०६५ इन्द्रमान्धातृसंवादे

भागसूचना

पञ्चषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाताका संवाद

मूलम् (वचनम्)

इन्द्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंवीर्यः सर्वधर्मोपपन्नः
क्षात्रः श्रेष्ठः सर्वधर्मेषु धर्मः।
पाल्यो युष्माभिर्लोकहितैरुदारै-
र्विपर्यये स्यादभवः प्रजानाम् ॥ १ ॥

मूलम्

एवंवीर्यः सर्वधर्मोपपन्नः
क्षात्रः श्रेष्ठः सर्वधर्मेषु धर्मः।
पाल्यो युष्माभिर्लोकहितैरुदारै-
र्विपर्यये स्यादभवः प्रजानाम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र कहते हैं— राजन्! इस प्रकार क्षात्रधर्म सब धर्मोंमें श्रेष्ठ और शक्तिशाली है। यह सभी धर्मोंसे सम्पन्न बताया गया है। तुम जैसे लोकहितैषी उदार पुरुषोंको सदा इस क्षात्रधर्मका ही पालन करना चाहिये। यदि इसका पालन नहीं किया जायगा तो प्रजाका नाश हो जायगा॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूसंस्कारं राजसंस्कारयोग-
मभैक्ष्यचर्यां पालनं च प्रजानाम्।
विद्याद् राजा सर्वभूतानुकम्पी
देहत्यागं चाहवे धर्ममग्र्यम् ॥ २ ॥

मूलम्

भूसंस्कारं राजसंस्कारयोग-
मभैक्ष्यचर्यां पालनं च प्रजानाम्।
विद्याद् राजा सर्वभूतानुकम्पी
देहत्यागं चाहवे धर्ममग्र्यम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त प्राणियोंपर दया करनेवाले राजाको उचित है कि वह नीचे लिखे हुए कार्योंको ही श्रेष्ठ धर्म समझे। वह पृथ्वीका संस्कार करावे, राजसूय-अश्वमेधादि यज्ञोंमें अवभृथस्नान करे, भिक्षाका आश्रय न ले, प्रजाका पालन करे और संग्रामभूमिमें शरीरको त्याग दे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यागं श्रेष्ठं मुनयो वै वदन्ति
सर्वश्रेष्ठं यच्छरीरं त्यजन्तः ।
नित्यं युक्ता राजधर्मेषु सर्वे
प्रत्यक्षं ते भूमिपाला यथैव ॥ ३ ॥

मूलम्

त्यागं श्रेष्ठं मुनयो वै वदन्ति
सर्वश्रेष्ठं यच्छरीरं त्यजन्तः ।
नित्यं युक्ता राजधर्मेषु सर्वे
प्रत्यक्षं ते भूमिपाला यथैव ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषि-मुनि त्यागको ही श्रेष्ठ बताते हैं। उसमें भी युद्धमें राजालोग जो अपने शरीरका त्याग करते हैं, वह सबसे श्रेष्ठ त्याग है। सदा राजधर्ममें संलग्न रहनेवाले समस्त भूमिपालोंने जिस प्रकार युद्धमें प्राणत्याग किया है, वह सब तुम्हारी आँखोंके सामने है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुश्रुत्या गुरुशुश्रूषया च
परस्परं संहननाद् वदन्ति ।
नित्यं धर्मं क्षत्रियो ब्रह्मचारी
चरेदेको ह्याश्रमं धर्मकामः ॥ ४ ॥

मूलम्

बहुश्रुत्या गुरुशुश्रूषया च
परस्परं संहननाद् वदन्ति ।
नित्यं धर्मं क्षत्रियो ब्रह्मचारी
चरेदेको ह्याश्रमं धर्मकामः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षत्रिय ब्रह्मचारी धर्मपालनकी इच्छा रखकर अनेक शास्त्रोंके ज्ञानका उपार्जन तथा गुरुशुश्रूषा करते हुए अकेला ही नित्य ब्रह्मचर्य-आश्रमके धर्मका आचरण करे। यह बात ऋषिलोग परस्पर मिलकर कहते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सामान्यार्थे व्यवहारे प्रवृत्ते
प्रियाप्रिये वर्जयन्नेव यत्नात् ।
चातुर्वर्ण्यस्थापनात् पालनाच्च
तैस्तैर्योगैर्नियमैरौरसैश्च ॥ ५ ॥
सर्वोद्योगैराश्रमं धर्ममाहुः
क्षात्रं श्रेष्ठं सर्वधर्मोपपन्नम् ।
स्वं स्वं धर्मं येन चरन्ति वर्णा-
स्तांस्तान् धर्मानन्यथार्थान् वदन्ति ॥ ६ ॥

मूलम्

सामान्यार्थे व्यवहारे प्रवृत्ते
प्रियाप्रिये वर्जयन्नेव यत्नात् ।
चातुर्वर्ण्यस्थापनात् पालनाच्च
तैस्तैर्योगैर्नियमैरौरसैश्च ॥ ५ ॥
सर्वोद्योगैराश्रमं धर्ममाहुः
क्षात्रं श्रेष्ठं सर्वधर्मोपपन्नम् ।
स्वं स्वं धर्मं येन चरन्ति वर्णा-
स्तांस्तान् धर्मानन्यथार्थान् वदन्ति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनसाधारणके लिये व्यवहार आरम्भ होनेपर राजा प्रिय और अप्रियकी भावनाका प्रयत्नपूर्वक परित्याग करे। भिन्न-भिन्न उपायों, नियमों, पुरुषार्थों तथा सम्पूर्ण उद्योगोंके द्वारा चारों वर्णोंकी स्थापना एवं रक्षा करनेके कारण क्षात्रधर्म एवं गृहस्थ-आश्रमको ही सबसे श्रेष्ठ तथा सम्पूर्ण धर्मोंसे सम्पन्न बताया गया है; क्योंकि सभी वर्णोंके लोग उस क्षात्र-धर्मके सहयोगसे ही अपने-अपने धर्मका पालन करते हैं। क्षत्रियधर्मके न होनेसे उन सब धर्मोंका प्रयोजन विपरीत होता है; ऐसा कहते हैं॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्मर्यादान् नित्यमर्थे निविष्टा-
नाहुस्तांस्तान्‌ वै पशुभूतान् मनुष्यान्।
यथा नीतिं गमयत्यर्थयोगा-
च्छ्रेयस्तस्मादाश्रमात् क्षत्रधर्मः ॥ ७ ॥

मूलम्

निर्मर्यादान् नित्यमर्थे निविष्टा-
नाहुस्तांस्तान्‌ वै पशुभूतान् मनुष्यान्।
यथा नीतिं गमयत्यर्थयोगा-
च्छ्रेयस्तस्मादाश्रमात् क्षत्रधर्मः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग सदा अर्थसाधनमें ही आसक्त होकर मर्यादा छोड़ बैठते हैं, उन मनुष्योंको पशु कहा गया है। क्षत्रिय-धर्म अर्थकी प्राप्ति करानेके साथ-साथ उत्तम नीतिका ज्ञान प्रदान करता है; इसलिये वह आश्रम-धर्मोंसे भी श्रेष्ठ है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रैविद्यानां या गतिर्ब्राह्मणानां
ये चैवोक्ताश्चाश्रमा ब्राह्मणानाम् ।
एतत् कर्म ब्राह्मणस्याहुरग्र्य-
मन्यत् कुर्वञ्छूद्रवच्छस्त्रवध्यः ॥ ८ ॥

मूलम्

त्रैविद्यानां या गतिर्ब्राह्मणानां
ये चैवोक्ताश्चाश्रमा ब्राह्मणानाम् ।
एतत् कर्म ब्राह्मणस्याहुरग्र्य-
मन्यत् कुर्वञ्छूद्रवच्छस्त्रवध्यः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीनों वेदोंके विद्वान् ब्राह्मणोंके लिये जो यज्ञादि कार्य विहित हैं तथा उनके लिये जो चारों आश्रम बताये गये हैं—उन्हींको ब्राह्मणका सर्वश्रेष्ठ धर्म कहा गया है। इसके विपरीत आचरण करनेवाला ब्राह्मण शूद्रके समान ही शस्त्रोंद्वारा वधके योग्य है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चातुराश्रम्यधर्माश्च वेदधर्माश्च पार्थिव ।
ब्राह्मणेनानुगन्तव्या नान्यो विद्यात् कदाचन ॥ ९ ॥

मूलम्

चातुराश्रम्यधर्माश्च वेदधर्माश्च पार्थिव ।
ब्राह्मणेनानुगन्तव्या नान्यो विद्यात् कदाचन ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! चारों आश्रमोंके जो धर्म हैं तथा वेदोंमें जो धर्म बताये गये हैं, उन सबका अनुसरण ब्राह्मणको ही करना चाहिये। दूसरा कोई शूद्र आदि कभी किसी तरह भी उन धर्मोंको नहीं जान सकता॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यथा वर्तमानस्य नासौ वृत्तिः प्रकल्प्यते।
कर्मणा वर्धते धर्मो यथाधर्मस्तथैव सः ॥ १० ॥

मूलम्

अन्यथा वर्तमानस्य नासौ वृत्तिः प्रकल्प्यते।
कर्मणा वर्धते धर्मो यथाधर्मस्तथैव सः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ब्राह्मण इसके विपरीत आचरण करता है, उसके लिये ब्राह्मणोचित वृत्तिकी व्यवस्था नहीं की जाती। कर्मसे ही धर्मकी वृद्धि होती है। जो जिस प्रकारके धर्मको अपनाता है, वह वैसा ही हो जाता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो विकर्मस्थितो विप्रो न स सम्मानमर्हति।
कर्म स्वं नोपयुञ्जानमविश्वास्यं हि तं विदुः ॥ ११ ॥

मूलम्

यो विकर्मस्थितो विप्रो न स सम्मानमर्हति।
कर्म स्वं नोपयुञ्जानमविश्वास्यं हि तं विदुः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ब्राह्मण विपरीत कर्ममें स्थित होता है, वह सम्मान पानेका अधिकारी नहीं है। अपने कर्मका आचरण न करनेवाले ब्राह्मणको विश्वास न करने योग्य माना गया है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते धर्माः सर्ववर्णेषु लीना
उत्क्रष्टव्याः क्षत्रियैरेष धर्मः ।
तस्माज्ज्येष्ठा राजधर्मा न चान्ये
वीर्यज्येष्ठा वीरधर्मा मता मे ॥ १२ ॥

मूलम्

एते धर्माः सर्ववर्णेषु लीना
उत्क्रष्टव्याः क्षत्रियैरेष धर्मः ।
तस्माज्ज्येष्ठा राजधर्मा न चान्ये
वीर्यज्येष्ठा वीरधर्मा मता मे ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त वर्णोंमें स्थित हुए जो ये धर्म हैं, उन्हें क्षत्रियोंको उन्नतिके शिखरपर पहुँचाना चाहिये। यही क्षत्रियधर्म है, इसीलिये राजधर्म श्रेष्ठ है। दूसरे धर्म इस प्रकार श्रेष्ठ नहीं हैं। मेरे मतमें वीर क्षत्रियोंके धर्मोंमें बल और पराक्रमकी प्रधानता है॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

मान्धातोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यवनाः किराता गान्धाराश्
चीनाः शबर-बर्बराः।
शकास् तुषाराः कङ्काश् च
पह्लवाश् चान्ध्र-मद्रकाः ॥ १३ ॥+++(5)+++
पौण्ड्राः पुलिन्दा रमठाः
काम्बोजाश् चैव सर्वशः।
ब्रह्मक्षत्रप्रसूताश् च
वैश्याः शूद्राश्च मानवाः ॥ १४ ॥
कथं धर्मांश् चरिष्यन्ति
सर्वे विषयवासिनः।
मद्-विधैश् च कथं स्थाप्याः
सर्वे वै दस्युजीविनः ॥ १५ ॥

मूलम्

यवनाः किराता गान्धाराश्चीनाः शबरबर्बराः।
शकास्तुषाराः कङ्काश्च पह्लवाश्चान्ध्रमद्रकाः ॥ १३ ॥
पौण्ड्राः पुलिन्दा रमठाः काम्बोजाश्चैव सर्वशः।
ब्रह्मक्षत्रप्रसूताश्च वैश्याः शूद्राश्च मानवाः ॥ १४ ॥
कथं धर्मांश्चरिष्यन्ति सर्वे विषयवासिनः।
मद्विधैश्च कथं स्थाप्याः सर्वे वै दस्युजीविनः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मान्धाता बोले— भगवन्! मेरे राज्यमें यवन, किरात, गान्धार, चीन, शबर, बर्बर, शक, तुषार, कङ्क, पह्लव, आन्ध्र, मद्रक, पौंड्र, पुलिन्द, रमठ और काम्बोज देशोंके निवासी म्लेच्छगण सब ओर निवास करते हैं, कुछ ब्राह्मणों और क्षत्रियोंकी भी संतानें हैं; कुछ वैश्य और शूद्र भी हैं, जो धर्मसे गिर गये हैं। ये सब-के-सब चोरी और डकैतीसे जीविका चलाते हैं। ऐसे लोग किस प्रकार धर्मोंका आचरण करेंगे? मेरे-जैसे राजाओंको इन्हें किस तरह मर्यादाके भीतर स्थापित करना चाहिये?॥१३—१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदिच्छाम्य् अहं श्रोतुं
भगवंस् तद् ब्रवीहि मे।
त्वं बन्धु-भूतो ह्य् अस्माकं
क्षत्रियाणां सुरेश्वर ॥ १६ ॥

मूलम्

एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं भगवंस्तद् ब्रवीहि मे।
त्वं बन्धुभूतो ह्यस्माकं क्षत्रियाणां सुरेश्वर ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! सुरेश्वर! यह मैं सुनना चाहता हूँ। आप मुझे यह सब बताइये; क्योंकि आप ही हम क्षत्रियोंके बन्धु हैं॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

इन्द्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

माता-पित्रोर् हि शुश्रूषा
कर्तव्या सर्व-दस्युभिः।
आचार्य-गुरु-शुश्रूषा
तथैवाश्रम-वासिनाम् ॥ १७ ॥

मूलम्

मातापित्रोर्हि शुश्रूषा कर्तव्या सर्वदस्युभिः।
आचार्यगुरुशुश्रूषा तथैवाश्रमवासिनाम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने कहा— राजन्! जो लोग दस्यु-वृत्तिसे जीवन निर्वाह करते हैं, उन सबको अपने माता-पिता, आचार्य, गुरु तथा आश्रमवासी मुनियोंकी सेवा करनी चाहिये॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमिपानां च शुश्रूषा
कर्तव्या सर्वदस्युभिः।
वेद-धर्म-क्रियाश् चैव
तेषां धर्मो विधीयते ॥ १८ ॥

मूलम्

भूमिपानां च शुश्रूषा कर्तव्या सर्वदस्युभिः।
वेदधर्मक्रियाश्चैव तेषां धर्मो विधीयते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूमिपालोंकी सेवा करना भी समस्त दस्युओंका कर्तव्य है। वेदोक्त धर्म-कर्मोंका अनुष्ठान भी उनके लिये शास्त्रविहित धर्म है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितृ-यज्ञास् तथा कूपाः
प्रपाश् च शयनानि च।
दानानि च यथाकालं
द्विजेभ्यो विसृजेत् सदा ॥ १९ ॥+++(5)+++

मूलम्

पितृयज्ञास्तथा कूपाः प्रपाश्च शयनानि च।
दानानि च यथाकालं द्विजेभ्यो विसृजेत् सदा ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितरोंका श्राद्ध करना, कुआँ खुदवाना, जलक्षेत्र चलाना और लोगोंके ठहरनेके लिये धर्मशालाएँ बनवाना भी उनका कर्तव्य है। उन्हें यथासमय ब्राह्मणोंको दान देते रहना चाहिये॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहिंसा सत्यम् अक्रोधो
वृत्ति-दायानुपालनम् ।
भरणं पुत्रदाराणां
शौचम् अद्रोह एव च ॥ २० ॥

मूलम्

अहिंसा सत्यमक्रोधो वृत्तिदायानुपालनम् ।
भरणं पुत्रदाराणां शौचमद्रोह एव च ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहिंसा, सत्यभाषण, क्रोधशून्य बर्ताव, दूसरोंकी आजीविका तथा बँटवारेमें मिली हुई पैतृक सम्पत्तिकी रक्षा, स्त्री-पुत्रोंका भरण-पोषण, बाहर-भीतरकी शुद्धि रखना तथा द्रोहभावका त्याग करना—यह उन सबका धर्म है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दक्षिणा सर्वयज्ञानां
दातव्या भूतिम् इच्छता।
पाकयज्ञा महार्हाश् च
दातव्याः सर्वदस्युभिः ॥ २१ ॥+++(5)+++

मूलम्

दक्षिणा सर्वयज्ञानां दातव्या भूतिमिच्छता।
पाकयज्ञा महार्हाश्च दातव्याः सर्वदस्युभिः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको सब प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान करके ब्राह्मणोंको भरपूर दक्षिणा देनी चाहिये। सभी दस्युओंको अधिक खर्चवाला पाकयज्ञ करना और उसके लिये धन देना चाहिये॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतान्य् एवं-प्रकाराणि
विहितानि पुरानघ ।
सर्व-लोकस्य कर्माणि
कर्तव्यानीह पार्थिव ॥ २२ ॥

मूलम्

एतान्येवंप्रकाराणि विहितानि पुरानघ ।
सर्वलोकस्य कर्माणि कर्तव्यानीह पार्थिव ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप नरेश! इस प्रकार प्रजापति ब्रह्माने सब मनुष्योंके कर्तव्य पहले ही निर्दिष्ट कर दिये हैं। उन दस्युओंको भी इनका यथावत् रूपसे पालन करना चाहिये॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

मान्धातोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृश्यन्ते मानुषे लोके
सर्व-वर्णेषु दस्यवः।
लिङ्गान्तरे वर्तमाना
आश्रमेषु चतुर्ष्व् अपि ॥ २३ ॥+++(5)+++

मूलम्

दृश्यन्ते मानुषे लोके सर्ववर्णेषु दस्यवः।
लिङ्गान्तरे वर्तमाना आश्रमेषु चतुर्ष्वपि ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मान्धाता बोले— भगवन्! मनुष्यलोकमें सभी वर्णों तथा चारों आश्रमोंमें भी डाकू और लुटेरे देखे जाते हैं, जो विभिन्न वेश-भूषाओंमें अपनेको छिपाये रखते हैं॥

मूलम् (वचनम्)

इन्द्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनष्टायां दण्ड-नीत्यां
राजधर्मे निराकृते।
सम्प्रमुह्यन्ति भूतानि
राज-दौरात्म्यतो ऽनघ ॥ २४ ॥

मूलम्

विनष्टायां दण्डनीत्यां राजधर्मे निराकृते।
सम्प्रमुह्यन्ति भूतानि राजदौरात्म्यतोऽनघ ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र बोले— निष्पाप नरेश! जब राजाकी दुष्टताके कारण दण्डनीति नष्ट हो जाती है और राजधर्म तिरस्कृत हो जाता है, तब सभी प्राणी मोहवश कर्तव्य और अकर्तव्यका विवेक खो बैठते हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असंख्याता भविष्यन्ति
भिक्षवो लिङ्गिनस् तथा।
आश्रमाणां विकल्पाश् च
निवृत्तेऽस्मिन् कृते युगे ॥ २५ ॥

मूलम्

असंख्याता भविष्यन्ति भिक्षवो लिङ्गिनस्तथा।
आश्रमाणां विकल्पाश्च निवृत्तेऽस्मिन् कृते युगे ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस सत्ययुगके समाप्त हो जानेपर नानावेषधारी असंख्य भिक्षुक प्रकट हो जायँगे और लोग आश्रमोंके स्वरूपकी विभिन्न मनमानी कल्पना करने लगेंगे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशृण्वानाः पुराणानां धर्माणां परमा गतीः।
उत्पथं प्रतिपत्स्यन्ते काममन्युसमीरिताः ॥ २६ ॥

मूलम्

अशृण्वानाः पुराणानां धर्माणां परमा गतीः।
उत्पथं प्रतिपत्स्यन्ते काममन्युसमीरिताः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोग काम और क्रोधसे प्रेरित होकर कुमार्गपर चलने लगेंगे। वे पुराणप्रोक्त प्राचीन धर्मोंके पालनका जो उत्तम फल है, उस विषयकी बात नहीं सुनेंगे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा निवर्त्यते पापो दण्डनीत्या महात्मभिः।
तदा धर्मो न चलते सद्भूतः शाश्वतः परः ॥ २७ ॥

मूलम्

यदा निवर्त्यते पापो दण्डनीत्या महात्मभिः।
तदा धर्मो न चलते सद्भूतः शाश्वतः परः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब महामनस्वी राजालोग दण्डनीतिके द्वारा पापीको पाप करनेसे रोकते रहते हैं, तब सत्‌स्वरूप परमोत्कृष्ट सनातन धर्मका ह्रास नहीं होता है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वलोकगुरुं चैव राजानं योऽवमन्यते।
न तस्य दत्तं न हुतं न श्राद्धं फलते क्वचित्॥२८॥

मूलम्

सर्वलोकगुरुं चैव राजानं योऽवमन्यते।
न तस्य दत्तं न हुतं न श्राद्धं फलते क्वचित्॥२८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य सम्पूर्ण लोकोंके गुरुस्वरूप राजाका अपमान करता है, उसके किये दान, होम और श्राद्ध कभी सफल नहीं होते हैं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानुषाणामधिपतिं देवभूतं सनातनम् ।
देवापि नावमन्यन्ते धर्मकामं नरेश्वरम् ॥ २९ ॥

मूलम्

मानुषाणामधिपतिं देवभूतं सनातनम् ।
देवापि नावमन्यन्ते धर्मकामं नरेश्वरम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा मनुष्योंका अधिपति, सनातन देवस्वरूप तथा धर्मकी इच्छा रखनेवाला होता है। देवता भी उसका अपमान नहीं करते हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजापतिर्हि भगवान् सर्वं चैवासृजज्जगत्।
स प्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थं धर्माणां क्षत्रमिच्छति ॥ ३० ॥

मूलम्

प्रजापतिर्हि भगवान् सर्वं चैवासृजज्जगत्।
स प्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थं धर्माणां क्षत्रमिच्छति ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् प्रजापतिने जब इस सम्पूर्ण जगत्‌की सृष्टि की थी, उस समय लोगोंको सत्कर्ममें लगाने और दुष्कर्मसे निवृत्त करनेके लिये उन्होंने धर्मरक्षाके हेतु क्षात्रबलको प्रतिष्ठित करनेकी अभिलाषा की थी॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रवृत्तस्य हि धर्मस्य बुद्ध्या यः स्मरते गतिम्।
स मे मान्यश्च पूज्यश्च तत्र क्षत्रं प्रतिष्ठितम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

प्रवृत्तस्य हि धर्मस्य बुद्ध्या यः स्मरते गतिम्।
स मे मान्यश्च पूज्यश्च तत्र क्षत्रं प्रतिष्ठितम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष प्रवृत्त धर्मकी गतिका अपनी बुद्धिसे विचार करता है, वही मेरे लिये माननीय और पूजनीय है; क्योंकि उसीमें क्षात्रधर्म प्रतिष्ठित है॥३१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा स भगवान् मरुद्‌गणवृतः प्रभुः।
जगाम भवनं विष्णोरक्षरं शाश्वतं पदम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा स भगवान् मरुद्‌गणवृतः प्रभुः।
जगाम भवनं विष्णोरक्षरं शाश्वतं पदम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! मान्धाताको इस प्रकार उपदेश देकर इन्द्ररूपधारी भगवान् विष्णु मरुद्‌गणोंके साथ अविनाशी एवं सनातन परमपद विष्णुधामको चले गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं प्रवर्तिते धर्मे पुरा सुचरितेऽनघ।
कः क्षत्रमवमन्येत चेतनावान् बहुश्रुतः ॥ ३३ ॥

मूलम्

एवं प्रवर्तिते धर्मे पुरा सुचरितेऽनघ।
कः क्षत्रमवमन्येत चेतनावान् बहुश्रुतः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप नरेश्वर! इस प्रकार प्राचीनकालमें भगवान् विष्णुने ही राजधर्मको प्रचलित किया और सत्पुरुषोंद्वारा वह भलीभाँति आचरणमें लाया गया। ऐसी दशामें कौन ऐसा सचेत और बहुश्रुत विद्वान् होगा, जो क्षात्रधर्मकी अवहेलना करेगा?॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यायेन प्रवृत्तानि निवृत्तानि तथैव च।
अन्तरा विलयं यान्ति यथा पथि विचक्षुषः ॥ ३४ ॥

मूलम्

अन्यायेन प्रवृत्तानि निवृत्तानि तथैव च।
अन्तरा विलयं यान्ति यथा पथि विचक्षुषः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्यायपूर्वक क्षत्रिय-धर्मकी अवहेलना करनेसे प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म भी उसी प्रकार बीचमें ही नष्ट हो जाते हैं, जैसे अन्धा मनुष्य रास्तेमें नष्ट हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदौ प्रवर्तिते चक्रे तथैवादिपरायणे।
वर्तस्व पुरुषव्याघ्र संविजानामि तेऽनघ ॥ ३५ ॥

मूलम्

आदौ प्रवर्तिते चक्रे तथैवादिपरायणे।
वर्तस्व पुरुषव्याघ्र संविजानामि तेऽनघ ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह! निष्पाप युधिष्ठिर! विधाताका यह आज्ञाचक्र (राजधर्म) आदि कालमें प्रचलित हुआ और पूर्ववर्ती महापुरुषोंका परम आश्रय बना रहा। तुम भी उसीपर चलो। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम इस क्षात्रधर्मके मार्गपर चलनेमें पूर्णतः समर्थ हो॥३५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि इन्द्रमान्धातृसंवादे पञ्चषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें इन्द्र और मान्धाताका संवादविषयक पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६५॥