत्र और मन्त्रियोंसहित संहार कर डालता है, तब वह मृत्युरूप होता है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा त्वधार्मिकान् सर्वांस्तीक्ष्णैर्दण्डैर्नियच्छति ।
धार्मिकांश्चानुगृह्णाति भवत्यथ यमस्तदा ॥ ४५ ॥
मूलम्
यदा त्वधार्मिकान् सर्वांस्तीक्ष्णैर्दण्डैर्नियच्छति ।
धार्मिकांश्चानुगृह्णाति भवत्यथ यमस्तदा ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब वह कठोर दण्डके द्वारा समस्त अधार्मिक पुरुषोंको काबूमें करके सन्मार्गपर लाता है और धर्मात्माओंपर अनुग्रह करता है, उस समय वह यमराज माना जाता है॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा तु धनधाराभिस्तर्पयत्युपकारिणः ।
आच्छिनत्ति च रत्नानि विविधान्यपकारिणाम् ॥ ४६ ॥
श्रियं ददाति कस्मैचित् कस्माच्चिदपकर्षति।
तदा वैश्रवणो राजा लोके भवति भूमिपः ॥ ४७ ॥
मूलम्
यदा तु धनधाराभिस्तर्पयत्युपकारिणः ।
आच्छिनत्ति च रत्नानि विविधान्यपकारिणाम् ॥ ४६ ॥
श्रियं ददाति कस्मैचित् कस्माच्चिदपकर्षति।
तदा वैश्रवणो राजा लोके भवति भूमिपः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब राजा उपकारी पुरुषोंको धनरूपी जलकी धाराओंसे तृप्त करता है और अपकार करनेवाले दुष्टोंके नाना प्रकारके रत्नोंको छीन लेता है, किसी राज्यहितैषीको धन देता है तो किसी (राज्यविद्रोही) के धनका अपहरण कर लेता है, उस समय वह पृथिवीपालक नरेश इस संसारमें कुबेर समझा जाता है॥४६-४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्यापवादे स्थातव्यं दक्षेणाक्लिष्टकर्मणा ।
धर्म्यमाकांक्षता लोकमीश्वरस्यानसूयता ॥ ४८ ॥
मूलम्
नास्यापवादे स्थातव्यं दक्षेणाक्लिष्टकर्मणा ।
धर्म्यमाकांक्षता लोकमीश्वरस्यानसूयता ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो समस्त कार्योंमें निपुण, अनायास ही कार्य-साधन करनेमें समर्थ, धर्ममय लोकोंमें जानेकी इच्छा रखनेवाला तथा दोषदृष्टिसे रहित हो, उस पुरुषको अपने देशके शासक नरेशकी निन्दाके काममें नहीं पड़ना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि राज्ञः प्रतीपानि कुर्वन् सुखमवाप्नुयात्।
पुत्रो भ्राता वयस्यो वा यद्यप्यात्मसमो भवेत् ॥ ४९ ॥
मूलम्
न हि राज्ञः प्रतीपानि कुर्वन् सुखमवाप्नुयात्।
पुत्रो भ्राता वयस्यो वा यद्यप्यात्मसमो भवेत् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाके विपरीत आचरण करनेवाला मनुष्य उसका पुत्र, भाई, मित्र अथवा आत्माके तुल्य ही क्यों न हो, कभी सुख नहीं पा सकता॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुर्यात् कृष्णगतिः शेषं ज्वलितोऽनिलसारथिः।
न तु राजाभिपन्नस्य शेषं क्वचन विद्यते ॥ ५० ॥
मूलम्
कुर्यात् कृष्णगतिः शेषं ज्वलितोऽनिलसारथिः।
न तु राजाभिपन्नस्य शेषं क्वचन विद्यते ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वायुकी सहायतासे प्रज्वलित हुई आग जब किसी गाँव या जंगलको जलाने लगे तो सम्भव है कि वहाँका कुछ भाग जलाये बिना शेष छोड़ दे; परंतु राजा जिसपर आक्रमण करता है, उसकी कहीं कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य सर्वाणि रक्ष्याणि दूरतः परिवर्जयेत्।
मृत्योरिव जुगुप्सेत राजस्वहरणान्नरः ॥ ५१ ॥
मूलम्
तस्य सर्वाणि रक्ष्याणि दूरतः परिवर्जयेत्।
मृत्योरिव जुगुप्सेत राजस्वहरणान्नरः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यको चाहिये कि राजाकी सारी रक्षणीय वस्तुओंको दूरसे ही त्याग दे और मृत्युकी ही भाँति राजधनके अपहरणसे घृणा करके उससे अपनेको बचानेका प्रयत्न करे॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नश्येदभिमृशन् सद्यो मृगः कूटमिव स्पृशन्।
आत्मस्वमिव रक्षेत राजस्वमिह बुद्धिमान् ॥ ५२ ॥
मूलम्
नश्येदभिमृशन् सद्यो मृगः कूटमिव स्पृशन्।
आत्मस्वमिव रक्षेत राजस्वमिह बुद्धिमान् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मृग मारण-मन्त्रका स्पर्श करते ही अपने प्राणोंसे हाथ धो बैठता है, उसी प्रकार राजाके धनपर हाथ लगानेवाला मनुष्य तत्काल मारा जाता है; अतः बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह अपने ही धनके समान इस जगत्में राजाके धनकी भी रक्षा करे॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महान्तं नरकं घोरमप्रतिष्ठमचेतनम् ।
पतन्ति चिररात्राय राजवित्तापहारिणः ॥ ५३ ॥
मूलम्
महान्तं नरकं घोरमप्रतिष्ठमचेतनम् ।
पतन्ति चिररात्राय राजवित्तापहारिणः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाके धनका अपहरण करनेवाले मनुष्य दीर्घकालके लिये विशाल, भयंकर, अस्थिर और चेतनाशक्तिको लुप्त कर देनेवाले नरकमें गिरते हैं॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा भोजो विराट् सम्राट् क्षत्रियो भूपतिर्नृपः।
य एभिः स्तूयते शब्दैः कस्तं नार्चितुमर्हति ॥ ५४ ॥
मूलम्
राजा भोजो विराट् सम्राट् क्षत्रियो भूपतिर्नृपः।
य एभिः स्तूयते शब्दैः कस्तं नार्चितुमर्हति ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भोज, विराट्, सम्राट्, क्षत्रिय, भूपति और नृप—इन शब्दोंद्वारा जिस राजाकी स्तुति की जाती है, उस प्रजापालक नरेशकी पूजा कौन नहीं करेगा?॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् बुभूषुर्नियतो जितात्मा नियतेन्द्रियः।
मेधावी स्मृतिमान् दक्षः संश्रयेत महीपतिम् ॥ ५५ ॥
मूलम्
तस्माद् बुभूषुर्नियतो जितात्मा नियतेन्द्रियः।
मेधावी स्मृतिमान् दक्षः संश्रयेत महीपतिम् ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये अपनी उन्नतिकी इच्छा रखनेवाला, मेधावी, स्मरणशक्तिसे सम्पन्न एवं कार्यदक्ष मनुष्य नियमपूर्वक रहकर मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए राजाका आश्रय ग्रहण करे॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतज्ञं प्राज्ञमक्षुद्रं दृढभक्तिं जितेन्द्रियम्।
धर्मनित्यं स्थितं नीत्यं मन्त्रिणं पूजयेन्नृपः ॥ ५६ ॥
मूलम्
कृतज्ञं प्राज्ञमक्षुद्रं दृढभक्तिं जितेन्द्रियम्।
धर्मनित्यं स्थितं नीत्यं मन्त्रिणं पूजयेन्नृपः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाको उचित है कि वह कृतज्ञ, विद्वान्, महामना, राजाके प्रति दृढ़ भक्ति रखनेवाले, जितेन्द्रिय, नित्य धर्मपरायण और नीतिज्ञ मन्त्रीका आदर करे॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृढभक्तिं कृतप्रज्ञं धर्मज्ञं संयतेन्द्रियम्।
शूरमक्षुद्रकर्माणं निषिद्धजनमाश्रयेत् ॥ ५७ ॥
मूलम्
दृढभक्तिं कृतप्रज्ञं धर्मज्ञं संयतेन्द्रियम्।
शूरमक्षुद्रकर्माणं निषिद्धजनमाश्रयेत् ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार राजा अपने प्रति दृढ़ भक्तिसे सम्पन्न, युद्धकी शिक्षा पाये हुए, बुद्धिमान्, धर्मज्ञ, जितेन्द्रिय, शूरवीर और श्रेष्ठ कर्म करनेवाले ऐसे वीर पुरुषको सेनापति बनावे, जो अपनी सहायताके लिये दूसरोंका आश्रय लेनेवाला न हो॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा प्रगल्भं कुरुते मनुष्यं
राजा कृशं वै कुरुते मनुष्यम्।
राजाभिपन्नस्य कुतः सुखानि
राजाभ्युपेतं सुखिनं करोति ॥ ५८ ॥
मूलम्
राजा प्रगल्भं कुरुते मनुष्यं
राजा कृशं वै कुरुते मनुष्यम्।
राजाभिपन्नस्य कुतः सुखानि
राजाभ्युपेतं सुखिनं करोति ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा मनुष्यको धृष्ट एवं सबल बनाता है और राजा ही उसे दुर्बल कर देता है। राजाके रोषका शिकार बने हुए मनुष्यको कैसे सुख मिल सकता है? राजा अपने शरणागतको सुखी बना देता है॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(राजा प्रजानां प्रथमं शरीरं
प्रजाश्च राज्ञोऽप्रतिमं शरीरम् ।
राज्ञा विहीना न भवन्ति देशा
देशैर्विहीना न नृपा भवन्ति॥)
मूलम्
(राजा प्रजानां प्रथमं शरीरं
प्रजाश्च राज्ञोऽप्रतिमं शरीरम् ।
राज्ञा विहीना न भवन्ति देशा
देशैर्विहीना न नृपा भवन्ति॥)
अनुवाद (हिन्दी)
राजा प्रजाओंका प्रथम अथवा प्रधान शरीर है। प्रजा भी राजाका अनुपम शरीर है। राजाके बिना देश और वहाँके निवासी नहीं रह सकते और देशों तथा देशवासियोंके बिना राजा भी नहीं रह सकते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा प्रजानां हृदयं गरीयो
गतिः प्रतिष्ठा सुखमुत्तमं च।
समाश्रिता लोकमिमं परं च
जयन्ति सम्यक् पुरुषा नरेन्द्र ॥ ५९ ॥
मूलम्
राजा प्रजानां हृदयं गरीयो
गतिः प्रतिष्ठा सुखमुत्तमं च।
समाश्रिता लोकमिमं परं च
जयन्ति सम्यक् पुरुषा नरेन्द्र ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा प्रजाका गुरुतर हृदय, गति, प्रतिष्ठा और उत्तम सुख है। नरेन्द्र! राजाका आश्रय लेनेवाले मनुष्य इस लोक और परलोकपर भी पूर्णतः विजय पा लेते हैं॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नराधिपश्चाप्यनुशिष्य मेदिनीं
दमेन सत्येन च सौहृदेन।
महद्भिरिष्ट्वा क्रतुभिर्महायशा-
स्त्रिविष्टपे स्थानमुपैति शाश्वतम् ॥ ६० ॥
मूलम्
नराधिपश्चाप्यनुशिष्य मेदिनीं
दमेन सत्येन च सौहृदेन।
महद्भिरिष्ट्वा क्रतुभिर्महायशा-
स्त्रिविष्टपे स्थानमुपैति शाश्वतम् ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा भी इन्द्रियसंयम, सत्य और सौहार्दके साथ इस पृथ्वीका भलीभाँति शासन करके बड़े-बड़े यज्ञोंके अनुष्ठानद्वारा महान् यशका भागी हो स्वर्गलोकमें सनातन स्थान प्राप्त कर लेता है॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तोऽङ्गिरसा कौसल्यो राजसत्तमः।
प्रयत्नात् कृतवान् वीरः प्रजानां परिपालनम् ॥ ६१ ॥
मूलम्
स एवमुक्तोऽङ्गिरसा कौसल्यो राजसत्तमः।
प्रयत्नात् कृतवान् वीरः प्रजानां परिपालनम् ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! बृहस्पतिजीके ऐसा कहनेपर राजाओंमें श्रेष्ठ कोसलनरेश वीर वसुमना अपनी प्रजाओंका प्रयत्नपूर्वक पालन करने लगे॥६१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि आङ्गिरसवाक्येऽष्टषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें बृहस्पतिजीका उपदेशविषयक अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६८॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ६२ श्लोक हैं।)