०६७ राजकरणावश्यकत्वकथने

भागसूचना

सप्तषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राष्ट्रकी रक्षा और उन्नतिके लिये राजाकी आवश्यकताका प्रतिपादन

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

चातुराश्रम्यमुक्तं ते चातुर्वर्ण्यं तथैव च।
राष्ट्रस्य यत् कृत्यतमं ततो ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

चातुराश्रम्यमुक्तं ते चातुर्वर्ण्यं तथैव च।
राष्ट्रस्य यत् कृत्यतमं ततो ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा युधिष्ठिरने कहा— पितामह! आपने चारों आश्रमों और चारों वर्णोंके धर्म बतलाये। अब आप मुझे यह बताइये कि समूचे राष्ट्रका—उस राष्ट्रमें निवास करनेवाले प्रत्येक नागरिकका मुख्य कार्य क्या है?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राष्ट्रस्यैतत् कृत्यतमं राज्ञ एवाभिषेचनम्।
अनिन्द्रमबलं राष्ट्रं दस्यवोऽभिभवन्त्युत ॥ २ ॥

मूलम्

राष्ट्रस्यैतत् कृत्यतमं राज्ञ एवाभिषेचनम्।
अनिन्द्रमबलं राष्ट्रं दस्यवोऽभिभवन्त्युत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी बोले— युधिष्ठिर! राष्ट्र अथवा राष्ट्रवासी प्रजावर्गका सबसे प्रधान कार्य यह है कि वह किसी योग्य राजाका अभिषेक करे, क्योंकि बिना राजाका राष्ट्र निर्बल होता है। उसे डाकू और लुटेरे लूटते तथा सताते हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अराजकेषु राष्ट्रेषु धर्मो न व्यवतिष्ठते।
परस्परं च खादन्ति सर्वथा धिगराजकम् ॥ ३ ॥

मूलम्

अराजकेषु राष्ट्रेषु धर्मो न व्यवतिष्ठते।
परस्परं च खादन्ति सर्वथा धिगराजकम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन देशोंमें कोई राजा नहीं होता, वहाँ धर्मकी भी स्थिति नहीं रहती है; अतः वहाँके लोग एक-दूसरेको हड़पने लगते हैं; इसलिये जहाँ अराजकता हो, उस देशको सर्वथा धिक्कार है!॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रमेव प्रवृणुते यद्राजानमिति श्रुतिः।
यथैवेन्द्रस्तथा राजा सम्पूज्यो भूतिमिच्छता ॥ ४ ॥

मूलम्

इन्द्रमेव प्रवृणुते यद्राजानमिति श्रुतिः।
यथैवेन्द्रस्तथा राजा सम्पूज्यो भूतिमिच्छता ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रुति कहती है, ‘प्रजा जो राजाका वरण करती है, वह मानो इन्द्रका ही वरण करती है,’ अतः लोकका कल्याण चाहनेवाले पुरुषको इन्द्रके समान ही राजाका पूजन करना चाहिये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाराजकेषु राष्ट्रेषु वस्तव्यमिति रोचये।
नाराजकेषु राष्ट्रेषु हव्यमग्निर्वहत्युत ॥ ५ ॥

मूलम्

नाराजकेषु राष्ट्रेषु वस्तव्यमिति रोचये।
नाराजकेषु राष्ट्रेषु हव्यमग्निर्वहत्युत ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी रुचि तो यह है कि जहाँ कोई राजा न हो, उन देशोंमें निवास ही नहीं करना चाहिये। बिना राजाके राज्यमें दिये हुए हविष्यको अग्निदेव वहन नहीं करते॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ चेदाभिवर्तेत राज्यार्थी बलवत्तरः।
अराजकाणि राष्ट्राणि हतवीर्याणि वा पुनः ॥ ६ ॥
प्रत्युद्‌गम्याभिपूज्यः स्यादेतदत्र सुमन्त्रितम् ।
न हि पापात् परतरमस्ति किञ्चिदराजकात् ॥ ७ ॥

मूलम्

अथ चेदाभिवर्तेत राज्यार्थी बलवत्तरः।
अराजकाणि राष्ट्राणि हतवीर्याणि वा पुनः ॥ ६ ॥
प्रत्युद्‌गम्याभिपूज्यः स्यादेतदत्र सुमन्त्रितम् ।
न हि पापात् परतरमस्ति किञ्चिदराजकात् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कोई प्रबल राजा राज्यके लोभसे उन बिना राजाके दुर्बल देशोंपर आक्रमण करे तो वहाँके निवासियोंको चाहिये कि वे आगे बढ़कर उसका स्वागत-सत्कार करें। यही वहाँके लिये सबसे अच्छी सलाह हो सकती है; क्योंकि पापपूर्ण अराजकतासे बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चेत् समनुपश्येत समग्रं कुशलं भवेत्।
बलवान् हि प्रकुपितः कुर्यान्निःशेषतामपि ॥ ८ ॥

मूलम्

स चेत् समनुपश्येत समग्रं कुशलं भवेत्।
बलवान् हि प्रकुपितः कुर्यान्निःशेषतामपि ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह बलवान् आक्रमणकारी नरेश यदि शान्त दृष्टिसे देखे तो राज्यकी पूर्णतः भलाई होती है और यदि वह कुपित हो गया तो उस राज्यका सर्वनाश कर सकता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूयांसं लभते क्लेशं या गौर्भवति दुर्दुहा।
अथ या सुदुहा राजन् नैव तां वितुदन्त्यपि ॥ ९ ॥

मूलम्

भूयांसं लभते क्लेशं या गौर्भवति दुर्दुहा।
अथ या सुदुहा राजन् नैव तां वितुदन्त्यपि ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो गाय कठिनाईसे दुही जाती है, उसे बड़े-बड़े क्लेश उठाने पड़ते हैं, परंतु जो सुगमतापूर्वक दूध दुह लेने देती है, उसे लोग पीड़ा नहीं देते हैं, आरामसे रखते हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदतप्तं प्रणमते नैतत् संतापमर्हति।
यत् स्वयं नमते दारु न तत् संनामयन्त्यपि ॥ १० ॥

मूलम्

यदतप्तं प्रणमते नैतत् संतापमर्हति।
यत् स्वयं नमते दारु न तत् संनामयन्त्यपि ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राष्ट्र बिना कष्ट पाये ही नतमस्तक हो जाता है, वह अधिक संतापका भागी नहीं होता। जो लकड़ी स्वयं ही झुक जाती है, उसे लोग झुकानेका प्रयत्न नहीं करते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतयोपमया वीर संनमेत बलीयसे।
इन्द्राय स प्रणमते नमते यो बलीयसे ॥ ११ ॥

मूलम्

एतयोपमया वीर संनमेत बलीयसे।
इन्द्राय स प्रणमते नमते यो बलीयसे ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर! इस उपमाको ध्यानमें रखते हुए दुर्बलको बलवान्‌के सामने नतमस्तक हो जाना चाहिये। जो बलवान्‌को प्रणाम करता है, वह मानो इन्द्रको ही नमस्कार करता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् राजैव कर्तव्यः सततं भूतिमिच्छता।
न धनार्थो न दारार्थस्तेषां येषामराजकम् ॥ १२ ॥

मूलम्

तस्माद् राजैव कर्तव्यः सततं भूतिमिच्छता।
न धनार्थो न दारार्थस्तेषां येषामराजकम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः सदा उन्नतिकी इच्छा रखनेवाले देशको अपनी रक्षाके लिये किसीको राजा अवश्य बना लेना चाहिये। जिनके देशमें अराजकता है, उनके धन और स्त्रियोंपर उन्हींका अधिकार बना रहे, यह सम्भव नहीं है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीयते हि हरन् पापः परवित्तमराजके।
यदास्य उद्धरन्त्यन्ये तदा राजानमिच्छति ॥ १३ ॥

मूलम्

प्रीयते हि हरन् पापः परवित्तमराजके।
यदास्य उद्धरन्त्यन्ये तदा राजानमिच्छति ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अराजकताकी स्थितिमें दूसरोंके धनका अपहरण करनेवाला पापाचारी मनुष्य बड़ा प्रसन्न होता है, परंतु जब दूसरे लुटेरे उसका भी सारा धन हड़प लेते हैं, तब वह राजाकी आवश्यकताका अनुभव करता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापा ह्यपि तदा क्षेमं न लभन्ते कदाचन।
एकस्य हि द्वौ हरतो द्वयोश्च बहवोऽपरे ॥ १४ ॥

मूलम्

पापा ह्यपि तदा क्षेमं न लभन्ते कदाचन।
एकस्य हि द्वौ हरतो द्वयोश्च बहवोऽपरे ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अराजक देशमें पापी मनुष्य भी कभी कुशलपूर्वक नहीं रह सकते। एकका धन दो मिलकर उठा ले जाते हैं और उन दोनोंका धन दूसरे बहुसंख्यक लुटेरे लूट लेते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदासः क्रियते दासो ह्रियन्ते च बलात् स्त्रियः।
एतस्मात्‌ कारणाद् देवाः प्रजापालान् प्रचक्रिरे ॥ १५ ॥

मूलम्

अदासः क्रियते दासो ह्रियन्ते च बलात् स्त्रियः।
एतस्मात्‌ कारणाद् देवाः प्रजापालान् प्रचक्रिरे ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अराजकताकी स्थितिमें जो दास नहीं है, उसे दास बना लिया जाता है और स्त्रियोंका बलपूर्वक अपहरण किया जाता है। इसी कारणसे देवताओंने प्रजापालक नरेशोंकी सृष्टि की है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा चेन्न भवेल्लोके पृथिव्यां दण्डधारकः।
जले मत्स्यानिवाभक्ष्यन् दुर्बलं बलवत्तराः ॥ १६ ॥

मूलम्

राजा चेन्न भवेल्लोके पृथिव्यां दण्डधारकः।
जले मत्स्यानिवाभक्ष्यन् दुर्बलं बलवत्तराः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि इस जगत्‌में भूतलपर दण्डधारी राजा न हो तो जैसे जलमें बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियोंको खा जाती हैं, उसी प्रकार प्रबल मनुष्य दुर्बलोंको लूट खायँ॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अराजकाः प्रजाः पूर्वं विनेशुरिति नः श्रुतम्।
परस्परं भक्षयन्तो मत्स्या इव जले कृशान् ॥ १७ ॥

मूलम्

अराजकाः प्रजाः पूर्वं विनेशुरिति नः श्रुतम्।
परस्परं भक्षयन्तो मत्स्या इव जले कृशान् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमने सुन रखा है कि जैसे पानीमें बलवान् मत्स्य दुर्बल मत्स्योंको अपना आहार बना लेते हैं, उसी प्रकार पूर्वकालमें राजाके न रहनेपर प्रजावर्गके लोग परस्पर एक-दूसरेको लूटते हुए नष्ट हो गये थे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समेत्य तास्ततश्चक्रुः समयानिति नः श्रुतम्।
वाक्शूरो दण्डपरुषो यश्च स्यात् पारजायिकः ॥ १८ ॥
यः परस्वमथादद्यात् त्याज्या नस्तादृशा इति।
विश्वासार्थं च सर्वेषां वर्णानामविशेषतः।
तास्तथा समयं कृत्वा समयेनावतस्थिरे ॥ १९ ॥

मूलम्

समेत्य तास्ततश्चक्रुः समयानिति नः श्रुतम्।
वाक्शूरो दण्डपरुषो यश्च स्यात् पारजायिकः ॥ १८ ॥
यः परस्वमथादद्यात् त्याज्या नस्तादृशा इति।
विश्वासार्थं च सर्वेषां वर्णानामविशेषतः।
तास्तथा समयं कृत्वा समयेनावतस्थिरे ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन सबने मिलकर आपसमें नियम बनाया—यह बात हमारे सुननेमें आयी है। वह नियम इस प्रकार है—‘हम लोगोंमेंसे जो भी निष्ठुर बोलनेवाला, भयानक दण्ड देनेवाला, परस्त्रीगामी तथा पराये धनका अपहरण करनेवाला हो, ऐसे सब लोगोंको हमें समाजसे बहिष्कृत कर देना चाहिये।’ सभी वर्णके लोगोंमें विश्वास उत्पन्न करनेके लिये सामान्यतः ऐसा नियम बनाकर उसका पालन करते हुए वे सब लोग सुखसे रहने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहितास्तास्तदा जग्मुरसुखार्ताः पितामहम् ।
अनीश्वरा विनश्यामो भगवन्नीश्वरं दिश ॥ २० ॥
यं पूजयेम सम्भूय यश्च नः प्रतिपालयेत्।

मूलम्

सहितास्तास्तदा जग्मुरसुखार्ताः पितामहम् ।
अनीश्वरा विनश्यामो भगवन्नीश्वरं दिश ॥ २० ॥
यं पूजयेम सम्भूय यश्च नः प्रतिपालयेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

(कुछ समयतक इस प्रकार काम चलता रहा; किंतु आगे चलकर पुनः दुर्व्यवस्था फैल गयी) तब दुःखसे पीड़ित हुई सारी प्रजाएँ एक साथ मिलकर ब्रह्माजीके पास गयीं और उनसे कहने लगीं—‘भगवन्! राजाके बिना तो हमलोग नष्ट हो रहे हैं। आप हमें कोई ऐसा राजा दीजिये, जो शासन करनेमें समर्थ हो, हम सब लोग मिलकर जिसकी पूजा करें और जो निरन्तर हमारा पालन करता रहे’॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मनुं व्यादिदेश मनुर्नाभिननन्द ताः ॥ २१ ॥

मूलम्

ततो मनुं व्यादिदेश मनुर्नाभिननन्द ताः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब ब्रह्माजीने मनुको राजा होनेकी आज्ञा दी; परंतु मनुने उन प्रजाओंको स्वीकार नहीं किया॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

मनुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिभेमि कर्मणः पापाद् राज्यं हि भृशदुस्तरम्।
विशेषतो मनुष्येषु मिथ्यावृत्तेषु नित्यदा ॥ २२ ॥

मूलम्

बिभेमि कर्मणः पापाद् राज्यं हि भृशदुस्तरम्।
विशेषतो मनुष्येषु मिथ्यावृत्तेषु नित्यदा ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनु बोले— भगवन्! मैं पापकर्मसे बहुत डरता हूँ। राज्य करना बड़ा कठिन काम है—विशेषतः सदा मिथ्याचारमें प्रवृत्त रहनेवाले मनुष्योंपर शासन करना तो और भी दुष्कर है॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमब्रुवन् प्रजा मा भैः कर्तॄनेनो गमिष्यति।
पशूनामधिपञ्चाशद्धिरण्यस्य तथैव च ॥ २३ ॥
धान्यस्य दशमं भागं दास्यामः कोशवर्धनम्।
कन्यां शुल्के चारुरूपां विवाहेषूद्यतासु च ॥ २४ ॥

मूलम्

तमब्रुवन् प्रजा मा भैः कर्तॄनेनो गमिष्यति।
पशूनामधिपञ्चाशद्धिरण्यस्य तथैव च ॥ २३ ॥
धान्यस्य दशमं भागं दास्यामः कोशवर्धनम्।
कन्यां शुल्के चारुरूपां विवाहेषूद्यतासु च ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! तब समस्त प्रजाओंने मनुसे कहा—‘महाराज! आप डरें मत। पाप तो उन्हींको लगेगा, जो उसे करेंगे। हमलोग आपके कोशकी वृद्धिके लिये प्रति पचास पशुओंपर एक पशु आपको दिया करेंगे। इसी प्रकार सुवर्णका भी पचासवाँ भाग देते रहेंगे। अनाजकी उपजका दसवाँ भाग करके रूपमें देंगे। जब हमारी बहुत-सी कन्याएँ विवाहके लिये उद्यत होंगी, उस समय उनमें जो सबसे सुन्दरी कन्या होगी, उसे हम शुल्कके रूपमें आपको भेंट कर देंगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुखेन शस्त्रपत्रेण ये मनुष्याः प्रधानतः।
भवन्तं तेऽनुयास्यन्ति महेन्द्रमिव देवताः ॥ २५ ॥

मूलम्

मुखेन शस्त्रपत्रेण ये मनुष्याः प्रधानतः।
भवन्तं तेऽनुयास्यन्ति महेन्द्रमिव देवताः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे देवता देवराज इन्द्रका अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार प्रधान-प्रधान मनुष्य अपने प्रमुख शस्त्रों और वाहनोंके साथ आपके पीछे-पीछे चलेंगे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं जातबलो राजा दुष्प्रधर्षः प्रतापवान्।
सुखे धास्यसि नः सर्वान् कुबेर इव नैर्ऋतान् ॥ २६ ॥

मूलम्

स त्वं जातबलो राजा दुष्प्रधर्षः प्रतापवान्।
सुखे धास्यसि नः सर्वान् कुबेर इव नैर्ऋतान् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रजाका सहयोग पाकर आप एक प्रबल, दुर्जय और प्रतापी राजा होंगे। जैसे कुबेर यक्षों तथा राक्षसोंकी रक्षा करके उन्हें सुखी बनाते हैं, उसी प्रकार आप हमें सुरक्षित एवं सुखसे रखेंगे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यं च धर्मं चरिष्यन्ति प्रजा राज्ञा सुरक्षिताः।
चतुर्थं तस्य धर्मस्य त्वत्संस्थं वै भविष्यति ॥ २७ ॥

मूलम्

यं च धर्मं चरिष्यन्ति प्रजा राज्ञा सुरक्षिताः।
चतुर्थं तस्य धर्मस्य त्वत्संस्थं वै भविष्यति ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप जैसे राजाके द्वारा सुरक्षित हुई प्रजाएँ जो-जो धर्म करेंगी, उसका चतुर्थ भाग आपको मिलता रहेगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन धर्मेण महता सुखं लब्धेन भावितः।
पाह्यस्मान् सर्वतो राजन् देवानिव शतक्रतुः ॥ २८ ॥

मूलम्

तेन धर्मेण महता सुखं लब्धेन भावितः।
पाह्यस्मान् सर्वतो राजन् देवानिव शतक्रतुः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! सुखपूर्वक प्राप्त हुए उस महान् धर्मसे सम्पन्न हो आप उसी प्रकार सब ओरसे हमारी रक्षा कीजिये, जैसे इन्द्र देवताओंकी रक्षा करते हैं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विजयाय हि निर्याहि प्रतपन् रश्मिवानिव।
मानं विधम शत्रूणां जयोऽस्तु तव सर्वदा ॥ २९ ॥

मूलम्

विजयाय हि निर्याहि प्रतपन् रश्मिवानिव।
मानं विधम शत्रूणां जयोऽस्तु तव सर्वदा ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! आप तपते हुए अंशुमाली सूर्यके समान विजयके लिये यात्रा कीजिये, शत्रुओंका घमंड धूलमें मिला दीजिये और सर्वदा आपकी जय हो’॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स निर्ययौ महातेजा बलेन महता वृतः।
महाभिजनसम्पन्नस्तेजसा प्रज्वलन्निव ॥ ३० ॥

मूलम्

स निर्ययौ महातेजा बलेन महता वृतः।
महाभिजनसम्पन्नस्तेजसा प्रज्वलन्निव ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महान् सैन्यबलसे घिरे हुए महाकुलीन, महातेजस्वी राजा मनु अपने तेजसे प्रकाशित होते हुए-से निकले॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य दृष्ट्वा महत्त्वं ते महेन्द्रस्येव देवताः।
अपतत्रसिरे सर्वे स्वधर्मे च ददुर्मनः ॥ ३१ ॥

मूलम्

तस्य दृष्ट्वा महत्त्वं ते महेन्द्रस्येव देवताः।
अपतत्रसिरे सर्वे स्वधर्मे च ददुर्मनः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे देवता देवराज इन्द्रका प्रभाव देखकर प्रभावित हो जाते हैं, उसी प्रकार सब लोग महाराज मनुका महत्त्व देखकर आतंकित हो उठे और अपने-अपने धर्ममें मन लगाने लगे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो महीं परिययौ पर्जन्य इव वृष्टिमान्।
शमयन् सर्वतः पापान् स्वकर्मसु च योजयन् ॥ ३२ ॥

मूलम्

ततो महीं परिययौ पर्जन्य इव वृष्टिमान्।
शमयन् सर्वतः पापान् स्वकर्मसु च योजयन् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वर्षा करनेवाले मेघके समान मनु पापा-चारियोंको शान्त करते और उन्हें अपने वर्णाश्रमोचित कर्मोंमें लगाते हुए भूमण्डलपर चारों ओर घूमने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ये भूतिमिच्छेयुः पृथिव्यां मानवाः क्वचित्।
कुर्यू राजानमेवाग्रे प्रजानुग्रहकारणात् ॥ ३३ ॥

मूलम्

एवं ये भूतिमिच्छेयुः पृथिव्यां मानवाः क्वचित्।
कुर्यू राजानमेवाग्रे प्रजानुग्रहकारणात् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जो मनुष्य वैभव-वृद्धिकी कामना रखते हों, उन्हें सबसे पहले इस भूमण्डलमें प्रजाजनोंपर अनुग्रह करनेके लिये कोई राजा अवश्य बना लेना चाहिये॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्येरंश्च तं भक्त्या शिष्या इव गुरुं सदा।
देवा इव च देवेन्द्रं तत्र राजानमन्तिके ॥ ३४ ॥

मूलम्

नमस्येरंश्च तं भक्त्या शिष्या इव गुरुं सदा।
देवा इव च देवेन्द्रं तत्र राजानमन्तिके ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर जैसे शिष्य भक्तिभावसे गुरुको नमस्कार करते हैं तथा जैसे देवता देवराज इन्द्रको प्रणाम करते हैं, उसी प्रकार समस्त प्रजाजनोंको अपने राजाके निकट नमस्कार करना चाहिये॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्कृतं स्वजनेनेह परोऽपि बहु मन्यते।
स्वजनेन त्ववज्ञातं परे परिभवन्त्युत ॥ ३५ ॥

मूलम्

सत्कृतं स्वजनेनेह परोऽपि बहु मन्यते।
स्वजनेन त्ववज्ञातं परे परिभवन्त्युत ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस लोकमें आत्मीयजन जिसका आदर करते हैं, उसे दूसरे लोग भी बहुत मानते हैं और जो स्वजनोंद्वारा तिरस्कृत होता है, उसका दूसरे भी अनादर करते हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्ञः परैः परिभवः सर्वेषामसुखावहः।
तस्माच्छत्रं च पत्रं च वासांस्याभरणानि च ॥ ३६ ॥
भोजनान्यथ पानानि राज्ञे दद्युर्गृहाणि च।
आसनानि च शय्याश्च सर्वोपकरणानि च ॥ ३७ ॥

मूलम्

राज्ञः परैः परिभवः सर्वेषामसुखावहः।
तस्माच्छत्रं च पत्रं च वासांस्याभरणानि च ॥ ३६ ॥
भोजनान्यथ पानानि राज्ञे दद्युर्गृहाणि च।
आसनानि च शय्याश्च सर्वोपकरणानि च ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाका यदि दूसरोंके द्वारा पराभव हुआ तो वह समस्त प्रजाके लिये दुःखदायी होता है; इसलिये प्रजाको चाहिये कि वह राजाके लिये छत्र, वाहन, वस्त्र, आभूषण, भोजन, पान, गृह, आसन और शय्या आदि सभी प्रकारकी सामग्री भेंट करे॥३६-३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोप्ता तस्माद् दुराधर्षः स्मितपूर्वाभिभाषिता।
आभाषितश्च मधुरं प्रत्याभाषेत मानवान् ॥ ३८ ॥

मूलम्

गोप्ता तस्माद् दुराधर्षः स्मितपूर्वाभिभाषिता।
आभाषितश्च मधुरं प्रत्याभाषेत मानवान् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार प्रजाकी सहायता पाकर राजा दुर्धर्ष एवं प्रजाकी रक्षा करनेमें समर्थ हो जाता है। राजाको चाहिये कि वह मुसकराकर बातचीत करे। यदि प्रजावर्गके लोग उससे कोई बात पूछें तो वह मधुर वाणीमें उन्हें उत्तर दे॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतज्ञो दृढभक्तिः स्यात् संविभागी जितेन्द्रियः।
ईक्षितः प्रतिवीक्षेत मृदु वल्गु च सुष्ठु च ॥ ३९ ॥

मूलम्

कृतज्ञो दृढभक्तिः स्यात् संविभागी जितेन्द्रियः।
ईक्षितः प्रतिवीक्षेत मृदु वल्गु च सुष्ठु च ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा उपकार करनेवालोंके प्रति कृतज्ञ और अपने भक्तोंपर सुदृढ़ स्नेह रखनेवाला हो। उपभोगमें आनेवाली वस्तुओंको यथायोग्य विभाजन करके उन्हें काममें ले। इन्द्रियोंको वशमें रखे। जो उसकी ओर देखे, उसे वह भी देखे एवं स्वभावसे ही मृदु, मधुर और सरल हो॥३९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि राष्ट्रे राजकरणावश्यकत्वकथने सप्तषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें राष्ट्रके लिये राजाको नियुक्त करनेकी आवश्यकताका कथनविषयक सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६७॥