०६२ वर्णाश्रमधर्मकथने

भागसूचना

द्विषष्टितमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

ब्राह्मणधर्म और कर्तव्यपालनका महत्त्व

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिवान् सुखान् महोदर्कानहिंस्राल्लोँकसम्मतान् ।
ब्रूहि धर्मान् सुखोपायान् मद्विधानां सुखावहान् ॥ १ ॥

मूलम्

शिवान् सुखान् महोदर्कानहिंस्राल्लोँकसम्मतान् ।
ब्रूहि धर्मान् सुखोपायान् मद्विधानां सुखावहान् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— पितामह! अब आप ऐसे धर्मोंका वर्णन कीजिये; जो कल्याणमय, सुखमय, भविष्यमें अभ्युदयकारी, हिंसारहित, लोकसम्मानित, सुखसाधक तथा मुझ-जैसे लोगोंके लिये सुखपूर्वक आचरणमें लाये जा सकते हों॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म अवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणस्य तु चत्वारस्त्वाश्रमा विहिताः प्रभो।
वर्णास्तान् नानुवर्तन्ते त्रयो भारतसत्तम ॥ २ ॥

मूलम्

ब्राह्मणस्य तु चत्वारस्त्वाश्रमा विहिताः प्रभो।
वर्णास्तान् नानुवर्तन्ते त्रयो भारतसत्तम ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— प्रभो! भरतवंशावतंस युधिष्ठिर! चारों आश्रम ब्राह्मणोंके लिये ही विहित हैं। अन्य तीनों वर्णोंके लोग उन सभी आश्रमोंका अनुसरण नहीं करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तानि कर्माणि बहूनि राजन्
स्वर्ग्याणि राजन्यपरायणानि ।
नेमानि दृष्टान्तविधौ स्मृतानि
क्षात्रे हि सर्वं विहितं यथावत् ॥ ३ ॥

मूलम्

उक्तानि कर्माणि बहूनि राजन्
स्वर्ग्याणि राजन्यपरायणानि ।
नेमानि दृष्टान्तविधौ स्मृतानि
क्षात्रे हि सर्वं विहितं यथावत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! क्षत्रियके लिये शास्त्रमें बहुत-से ऐसे स्वर्गसाधक कर्म बताये गये हैं, जो हिंसाप्रधान हैं, जैसे युद्ध। परंतु ये कर्म ब्राह्मणके लिये आदर्श नहीं हो सकते; क्योंकि क्षत्रियके लिये सभी प्रकारके कर्मोंका यथोचित विधान है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षात्राणि वैश्यानि च सेवमानः
शौद्राणि कर्माणि च ब्राह्मणः सन्।
अस्मिल्ँलोके निन्दितो मन्दचेताः
परे च लोके निरयं प्रयाति ॥ ४ ॥

मूलम्

क्षात्राणि वैश्यानि च सेवमानः
शौद्राणि कर्माणि च ब्राह्मणः सन्।
अस्मिल्ँलोके निन्दितो मन्दचेताः
परे च लोके निरयं प्रयाति ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ब्राह्मण होकर क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंके कर्मोंका सेवन करता है, वह मन्दबुद्धि पुरुष इस लोकमें निन्दित और परलोकमें नरकगामी होता है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

या संज्ञा विहिता लोके दासे शुनि वृके पशौ।
विकर्मणि स्थिते विप्रे सैव संज्ञा च पाण्डव ॥ ५ ॥

मूलम्

या संज्ञा विहिता लोके दासे शुनि वृके पशौ।
विकर्मणि स्थिते विप्रे सैव संज्ञा च पाण्डव ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! लोकमें दास, कुत्ते, भेड़िये तथा अन्य पशुओंके लिये जो निन्दासूचक संज्ञा दी गयी है, अपने वर्णधर्मके विपरीत कर्ममें लगे हुए ब्राह्मणके लिये भी वही संज्ञा दी जाती है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षट्‌कर्मसम्प्रवृत्तस्य आश्रमेषु चतुर्ष्वपि ।
सर्वधर्मोपपन्नस्य संवृतस्य कृतात्मनः ॥ ६ ॥
ब्राह्मणस्य विशुद्धस्य तपस्यभिरतस्य च।
निराशिषो वदान्यस्य लोका ह्यक्षरसम्मिताः ॥ ७ ॥

मूलम्

षट्‌कर्मसम्प्रवृत्तस्य आश्रमेषु चतुर्ष्वपि ।
सर्वधर्मोपपन्नस्य संवृतस्य कृतात्मनः ॥ ६ ॥
ब्राह्मणस्य विशुद्धस्य तपस्यभिरतस्य च।
निराशिषो वदान्यस्य लोका ह्यक्षरसम्मिताः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ब्राह्मण यज्ञ करना-कराना, विद्या पढ़ना-पढ़ाना तथा दान लेना और देना—इन छः कर्मोंमें ही प्रवृत्त होता है, चारों आश्रमोंमें स्थित हो उनके सम्पूर्ण धर्मोंका पालन करता है, धर्ममय कवचसे सुरक्षित होता है और मनको वशमें किये रहता है, जिसके मनमें कोई कामना नहीं होती, जो बाहर-भीतरसे शुद्ध, तपस्यापरायण और उदार होता है, उसे अविनाशी लोक प्राप्त होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो यस्मिन् कुरुते कर्म यादृशं येन यत्र च।
तादृशं तादृशेनैव स गुणं प्रतिपद्यते ॥ ८ ॥

मूलम्

यो यस्मिन् कुरुते कर्म यादृशं येन यत्र च।
तादृशं तादृशेनैव स गुणं प्रतिपद्यते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष जिस अवस्थामें, जिस देश अथवा कालमें, जिस उद्देश्यसे जैसा कर्म करता है, वह (उसी अवस्थामें वैसे ही देश अथवा कालमें) वैसे भावसे उस कर्मका वैसा ही फल पाता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृद्ध्या कृषिवणिक्त्वेन जीवसंजीवनेन च।
वेत्तुमर्हसि राजेन्द्र स्वाध्यायगणितं महत् ॥ ९ ॥

मूलम्

वृद्ध्या कृषिवणिक्त्वेन जीवसंजीवनेन च।
वेत्तुमर्हसि राजेन्द्र स्वाध्यायगणितं महत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! वैश्यकी व्याज लेनेवाली वृत्ति, खेती और वाणिज्यके समान तथा क्षत्रियके प्रजापालनरूप कर्मके समान ब्राह्मणोंके लिये वेदाभ्यासरूपी कर्म ही महान् है—ऐसा तुम्हें समझना चाहिये॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालसंचोदितो लोकः कालपर्यायनिश्चितः ।
उत्तमाधममध्यानि कर्माणि कुरुतेऽवशः ॥ १० ॥

मूलम्

कालसंचोदितो लोकः कालपर्यायनिश्चितः ।
उत्तमाधममध्यानि कर्माणि कुरुतेऽवशः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालके उलट-फेरसे प्रभावित तथा स्वभावसे प्रेरित हुआ मनुष्य विवश-सा होकर उत्तम, मध्यम और अधम कर्म करता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तवन्ति प्रधानानि पुरा श्रेयस्कराणि च।
स्वकर्मनिरतो लोके ह्यक्षरः सर्वतोमुखः ॥ ११ ॥

मूलम्

अन्तवन्ति प्रधानानि पुरा श्रेयस्कराणि च।
स्वकर्मनिरतो लोके ह्यक्षरः सर्वतोमुखः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहलेके जो कल्याणकारी और अमङ्गलकारी शुभाशुभ कर्म हैं, वे ही प्रधान होकर इस शरीरका निर्माण करते हैं। इस शरीरके साथ ही उनका भी अन्त हो जाता है; परंतु जगत्‌में अपने वर्णाश्रमोचित कर्मके पालनमें तत्पर रहनेवाला पुरुष तो हर अवस्थामें सर्वव्यापी और अविनाशी ही है॥११॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि वर्णाश्रमधर्मकथने द्विषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें वर्णाश्रमधर्मका वर्णनविषयक बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६२॥