भागसूचना
एकषष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
आश्रम-धर्मका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रमाणां महाबाहो शृणु सत्यपराक्रम।
चतुर्णामपि नामानि कर्माणि च युधिष्ठिर ॥ १ ॥
मूलम्
आश्रमाणां महाबाहो शृणु सत्यपराक्रम।
चतुर्णामपि नामानि कर्माणि च युधिष्ठिर ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— सत्यपराक्रमी महाबाहु युधिष्ठिर! अब तुम चारों आश्रमोंके नाम और कर्म सुनो॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वानप्रस्थं भैक्ष्यचर्यं गार्हस्थ्यं च महाश्रमम्।
ब्रह्मचर्याश्रमं प्राहुश्चतुर्थं ब्राह्मणैर्वृतम् ॥ २ ॥
मूलम्
वानप्रस्थं भैक्ष्यचर्यं गार्हस्थ्यं च महाश्रमम्।
ब्रह्मचर्याश्रमं प्राहुश्चतुर्थं ब्राह्मणैर्वृतम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मचर्य, महान् आश्रम गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और भैक्ष्यचर्य (संन्यास)—ये चार आश्रम हैं। चौथे आश्रम संन्यासका अवलम्बन केवल ब्राह्मणोंने किया है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जटाधारणसंस्कारं द्विजातित्वमवाप्य च ।
आधानादीनि कर्माणि प्राप्य वेदमधीत्य च ॥ ३ ॥
सदारो वाप्यदारो वा आत्मवान् संयतेन्द्रियः।
वानप्रस्थाश्रमं गच्छेत् कृतकृत्यो गृहाश्रमात् ॥ ४ ॥
मूलम्
जटाधारणसंस्कारं द्विजातित्वमवाप्य च ।
आधानादीनि कर्माणि प्राप्य वेदमधीत्य च ॥ ३ ॥
सदारो वाप्यदारो वा आत्मवान् संयतेन्द्रियः।
वानप्रस्थाश्रमं गच्छेत् कृतकृत्यो गृहाश्रमात् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(ब्रह्मचर्य-आश्रममें) चूड़ाकरण-संस्कार और उपनयनके अनन्तर द्विजत्वको प्राप्त हो वेदाध्ययन पूर्ण करके (समावर्तनके पश्चात् विवाह करे, फिर) गार्हस्थ्य आश्रममें अग्निहोत्र आदि कर्म सम्पन्न करके इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए मनस्वी पुरुष स्त्रीको साथ लेकर अथवा बिना स्त्रीके ही गृहस्थाश्रमसे कृतकृत्य हो वानप्रस्थाश्रममें प्रवेश करे॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रारण्यकशास्त्राणि समधीत्य स धर्मवित्।
ऊर्ध्वरेताः प्रव्रजित्वा गच्छत्यक्षरसात्मताम् ॥ ५ ॥
मूलम्
तत्रारण्यकशास्त्राणि समधीत्य स धर्मवित्।
ऊर्ध्वरेताः प्रव्रजित्वा गच्छत्यक्षरसात्मताम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ धर्मज्ञ पुरुष आरण्यकशास्त्रोंका अध्ययन करके वानप्रस्थ-धर्मका पालन करे। तत्पश्चात् ब्रह्मचर्य पालनपूर्वक उस आश्रमसे निकल जाय और विधिपूर्वक संन्यास ग्रहण कर ले। इस प्रकार संन्यास लेनेवाला पुरुष अविनाशी ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतान्येव निमित्तानि मुनीनामूर्ध्वरेतसाम् ।
कर्तव्यानीह विप्रेण राजन्नादौ विपश्चिता ॥ ६ ॥
मूलम्
एतान्येव निमित्तानि मुनीनामूर्ध्वरेतसाम् ।
कर्तव्यानीह विप्रेण राजन्नादौ विपश्चिता ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! विद्वान् ब्राह्मणको ऊर्ध्वरेता मुनियोंद्वारा आचरणमें लाये हुए इन्हीं साधनोंका सर्वप्रथम आश्रय लेना चाहिये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरितब्रह्मचर्यस्य ब्राह्मणस्य विशाम्पते ।
भैक्षचर्यास्वधीकारः प्रशस्त इह मोक्षिणः ॥ ७ ॥
मूलम्
चरितब्रह्मचर्यस्य ब्राह्मणस्य विशाम्पते ।
भैक्षचर्यास्वधीकारः प्रशस्त इह मोक्षिणः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! जिसने ब्रह्मचर्यका पालन किया है, उस ब्रह्मचारी ब्राह्मणके मनमें यदि मोक्षकी अभिलाषा जाग उठे तो उसे ब्रह्मचर्य-आश्रमसे ही संन्यास ग्रहण करनेका उत्तम अधिकार प्राप्त हो जाता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्रास्तमितशायी स्यान्निराशीरनिकेतनः ।
यथोपलब्धजीवी स्यान्मुनिर्दान्तो जितेन्द्रियः ॥ ८ ॥
मूलम्
यत्रास्तमितशायी स्यान्निराशीरनिकेतनः ।
यथोपलब्धजीवी स्यान्मुनिर्दान्तो जितेन्द्रियः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संन्यासीको चाहिये कि वह मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए मुनिवृत्तिसे रहे। किसी वस्तुकी कामना न करे। अपने लिये मठ या कुटी न बनवाये। निरन्तर घूमता रहे और जहाँ सूर्यास्त हो वहीं ठहर जाय। प्रारब्धवश जो कुछ मिल जाय, उसीसे जीवन-निर्वाह करे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निराशीः स्यात् सर्वसमो निर्भोगो निर्विकारवान्।
विप्रः क्षेमाश्रमं प्राप्तो गच्छत्यक्षरसात्मताम् ॥ ९ ॥
मूलम्
निराशीः स्यात् सर्वसमो निर्भोगो निर्विकारवान्।
विप्रः क्षेमाश्रमं प्राप्तो गच्छत्यक्षरसात्मताम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आशा-तृष्णाका सर्वथा त्याग करके सबके प्रति समान भाव रखे। भोगोंसे दूर रहे और हृदयमें किसी प्रकारका विकार न आने दे। इन्हीं सब धर्मोंके कारण इस आश्रमको ‘क्षेमाश्रम’ (कल्याणप्राप्तिका स्थान) कहते हैं। इस आश्रममें आया हुआ ब्राह्मण अविनाशी ब्रह्मके साथ एकता प्राप्त कर लेता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधीत्य वेदान् कृतसर्वकृत्यः
संतानमुत्पाद्य सुखानि भुक्त्वा ।
समाहितः प्रचरेद् दुश्चरं यो
गार्हस्थ्यधर्मं मुनिधर्मजुष्टम् ॥ १० ॥
मूलम्
अधीत्य वेदान् कृतसर्वकृत्यः
संतानमुत्पाद्य सुखानि भुक्त्वा ।
समाहितः प्रचरेद् दुश्चरं यो
गार्हस्थ्यधर्मं मुनिधर्मजुष्टम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब गृहस्थाश्रमके धर्म सुनो—जो वेदोंका अध्ययन पूर्ण करके समस्त वेदोक्त शुभ कर्मोंका अनुष्ठान करनेके पश्चात् अपनी विवाहिता पत्नीके गर्भसे संतान उत्पन्न कर उस आश्रमके न्यायोचित भोगोंको भोगता और एकाग्रचित्त हो मुनिजनोचित धर्मसे युक्त दुष्कर गार्हस्थ्य-धर्मका पालन करता है, वह उत्तम है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वदारतुष्टस्त्वृतुकालगामी
नियोगसेवी न शठो न जिह्मः।
मिताशनो देवरतः कृतज्ञः
सत्यो मृदुश्चानृशंसः क्षमावान् ॥ ११ ॥
मूलम्
स्वदारतुष्टस्त्वृतुकालगामी
नियोगसेवी न शठो न जिह्मः।
मिताशनो देवरतः कृतज्ञः
सत्यो मृदुश्चानृशंसः क्षमावान् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गृहस्थको चाहिये कि वह अपनी ही स्त्रीमें अनुराग रखते हुए संतुष्ट रहे। ऋतुकालमें ही पत्नीके साथ समागम करे। शास्त्रोंकी आज्ञाका पालन करता रहे। शठता और कुटिलतासे दूर रहे। परिमित आहार ग्रहण करे। देवताओंकी आराधनामें तत्पर रहे। उपकार करनेवालोंके प्रति कृतज्ञता प्रकट करे। सत्य बोले। सबके प्रति मृदुभाव रखे। किसीके प्रति क्रूर न बने और सदा क्षमाभाव रखे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दान्तो विधेयो हव्यकव्येऽप्रमत्तो
ह्यन्नस्य दाता सततं द्विजेभ्यः।
अमत्सरी सर्वलिङ्गप्रदाता
वैताननित्यश्च गृहाश्रमी स्यात् ॥ १२ ॥
मूलम्
दान्तो विधेयो हव्यकव्येऽप्रमत्तो
ह्यन्नस्य दाता सततं द्विजेभ्यः।
अमत्सरी सर्वलिङ्गप्रदाता
वैताननित्यश्च गृहाश्रमी स्यात् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गृहस्थाश्रमी पुरुष इन्द्रियोंका संयम करे, गुरुजनों एवं शास्त्रोंकी आज्ञा माने, देवताओं और पितरोंकी तृप्तिके लिये हव्य और कव्य समर्पित करनेमें कभी भूल न होने दे, ब्राह्मणोंको निरन्तर अन्नदान करे, ईर्ष्या-द्वेषसे दूर रहे, अन्य सब आश्रमोंको भोजन देकर उनका पालन-पोषण करता रहे और सदा यज्ञ-यागादिमें लगा रहे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथात्र नारायणगीतमाहु-
र्महर्षयस्तात महानुभावाः ।
महार्थमत्यन्ततपःप्रयुक्तं
तदुच्यमानं हि मया निबोध ॥ १३ ॥
मूलम्
अथात्र नारायणगीतमाहु-
र्महर्षयस्तात महानुभावाः ।
महार्थमत्यन्ततपःप्रयुक्तं
तदुच्यमानं हि मया निबोध ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! इस विषयमें महानुभाव महर्षिगण नारायण-गीतका उल्लेख किया करते हैं जो महान् अर्थसे युक्त और अत्यन्त तपस्याद्वारा प्रेरित होकर कहा गया है। मैं उसका वर्णन करता हूँ, तुम सुनो॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यार्जवं चातिथिपूजनं च
धर्मस्तथार्थश्च रतिः स्वदारैः ।
निषेवितव्यानि सुखानि लोके
ह्यस्मिन् परे चैव मतं ममैतत् ॥ १४ ॥
मूलम्
सत्यार्जवं चातिथिपूजनं च
धर्मस्तथार्थश्च रतिः स्वदारैः ।
निषेवितव्यानि सुखानि लोके
ह्यस्मिन् परे चैव मतं ममैतत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गृहस्थ पुरुष इस लोकमें सत्य, सरलता, अतिथि-सत्कार, धर्म, अर्थ, अपनी पत्नीके प्रति अनुराग तथा सुखका सेवन करे। ऐसा होनेपर ही उसे परलोकमें भी सुख प्राप्त होते हैं, यह मेरा मत है’॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरणं पुत्रदाराणां वेदानां धारणं तथा।
वसतामाश्रमं श्रेष्ठं वदन्ति परमर्षयः ॥ १५ ॥
मूलम्
भरणं पुत्रदाराणां वेदानां धारणं तथा।
वसतामाश्रमं श्रेष्ठं वदन्ति परमर्षयः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रेष्ठ आश्रम गार्हस्थ्यमें निवास करनेवाले द्विजोंके लिये महर्षिगण यह कर्तव्य बताते हैं कि वह स्त्री और पुत्रोंका भरण-पोषण तथा वेदशास्त्रोंका स्वाध्याय करे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं हि यो ब्राह्मणो यज्ञशीलो
गार्हस्थ्यमध्यावसते यथावत् ।
गृहस्थवृत्तिं प्रविशोध्य सम्यक्
स्वर्गे विशुद्धं फलमाप्नुते सः ॥ १६ ॥
मूलम्
एवं हि यो ब्राह्मणो यज्ञशीलो
गार्हस्थ्यमध्यावसते यथावत् ।
गृहस्थवृत्तिं प्रविशोध्य सम्यक्
स्वर्गे विशुद्धं फलमाप्नुते सः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्राह्मण इस प्रकार स्वभावतः यज्ञपरायण हो, गृहस्थ-धर्मका यथावत् रूपसे पालन करता है, वह गृहस्थ-वृत्तिका अच्छी तरह शोधन करके स्वर्गलोकमें विशुद्ध फलका भागी होता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य देहपरित्यागादिष्टाः कामाक्षया मताः।
आनन्त्यायोपतिष्ठन्ति सर्वतोऽक्षिशिरोमुखाः ॥ १७ ॥
मूलम्
तस्य देहपरित्यागादिष्टाः कामाक्षया मताः।
आनन्त्यायोपतिष्ठन्ति सर्वतोऽक्षिशिरोमुखाः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस गृहस्थको देह-त्यागके पश्चात् उसके अभीष्ट मनोरथ अक्षयरूपसे प्राप्त होते हैं। वे उस पुरुषका संकल्प जानकर इस प्रकार अनन्तकालतकके लिये उसकी सेवामें उपस्थित हो जाते हैं, मानो उनके नेत्र, मस्तक और मुख सभी दिशाओंकी ओर हों॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मरन्नेको जपन्नेकः सर्वानेको युधिष्ठिर।
एकस्मिन्नेव चाचार्ये शुश्रूषुर्मलपङ्कवान् ॥ १८ ॥
मूलम्
स्मरन्नेको जपन्नेकः सर्वानेको युधिष्ठिर।
एकस्मिन्नेव चाचार्ये शुश्रूषुर्मलपङ्कवान् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! ब्रह्मचारीको चाहिये कि वह अकेला ही वेदमन्त्रोंका चिन्तन और अभीष्ट मन्त्रोंका जप करते हुए सारे कार्य सम्पन्न करे, अपने शरीरमें मैल और कीचड़ लगी हो तो भी वह सेवाके लिये उद्यत हो एकमात्र आचार्यकी ही परिचर्यामें संलग्न रहे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मचारी व्रती नित्यं नित्यं दीक्षापरो वशी।
परिचार्य तथा वेदं कृत्यं कुर्वन् वसेत् सदा ॥ १९ ॥
मूलम्
ब्रह्मचारी व्रती नित्यं नित्यं दीक्षापरो वशी।
परिचार्य तथा वेदं कृत्यं कुर्वन् वसेत् सदा ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मचारी नित्य निरन्तर मन और इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए व्रत एवं दीक्षाके पालनमें तत्पर रहे। वेदोंका स्वाध्याय करते हुए सदा कर्तव्य-कर्मोंके पालनपूर्वक गुरु-गृहमें निवास करे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुश्रूषां सततं कुर्वन् गुरोः सम्प्रणमेत च।
षट्कर्मसु निवृत्तश्च न प्रवृत्तश्च सर्वशः ॥ २० ॥
मूलम्
शुश्रूषां सततं कुर्वन् गुरोः सम्प्रणमेत च।
षट्कर्मसु निवृत्तश्च न प्रवृत्तश्च सर्वशः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निरन्तर गुरुकी सेवामें संलग्न रहकर उन्हें प्रणाम करे। जीवन-निर्वाहके उद्देश्यसे किये जानेवाले यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन तथा दान और प्रतिग्रह—इन छः कर्मोंसे अलग रहे और किसी भी असत् कर्ममें वह कभी प्रवृत्त न हो॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चरत्यधिकारेण सेवेत द्विषतो न च।
एषोऽऽश्रमपदस्तात ब्रह्मचारिण इष्यते ॥ २१ ॥
मूलम्
न चरत्यधिकारेण सेवेत द्विषतो न च।
एषोऽऽश्रमपदस्तात ब्रह्मचारिण इष्यते ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने अधिकारका प्रदर्शन करते हुए व्यवहार न करे; द्वेष रखनेवालोंका सङ्ग न करे। वत्स युधिष्ठिर! ब्रह्मचारीके लिये यही आश्रम-धर्म अभीष्ट है॥२१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि चतुराश्रमधर्मकथने एकषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें चारों आश्रमोंके धर्मोंका वर्णनविषयक एकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६१॥