०६४ वर्णाश्रमधर्मकथने

भागसूचना

चतुःषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजधर्मकी श्रेष्ठताका वर्णन और इस विषयमें इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाताका संवाद

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

चातुराश्रम्यधर्माश्च यतिधर्माश्च पाण्डव ।
लोकवेदोत्तराश्चैव क्षात्रधर्मे समाहिताः ॥ १ ॥

मूलम्

चातुराश्रम्यधर्माश्च यतिधर्माश्च पाण्डव ।
लोकवेदोत्तराश्चैव क्षात्रधर्मे समाहिताः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— पाण्डुनन्दन! चारों आश्रमोंके धर्म, यतिधर्म तथा लौकिक और वैदिक उत्कृष्ट धर्म सभी क्षात्रधर्ममें प्रतिष्ठित हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वाण्येतानि कर्माणि क्षात्रे भरतसत्तम।
निराशिषो जीवलोकाः क्षत्रधर्मेऽव्यवस्थिते ॥ २ ॥

मूलम्

सर्वाण्येतानि कर्माणि क्षात्रे भरतसत्तम।
निराशिषो जीवलोकाः क्षत्रधर्मेऽव्यवस्थिते ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! ये सारे कर्म क्षात्रधर्मपर अवलम्बित हैं। यदि क्षात्रधर्म प्रतिष्ठित न हो तो जगत्‌के सभी जीव अपनी मनोवाञ्छित वस्तु पानेसे निराश हो जायँ॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्रत्यक्षं बहुद्वारं धर्ममाश्रमवासिनाम् ।
प्ररूपयन्ति तद्भावमागमैरेव शाश्वतम् ॥ ३ ॥

मूलम्

अप्रत्यक्षं बहुद्वारं धर्ममाश्रमवासिनाम् ।
प्ररूपयन्ति तद्भावमागमैरेव शाश्वतम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आश्रमवासियोंका सनातन धर्म अनेक द्वारवाला और अप्रत्यक्ष है, विद्वान् पुरुष शास्त्रोंद्वारा ही उसके स्वरूपका निर्णय करते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरे वचनैः पुण्यैर्वादिनो लोकनिश्चयम्।
अनिश्चयज्ञा धर्माणामदृष्टान्ते परे हताः ॥ ४ ॥

मूलम्

अपरे वचनैः पुण्यैर्वादिनो लोकनिश्चयम्।
अनिश्चयज्ञा धर्माणामदृष्टान्ते परे हताः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः दूसरे वक्तालोग जो धर्मके तत्त्वको नहीं जानते, वे सुन्दर युक्तियुक्त वचनोंद्वारा लोगोंके विश्वासको नष्ट कर तब वे श्रोतागण प्रत्यक्ष उदाहरण न पाकर परलोकमें नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्यक्षं सुखभूयिष्ठमात्मसाक्षिकमच्छलम् ।
सर्वलोकहितं धर्मं क्षत्रियेषु प्रतिष्ठितम् ॥ ५ ॥

मूलम्

प्रत्यक्षं सुखभूयिष्ठमात्मसाक्षिकमच्छलम् ।
सर्वलोकहितं धर्मं क्षत्रियेषु प्रतिष्ठितम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धर्म प्रत्यक्ष है, अधिक सुखमय है, आत्माके साक्षित्वसे युक्त है, छलरहित है तथा सर्वलोकहितकारी है, वह धर्म क्षत्रियोंमें प्रतिष्ठित है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्माश्रमेऽध्यवसिनां ब्राह्मणानां युधिष्ठिर ।
यथा त्रयाणां वर्णानां संख्यातोपश्रुतिः पुरा ॥ ६ ॥

मूलम्

धर्माश्रमेऽध्यवसिनां ब्राह्मणानां युधिष्ठिर ।
यथा त्रयाणां वर्णानां संख्यातोपश्रुतिः पुरा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! जैसे तीनों वर्णोंके धर्मोंका पहले क्षत्रिय-धर्ममें अन्तर्भाव बताया गया है, उसी प्रकार नैष्ठिक ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और यति—इन तीनों आश्रमोंमें स्थित ब्राह्मणोंके धर्मोंका गार्हस्थ्याश्रममें समावेश होता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजधर्मेष्वनुमता लोकाः सुचरितैः सह।
उदाहृतं ते राजेन्द्र यथा विष्णुं महौजसम् ॥ ७ ॥
सर्वभूतेश्वरं देवं प्रभुं नारायणं पुरा।
जग्मुः सुबहुशः शूरा राजानो दण्डनीतये ॥ ८ ॥

मूलम्

राजधर्मेष्वनुमता लोकाः सुचरितैः सह।
उदाहृतं ते राजेन्द्र यथा विष्णुं महौजसम् ॥ ७ ॥
सर्वभूतेश्वरं देवं प्रभुं नारायणं पुरा।
जग्मुः सुबहुशः शूरा राजानो दण्डनीतये ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! उत्तम चरित्रों (धर्मों) सहित सम्पूर्ण लोक राजधर्ममें अन्तर्भूत हैं। यह बात मैं तुमसे कह चुका हूँ। किसी समय बहुत-से शूरवीर नरेश दण्डनीतिकी प्राप्तिके लिये सम्पूर्ण भूतोंके स्वामी महातेजस्वी सर्वव्यापी भगवान् नारायण देवकी शरणमें गये थे॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकैकमात्मनः कर्म तुलयित्वाऽऽश्रमं पुरा।
राजानः पर्युपासन्त दृष्टान्तवचने स्थिताः ॥ ९ ॥

मूलम्

एकैकमात्मनः कर्म तुलयित्वाऽऽश्रमं पुरा।
राजानः पर्युपासन्त दृष्टान्तवचने स्थिताः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे पूर्वकालमें आश्रमसम्बन्धी एक-एक कर्मकी दण्डनीतिके साथ तुलना करके संशयमें पड़ गये कि इनमें कौन श्रेष्ठ है? अतः सिद्धान्त जाननेके लिये उन राजाओंने भगवान्‌की उपासना की थी॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साध्या देवा वसवश्चाश्विनौ च
रुद्राश्च विश्वे मरुतां गणाश्च।
सृष्टाः पुरा ह्यादिदेवेन देवाः
क्षात्रे धर्मे वर्तयन्ते च सिद्धाः ॥ १० ॥

मूलम्

साध्या देवा वसवश्चाश्विनौ च
रुद्राश्च विश्वे मरुतां गणाश्च।
सृष्टाः पुरा ह्यादिदेवेन देवाः
क्षात्रे धर्मे वर्तयन्ते च सिद्धाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साध्यदेव, वसुगण, अश्विनीकुमार, रुद्रगण, विश्वेदेवगण और मरुद्‌गण—ये देवता और सिद्धगण पूर्वकालमें आदिदेव भगवान् विष्णुके द्वारा रचे गये हैं, जो क्षात्रधर्ममें ही स्थित रहते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र ते वर्तयिष्यामि धर्ममर्थविनिश्चयम्।
निर्मर्यादे वर्तमाने दानवैकार्णवे पुरा ॥ ११ ॥

मूलम्

अत्र ते वर्तयिष्यामि धर्ममर्थविनिश्चयम्।
निर्मर्यादे वर्तमाने दानवैकार्णवे पुरा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं इस विषयमें तात्त्विक अर्थका निश्चय करनेवाला एक धर्ममय इतिहास सुनाऊँगा। पहलेकी बात है, यह सारा जगत् दानवताके समुद्रमें निमग्न होकर उच्छृंखल हो चला था॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बभूव राजा राजेन्द्र मान्धाता नाम वीर्यवान्।
पुरा वसुमतीपालो यज्ञं चक्रे दिदृक्षया ॥ १२ ॥
अनादिमध्यनिधनं देवं नारायणं प्रभुम्।

मूलम्

बभूव राजा राजेन्द्र मान्धाता नाम वीर्यवान्।
पुरा वसुमतीपालो यज्ञं चक्रे दिदृक्षया ॥ १२ ॥
अनादिमध्यनिधनं देवं नारायणं प्रभुम्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! उन्हीं दिनों मान्धाता नामसे प्रसिद्ध एक पराक्रमी पृथ्वीपालक नरेश हुए थे, जिन्होंने आदि, मध्य और अन्तसे रहित भगवान् नारायणदेवका दर्शन पानेकी इच्छासे एक यज्ञका अनुष्ठान किया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजा राजशार्दूल मान्धाता परमेश्वरम् ॥ १३ ॥
जगाम शिरसा पादौ यज्ञे विष्णोर्महात्मनः।
दर्शयामास तं विष्णू रूपमास्थाय वासवम् ॥ १४ ॥

मूलम्

स राजा राजशार्दूल मान्धाता परमेश्वरम् ॥ १३ ॥
जगाम शिरसा पादौ यज्ञे विष्णोर्महात्मनः।
दर्शयामास तं विष्णू रूपमास्थाय वासवम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजसिंह! राजा मान्धाताने उस यज्ञमें परमात्मा भगवान् विष्णुके चरणोंकी भावनासे पृथ्वीपर मस्तक रखकर उन्हें प्रणाम किया। उस समय श्रीहरिने देवराज इन्द्रका रूप धारण करके उन्हें दर्शन दिया॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पार्थिवैर्वृतः सद्भिरर्चयामास तं प्रभुम्।
तस्य पार्थिवसिंहस्य तस्य चैव महात्मनः।
संवादोऽयं महानासीद् विष्णुं प्रति महाद्युतिम् ॥ १५ ॥

मूलम्

स पार्थिवैर्वृतः सद्भिरर्चयामास तं प्रभुम्।
तस्य पार्थिवसिंहस्य तस्य चैव महात्मनः।
संवादोऽयं महानासीद् विष्णुं प्रति महाद्युतिम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठ भूपालोंसे घिरे हुए मान्धाताने उन इन्द्ररूपधारी भगवान्‌का पूजन किया। फिर उन राजसिंह और महात्मा इन्द्रमें महातेजस्वी भगवान् विष्णुके विषयमें यह महान् संवाद हुआ॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

इन्द्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमिष्यते धर्मभृतां वरिष्ठ
यद् द्रष्टुकामोऽसि तमप्रमेयम् ।
अनन्तमायामितमन्त्रवीर्यं
नारायणं ह्यादिदेवं पुराणम् ॥ १६ ॥

मूलम्

किमिष्यते धर्मभृतां वरिष्ठ
यद् द्रष्टुकामोऽसि तमप्रमेयम् ।
अनन्तमायामितमन्त्रवीर्यं
नारायणं ह्यादिदेवं पुराणम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र बोले— धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नरेश! आदिदेव पुराणपुरुष भगवान् नारायण अप्रमेय हैं। वे अपनी अनन्त मायाशक्ति, असीम धैर्य तथा अमित बल-पराक्रमसे सम्पन्न हैं, तुम जो उनका दर्शन करना चाहते हो, उसका क्या कारण है? तुम्हें उनसे कौन-सी वस्तु प्राप्त करनेकी इच्छा है?॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नासौ देवो विश्वरूपो मयापि
शक्यो द्रष्टुं ब्रह्मणा वापि साक्षात्।
येऽन्ये कामास्तव राजन् हृदिस्था
दास्ये चैतांस्त्वं हि मर्त्येषु राजा ॥ १७ ॥

मूलम्

नासौ देवो विश्वरूपो मयापि
शक्यो द्रष्टुं ब्रह्मणा वापि साक्षात्।
येऽन्ये कामास्तव राजन् हृदिस्था
दास्ये चैतांस्त्वं हि मर्त्येषु राजा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन विश्वरूप भगवान्‌को मैं और साक्षात् ब्रह्माजी भी नहीं देख सकते। राजन्! तुम्हारे हृदयमें जो दूसरी कामनाएँ हों, उन्हें मैं पूर्ण कर दूँगा; क्योंकि तुम मनुष्योंके राजा हो॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्ये स्थितो धर्मपरो जितेन्द्रियः
शूरो दृढप्रीतिरतः सुराणाम् ।
बुद्ध्या भक्त्या चोत्तमश्रद्धया च
ततस्तेऽहं दद्मि वरान् यथेष्टम् ॥ १८ ॥

मूलम्

सत्ये स्थितो धर्मपरो जितेन्द्रियः
शूरो दृढप्रीतिरतः सुराणाम् ।
बुद्ध्या भक्त्या चोत्तमश्रद्धया च
ततस्तेऽहं दद्मि वरान् यथेष्टम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! तुम सत्यनिष्ठ, धर्मपरायण, जितेन्द्रिय और शुरवीर हो, देवताओंके प्रति अविचल प्रेमभाव रखते हो, तुम्हारी बुद्धि, भक्ति और उत्तम श्रद्धासे संतुष्ट होकर मैं तुम्हें इच्छानुसार वर दे रहा हूँ॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

मान्धातोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

असंशयं भगवन्नादिदेवं
द्रक्ष्यामि त्वाऽहं शिरसा सम्प्रसाद्य।
त्यक्त्वा कामान् धर्मकामोह्यरण्य-
मिच्छे गन्तुं सत्पथं लोकदृष्टम् ॥ १९ ॥

मूलम्

असंशयं भगवन्नादिदेवं
द्रक्ष्यामि त्वाऽहं शिरसा सम्प्रसाद्य।
त्यक्त्वा कामान् धर्मकामोह्यरण्य-
मिच्छे गन्तुं सत्पथं लोकदृष्टम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मान्धाताने कहा— भगवन्! मैं आपके चरणोंमें मस्तक झुकाकर आपको प्रसन्न करके आपकी ही दयासे आदिदेव भगवान् विष्णुका दर्शन प्राप्त कर लूँगा, इसमें संशय नहीं है। इस समय मैं समस्त कामनाओंका परित्याग करके केवल धर्मसम्पादनकी इच्छा रखकर वनमें जाना चाहता हूँ; क्योंकि लोकमें सभी सत्पुरुष अन्तमें इसी सन्मार्गका दिग्दर्शन करा गये हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षात्राद् धर्माद् विपुलादप्रमेया-
ल्लोकाः प्राप्ताः स्थापितं स्वं यशश्च।
धर्मो योऽसावादिदेवात् प्रवृत्तो
लोकश्रेष्ठं तं न जानामि कर्तुम् ॥ २० ॥

मूलम्

क्षात्राद् धर्माद् विपुलादप्रमेया-
ल्लोकाः प्राप्ताः स्थापितं स्वं यशश्च।
धर्मो योऽसावादिदेवात् प्रवृत्तो
लोकश्रेष्ठं तं न जानामि कर्तुम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विशाल एवं अप्रमेय क्षात्रधर्मके प्रभावसे मैंने उत्तम लोक प्राप्त किये और सर्वत्र अपने यशका प्रचार एवं प्रसार कर दिया; परंतु आदिदेव भगवान् विष्णुसे जिस धर्मकी प्रवृत्ति हुई है, उस लोकश्रेष्ठ धर्मका आचरण करना मैं नहीं जानता॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

इन्द्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

असैनिका धर्मपराश्च धर्मे
परां गतिं न नयन्ते ह्ययुक्तम्।
क्षात्रो धर्मो ह्यादिदेवात् प्रवृत्तः
पश्चादन्ये शेषभूताश्च धर्माः ॥ २१ ॥

मूलम्

असैनिका धर्मपराश्च धर्मे
परां गतिं न नयन्ते ह्ययुक्तम्।
क्षात्रो धर्मो ह्यादिदेवात् प्रवृत्तः
पश्चादन्ये शेषभूताश्च धर्माः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र बोले— राजन्! आदिदेव भगवान् विष्णुसे तो पहले राजधर्म ही प्रवृत्त हुआ है। अन्य सभी धर्म उसीके अंग हैं और उसके बाद प्रकट हुए हैं। जो सैनिक शक्तिसे सम्पन्न राजा नहीं हैं, वे धर्मपरायण होनेपर भी दूसरोंको अनायास ही धर्मविषयक परम गतिकी प्राप्ति नहीं करा सकते॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शेषाः सृष्टा ह्यन्तवन्तो ह्यनन्ताः
सप्रस्थानाः क्षात्रधर्मा विशिष्टाः ।
अस्मिन् धर्मे सर्वधर्माः प्रविष्टा-
स्तस्माद् धर्मं श्रेष्ठमिमं वदन्ति ॥ २२ ॥

मूलम्

शेषाः सृष्टा ह्यन्तवन्तो ह्यनन्ताः
सप्रस्थानाः क्षात्रधर्मा विशिष्टाः ।
अस्मिन् धर्मे सर्वधर्माः प्रविष्टा-
स्तस्माद् धर्मं श्रेष्ठमिमं वदन्ति ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षात्रधर्म ही सबसे श्रेष्ठ है। शेष धर्म असंख्य हैं और उनका फल भी विनाशशील है। इस क्षात्रधर्ममें सभी धर्मोंका समावेश हो जाता है, इसलिये इसी धर्मको श्रेष्ठ कहते हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मणा वै पुरा देवा ऋषयश्चामितौजसः।
त्राताः सर्वे प्रसह्यारीन् क्षत्रधर्मेण विष्णुना ॥ २३ ॥

मूलम्

कर्मणा वै पुरा देवा ऋषयश्चामितौजसः।
त्राताः सर्वे प्रसह्यारीन् क्षत्रधर्मेण विष्णुना ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें भगवान् विष्णुने क्षात्रधर्मके द्वारा ही शत्रुओंका दमन करके देवताओं तथा अमिततेजस्वी समस्त ऋषियोंकी रक्षा की थी॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि ह्यसौ भगवान् नाहनिष्यद्
रिपून् सर्वानसुरानप्रमेयः ।
न ब्राह्मणा न च लोकादिकर्ता
नायं धर्मो नादिधर्मोऽभविष्यत् ॥ २४ ॥

मूलम्

यदि ह्यसौ भगवान् नाहनिष्यद्
रिपून् सर्वानसुरानप्रमेयः ।
न ब्राह्मणा न च लोकादिकर्ता
नायं धर्मो नादिधर्मोऽभविष्यत् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि वे अप्रमेय भगवान् श्रीहरि समस्त शत्रुरूप असुरोंका संहार नहीं करते तो न कहीं ब्राह्मणोंका पता लगता, न जगत्‌के आदिस्रष्टा ब्रह्माजी ही दिखायी देते। न यह धर्म रहता और न आदि धर्मका ही पता लग सकता था॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमामुर्वीं नाजयद् विक्रमेण
देवश्रेष्ठः सासुरामादिदेवः ।
चातुर्वर्ण्यं चातुराश्रम्यधर्माः
सर्वे न स्युर्ब्राह्मणानां विनाशात् ॥ २५ ॥

मूलम्

इमामुर्वीं नाजयद् विक्रमेण
देवश्रेष्ठः सासुरामादिदेवः ।
चातुर्वर्ण्यं चातुराश्रम्यधर्माः
सर्वे न स्युर्ब्राह्मणानां विनाशात् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंमें सर्वश्रेष्ठ आदिदेव भगवान् विष्णु असुरों-सहित इस पृथ्वीको अपने बल और पराक्रमसे जीत नहीं लेते तो ब्राह्मणोंका नाश हो जानेसे चारों वर्ण और चारों आश्रमोंके सभी धर्मोंका लोप हो जाता॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नष्टा धर्माः शतधा शाश्वतास्ते
क्षात्रेण धर्मेण पुनः प्रवृद्धाः।
युगे युगे ह्यादिधर्माः प्रवृत्ता
लोकज्येष्ठं क्षात्रधर्मं वदन्ति ॥ २६ ॥

मूलम्

नष्टा धर्माः शतधा शाश्वतास्ते
क्षात्रेण धर्मेण पुनः प्रवृद्धाः।
युगे युगे ह्यादिधर्माः प्रवृत्ता
लोकज्येष्ठं क्षात्रधर्मं वदन्ति ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सदासे चले आनेवाले धर्म सैकड़ों बार नष्ट हो चुके हैं, परंतु क्षात्रधर्मने उनका पुनः उद्धार एवं प्रसार किया है। युग-युगमें आदिधर्म (क्षात्रधर्म)-की प्रवृत्ति हुई है; इसलिये इस क्षात्रधर्मको लोकमें सबसे श्रेष्ठ बताते हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मत्यागः सर्वभूतानुकम्पा
लोकज्ञानं पालनं मोक्षणं च।
विषण्णानां मोक्षणं पीडितानां
क्षात्रे धर्मे विद्यते पार्थिवानाम् ॥ २७ ॥

मूलम्

आत्मत्यागः सर्वभूतानुकम्पा
लोकज्ञानं पालनं मोक्षणं च।
विषण्णानां मोक्षणं पीडितानां
क्षात्रे धर्मे विद्यते पार्थिवानाम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें अपने शरीरकी आहुति देना, समस्त प्राणियोंपर दया करना, लोकव्यवहारका ज्ञान प्राप्त करना, प्रजाकी रक्षा करना, विषादग्रस्त एवं पीड़ित मनुष्योंको दुःख और कष्टसे छुड़ाना—ये सब बातें राजाओंके क्षात्रधर्ममें ही विद्यमान हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्मर्यादाः काममन्युप्रवृत्ता
भीता राज्ञो नाधिगच्छन्ति पापम्।
शिष्टाश्चान्ये सर्वधर्मोपपन्नाः
साध्वाचाराः साधु धर्मं वदन्ति ॥ २८ ॥

मूलम्

निर्मर्यादाः काममन्युप्रवृत्ता
भीता राज्ञो नाधिगच्छन्ति पापम्।
शिष्टाश्चान्ये सर्वधर्मोपपन्नाः
साध्वाचाराः साधु धर्मं वदन्ति ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग काम, क्रोधमें फँसकर उच्छृंखल हो गये हैं, वे भी राजाके भयसे ही पाप नहीं कर पाते हैं, तथा जो सब प्रकारके धर्मोंका पालन करनेवाले श्रेष्ठ पुरुष हैं वे राजासे सुरक्षित हो सदाचारका सेवन करते हुए धर्मका सदुपदेश करते हैं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रवत् पाल्यमानानि राजधर्मेण पार्थिवैः।
लोके भूतानि सर्वाणि चरन्ते नात्र संशयः ॥ २९ ॥

मूलम्

पुत्रवत् पाल्यमानानि राजधर्मेण पार्थिवैः।
लोके भूतानि सर्वाणि चरन्ते नात्र संशयः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाओंसे राजधर्मके द्वारा पुत्रकी भाँति पालित होनेवाले जगत्‌के सम्पूर्ण प्राणी निर्भय विचरते हैं, इसमें संशय नहीं है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वधर्मपरं क्षात्रं लोकश्रेष्ठं सनातनम्।
शश्वदक्षरपर्यन्तमक्षरं सर्वतोमुखम् ॥ ३० ॥

मूलम्

सर्वधर्मपरं क्षात्रं लोकश्रेष्ठं सनातनम्।
शश्वदक्षरपर्यन्तमक्षरं सर्वतोमुखम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार संसारमें क्षात्रधर्म ही सब धर्मोंसे श्रेष्ठ, सनातन, नित्य, अविनाशी, मोक्षतक पहुँचानेवाला सर्वतोमुखी है॥३०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि वर्णाश्रमधर्मकथने चतुःषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें वर्णाश्रमधर्मका वर्णनविषयक चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६४॥