भागसूचना
षष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
वर्ण-धर्मका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पुनः स गाङ्गेयमभिवाद्य पितामहम्।
प्राञ्जलिर्नियतो भूत्वा पर्यपृच्छद् युधिष्ठिरः ॥ १ ॥
मूलम्
ततः पुनः स गाङ्गेयमभिवाद्य पितामहम्।
प्राञ्जलिर्नियतो भूत्वा पर्यपृच्छद् युधिष्ठिरः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तब राजा युधिष्ठिरने मनको वशमें करके गङ्गानन्दन पितामह भीष्मको प्रणाम किया और हाथ जोड़कर पूछा—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
के धर्माः सर्ववर्णानां चातुर्वर्ण्यस्य के पृथक्।
चातुर्वर्ण्याश्रमाणां च राजधर्माश्च के मताः ॥ २ ॥
मूलम्
के धर्माः सर्ववर्णानां चातुर्वर्ण्यस्य के पृथक्।
चातुर्वर्ण्याश्रमाणां च राजधर्माश्च के मताः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पितामह! कौन-से ऐसे धर्म हैं, जो सभी वर्णोंके लिये उपयोगी हो सकते हैं। चारों वर्णोंके पृथक्-पृथक् धर्म कौन-से हैं? चारों वर्णोंके साथ ही चारों आश्रमोंके भी धर्म कौन हैं तथा राजाके द्वारा पालन करने योग्य कौन-कौन-से धर्म माने गये हैं?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केन वै वर्धते राष्ट्रं राजा केन विवर्धते।
केन पौराश्च भृत्याश्च वर्धन्ते भरतर्षभ ॥ ३ ॥
मूलम्
केन वै वर्धते राष्ट्रं राजा केन विवर्धते।
केन पौराश्च भृत्याश्च वर्धन्ते भरतर्षभ ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राष्ट्रकी वृद्धि कैसे होती है, राजाका अभ्युदय किस उपायसे होता है? भरतश्रेष्ठ! पुरवासियों और भरण-पोषण करने योग्य सेवकोंकी उन्नति भी किस उपायसे होती है?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोशं दण्डं च दुर्गं च सहायान् मन्त्रिणस्तथा।
ऋत्विक्पुरोहिताचार्यान् कीदृशान् वर्जयेन्नृपः ॥ ४ ॥
मूलम्
कोशं दण्डं च दुर्गं च सहायान् मन्त्रिणस्तथा।
ऋत्विक्पुरोहिताचार्यान् कीदृशान् वर्जयेन्नृपः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजाको किस प्रकारके कोश, दण्ड, दुर्ग, सहायक, मन्त्री, ऋत्विक्, पुरोहित और आचार्योंका त्याग कर देना चाहिये?॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केषु विश्वसितव्यं स्याद् राज्ञा कस्याञ्चिदापदि।
कुतो वाऽऽत्मा दृढं रक्ष्यस्तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ५ ॥
मूलम्
केषु विश्वसितव्यं स्याद् राज्ञा कस्याञ्चिदापदि।
कुतो वाऽऽत्मा दृढं रक्ष्यस्तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पितामह! किसी आपत्तिके आनेपर राजाको किन लोगोंपर विश्वास करना चाहिये और किन लोगोंसे अपने शरीरकी दृढ़तापूर्वक रक्षा करनी चाहिये? यह मुझे बताइये’॥५॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे।
ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य धर्मान् वक्ष्यामि शाश्वतान् ॥ ६ ॥
मूलम्
नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे।
ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य धर्मान् वक्ष्यामि शाश्वतान् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— महान् धर्मको नमस्कार है, विश्वविधाता श्रीकृष्णको नमस्कार है। अब मैं उपस्थित ब्राह्मणोंको नमस्कार करके सनातन धर्मका वर्णन आरम्भ करता हूँ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्रोधः सत्यवचनं संविभागः क्षमा तथा।
प्रजनः स्वेषु दारेषु शौचमद्रोह एव च ॥ ७ ॥
आर्जवं भृत्यभरणं नवैते सार्ववर्णिकाः।
ब्राह्मणस्य तु यो धर्मस्तं ते वक्ष्यामि केवलम् ॥ ८ ॥
मूलम्
अक्रोधः सत्यवचनं संविभागः क्षमा तथा।
प्रजनः स्वेषु दारेषु शौचमद्रोह एव च ॥ ७ ॥
आर्जवं भृत्यभरणं नवैते सार्ववर्णिकाः।
ब्राह्मणस्य तु यो धर्मस्तं ते वक्ष्यामि केवलम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसीपर क्रोध न करना, सत्य बोलना, धनको बाँटकर भोगना, क्षमाभाव रखना, अपनी ही पत्नीके गर्भसे संतान पैदा करना, बाहर-भीतरसे पवित्र रहना, किसीसे द्रोह न करना, सरलभाव रखना और भरण-पोषणके योग्य व्यक्तियोंका पालन करना—ये नौ सभी वर्णोंके लिये उपयोगी धर्म हैं। अब मैं केवल ब्राह्मणका जो धर्म है, उसे बता रहा हूँ॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दममेव महाराज धर्ममाहुः पुरातनम्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव तत्र कर्म समाप्यते ॥ ९ ॥
मूलम्
दममेव महाराज धर्ममाहुः पुरातनम्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव तत्र कर्म समाप्यते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! इन्द्रिय-संयमको ब्राह्मणोंका प्राचीन धर्म बताया गया है। इसके सिवा, उन्हें सदा वेद-शास्त्रोंका स्वाध्याय करना चाहिये; क्योंकि इसीसे उनके सब कर्मोंकी पूर्ति हो जाती है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं चेद् द्विजमुपागच्छेद् वर्तमानं स्वकर्मणि।
अकुर्वाणं विकर्माणि शान्तं प्रज्ञानतर्पितम् ॥ १० ॥
कुर्वीतापत्यसंतानमथो दद्याद् यजेत च।
संविभज्य च भोक्तव्यं धनं सद्भिरितीर्यते ॥ ११ ॥
मूलम्
तं चेद् द्विजमुपागच्छेद् वर्तमानं स्वकर्मणि।
अकुर्वाणं विकर्माणि शान्तं प्रज्ञानतर्पितम् ॥ १० ॥
कुर्वीतापत्यसंतानमथो दद्याद् यजेत च।
संविभज्य च भोक्तव्यं धनं सद्भिरितीर्यते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि अपने वर्णोचित कर्ममें स्थित, शान्त और ज्ञान-विज्ञानसे तृप्त ब्राह्मणको किसी प्रकारके असत् कर्मका आश्रय लिये बिना ही धन प्राप्त हो जाय तो वह उस धनसे विवाह करके संतानकी उत्पत्ति करे अथवा उस धनको दान और यज्ञमें लगा दे। धनको बाँटकर ही भोगना चाहिये, ऐसा सत्पुरुषोंका कथन है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिनिष्ठितकार्यस्तु स्वाध्यायेनैव ब्राह्मणः ।
कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते ॥ १२ ॥
मूलम्
परिनिष्ठितकार्यस्तु स्वाध्यायेनैव ब्राह्मणः ।
कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण केवल वेदोंके स्वाध्यायसे ही कृतकृत्य हो जाता है। वह दूसरा कर्म करे या न करे। सब जीवोंके प्रति मैत्रीभाव रखनेके कारण वह मैत्र कहलाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रियस्यापि यो धर्मस्तं ते वक्ष्यामि भारत।
दद्याद् राजन् न याचेत यजेत न च याजयेत्॥१३॥
मूलम्
क्षत्रियस्यापि यो धर्मस्तं ते वक्ष्यामि भारत।
दद्याद् राजन् न याचेत यजेत न च याजयेत्॥१३॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! क्षत्रियका भी जो धर्म है, वह तुम्हें बता रहा हूँ। राजन्! क्षत्रिय दान तो करे, किंतु किसीसे याचना न करे; स्वयं यज्ञ करे, किंतु पुरोहित बनकर दूसरोंका यज्ञ न करावे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाध्यापयेदधीयीत प्रजाश्च परिपालयेत् ।
नित्योद्युक्तो दस्युवधे रणे कुर्यात् पराक्रमम् ॥ १४ ॥
मूलम्
नाध्यापयेदधीयीत प्रजाश्च परिपालयेत् ।
नित्योद्युक्तो दस्युवधे रणे कुर्यात् पराक्रमम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अध्ययन करे, किंतु अध्यापक न बने, प्रजाजनोंका सब प्रकारसे पालन करता रहे। लुटेरों और डाकुओंका वध करनेके लिये सदा तैयार रहे। रणभूमिमें पराक्रम प्रकट करे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये तु क्रतुभिरीजानाः श्रुतवन्तश्च भूमिपाः।
य एवाहवजेतारस्त एषां लोकजित्तमाः ॥ १५ ॥
मूलम्
ये तु क्रतुभिरीजानाः श्रुतवन्तश्च भूमिपाः।
य एवाहवजेतारस्त एषां लोकजित्तमाः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन राजाओंमें जो भूपाल बड़े-बड़े यज्ञ करनेवाले तथा वेदशास्त्रोंके ज्ञानसे सम्पन्न हैं और जो युद्धमें विजय प्राप्त करनेवाले हैं, वे ही पुण्यलोकोंपर विजय प्राप्त करनेवालोंमें उत्तम हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविक्षतेन देहेन समराद् यो निवर्तते।
क्षत्रियो नास्य तत् कर्म प्रशंसन्ति पुराविदः ॥ १६ ॥
मूलम्
अविक्षतेन देहेन समराद् यो निवर्तते।
क्षत्रियो नास्य तत् कर्म प्रशंसन्ति पुराविदः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो क्षत्रिय शरीरपर घाव हुए बिना ही समर-भूमिसे लौट आता है, उसके इस कर्मकी पुरातन धर्मको जाननेवाले विद्वान् प्रशंसा नहीं करते हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं हि क्षत्रबन्धूनां मार्गमाहुः प्रधानतः।
नास्य कृत्यतमं किंचिदन्यद् दस्युनिबर्हणात् ॥ १७ ॥
दानमध्ययनं यज्ञो राज्ञां क्षेमो विधीयते।
तस्माद् राज्ञा विशेषेण योद्धव्यं धर्ममीप्सता ॥ १८ ॥
मूलम्
एवं हि क्षत्रबन्धूनां मार्गमाहुः प्रधानतः।
नास्य कृत्यतमं किंचिदन्यद् दस्युनिबर्हणात् ॥ १७ ॥
दानमध्ययनं यज्ञो राज्ञां क्षेमो विधीयते।
तस्माद् राज्ञा विशेषेण योद्धव्यं धर्ममीप्सता ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार युद्धको ही क्षत्रियोंके लिये प्रधान मार्ग बताया गया है, उसके लिये लुटेरोंके संहारसे बढ़कर दूसरा कोई श्रेष्ठतम कर्म नहीं है। यद्यपि दान, अध्ययन और यज्ञ—इनके अनुष्ठानसे भी राजाओंका कल्याण होता है, तथापि युद्ध उनके लिये सबसे बढ़कर है; अतः विशेषरूपसे धर्मकी इच्छा रखनेवाले राजाको सदा ही युद्धके लिये उद्यत रहना चाहिये॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वेषु धर्मेष्ववस्थाप्य प्रजाः सर्वा महीपतिः।
धर्मेण सर्वकृत्यानि शमनिष्ठानि कारयेत् ॥ १९ ॥
मूलम्
स्वेषु धर्मेष्ववस्थाप्य प्रजाः सर्वा महीपतिः।
धर्मेण सर्वकृत्यानि शमनिष्ठानि कारयेत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा समस्त प्रजाओंको अपने-अपने धर्मोंमें स्थापित करके उनके द्वारा शान्तिपूर्ण समस्त कर्मोंका धर्मके अनुसार अनुष्ठान करावे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिनिष्ठितकार्यस्तु नृपतिः परिपालनात् ।
कुर्यादन्यन्न वा कुर्यादैन्द्रो राजन्य उच्यते ॥ २० ॥
मूलम्
परिनिष्ठितकार्यस्तु नृपतिः परिपालनात् ।
कुर्यादन्यन्न वा कुर्यादैन्द्रो राजन्य उच्यते ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा दूसरा कर्म करे या न करे, प्रजाकी रक्षा करने-मात्रसे वह कृतकृत्य हो जाता है। उसमें इन्द्र देवता-सम्बन्धी बलकी प्रधानता होनेसे राजा ‘ऐन्द्र’ कहलाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैश्यस्यापि हि यो धर्मस्तं ते वक्ष्यामि शाश्वतम्।
दानमध्ययनं यज्ञः शौचेन धनसंचयः ॥ २१ ॥
मूलम्
वैश्यस्यापि हि यो धर्मस्तं ते वक्ष्यामि शाश्वतम्।
दानमध्ययनं यज्ञः शौचेन धनसंचयः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब वैश्यका जो सनातन धर्म है, वह तुम्हें बता रहा हूँ। दान, अध्ययन, यज्ञ और पवित्रतापूर्वक धनका संग्रह ये वैश्यके कर्म हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितृवत् पालयेद् वैश्यो युक्तः सर्वान् पशूनिह।
विकर्म तद् भवेदन्यत् कर्म यत् स समाचरेत् ॥ २२ ॥
मूलम्
पितृवत् पालयेद् वैश्यो युक्तः सर्वान् पशूनिह।
विकर्म तद् भवेदन्यत् कर्म यत् स समाचरेत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैश्य सदा उद्योगशील रहकर पुत्रोंकी रक्षा करनेवाले पिताके समान सब प्रकारके पशुओंका पालन करे। इन कर्मोंके सिवा वह और जो कुछ भी करेगा, वह उसके लिये विपरीत कर्म होगा॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्षया स हि तेषां वै महत् सुखमवाप्नुयात्।
प्रजापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददौ पशून् ॥ २३ ॥
मूलम्
रक्षया स हि तेषां वै महत् सुखमवाप्नुयात्।
प्रजापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददौ पशून् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पशुओंके पालनसे वैश्यको महान् सुखकी प्राप्ति हो सकती है। प्रजापतिने पशुओंकी सृष्टि करके उनके पालनका भार वैश्यको सौंप दिया था॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणाय च राज्ञे च सर्वाः परिददे प्रजाः।
तस्य वृत्तिं प्रवक्ष्यामि यच्च तस्योपजीवनम् ॥ २४ ॥
मूलम्
ब्राह्मणाय च राज्ञे च सर्वाः परिददे प्रजाः।
तस्य वृत्तिं प्रवक्ष्यामि यच्च तस्योपजीवनम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण और राजाको उन्होंने सारी प्रजाके पोषणका भार सौंपा था। अब मैं वैश्यकी उस वृत्तिका वर्णन करूँगा, जिससे उसका जीवन-निर्वाह हो॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षण्णामेकां पिबेद् धेनुं शताच्च मिथुनं हरेत्।
लब्धाच्च सप्तमं भागं तथा शृङ्गे कलां खुरे ॥ २५ ॥
मूलम्
षण्णामेकां पिबेद् धेनुं शताच्च मिथुनं हरेत्।
लब्धाच्च सप्तमं भागं तथा शृङ्गे कलां खुरे ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैश्य यदि राजा या किसी दूसरेकी छः दुधारू गौओंका एक वर्षतक पालन करे तो उनमेंसे एक गौका दूध वह स्वयं पीये (यही उसके लिये वेतन है)। यदि दूसरेकी एक सौ गौओंका वह पालन करे तो सालभरमें एक गाय और एक बैल मालिकसे वेतनके रूपमें ले ले। यदि उन पशुओंके दूध आदि बेचनेसे धन प्राप्त हो तो उसमें सातवाँ भाग वह अपने वेतनके रूपमें ग्रहण करे। सींग बेचनेसे जो धन मिले, उसमेंसे भी वह सातवाँ भाग ही ले; परंतु पशुविशेषका बहुमूल्य खुर बेचनेसे जो धन प्राप्त हो, उसका सोलहवाँ भाग ही उसे ग्रहण करना चाहिये॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सस्यानां सर्वबीजानामेषा सांवत्सरी भृतिः।
न च वैश्यस्य कामः स्यान्न रक्षेयं पशूनिति ॥ २६ ॥
मूलम्
सस्यानां सर्वबीजानामेषा सांवत्सरी भृतिः।
न च वैश्यस्य कामः स्यान्न रक्षेयं पशूनिति ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरेके अनाजकी फसलों तथा सब प्रकारके बीजोंकी रक्षा करनेपर वैश्यको उपजका सातवाँ भाग वेतनके रूपमें ग्रहण करना चाहिये। यह उसके लिये वार्षिक वेतन है। वैश्यके मनमें कभी यह संकल्प नहीं उठना चाहिये कि ‘मैं पशुओंका पालन नहीं करूँगा’॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैश्ये चेच्छति नान्येन रक्षितव्याः कथंचन।
शूद्रस्यापि हि यो धर्मस्तं ते वक्ष्यामि भारत ॥ २७ ॥
मूलम्
वैश्ये चेच्छति नान्येन रक्षितव्याः कथंचन।
शूद्रस्यापि हि यो धर्मस्तं ते वक्ष्यामि भारत ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जबतक वैश्य पशुपालनका कार्य करना चाहे, तबतक मालिकको दूसरे किसीके द्वारा किसी तरह भी वह कार्य नहीं कराना चाहिये, भारत! अब मैं शूद्रका भी धर्म तुम्हें बता रहा हूँ॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजापतिर्हि वर्णानां दासं शूद्रमकल्पयत्।
तस्माच्छ्रूद्रस्य वर्णानां परिचर्या विधीयते ॥ २८ ॥
मूलम्
प्रजापतिर्हि वर्णानां दासं शूद्रमकल्पयत्।
तस्माच्छ्रूद्रस्य वर्णानां परिचर्या विधीयते ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजापतिने अन्य तीनों वर्णोंके सेवकके रूपमें शूद्रकी सृष्टि की है; अतः शूद्रके लिये तीनों वर्णोंकी सेवा ही शास्त्र-विहित कर्म है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां शुश्रूषणाच्चैव महत् सुखमवाप्नुयात्।
शूद्र एतान् परिचरेत् त्रीन् वर्णाननुपूर्वशः ॥ २९ ॥
मूलम्
तेषां शुश्रूषणाच्चैव महत् सुखमवाप्नुयात्।
शूद्र एतान् परिचरेत् त्रीन् वर्णाननुपूर्वशः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह उन तीनों वर्णोंकी सेवासे ही महान् सुखका भागी हो सकता है। अतः शूद्र इन तीनों वर्णोंकी क्रमशः सेवा करे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संचयांश्च न कुर्वीत जातु शूद्रः कथंचन।
पापीयान् हि धनं लब्ध्वा वशे कुर्याद् गरीयसः ॥ ३० ॥
मूलम्
संचयांश्च न कुर्वीत जातु शूद्रः कथंचन।
पापीयान् हि धनं लब्ध्वा वशे कुर्याद् गरीयसः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूद्रको कभी किसी प्रकार भी धनका संग्रह नहीं करना चाहिये; क्योंकि धन पाकर वह महान् पापमें प्रवृत्त हो जाता है और अपनेसे श्रेष्ठतम पुरुषोंको भी अपने अधीन रखने लगता है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञा वा समनुज्ञातः कामं कुर्वीत धार्मिकः।
तस्य वृत्तिं प्रवक्ष्यामि यच्च तस्योपजीवनम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
राज्ञा वा समनुज्ञातः कामं कुर्वीत धार्मिकः।
तस्य वृत्तिं प्रवक्ष्यामि यच्च तस्योपजीवनम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मात्मा शूद्र राजाकी आज्ञा लेकर अपनी इच्छाके अनुसार कोई धार्मिक कृत्य कर सकता है। अब मैं उसकी वृत्तिका वर्णन करूँगा, जिससे उसकी आजीविका चल सकती है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवश्यं भरणीयो हि वर्णानां शूद्र उच्यते।
छत्रं वेष्टनमौशीरमुपानद् व्यजनानि च ॥ ३२ ॥
यातयामानि देयानि शूद्राय परिचारिणे।
मूलम्
अवश्यं भरणीयो हि वर्णानां शूद्र उच्यते।
छत्रं वेष्टनमौशीरमुपानद् व्यजनानि च ॥ ३२ ॥
यातयामानि देयानि शूद्राय परिचारिणे।
अनुवाद (हिन्दी)
तीनों वर्णोंको शूद्रका भरण-पोषण अवश्य करना चाहिये; क्योंकि वह भरण-पोषण करने योग्य कहा गया है। अपनी सेवामें रहनेवाले शूद्रको उपभोगमें लाये हुए छाते, पगड़ी, अनुलेपन, जूते और पंखे देने चाहिये॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधार्याणि विशीर्णानि वसनानि द्विजातिभिः ॥ ३३ ॥
शूद्रायैव प्रदेयानि तस्य धर्मधनं हि तत्।
मूलम्
अधार्याणि विशीर्णानि वसनानि द्विजातिभिः ॥ ३३ ॥
शूद्रायैव प्रदेयानि तस्य धर्मधनं हि तत्।
अनुवाद (हिन्दी)
फटे-पुराने कपड़े, जो अपने धारण करने योग्य न रहें, वे द्विजातियोंद्वारा शूद्रको ही दे देने योग्य हैं; क्योंकि धर्मतः वे सब वस्तुएँ शूद्रकी ही सम्पत्ति हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं च कञ्चिद् द्विजातीनां शूद्रः शुश्रूषुराव्रजेत् ॥ ३४ ॥
कल्प्यां तेन तु ते प्राहुर्वृत्तिं धर्मविदो जनाः।
मूलम्
यं च कञ्चिद् द्विजातीनां शूद्रः शुश्रूषुराव्रजेत् ॥ ३४ ॥
कल्प्यां तेन तु ते प्राहुर्वृत्तिं धर्मविदो जनाः।
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजातियोंमेंसे जिस किसीकी सेवा करनेके लिये कोई शूद्र आवे, उसीको उसकी जीविकाकी व्यवस्था करनी चाहिये; ऐसा धर्मज्ञ पुरुषोंका कथन है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देयः पिण्डोऽनपत्याय भर्तव्यौ वृद्धदुर्बलौ ॥ ३५ ॥
शूद्रेण तु न हातव्यो भर्ता कस्याञ्चिदापदि।
अतिरेकेण भर्तव्यो भर्ता द्रव्यपरिक्षये ॥ ३६ ॥
मूलम्
देयः पिण्डोऽनपत्याय भर्तव्यौ वृद्धदुर्बलौ ॥ ३५ ॥
शूद्रेण तु न हातव्यो भर्ता कस्याञ्चिदापदि।
अतिरेकेण भर्तव्यो भर्ता द्रव्यपरिक्षये ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि स्वामी संतानहीन हो तो सेवा करनेवाले शूद्रको ही उसके लिये पिण्डदान करना चाहिये। यदि स्वामी बूढ़ा या दुर्बल हो तो उसका सब प्रकारसे भरण-पोषण करना चाहिये। किसी आपत्तिमें भी शूद्रको अपने स्वामीका परित्याग नहीं करना चाहिये। यदि स्वामीके धनका नाश हो जाय तो शूद्रको अपने कुटुम्बके पालनसे बचे हुए धनके द्वारा उसका भरण-पोषण करना चाहिये॥३५-३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि स्वमस्ति शूद्रस्य भर्तृहार्यधनो हि सः।
उक्तस्त्रयाणां वर्णानां यज्ञस्तस्य च भारत।
स्वाहाकारवषट्कारौ मन्त्रः शूद्रे न विद्यते ॥ ३७ ॥
मूलम्
न हि स्वमस्ति शूद्रस्य भर्तृहार्यधनो हि सः।
उक्तस्त्रयाणां वर्णानां यज्ञस्तस्य च भारत।
स्वाहाकारवषट्कारौ मन्त्रः शूद्रे न विद्यते ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूद्रका अपना कोई धन नहीं होता। उसके सारे धनपर उसके स्वामीका ही अधिकार होता है। भरतनन्दन! यज्ञका अनुष्ठान तीनों वर्णों तथा शूद्रके लिये भी आवश्यक बताया गया है। शूद्रके यज्ञमें स्वाहाकार, वषट्कार तथा वैदिक मन्त्रोंका प्रयोग नहीं होता है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माच्छूद्रः पाकयज्ञैर्यजेताव्रतवान् स्वयम् ।
पूर्णपात्रमयीमाहुः पाकयज्ञस्य दक्षिणाम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
तस्माच्छूद्रः पाकयज्ञैर्यजेताव्रतवान् स्वयम् ।
पूर्णपात्रमयीमाहुः पाकयज्ञस्य दक्षिणाम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः शूद्र स्वयं वैदिक व्रतोंकी दीक्षा न लेकर पाकयज्ञों (बलिवैश्वदेव आदि) द्वारा यजन करे। पाकयज्ञकी दक्षिणा पूर्णपात्रमयी1 बतायी गयी है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्रः पैजवनो नाम सहस्राणां शतं ददौ।
ऐन्द्राग्नेन विधानेन दक्षिणामिति नः श्रुतम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
शूद्रः पैजवनो नाम सहस्राणां शतं ददौ।
ऐन्द्राग्नेन विधानेन दक्षिणामिति नः श्रुतम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमने सुना है कि पैजवन नामक शूद्रने ऐन्द्राग्न यज्ञकी विधिसे मन्त्रहीन यज्ञका अनुष्ठान करके उसकी दक्षिणाके रूपमें एक लाख पूर्णपात्र दान किये थे॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतो हि सर्ववर्णानां यज्ञस्तस्यैव भारत।
अग्रे सर्वेषु यज्ञेषु श्रद्धायज्ञो विधीयते ॥ ४० ॥
मूलम्
यतो हि सर्ववर्णानां यज्ञस्तस्यैव भारत।
अग्रे सर्वेषु यज्ञेषु श्रद्धायज्ञो विधीयते ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! ब्राह्मण आदि तीनों वर्णोंका जो यज्ञ है वह सब सेवाकार्य करनेके कारण शूद्रका भी है ही (उसे भी उसका फल मिलता ही है; अतः उसे पृथक् यज्ञ करनेकी आवश्यकता नहीं है)। सम्पूर्ण यज्ञोंमें पहले श्रद्धारूप यज्ञका ही विधान है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दैवतं हि महच्छ्रद्धा पवित्रं यजतां च यत्।
दैवतं हि परं विप्राः स्वेन स्वेन परस्परम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
दैवतं हि महच्छ्रद्धा पवित्रं यजतां च यत्।
दैवतं हि परं विप्राः स्वेन स्वेन परस्परम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि श्रद्धा सबसे बड़ा देवता है। वही यज्ञ करने-वालोंको पवित्र करती है। ब्राह्मण साक्षात् यज्ञ करानेके कारण परम देवता माने गये हैं। सभी वर्णोंके लोग अपने-अपने कर्मद्वारा एक-दूसरेके यज्ञोंमें सहायक होते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयजन्निह सत्रैस्ते तैस्तैः कामैः समाहिताः।
संसृष्टा ब्राह्मणैरेव त्रिषु वर्णेषु सृष्टयः ॥ ४२ ॥
मूलम्
अयजन्निह सत्रैस्ते तैस्तैः कामैः समाहिताः।
संसृष्टा ब्राह्मणैरेव त्रिषु वर्णेषु सृष्टयः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी वर्णके लोगोंने यहाँ यज्ञोंका अनुष्ठान किया है और उनके द्वारा वे मनोवाञ्छित फलोंसे सम्पन्न हुए हैं। ब्राह्मणोंने ही तीनों वर्णोंकी संतानोंकी सृष्टि की है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवानामपि ये देवा यद् ब्रूयुस्ते परं हितम्।
तस्माद् वर्णैः सर्वयज्ञाः संसृज्यन्ते न काम्यया ॥ ४३ ॥
मूलम्
देवानामपि ये देवा यद् ब्रूयुस्ते परं हितम्।
तस्माद् वर्णैः सर्वयज्ञाः संसृज्यन्ते न काम्यया ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो देवताओंके भी देवता हैं, वे ब्राह्मण जो कुछ कहें, वही सबके लिये परम हितकारक है; अतः अन्य वर्णोंके लोग ब्राह्मणोंके बताये अनुसार ही सब यज्ञोंका अनुष्ठान करें, अपनी इच्छासे न करें॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋग्यजुःसामवित् पूज्यो नित्यं स्याद् देववद् द्विजः।
अनृग्यजुरसामा च प्राजापत्य उपद्रवः।
यज्ञो मनीषया तात सर्ववर्णेषु भारत ॥ ४४ ॥
मूलम्
ऋग्यजुःसामवित् पूज्यो नित्यं स्याद् देववद् द्विजः।
अनृग्यजुरसामा च प्राजापत्य उपद्रवः।
यज्ञो मनीषया तात सर्ववर्णेषु भारत ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋक्, साम और यजुर्वेदका ज्ञाता ब्राह्मण सदा देवताके समान पूजनीय है। दास या शूद्र ऋक्, यजु और सामके ज्ञानसे शून्य होता है; तो भी वह ‘प्राजापत्य’ (प्रजापतिका भक्त) कहा गया है। तात! भरतनन्दन! मानसिक संकल्पद्वारा जो भावनात्मक यज्ञ होता है, उसमें सभी वर्णोंका अधिकार है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्य यज्ञकृतो देवा ईहन्ते नेतरे जनाः।
ततः सर्वेषु वर्णेषु श्रद्धायज्ञो विधीयते ॥ ४५ ॥
मूलम्
नास्य यज्ञकृतो देवा ईहन्ते नेतरे जनाः।
ततः सर्वेषु वर्णेषु श्रद्धायज्ञो विधीयते ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस मानसिक यज्ञ करनेवाले यजमानके यज्ञमें देवता और मनुष्य सभी भाग ग्रहण करनेकी अभिलाषा रखते हैं; क्योंकि उसका यज्ञ श्रद्धाके कारण परम पवित्र होता है; अतः श्रद्धाप्रधान यज्ञ करनेका अधिकार सभी वर्णोंको प्राप्त है॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वं दैवतं ब्राह्मणः स्वेन नित्यं
परान् वर्णानयजन्नैवमासीत् ।
अधरो वितानः संसृष्टो वैश्यो
ब्राह्मणस्त्रिषु वर्णेषु यज्ञसृष्टः ॥ ४६ ॥
मूलम्
स्वं दैवतं ब्राह्मणः स्वेन नित्यं
परान् वर्णानयजन्नैवमासीत् ।
अधरो वितानः संसृष्टो वैश्यो
ब्राह्मणस्त्रिषु वर्णेषु यज्ञसृष्टः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण अपने कर्मोंद्वारा ही सदा दूसरे वर्णोंके लिये अपने-अपने देवताके समान है; अतः वह दूसरे वर्णोंका यज्ञ न करता हो, ऐसी बात नहीं है। जिस यज्ञमें वैश्य आचार्य आदिके रूपमें कार्य कर रहा हो, वह निकृष्ट माना गया है। विधाताने केवल ब्राह्मणको ही तीनों वर्णोंका यज्ञ करानेके लिये उत्पन्न किया है॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् वर्णा ऋजवो ज्ञातिवर्णाः
संसृज्यन्ते तस्य विकार एव।
एकं साम यजुरेकमृगेका
विप्रश्चैको निश्चये तेषु सृष्टः ॥ ४७ ॥
मूलम्
तस्माद् वर्णा ऋजवो ज्ञातिवर्णाः
संसृज्यन्ते तस्य विकार एव।
एकं साम यजुरेकमृगेका
विप्रश्चैको निश्चये तेषु सृष्टः ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विधाता एकमात्र ब्राह्मणसे ही अन्य तीन वर्णोंकी सृष्टि करते हैं, अतः शेष तीन वर्ण भी ब्राह्मणके समान ही सरल तथा उनके जाति-भाई या कुटुम्बी हैं। क्षत्रिय आदि तीनों वर्ण ब्राह्मणकी संतान ही हैं। जैसे ऋक्, यजुः और साम एकमात्र अकारसे ही प्रकट होनेके कारण परस्पर अभिन्न हैं, उसी प्रकार उन सभी वर्णोंमें तत्त्वका निश्चय किया जाय तो एकमात्र ब्राह्मण ही उन सबके रूपमें प्रकट हुआ है, अतः ब्राह्मणके साथ सबकी अभिन्नता है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र गाथा यज्ञगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।
वैखानसानां राजेन्द्र मुनीनां यष्टुमिच्छताम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
अत्र गाथा यज्ञगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।
वैखानसानां राजेन्द्र मुनीनां यष्टुमिच्छताम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! प्राचीन बातोंको जाननेवाले विद्वान् इस विषयमें यज्ञकी अभिलाषा रखनेवाले वैखानस मुनियोंकी कही हुई एक गाथाका उल्लेख किया करते हैं, जो यज्ञके सम्बन्धमें गायी गयी है॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदितेऽनुदिते वापि श्रद्दधानो जितेन्द्रियः।
वह्निं जुहोति धर्मेण श्रद्धा वै कारणं महत् ॥ ४९ ॥
मूलम्
उदितेऽनुदिते वापि श्रद्दधानो जितेन्द्रियः।
वह्निं जुहोति धर्मेण श्रद्धा वै कारणं महत् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सूर्यके उदय होनेपर अथवा सूर्योदयसे पहले ही श्रद्धालु एवं जितेन्द्रिय मनुष्य जो धर्मके अनुसार अग्निमें आहुति देता है, उसमें श्रद्धा ही प्रधान हेतु है॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् स्कन्नमस्य तत् पूर्वं यदस्कन्नं तदुत्तरम्।
बहूनि यज्ञरूपाणि नानाकर्मफलानि च ॥ ५० ॥
मूलम्
यत् स्कन्नमस्य तत् पूर्वं यदस्कन्नं तदुत्तरम्।
बहूनि यज्ञरूपाणि नानाकर्मफलानि च ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(बह्वृच ब्राह्मणमें सोलह प्रकारके अग्निहोत्र बताये गये हैं) होताका किया हुआ जो हवन वायुदेवताके उद्देश्यसे होता है, वह स्कन्नसंज्ञक होम प्रथम है और उससे भिन्न जो स्कन्नसंज्ञक होम है, वह अन्तिम या सबसे उत्कृष्ट है। इसी प्रकार रौद्र आदि बहुत-से यज्ञ हैं, जो नाना प्रकारके कर्मफल देनेवाले हैं॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानि यः सम्प्रजानाति ज्ञाननिश्चयनिश्चितः।
द्विजातिः श्रद्धयोपेतः स यष्टुं पुरुषोऽर्हति ॥ ५१ ॥
मूलम्
तानि यः सम्प्रजानाति ज्ञाननिश्चयनिश्चितः।
द्विजातिः श्रद्धयोपेतः स यष्टुं पुरुषोऽर्हति ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन षोडश प्रकारके अग्निहोत्रोंको जो जानता है, वही यज्ञ-सम्बन्धी निश्चयात्मक ज्ञानसे सम्पन्न है। ऐसा ज्ञानी एवं श्रद्धालु द्विज ही यज्ञ करनेका अधिकारी है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तेनो वा यदि वा पापो यदि वा पापकृत्तमः।
यष्टुमिच्छति यज्ञं यः साधुमेव वदन्ति तम् ॥ ५२ ॥
मूलम्
स्तेनो वा यदि वा पापो यदि वा पापकृत्तमः।
यष्टुमिच्छति यज्ञं यः साधुमेव वदन्ति तम् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कोई चोर हो, पापी हो अथवा पापाचारियोंमें भी सबसे महान् हो तो भी जो यज्ञ करना चाहता है, उसे सभी लोग ‘साधु’ ही कहते हैं॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषयस्तं प्रशंसन्ति साधु चैतदसंशयम्।
सर्वथा सर्वदा वर्णैर्यष्टव्यमिति निर्णयः ॥ ५३ ॥
मूलम्
ऋषयस्तं प्रशंसन्ति साधु चैतदसंशयम्।
सर्वथा सर्वदा वर्णैर्यष्टव्यमिति निर्णयः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषि भी उसकी प्रशंसा करते हैं। यह यज्ञ-कर्म श्रेष्ठ है, इसमें कोई संदेह नहीं है; अतः सभी वर्णके लोगोंको सदा सब प्रकारसे यज्ञ करना चाहिये, यही शास्त्रोंका निर्णय है॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि यज्ञसमं किञ्चित् त्रिषु लोकेषु विद्यते।
तस्माद् यष्टव्यमित्याहुः पुरुषेणानसूयता ।
श्रद्धापवित्रमाश्रित्य यथाशक्ति यथेच्छया ॥ ५४ ॥
मूलम्
न हि यज्ञसमं किञ्चित् त्रिषु लोकेषु विद्यते।
तस्माद् यष्टव्यमित्याहुः पुरुषेणानसूयता ।
श्रद्धापवित्रमाश्रित्य यथाशक्ति यथेच्छया ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तीनों लोकोंमें यज्ञके समान कुछ भी नहीं है; इसलिये मनुष्यको दोषदृष्टिका परित्याग करके शास्त्रीय विधिका आश्रय ले अपनी शक्ति और इच्छाके अनुसार उत्तम श्रद्धापूर्वक यज्ञका अनुष्ठान करना चाहिये, ऐसा मनीषी पुरुषोंका कथन है॥५४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि वर्णाश्रमधर्मकथने षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें वर्णाश्रमधर्मका वर्णनविषयक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥६०॥
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पूर्णपात्रका परिमाण इस प्रकार है—आठ मुठ्ठी अन्नको ‘किंचित्’ कहते हैं, आठ किंचित्का एक ‘पुष्कल’ होता है और चार पुष्कलका एक ‘पूर्णपात्र’ होता है। इस प्रकार दे सौ छप्पन मुट्ठीका एक पूर्णपात्र होता है। ↩︎