भागसूचना
षट्षष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजधर्मके पालनसे चारों आश्रमोंके धर्मका फल मिलनेका कथन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुता मे कथिताः पूर्वे चत्वारो मानवाश्रमाः।
व्याख्यानयित्वा व्याख्यानमेषामाचक्ष्व पृच्छतः ॥ १ ॥
मूलम्
श्रुता मे कथिताः पूर्वे चत्वारो मानवाश्रमाः।
व्याख्यानयित्वा व्याख्यानमेषामाचक्ष्व पृच्छतः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— पितामह! आपने मानवमात्रके लिये जो चार आश्रम पहले बताये थे, वे सब मैंने सुन लिये। अब विस्तारपूर्वक इनकी व्याख्या कीजिये। मेरे प्रश्नके अनुसार इनका स्पष्टीकरण कीजिये॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदिताः सर्व एवेह धर्मास्तव युधिष्ठिर।
यथा मम महाबाहो विदिताः साधुसम्मताः ॥ २ ॥
मूलम्
विदिताः सर्व एवेह धर्मास्तव युधिष्ठिर।
यथा मम महाबाहो विदिताः साधुसम्मताः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी बोले— महाबाहु युधिष्ठिर! साधु पुरुषों-द्वारा सम्मानित समस्त धर्मोंका जैसा मुझे ज्ञान है, वैसा ही तुमको भी है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्तु लिङ्गान्तरगतं पृच्छसे मां युधिष्ठिर।
धर्मं धर्मभृतां श्रेष्ठ तन्निबोध नराधिप ॥ ३ ॥
मूलम्
यत्तु लिङ्गान्तरगतं पृच्छसे मां युधिष्ठिर।
धर्मं धर्मभृतां श्रेष्ठ तन्निबोध नराधिप ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर! तथापि जो तुम विभिन्न लिङ्गों (हेतुओं) से रूपान्तरको प्राप्त हुए सूक्ष्म धर्मके विषयमें मुझसे पूछ रहे हो, उसके विषयमें कुछ निवेदन कर रहा हूँ, सुनो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वाण्येतानि कौन्तेय विद्यन्ते मनुजर्षभ।
साध्वाचारप्रवृत्तानां चातुराश्रम्यकारिणाम् ॥ ४ ॥
अकामद्वेषयुक्तस्य दण्डनीत्या युधिष्ठिर ।
समदर्शिनश्च भूतेषु भैक्ष्याश्रमपदं भवेत् ॥ ५ ॥
मूलम्
सर्वाण्येतानि कौन्तेय विद्यन्ते मनुजर्षभ।
साध्वाचारप्रवृत्तानां चातुराश्रम्यकारिणाम् ॥ ४ ॥
अकामद्वेषयुक्तस्य दण्डनीत्या युधिष्ठिर ।
समदर्शिनश्च भूतेषु भैक्ष्याश्रमपदं भवेत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! नरश्रेष्ठ! चारों आश्रमोंके धर्मोंका पालन करनेवाले सदाचारपरायण पुरुषोंको जिन फलोंकी प्राप्ति होती है, वे ही सब राग-द्वेष छोड़कर दण्डनीतिके अनुसार बर्ताव करनेवाले राजाको भी प्राप्त होते हैं। युधिष्ठिर! यदि राजा सब प्राणियोंपर समान दृष्टि रखनेवाला है तो उसे संन्यासियोंको प्राप्त होनेवाली गति प्राप्त होती है॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेत्ति ज्ञानविसर्गं च निग्रहानुग्रहं तथा।
यथोक्तवृत्तेर्धीरस्य क्षेमाश्रमपदं भवेत् ॥ ६ ॥
मूलम्
वेत्ति ज्ञानविसर्गं च निग्रहानुग्रहं तथा।
यथोक्तवृत्तेर्धीरस्य क्षेमाश्रमपदं भवेत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो तत्त्वज्ञान, सर्वत्याग, इन्द्रियसंयम तथा प्राणियोंपर अनुग्रह करना जानता है तथा जिसका पहले कहे अनुसार उत्तम आचार-विचार है, उस धीर पुरुषको कल्याणमय गृहस्थाश्रमसे मिलनेवाले फलकी प्राप्ति होती है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्हान् पूजयतो नित्यं संविभागेन पाण्डव।
सर्वतस्तस्य कौन्तेय भैक्ष्याश्रमपदं भवेत् ॥ ७ ॥
मूलम्
अर्हान् पूजयतो नित्यं संविभागेन पाण्डव।
सर्वतस्तस्य कौन्तेय भैक्ष्याश्रमपदं भवेत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुनन्दन! इसी प्रकार जो पूजनीय पुरुषोंको उनकी अभीष्ट वस्तुएँ देकर सदा सम्मानित करता है, उसे ब्रह्मचारियोंको प्राप्त होनेवाली गति मिलती है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञातिसम्बन्धिमित्राणि व्यापन्नानि युधिष्ठिर ।
समभ्युद्धरमाणस्य दीक्षाश्रमपदं भवेत् ॥ ८ ॥
मूलम्
ज्ञातिसम्बन्धिमित्राणि व्यापन्नानि युधिष्ठिर ।
समभ्युद्धरमाणस्य दीक्षाश्रमपदं भवेत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! जो संकटमें पड़े हुए अपने सजातियों, सम्बन्धियों और सुहृदोंका उद्धार करता है, उसे वानप्रस्थ-आश्रममें मिलनेवाले पदकी प्राप्ति होती है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकमुख्येषु सत्कारं लिङ्गिमुख्येषु चासकृत्।
कुर्वतस्तस्य कौन्तेय वन्याश्रमपदं भवेत् ॥ ९ ॥
मूलम्
लोकमुख्येषु सत्कारं लिङ्गिमुख्येषु चासकृत्।
कुर्वतस्तस्य कौन्तेय वन्याश्रमपदं भवेत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! जो जगत्के श्रेष्ठ पुरुषों और आश्रमियोंका निरन्तर सत्कार करता है, उसे भी वानप्रस्थ-आश्रमद्वारा मिलनेवाले फलोंकी प्राप्ति होती है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आह्निकं पितृयज्ञांश्च भूतयज्ञान् समानुषान्।
कुर्वतः पार्थ विपुलान् वन्याश्रमपदं भवेत् ॥ १० ॥
मूलम्
आह्निकं पितृयज्ञांश्च भूतयज्ञान् समानुषान्।
कुर्वतः पार्थ विपुलान् वन्याश्रमपदं भवेत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! जो नित्यप्रति संध्या-वन्दन आदि नित्यकर्म, पितृश्राद्ध, भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ (अतिथि-सेवा)—इन सबका अनुष्ठान प्रचुर मात्रामें करता रहता है, उसे वानप्रस्थाश्रमके सेवनसे मिलनेवाले पुण्यफलकी प्राप्ति होती है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संविभागेन भूतानामतिथीनां तथार्चनात् ।
देवयज्ञैश्च राजेन्द्र वन्याश्रमपदं भवेत् ॥ ११ ॥
मूलम्
संविभागेन भूतानामतिथीनां तथार्चनात् ।
देवयज्ञैश्च राजेन्द्र वन्याश्रमपदं भवेत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! बलिवैश्वदेवके द्वारा प्राणियोंको उनका भाग समर्पित करनेसे, अतिथियोंके पूजनसे तथा देवयज्ञोंके अनुष्ठानसे भी वानप्रस्थ-सेवनका फल प्राप्त होता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मर्दनं परराष्ट्राणां शिष्टार्थं सत्यविक्रम।
कुर्वतः पुरुषव्याघ्र वन्याश्रमपदं भवेत् ॥ १२ ॥
मूलम्
मर्दनं परराष्ट्राणां शिष्टार्थं सत्यविक्रम।
कुर्वतः पुरुषव्याघ्र वन्याश्रमपदं भवेत् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यपराक्रमी पुरुषसिंह युधिष्ठिर! शिष्टपुरुषोंकी रक्षाके लिये अपने शत्रुके राष्ट्रोंको कुचल डालनेवाले राजाको भी वानप्रस्थ-सेवनका फल प्राप्त होता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पालनात् सर्वभूतानां स्वराष्ट्रपरिपालनात् ।
दीक्षा बहुविधा राजन् सत्याश्रमपदं भवेत् ॥ १३ ॥
मूलम्
पालनात् सर्वभूतानां स्वराष्ट्रपरिपालनात् ।
दीक्षा बहुविधा राजन् सत्याश्रमपदं भवेत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त प्राणियोंके पालन तथा अपने राष्ट्रकी रक्षा करनेसे राजाको नाना प्रकारके यज्ञोंकी दीक्षा लेनेका पुण्य प्राप्त होता है। राजन्! इससे वह संन्यासाश्रमके सेवनका फल प्राप्त करता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदाध्ययननित्यत्वं क्षमाथाचार्यपूजनम् ।
अथोपाध्यायशुश्रूषा ब्रह्माश्रमपदं भवेत् ॥ १४ ॥
मूलम्
वेदाध्ययननित्यत्वं क्षमाथाचार्यपूजनम् ।
अथोपाध्यायशुश्रूषा ब्रह्माश्रमपदं भवेत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो प्रतिदिन वेदोंका स्वाध्याय करता है, क्षमाभाव रखता है, आचार्यकी पूजा करता है और गुरुकी सेवामें संलग्न रहता है, उसे ब्रह्माश्रम (संन्यास) द्वारा मिलनेवाला फल प्राप्त होता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आह्निकं जपमानस्य देवान् पूजयतः सदा।
धर्मेण पुरुषव्याघ्र धर्माश्रमपदं भवेत् ॥ १५ ॥
मूलम्
आह्निकं जपमानस्य देवान् पूजयतः सदा।
धर्मेण पुरुषव्याघ्र धर्माश्रमपदं भवेत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! जो प्रतिदिन इष्ट-मन्त्रका जप और देवताओंका सदा पूजन करता है, उसे उस धर्मके प्रभावसे धर्माश्रमके पालनका अर्थात् गार्हस्थ्य धर्मके पालनका पुण्यफल प्राप्त होता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृत्युर्वा रक्षणं वेति यस्य राज्ञो विनिश्चयः।
प्राणद्यूते ततस्तस्य ब्रह्माश्रमपदं भवेत् ॥ १६ ॥
मूलम्
मृत्युर्वा रक्षणं वेति यस्य राज्ञो विनिश्चयः।
प्राणद्यूते ततस्तस्य ब्रह्माश्रमपदं भवेत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा युद्धमें प्राणोंकी बाजी लगाकर इस निश्चयके साथ शत्रुओंका सामना करता है कि ‘या तो मैं मर जाऊँगा या देशकी रक्षा करके ही रहूँगा’ उसे भी ब्रह्माश्रम अर्थात् संन्यास-आश्रमके पालनका ही फल प्राप्त होता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजिह्ममशठं मार्गं वर्तमानस्य भारत।
सर्वदा सर्वभूतेषु ब्रह्माश्रमपदं भवेत् ॥ १७ ॥
मूलम्
अजिह्ममशठं मार्गं वर्तमानस्य भारत।
सर्वदा सर्वभूतेषु ब्रह्माश्रमपदं भवेत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! जो सदा समस्त प्राणियोंके प्रति माया और कुटिलतासे रहित यथार्थ व्यवहार करता है, उसे भी ब्रह्माश्रम सेवनका ही फल प्राप्त होता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वानप्रस्थेषु विप्रेषु त्रैविद्येषु च भारत।
प्रयच्छतोऽर्थात् विपुलान् वन्याश्रमपदं भवेत् ॥ १८ ॥
मूलम्
वानप्रस्थेषु विप्रेषु त्रैविद्येषु च भारत।
प्रयच्छतोऽर्थात् विपुलान् वन्याश्रमपदं भवेत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! जो वानप्रस्थ, ब्राह्मणों तथा तीनों वेदके विद्वानोंको प्रचुर धन दान करता है, उसे वानप्रस्थ-आश्रमके सेवनका फल मिलता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वभूतेष्वनुक्रोशं कुर्वतस्तस्य भारत ।
आनृशंस्यप्रवृत्तस्य सर्वावस्थं पदं भवेत् ॥ १९ ॥
मूलम्
सर्वभूतेष्वनुक्रोशं कुर्वतस्तस्य भारत ।
आनृशंस्यप्रवृत्तस्य सर्वावस्थं पदं भवेत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! जो समस्त प्राणियोंपर दया करता है और क्रूरतारहित कर्मोंमें ही प्रवृत्त होता है, उसे सभी आश्रमोंके सेवनका फल प्राप्त होता है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालवृद्धेषु कौन्तेय सर्वावस्थं युधिष्ठिर।
अनुक्रोशक्रिया पार्थ सर्वावस्थं पदं भवेत् ॥ २० ॥
मूलम्
बालवृद्धेषु कौन्तेय सर्वावस्थं युधिष्ठिर।
अनुक्रोशक्रिया पार्थ सर्वावस्थं पदं भवेत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीकुमार युधिष्ठिर! जो बालकों और बूढ़ोंके प्रति दयापूर्ण बर्ताव करता है, उसे भी सभी आश्रमोंके सेवनका फल प्राप्त होता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलात्कृतेषु भूतेषु परित्राणं कुरूद्वह।
शरणागतेषु कौरव्य कुर्वन् गार्हस्थ्यमावसेत् ॥ २१ ॥
मूलम्
बलात्कृतेषु भूतेषु परित्राणं कुरूद्वह।
शरणागतेषु कौरव्य कुर्वन् गार्हस्थ्यमावसेत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! जिन प्राणियोंपर बलात्कार हुआ हो और वे शरणमें आये हों, उनका संकटसे उद्धार करनेवाला पुरुष गार्हस्थ्य-धर्मके पालनसे मिलनेवाले पुण्यफलका भागी होता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चराचराणां भूतानां रक्षणं चापि सर्वशः।
यथार्हपूजां च तथा कुर्वन् गार्हस्थ्यमावसेत् ॥ २२ ॥
मूलम्
चराचराणां भूतानां रक्षणं चापि सर्वशः।
यथार्हपूजां च तथा कुर्वन् गार्हस्थ्यमावसेत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चराचर प्राणियोंकी सब प्रकारसे रक्षा तथा उनकी यथायोग्य पूजा करनेवाले पुरुषको गार्हस्थ्य-सेवनका फल प्राप्त होता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्येष्ठानुज्येष्ठपत्नीनां भ्रातॄणां पुत्रनप्तृणाम् ।
निग्रहानुग्रहौ पार्थ गार्हस्थ्यमिति तत् तपः ॥ २३ ॥
मूलम्
ज्येष्ठानुज्येष्ठपत्नीनां भ्रातॄणां पुत्रनप्तृणाम् ।
निग्रहानुग्रहौ पार्थ गार्हस्थ्यमिति तत् तपः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! बड़ी-छोटी पत्नियों, भाइयों, पुत्रों और नातियोंको भी जो राजा अपराध करनेपर दण्ड और अच्छे कार्य करनेपर अनुग्रहरूप पुरस्कार देता है, यही उसके द्वारा गार्हस्थ्य-धर्मका पालन है और यही उसकी तपस्या है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधूनामर्चनीयानां पूजा सुविदितात्मनाम् ।
पालनं पुरुषव्याघ्र गृहाश्रमपदं भवेत् ॥ २४ ॥
मूलम्
साधूनामर्चनीयानां पूजा सुविदितात्मनाम् ।
पालनं पुरुषव्याघ्र गृहाश्रमपदं भवेत् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! पूजनके योग्य सुप्रसिद्ध आत्मज्ञानी साधुओंकी पूजा तथा रक्षा गृहस्थाश्रमके पुण्यफलकी प्राप्ति करानेवाली है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रमस्थानि भूतानि यस्तु वेश्मनि भारत।
आददीतेह भोज्येन तद् गार्हस्थ्यं युधिष्ठिर ॥ २५ ॥
मूलम्
आश्रमस्थानि भूतानि यस्तु वेश्मनि भारत।
आददीतेह भोज्येन तद् गार्हस्थ्यं युधिष्ठिर ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन युधिष्ठिर! जो किसी भी आश्रममें रहनेवाले प्राणियोंको अपने घरमें ठहराकर उनका भोजन आदिसे सत्कार करता है, उस राजाके लिये वही गार्हस्थ्य-धर्मका पालन है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः स्थितः पुरुषो धर्मे धात्रा सृष्टे यथार्थवत्।
आश्रमाणां हि सर्वेषां फलं प्राप्नोत्यनामयम् ॥ २६ ॥
मूलम्
यः स्थितः पुरुषो धर्मे धात्रा सृष्टे यथार्थवत्।
आश्रमाणां हि सर्वेषां फलं प्राप्नोत्यनामयम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष विधाताद्वारा विहित धर्ममें स्थित होकर यथार्थ रूपसे उसका पालन करता है, वह सभी आश्रमोंके निर्दोष फलको प्राप्त कर लेता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन्न नश्यन्ति गुणाः कौन्तेय पुरुषे सदा।
आश्रमस्थं तमप्याहुर्नरश्रेष्ठं युधिष्ठिर ॥ २७ ॥
मूलम्
यस्मिन्न नश्यन्ति गुणाः कौन्तेय पुरुषे सदा।
आश्रमस्थं तमप्याहुर्नरश्रेष्ठं युधिष्ठिर ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! जिस पुरुषमें स्थित हुए सद्गुणोंका कभी नाश नहीं होता, उस नरश्रेष्ठको सभी आश्रमोंके पालनमें स्थित बताया गया है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थानमानं कुले मानं वयोमानं तथैव च।
कुर्वन् वसति सर्वेषु ह्याश्रमेषु युधिष्ठिर ॥ २८ ॥
मूलम्
स्थानमानं कुले मानं वयोमानं तथैव च।
कुर्वन् वसति सर्वेषु ह्याश्रमेषु युधिष्ठिर ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! जो राजा स्थान, कुल और अवस्थाका मान रखते हुए कार्य करता है, वह सभी आश्रमोंमें निवास करनेका फल पाता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देशधर्मांश्च कौन्तेय कुलधर्मांस्तथैव च।
पालयन् पुरुषव्याघ्र राजा सर्वाश्रमी भवेत् ॥ २९ ॥
मूलम्
देशधर्मांश्च कौन्तेय कुलधर्मांस्तथैव च।
पालयन् पुरुषव्याघ्र राजा सर्वाश्रमी भवेत् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीकुमार! पुरुषसिंह! देशधर्म और कुलधर्मका पालन करनेवाला राजा सभी आश्रमोंके पुण्यफलका भागी होता है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काले विभूतिं भूतानामुपहारांस्तथैव च।
अर्हयन् पुरुषव्याघ्र साधूनामाश्रमे वसेत् ॥ ३० ॥
मूलम्
काले विभूतिं भूतानामुपहारांस्तथैव च।
अर्हयन् पुरुषव्याघ्र साधूनामाश्रमे वसेत् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरव्याघ्र नरेश! जो समय-समयपर सम्पत्ति और उपहार देकर समस्त प्राणियोंका सम्मान करता रहता है, वह साधु पुरुषोंके आश्रममें निवासका पुण्यफल पा लेता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशधर्मगतश्चापि यो धर्मं प्रत्यवेक्षते।
सर्वलोकस्य कौन्तेय राजा भवति सोऽऽश्रमी ॥ ३१ ॥
मूलम्
दशधर्मगतश्चापि यो धर्मं प्रत्यवेक्षते।
सर्वलोकस्य कौन्तेय राजा भवति सोऽऽश्रमी ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! जो राजा मनुप्रोक्त दस धर्मोंमें स्थित होकर भी सम्पूर्ण जगत्के धर्मपर दृष्टि रखता है, वह सभी आश्रमोंके पुण्य-फलका भागी होता है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये धर्मकुशला लोके धर्मं कुर्वन्ति भारत।
पालिता यस्य विषये धर्मांशस्तस्य भूपतेः ॥ ३२ ॥
मूलम्
ये धर्मकुशला लोके धर्मं कुर्वन्ति भारत।
पालिता यस्य विषये धर्मांशस्तस्य भूपतेः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! जो धर्मकुशल मनुष्य लोकमें धर्मका अनुष्ठान करते हैं, वे जिस राजाके राज्यमें पालित होते हैं, उस राजाको उनके धर्मका छठा अंश प्राप्त होता है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मारामान् धर्मपरान् ये न रक्षन्ति मानवान्।
पार्थिवाः पुरुषव्याघ्र तेषां पापं हरन्ति ते ॥ ३३ ॥
मूलम्
धर्मारामान् धर्मपरान् ये न रक्षन्ति मानवान्।
पार्थिवाः पुरुषव्याघ्र तेषां पापं हरन्ति ते ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! जो राजा धर्ममें ही रमण करनेवाले धर्मपरायण मानवोंकी रक्षा नहीं करते हैं, वे उनके पाप बटोर लेते हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये चाप्यत्र सहायाः स्युः पार्थिवानां युधिष्ठिर।
ते चैवांशहराः सर्वे धर्मे परकृतेऽनघ ॥ ३४ ॥
मूलम्
ये चाप्यत्र सहायाः स्युः पार्थिवानां युधिष्ठिर।
ते चैवांशहराः सर्वे धर्मे परकृतेऽनघ ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप युधिष्ठिर! जो लोग इस जगत्में राजाओंके सहायक होते हैं, वे सभी उस राज्यमें दूसरोंद्वारा किये गये धर्मका अंश प्राप्त कर लेते हैं॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वाश्रमपदेऽप्याहुर्गार्हस्थ्यं दीप्तनिर्णयम् ।
पावनं पुरुषव्याघ्र यं धर्मं पर्युपास्महे ॥ ३५ ॥
मूलम्
सर्वाश्रमपदेऽप्याहुर्गार्हस्थ्यं दीप्तनिर्णयम् ।
पावनं पुरुषव्याघ्र यं धर्मं पर्युपास्महे ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! शास्त्रज्ञ विद्वान् कहते हैं कि हमलोग जिस गार्हस्थ्य-धर्मका सेवन कर रहे हैं, वह सभी आश्रमोंमें श्रेष्ठ एवं पावन है। उसके विषयमें शास्त्रोंका यह निर्णय सबको विदित है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मोपमस्तु भूतेषु यो वै भवति मानवः।
न्यस्तदण्डो जितक्रोधः प्रेत्येह लभते सुखम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
आत्मोपमस्तु भूतेषु यो वै भवति मानवः।
न्यस्तदण्डो जितक्रोधः प्रेत्येह लभते सुखम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मानव समस्त प्राणियोंके प्रति अपने समान ही भाव रखता है, दण्डका त्याग कर देता है, क्रोधको जीत लेता है, वह इस लोकमें और मृत्युके पश्चात् परलोकमें भी सुख पाता है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मे स्थिता सत्त्ववीर्या धर्मसेतुवटारका।
त्यागवाताध्वगा शीघ्रा नौस्तं संतारयिष्यति ॥ ३७ ॥
मूलम्
धर्मे स्थिता सत्त्ववीर्या धर्मसेतुवटारका।
त्यागवाताध्वगा शीघ्रा नौस्तं संतारयिष्यति ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजधर्म एक नौकाके समान है। वह नौका धर्मरूपी समुद्रमें स्थित है। सत्त्वगुण ही उस नौकाका संचालन करनेवाला बल (कर्णधार) है, धर्मशास्त्र ही उसे बाँधनेवाली रस्सी है, त्यागरूपी वायुका सहारा पाकर वह मार्गपर शीघ्रतापूर्वक चलती है, वह नाव ही राजाको संसारसमुद्रसे पार कर देगी॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा निवृत्तः सर्वस्मात् कामो योऽस्य हृदि स्थितः।
तदा भवति सत्त्वस्थस्ततो ब्रह्म समश्नुते ॥ ३८ ॥
मूलम्
यदा निवृत्तः सर्वस्मात् कामो योऽस्य हृदि स्थितः।
तदा भवति सत्त्वस्थस्ततो ब्रह्म समश्नुते ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यके हृदयमें जो-जो कामनाएँ स्थित हैं, उन सबसे जब वह निवृत्त हो जाता है, तब उसकी विशुद्ध सत्त्वगुणमें स्थिति होती है और इसी समय उसे परब्रह्म परमात्माके स्वरूपका साक्षात्कार होता है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुप्रसन्नस्तु भावेन योगेन च नराधिप।
धर्मं पुरुषशार्दूल प्राप्स्यते पालने रतः ॥ ३९ ॥
मूलम्
सुप्रसन्नस्तु भावेन योगेन च नराधिप।
धर्मं पुरुषशार्दूल प्राप्स्यते पालने रतः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! पुरुषसिंह! चित्तवृत्तियोंके निरोधरूप योगसे और समभावसे जब अन्तःकरण अत्यन्त शुद्ध एवं प्रसन्न हो जाता है, तब प्रजापालनपरायण राजा उत्तम धर्मके फलका भागी होता है॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदाध्ययनशीलानां विप्राणां साधुकर्मणाम् ।
पालने यत्नमातिष्ठ सर्वलोकस्य चैव ह ॥ ४० ॥
मूलम्
वेदाध्ययनशीलानां विप्राणां साधुकर्मणाम् ।
पालने यत्नमातिष्ठ सर्वलोकस्य चैव ह ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! तुम वेदाध्ययनमें संलग्न रहनेवाले, सत्कर्मपरायण ब्राह्मणों तथा अन्य सब लोगोंके पालन-पोषणका प्रयत्न करो॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वने चरन्ति ये धर्ममाश्रमेषु च भारत।
रक्षणात् तच्छतगुणं धर्मं प्राप्नोति पार्थिवः ॥ ४१ ॥
मूलम्
वने चरन्ति ये धर्ममाश्रमेषु च भारत।
रक्षणात् तच्छतगुणं धर्मं प्राप्नोति पार्थिवः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! वनमें और विभिन्न आश्रमोंमें रहकर जो लोग जितना धर्म करते हैं, उनकी रक्षा करनेसे राजा उनसे सौगुने धर्मका भागी होता है॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष ते विविधो धर्मः पाण्डवश्रेष्ठ कीर्तितः।
अनुतिष्ठ त्वमेनं वै पूर्वदृष्टं सनातनम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
एष ते विविधो धर्मः पाण्डवश्रेष्ठ कीर्तितः।
अनुतिष्ठ त्वमेनं वै पूर्वदृष्टं सनातनम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवश्रेष्ठ! यह तुम्हारे लिये नाना प्रकारका धर्म बताया गया है। पूर्वजोंद्वारा आचरित इस सनातन-धर्मका तुम पालन करो॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चातुराश्रम्यमैकाग्र्यं चातुर्वर्ण्यं च पाण्डव।
धर्मं पुरुषशार्दूल प्राप्स्यसे पालने रतः ॥ ४३ ॥
मूलम्
चातुराश्रम्यमैकाग्र्यं चातुर्वर्ण्यं च पाण्डव।
धर्मं पुरुषशार्दूल प्राप्स्यसे पालने रतः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह पाण्डुनन्दन! यदि तुम प्रजाके पालनमें तत्पर रहोगे तो चारों आश्रमोंके, चारों वर्णोंके तथा एकाग्रताके धर्मको प्राप्त कर लोगे॥४३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि चातुराश्रम्यविधौ षट्षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें चारों आश्रमोंके धर्मका वर्णनविषयक छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६६॥