भागसूचना
एकोनषष्टितमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्रह्माजीके नीतिशास्त्रका तथा राजा पृथुके चरित्रका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कल्यं समुत्थाय कृतपूर्वाह्णिकक्रियाः।
ययुस्ते नगराकारै रथैः पाण्डवयादवाः ॥ १ ॥
मूलम्
ततः कल्यं समुत्थाय कृतपूर्वाह्णिकक्रियाः।
ययुस्ते नगराकारै रथैः पाण्डवयादवाः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर दूसरे दिन सबेरे उठकर पाण्डव और यदुवंशी वीर पूर्वाह्णकालके नित्यकर्म पूर्ण करनेके अनन्तर नगराकार विशाल रथोंपर सवार हो हस्तिनापुरसे चल दिये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिपद्य कुरुक्षेत्रं भीष्ममासाद्य चानघ।
सुखां च रजनीं पृष्ट्वा गाङ्गेयं रथिनां वरम् ॥ २ ॥
व्यासादीनभिवाद्यर्षीन् सर्वैस्तैश्चाभिनन्दिताः ।
निषेदुरभितो भीष्मं परिवार्य समन्ततः ॥ ३ ॥
मूलम्
प्रतिपद्य कुरुक्षेत्रं भीष्ममासाद्य चानघ।
सुखां च रजनीं पृष्ट्वा गाङ्गेयं रथिनां वरम् ॥ २ ॥
व्यासादीनभिवाद्यर्षीन् सर्वैस्तैश्चाभिनन्दिताः ।
निषेदुरभितो भीष्मं परिवार्य समन्ततः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप नरेश! कुरुक्षेत्रमें जा रथियोंमें श्रेष्ठ गङ्गा-नन्दन भीष्मजीके पास पहुँचकर उनसे सुखपूर्वक रात बीतनेका समाचार पूछकर व्यास आदि महर्षियोंको प्रणाम करके उन सबके द्वारा अभिनन्दित हो वे पाण्डव और श्रीकृष्ण भीष्मजीको सब ओरसे घेरकर उनके पास ही बैठ गये॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो राजा महातेजा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
अब्रवीत् प्राञ्जलिर्भीष्मं प्रतिपूज्य यथाविधि ॥ ४ ॥
मूलम्
ततो राजा महातेजा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
अब्रवीत् प्राञ्जलिर्भीष्मं प्रतिपूज्य यथाविधि ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब महातेजस्वी राजा धर्मराज युधिष्ठिरने भीष्मजीका विधिपूर्वक पूजन करके उनसे दोनों हाथ जोड़कर कहा॥४॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एष राजन् राजेति शब्दश्चरति भारत।
कथमेष समुत्पन्नस्तन्मे ब्रूहि परंतप ॥ ५ ॥
मूलम्
य एष राजन् राजेति शब्दश्चरति भारत।
कथमेष समुत्पन्नस्तन्मे ब्रूहि परंतप ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— शत्रुओंको संताप देनेवाले भरत-वंशी नरेश! लोकमें जो यह राजा शब्द चल रहा है, इसकी उत्पत्ति कैसे हुई है? यह मुझे बतानेकी कृपा करें॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुल्यपाणिभुजग्रीवस्तुल्यबुद्धीन्द्रियात्मकः ।
तुल्यदुःखसुखात्मा च तुल्यपृष्ठमुखोदरः ॥ ६ ॥
तुल्यशुक्रास्थिमज्जा च तुल्यमांसासृगेव च।
निःश्वासोच्छ्वासतुल्यश्चतुल्यप्राणशरीरवान् ॥ ७ ॥
समानजन्ममरणः समः सर्वैर्गुणैर्नृणाम् ।
विशिष्टबुद्धीन् शूरांश्च कथमेकोऽधितिष्ठति ॥ ८ ॥
मूलम्
तुल्यपाणिभुजग्रीवस्तुल्यबुद्धीन्द्रियात्मकः ।
तुल्यदुःखसुखात्मा च तुल्यपृष्ठमुखोदरः ॥ ६ ॥
तुल्यशुक्रास्थिमज्जा च तुल्यमांसासृगेव च।
निःश्वासोच्छ्वासतुल्यश्चतुल्यप्राणशरीरवान् ॥ ७ ॥
समानजन्ममरणः समः सर्वैर्गुणैर्नृणाम् ।
विशिष्टबुद्धीन् शूरांश्च कथमेकोऽधितिष्ठति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसे हम राजा कहते हैं, वह सभी गुणोंमें दूसरोंके समान ही है। उसके हाथ, बाँह और गर्दन भी औरोंकी ही भाँति हैं। बुद्धि और इन्द्रियाँ भी दूसरे लोगोंके ही तुल्य हैं। उसके मनमें भी दूसरे मनुष्योंके समान ही सुख-दुःखका अनुभव होता है। मुँह, पेट, पीठ, वीर्य, हड्डी, मज्जा, मांस, रक्त, उच्छ्वास, निःश्वास, प्राण, शरीर, जन्म और मरण आदि सभी बातें राजामें भी दूसरोंके समान ही हैं। फिर वह विशिष्ट बुद्धि रखनेवाले अनेक शूरवीरोंपर अकेला ही कैसे अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेता है?॥६—८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथमेको महीं कृत्स्नां शूरवीरार्यसंकुलाम्।
रक्षत्यपि च लोकस्य प्रसादमभिवाञ्छति ॥ ९ ॥
मूलम्
कथमेको महीं कृत्स्नां शूरवीरार्यसंकुलाम्।
रक्षत्यपि च लोकस्य प्रसादमभिवाञ्छति ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अकेला होनेपर भी वह शूरवीर एवं सत्पुरुषोंसे भरी हुई इस सारी पृथ्वीका कैसे पालन करता है और कैसे सम्पूर्ण जगत्की प्रसन्नता चाहता है?॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकस्य तु प्रसादेन कृत्स्नो लोकः प्रसीदति।
व्याकुले चाकुलः सर्वो भवतीति विनिश्चयः ॥ १० ॥
मूलम्
एकस्य तु प्रसादेन कृत्स्नो लोकः प्रसीदति।
व्याकुले चाकुलः सर्वो भवतीति विनिश्चयः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह निश्चित रूपसे देखा जाता है कि एकमात्र राजाकी प्रसन्नतासे ही सारा जगत् प्रसन्न होता है और उस एकके ही व्याकुल होनेपर सब लोग व्याकुल हो जाते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं तत्त्वेन भरतर्षभ।
कृत्स्नं तन्मे यथातत्त्वं प्रब्रूहि वदतां वर ॥ ११ ॥
मूलम्
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं तत्त्वेन भरतर्षभ।
कृत्स्नं तन्मे यथातत्त्वं प्रब्रूहि वदतां वर ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! इसका क्या कारण है? यह मैं यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ। वक्ताओंमें श्रेष्ठ पितामह! यह सारा रहस्य मुझे यथावत् रूपसे बताइये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतत् कारणमल्पं हि भविष्यति विशाम्पते।
यदेकस्मिन् जगत् सर्वं देववद् याति संनतिम् ॥ १२ ॥
मूलम्
नैतत् कारणमल्पं हि भविष्यति विशाम्पते।
यदेकस्मिन् जगत् सर्वं देववद् याति संनतिम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! यह सारा जगत् जो एक ही व्यक्तिको देवताके समान मानकर उसके सामने नतमस्तक हो जाता है, इसका कोई स्वल्प कारण नहीं हो सकता॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नियतस्त्वं नरव्याघ्र शृणु सर्वमशेषतः।
यथा राज्यं समुत्पन्नमादौ कृतयुगेऽभवत् ॥ १३ ॥
मूलम्
नियतस्त्वं नरव्याघ्र शृणु सर्वमशेषतः।
यथा राज्यं समुत्पन्नमादौ कृतयुगेऽभवत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— पुरुषसिंह! आदि सत्ययुगमें जिस प्रकार राजा और राज्यकी उत्पत्ति हुई, वह सारा वृत्तान्त तुम एकाग्र होकर सुनो॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वै राज्यं न राजाऽऽसीन्न च दण्डो न दाण्डिकः।
धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम् ॥ १४ ॥
मूलम्
न वै राज्यं न राजाऽऽसीन्न च दण्डो न दाण्डिकः।
धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले न कोई राज्य था, न राजा, न दण्ड था और न दण्ड देनेवाला, समस्त प्रजा धर्मके द्वारा ही एक-दूसरेकी रक्षा करती थी॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाल्यमानास्तथान्योन्यं नरा धर्मेण भारत।
खेदं परमुपाजग्मुस्ततस्तान् मोह आविशत् ॥ १५ ॥
मूलम्
पाल्यमानास्तथान्योन्यं नरा धर्मेण भारत।
खेदं परमुपाजग्मुस्ततस्तान् मोह आविशत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! सब मनुष्य धर्मके द्वारा परस्पर पालित और पोषित होते थे। कुछ दिनोंके बाद सब लोग पारस्परिक संरक्षणके कार्यमें महान् कष्टका अनुभव करने लगे; फिर उन सबपर मोह छा गया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते मोहवशमापन्ना मनुजा मनुजर्षभ।
प्रतिपत्तिविमोहाच्च धर्मस्तेषामनीनशत् ॥ १६ ॥
मूलम्
ते मोहवशमापन्ना मनुजा मनुजर्षभ।
प्रतिपत्तिविमोहाच्च धर्मस्तेषामनीनशत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! जब सारे मनुष्य मोहके वशीभूत हो गये, तब कर्तव्याकर्तव्यके ज्ञानसे शून्य होनेके कारण उनके धर्मका नाश हो गया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नष्टायां प्रतिपत्तौ च मोहवश्या नरास्तदा।
लोभस्य वशमापन्नाः सर्वे भरतसत्तम ॥ १७ ॥
मूलम्
नष्टायां प्रतिपत्तौ च मोहवश्या नरास्तदा।
लोभस्य वशमापन्नाः सर्वे भरतसत्तम ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतभूषण! कर्तव्याकर्तव्यका ज्ञान नष्ट हो जानेपर मोहके वशीभूत हुए सब मनुष्य लोभके अधीन हो गये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्राप्तस्याभिमर्शं तु कुर्वन्तो मनुजास्ततः।
कामो नामापरस्तत्र प्रत्यपद्यत वै प्रभो ॥ १८ ॥
मूलम्
अप्राप्तस्याभिमर्शं तु कुर्वन्तो मनुजास्ततः।
कामो नामापरस्तत्र प्रत्यपद्यत वै प्रभो ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर जो वस्तु उन्हें प्राप्त नहीं थी, उसे पानेका वे प्रयत्न करने लगे। प्रभो! इतनेहीमें वहाँ काम नामक दूसरे दोषने उन्हें घेर लिया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तांस्तु कामवशं प्राप्तान् रागो नाम समस्पृशत्।
रक्ताश्च नाभ्यजानन्त कार्याकार्ये युधिष्ठिर ॥ १९ ॥
मूलम्
तांस्तु कामवशं प्राप्तान् रागो नाम समस्पृशत्।
रक्ताश्च नाभ्यजानन्त कार्याकार्ये युधिष्ठिर ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! कामके अधीन हुए उन मनुष्योंपर क्रोध नामक शत्रुने आक्रमण किया। क्रोधके वशीभूत होकर वे यह न जान सके कि क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य?॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगम्यागमनं चैव वाच्यावाच्यं तथैव च।
भक्ष्याभक्ष्यं च राजेन्द्र दोषादोषं च नात्यजन् ॥ २० ॥
मूलम्
अगम्यागमनं चैव वाच्यावाच्यं तथैव च।
भक्ष्याभक्ष्यं च राजेन्द्र दोषादोषं च नात्यजन् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! उन्होंने अगम्यागमन, वाच्य-अवाच्य, भक्ष्य-अभक्ष्य तथा दोष-अदोष कुछ भी नहीं छोड़ा॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विप्लुते नरलोके वै ब्रह्म चैव ननाश ह।
नाशाच्च ब्रह्मणो राजन् धर्मो नाशमथागमत् ॥ २१ ॥
मूलम्
विप्लुते नरलोके वै ब्रह्म चैव ननाश ह।
नाशाच्च ब्रह्मणो राजन् धर्मो नाशमथागमत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मनुष्यलोकमें धर्मका विप्लव हो जानेपर वेदोंके स्वाध्यायका भी लोप हो गया। राजन्! वैदिक ज्ञानका लोप होनेसे यज्ञ आदि कर्मोंका भी नाश हो गया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नष्टे ब्रह्मणि धर्मे च देवांस्त्रासः समाविशत्।
ते त्रस्ता नरशार्दूल ब्रह्माणं शरणं ययुः ॥ २२ ॥
मूलम्
नष्टे ब्रह्मणि धर्मे च देवांस्त्रासः समाविशत्।
ते त्रस्ता नरशार्दूल ब्रह्माणं शरणं ययुः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जब वेद और धर्मका नाश होने लगा, तब देवताओंके मनमें भय समा गया। पुरुषसिंह! वे भयभीत होकर ब्रह्माजीकी शरणमें गये॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसाद्य भगवन्तं ते देवं लोकपितामहम्।
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे दुःखवेगसमाहताः ॥ २३ ॥
मूलम्
प्रसाद्य भगवन्तं ते देवं लोकपितामहम्।
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे दुःखवेगसमाहताः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोकपितामह भगवान् ब्रह्माको प्रसन्न करके दुःखके वेगसे पीड़ित हुए समस्त देवता उनसे हाथ जोड़कर बोले—॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् नरलोकस्थं ग्रस्तं ब्रह्म सनातनम्।
लोभमोहादिभिर्भावैस्ततो नो भयमाविशत् ॥ २४ ॥
मूलम्
भगवन् नरलोकस्थं ग्रस्तं ब्रह्म सनातनम्।
लोभमोहादिभिर्भावैस्ततो नो भयमाविशत् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! मनुष्यलोकमें लोभ, मोह आदि दूषित भावोंने सनातन वैदिक ज्ञानको विलुप्त कर डाला है; इसलिये हमें बड़ा भय हो रहा है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मणश्च प्रणाशेन धर्मो व्यनशदीश्वर।
ततः स्म समतां याता मर्त्यैस्त्रिभुवनेश्वर ॥ २५ ॥
मूलम्
ब्रह्मणश्च प्रणाशेन धर्मो व्यनशदीश्वर।
ततः स्म समतां याता मर्त्यैस्त्रिभुवनेश्वर ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ईश्वर! तीनों लोकोंके स्वामी परमेश्वर! वैदिक ज्ञानका लोप होनेसे यज्ञ-धर्म नष्ट हो गया। इससे हम सब देवता मनुष्योंके समान हो गये हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधो हि वर्षमस्माकं नरास्तूर्ध्वप्रवर्षिणः।
क्रियाव्युपरमात् तेषां ततो गच्छाम संशयम् ॥ २६ ॥
मूलम्
अधो हि वर्षमस्माकं नरास्तूर्ध्वप्रवर्षिणः।
क्रियाव्युपरमात् तेषां ततो गच्छाम संशयम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्य यज्ञ आदिमें घीकी आहुति देकर हमारे लिये ऊपरकी ओर वर्षा करते थे और हम उनके लिये नीचेकी ओर पानी बरसाते थे; परंतु अब उनके यज्ञकर्मका लोप हो जानेसे हमारा जीवन संशयमें पड़ गया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र निःश्रेयसं यन्नस्तद् ध्यायस्व पितामह।
त्वत्प्रभावसमुत्थोऽसौ स्वभावो नो विनश्यति ॥ २७ ॥
मूलम्
अत्र निःश्रेयसं यन्नस्तद् ध्यायस्व पितामह।
त्वत्प्रभावसमुत्थोऽसौ स्वभावो नो विनश्यति ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पितामह! अब जिस उपायसे हमारा कल्याण हो सके, वह सोचिये। आपके प्रभावसे हमें जो दैवस्वभाव प्राप्त हुआ था, वह नष्ट हो रहा है’॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानुवाच सुरान् सर्वान् स्वयम्भूर्भगवांस्ततः।
श्रेयोऽहं चिन्तयिष्यामि व्येतु वो भीःसुरर्षभाः ॥ २८ ॥
मूलम्
तानुवाच सुरान् सर्वान् स्वयम्भूर्भगवांस्ततः।
श्रेयोऽहं चिन्तयिष्यामि व्येतु वो भीःसुरर्षभाः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब भगवान् ब्रह्माने उन सब देवताओंसे कहा—‘सुरश्रेष्ठगण! तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिये। मैं तुम्हारे कल्याणका उपाय सोचूँगा’॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽध्यायसहस्राणां शतं चक्रे स्वबुद्धिजम्।
यत्र धर्मस्तथैवार्थः कामश्चैवाभिवर्णितः ॥ २९ ॥
त्रिवर्ग इति विख्यातो गण एष स्वयम्भुवा।
मूलम्
ततोऽध्यायसहस्राणां शतं चक्रे स्वबुद्धिजम्।
यत्र धर्मस्तथैवार्थः कामश्चैवाभिवर्णितः ॥ २९ ॥
त्रिवर्ग इति विख्यातो गण एष स्वयम्भुवा।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर ब्रह्माजीने अपनी बुद्धिसे एक लाख अध्यायोंका एक ऐसा नीतिशास्त्र रचा, जिसमें धर्म, अर्थ और कामका विस्तारपूर्वक वर्णन है। जिसमें इन वर्गोंका वर्णन हुआ है, वह प्रकरण ‘त्रिवर्ग’ नामसे विख्यात है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्थो मोक्ष इत्येव पृथगर्थः पृथग्गुणः ॥ ३० ॥
मूलम्
चतुर्थो मोक्ष इत्येव पृथगर्थः पृथग्गुणः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चौथा वर्ग मोक्ष है; उसके प्रयोजन और गुण इन तीनों वर्गोंसे भिन्न हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोक्षस्यास्ति त्रिवर्गोऽन्यः प्रोक्तः सत्त्वं रजस्तमः।
स्थानं वृद्धिः क्षयश्चैव त्रिवर्गश्चैव दण्डजः ॥ ३१ ॥
मूलम्
मोक्षस्यास्ति त्रिवर्गोऽन्यः प्रोक्तः सत्त्वं रजस्तमः।
स्थानं वृद्धिः क्षयश्चैव त्रिवर्गश्चैव दण्डजः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मोक्षका त्रिवर्ग दूसरा बताया गया है। उसमें सत्त्व, रज और तमकी गणना है। दण्डजनित त्रिवर्ग उससे भिन्न है। स्थान, वृद्धि और क्षय—ये ही उसके भेद हैं (अर्थात् दण्डसे धनियोंकी स्थिति, धर्मात्माओंकी वृद्धि और दुष्टोंका विनाश होता है)॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मा देशश्च कालश्चाप्युपायाः कृत्यमेव च।
सहायाः कारणं चैव षड्वर्गो नीतिजः स्मृतः ॥ ३२ ॥
मूलम्
आत्मा देशश्च कालश्चाप्युपायाः कृत्यमेव च।
सहायाः कारणं चैव षड्वर्गो नीतिजः स्मृतः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीके नीतिशास्त्रमें आत्मा, देश, काल, उपाय, कार्य और सहायक—इन छः वर्गोंका वर्णन है। ये छहों नीतिद्वारा संचालित होनेपर उन्नतिके कारण होते हैं॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयी चान्वीक्षिकी चैव वार्ता च भरतर्षभ।
दण्डनीतिश्च विपुला विद्यास्तत्र निदर्शिताः ॥ ३३ ॥
मूलम्
त्रयी चान्वीक्षिकी चैव वार्ता च भरतर्षभ।
दण्डनीतिश्च विपुला विद्यास्तत्र निदर्शिताः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! उस ग्रन्थमें वेदत्रयी (कर्मकाण्ड), आन्वीक्षिकी (ज्ञानकाण्ड), वार्ता (कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य) और दण्डनीति—इन विपुल विद्याओंका निरूपण किया गया है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमात्यरक्षा प्रणिधी राजपुत्रस्य लक्षणम्।
चारश्च विविधोपायः प्रणिधेयः पृथग्विधः ॥ ३४ ॥
साम भेदः प्रदानं च ततो दण्डश्च पार्थिव।
उपेक्षा पञ्चमी चात्र कार्त्स्न्येन समुदाहृता ॥ ३५ ॥
मूलम्
अमात्यरक्षा प्रणिधी राजपुत्रस्य लक्षणम्।
चारश्च विविधोपायः प्रणिधेयः पृथग्विधः ॥ ३४ ॥
साम भेदः प्रदानं च ततो दण्डश्च पार्थिव।
उपेक्षा पञ्चमी चात्र कार्त्स्न्येन समुदाहृता ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीके उस नीतिशास्त्रमें मन्त्रियोंकी रक्षा (उन्हें कोई फोड़ न ले, इसके लिये सतर्कता), प्रणिधि (राजदूत), राजपुत्रके लक्षण, गुप्तचरोंके विचरणके विविध उपाय, विभिन्न स्थानोंमें विभिन्न प्रकारके गुप्तचरोंकी नियुक्ति, साम, दान, भेद, दण्ड और उपेक्षा—इन पाँचों उपायोंका पूर्णरूपसे प्रतिपादन किया गया है॥३४-३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्त्रश्च वर्णितः कृत्स्नस्तथा भेदार्थ एव च।
विभ्रमश्चैव मन्त्रस्य सिद्ध्यसिद्ध्यौश्च यत् फलम् ॥ ३६ ॥
मूलम्
मन्त्रश्च वर्णितः कृत्स्नस्तथा भेदार्थ एव च।
विभ्रमश्चैव मन्त्रस्य सिद्ध्यसिद्ध्यौश्च यत् फलम् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब प्रकारकी मन्त्रणा, भेदनीतिके प्रयोगके प्रयोजन, मन्त्रणामें होनेवाले भ्रम या उसके फूटनेके भय तथा मन्त्रणाकी सिद्धि और असिद्धिके फलका भी इस शास्त्रमें वर्णन है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संधिश्च त्रिविधाभिख्यो हीनो मध्यस्तथोत्तमः।
भयसत्कारवित्ताख्यं कार्त्स्न्येन परिवर्णितम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
संधिश्च त्रिविधाभिख्यो हीनो मध्यस्तथोत्तमः।
भयसत्कारवित्ताख्यं कार्त्स्न्येन परिवर्णितम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संधिके तीन भेद हैं—उत्तम, मध्यम और अधम, इनकी क्रमशः वित्तसंधि, सत्कारसंधि और भयसंधि—ये तीन संज्ञाएँ हैं। धन लेकर जो संधि की जाती है, वह वित्तसंधि उत्तम है। सत्कार पाकर की हुई दूसरी संधि मध्यम है और भयके कारण की जानेवाली तीसरी संधि अधम मानी गयी है। इन सबका उस ग्रन्थमें विस्तारपूर्वक वर्णन है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यात्राकालाश्च चत्वारस्त्रिवर्गस्य च विस्तरः।
विजयो धर्मयुक्तश्च तथार्थविजयश्च ह ॥ ३८ ॥
आसुरश्चैव विजयस्तथा कार्त्स्न्येन वर्णितः।
लक्षणं पञ्चवर्गस्य त्रिविधं चात्र वर्णितम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
यात्राकालाश्च चत्वारस्त्रिवर्गस्य च विस्तरः।
विजयो धर्मयुक्तश्च तथार्थविजयश्च ह ॥ ३८ ॥
आसुरश्चैव विजयस्तथा कार्त्स्न्येन वर्णितः।
लक्षणं पञ्चवर्गस्य त्रिविधं चात्र वर्णितम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंपर चढ़ाई करनेके चार[^*] अवसर, त्रिवर्गके विस्तार, धर्म-विजय, अर्थ-विजय तथा आसुर-विजयका भी उक्त ग्रन्थमें पूर्णरूपसे वर्णन किया गया है। मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग, सेना और कोष—इन पाँच वर्गोंके उत्तम, मध्यम और अधम भेदसे तीन प्रकारके लक्षणोंका भी प्रतिपादन किया गया है॥३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकाशश्चाप्रकाशश्च दण्डोऽथ परिशब्दितः ।
प्रकाशोऽष्टविधस्तत्र गुह्यश्च बहुविस्तरः ॥ ४० ॥
मूलम्
प्रकाशश्चाप्रकाशश्च दण्डोऽथ परिशब्दितः ।
प्रकाशोऽष्टविधस्तत्र गुह्यश्च बहुविस्तरः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रकट और गुप्त दो प्रकारकी सेनाओंका भी वर्णन किया गया है। उनमें प्रकट सेना आठ प्रकारकी बतायी गयी है और गुप्त सेनाका विस्तार बहुत अधिक कहा गया है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथा नागा हयाश्चैव पादाताश्चैव पाण्डव।
विष्टिर्नावश्चराश्चैव देशिका इति चाष्टमम् ॥ ४१ ॥
अङ्गान्येतानि कौरव्य प्रकाशानि बलस्य तु।
मूलम्
रथा नागा हयाश्चैव पादाताश्चैव पाण्डव।
विष्टिर्नावश्चराश्चैव देशिका इति चाष्टमम् ॥ ४१ ॥
अङ्गान्येतानि कौरव्य प्रकाशानि बलस्य तु।
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुवंशी पाण्डुनन्दन! हाथी, घोड़े, रथ, पैदल, बेगारमें पकड़े गये बोझ ढोनेवाले लोग, नौकारोही, गुप्तचर तथा कर्तव्यका उपदेश करनेवाले गुरु—ये सेनाके प्रकट आठ अङ्ग हैं॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जङ्गमाजङ्गमाश्चोक्ताश्चूर्णयोगा विषादयः ॥ ४२ ॥
मूलम्
जङ्गमाजङ्गमाश्चोक्ताश्चूर्णयोगा विषादयः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सेनाके गुप्त अङ्ग हैं जङ्गम (सर्पादिजनित) और अजङ्गम (पेड़-पौधोंसे उत्पन्न) विष आदि चूर्णयोग अर्थात् विनाशकारक ओषधियाँ॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्पर्शे चाभ्यवहार्ये चाप्युपांशुर्विविधः स्मृतः।
अरिर्मित्र उदासीन इत्येतेऽप्यनुवर्णिताः ॥ ४३ ॥
मूलम्
स्पर्शे चाभ्यवहार्ये चाप्युपांशुर्विविधः स्मृतः।
अरिर्मित्र उदासीन इत्येतेऽप्यनुवर्णिताः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह गोपनीय दण्डसाधन (विष आदि) शत्रुपक्षके लोगोंके वस्त्र आदिके साथ स्पर्श कराने अथवा उनके भोजनमें मिला देनेके उपयोगमें आता है। विभिन्न मन्त्रोंके जपका प्रयोग भी पूर्वोक्त नीतिशास्त्रमें बताया गया है। इसके सिवा इस ग्रन्थमें शत्रु, मित्र और उदासीनका भी बारंबार वर्णन किया गया है॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्स्ना मार्गगुणाश्चैव तथा भूमिगुणाश्च ह।
आत्मरक्षणमाश्वासः सर्गाणां चान्ववेक्षणम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
कृत्स्ना मार्गगुणाश्चैव तथा भूमिगुणाश्च ह।
आत्मरक्षणमाश्वासः सर्गाणां चान्ववेक्षणम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा मार्गके समस्त गुण, भूमिके गुण, आत्मरक्षाके उपाय, आश्वासन तथा रथ आदिके निर्माण और निरीक्षण आदिका भी वर्णन है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कल्पना विविधाश्चापि नृनागरथवाजिनाम् ।
व्यूहाश्च विविधाभिख्या विचित्रं युद्धकौशलम् ॥ ४५ ॥
उत्पाताश्च निपाताश्च सुयुद्धं सुपलायितम्।
शस्त्राणां पालनं ज्ञानं तथैव भरतर्षभ ॥ ४६ ॥
मूलम्
कल्पना विविधाश्चापि नृनागरथवाजिनाम् ।
व्यूहाश्च विविधाभिख्या विचित्रं युद्धकौशलम् ॥ ४५ ॥
उत्पाताश्च निपाताश्च सुयुद्धं सुपलायितम्।
शस्त्राणां पालनं ज्ञानं तथैव भरतर्षभ ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सेनाको पुष्ट करनेवाले अनेक प्रकारके योग, हाथी, घोड़ा, रथ और मनुष्य-सेनाकी भाँति-भाँतिकी व्यूह-रचना, नाना प्रकारके युद्धकौशल, जैसे ऊपर उछल जाना, नीचे झुककर अपनेको बचा लेना, सावधान होकर भलीभाँति युद्ध करना, कुशलतापूर्वक वहाँसे निकल भागना—इन सब उपायोंका भी इस ग्रन्थमें वर्णन है। भरतश्रेष्ठ! शस्त्रोंके संरक्षण और प्रयोगके ज्ञानका भी उसमें उल्लेख है॥४५-४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलव्यसनमुक्तं च तथैव बलहर्षणम्।
पीडा चापदकालश्च पत्तिज्ञानं च पाण्डव ॥ ४७ ॥
मूलम्
बलव्यसनमुक्तं च तथैव बलहर्षणम्।
पीडा चापदकालश्च पत्तिज्ञानं च पाण्डव ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुकुमार! विपत्तिसे सेनाओंका उद्धार करना, सैनिकोंका हर्ष और उत्साह बढ़ाना, पीड़ा और आपत्तिके समय पैदल सैनिकोंकी स्वामिभक्तिकी परीक्षा करना—इन सब बातोंका उस शास्त्रमें वर्णन किया गया है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा खातविधानं च योगः संचार एव च।
चोरैराटविकैश्चोग्रैः परराष्ट्रस्य पीडनम् ॥ ४८ ॥
अग्निदैर्गरदैश्चैव प्रतिरूपककारकैः ।
श्रेणिमुख्योपजापेन वीरुधश्छेदनेन च ॥ ४९ ॥
दूषणेन च नागानामातङ्कजननेन च।
आराधनेन भक्तस्य प्रत्ययोपार्जनेन च ॥ ५० ॥
मूलम्
तथा खातविधानं च योगः संचार एव च।
चोरैराटविकैश्चोग्रैः परराष्ट्रस्य पीडनम् ॥ ४८ ॥
अग्निदैर्गरदैश्चैव प्रतिरूपककारकैः ।
श्रेणिमुख्योपजापेन वीरुधश्छेदनेन च ॥ ४९ ॥
दूषणेन च नागानामातङ्कजननेन च।
आराधनेन भक्तस्य प्रत्ययोपार्जनेन च ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्गके चारों ओर खाईं खुदवाना, सेनाका युद्धके लिये सुसज्जित होना तथा रणयात्रा करना, चोरों और भयानक जंगली लुटेरोंद्वारा शत्रुके राष्ट्रको पीड़ा देना, आग लगानेवाले, जहर देनेवाले, छद्मवेशधारी लोगोंद्वारा भी शत्रुको हानि पहुँचाना तथा एक-एक शत्रुदलके प्रधान-प्रधान लोगोंमें भेद उत्पन्न करना, फसल और पौधोंको काट लेना, हाथियोंको भड़काना, लोगोंमें आतङ्क उत्पन्न करना, शत्रुओंमें अनुरक्त पुरुषको अनुनय आदिके द्वारा फोड़ लेना और शत्रुपक्षके लोगोंमें अपने प्रति विश्वास उत्पन्न कराना आदि उपायोंसे शत्रुके राष्ट्रको पीड़ा देनेकी कलाका भी ब्रह्माजीके उक्त ग्रन्थमें वर्णन किया गया है॥४८—५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सप्ताङ्गस्य च राज्यस्य ह्रासवृद्धिसमञ्जसम्।
दूतसामर्थ्यसंयोगात् सराष्ट्रस्य विवर्धनम् ॥ ५१ ॥
अरिमध्यस्थमित्राणां सम्यक् चोक्तं प्रपञ्चनम्।
अवमर्दः प्रतीघातस्तथैव च बलीयसाम् ॥ ५२ ॥
मूलम्
सप्ताङ्गस्य च राज्यस्य ह्रासवृद्धिसमञ्जसम्।
दूतसामर्थ्यसंयोगात् सराष्ट्रस्य विवर्धनम् ॥ ५१ ॥
अरिमध्यस्थमित्राणां सम्यक् चोक्तं प्रपञ्चनम्।
अवमर्दः प्रतीघातस्तथैव च बलीयसाम् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सात अङ्गोंसे युक्त राज्यके ह्रास, वृद्धि और समान भावसे स्थिति, दूतके सामर्थ्यसे होनेवाली अपनी और अपने राष्ट्रकी वृद्धि, शत्रु, मित्र और मध्यस्थोंका विस्तारपूर्वक सम्यक् विवेचन, बलवान् शत्रुओंको कुचल डालने तथा उनसे टक्कर लेनेकी विधि आदिका उक्त ग्रन्थमें वर्णन किया गया है॥५१-५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यवहारः सुसूक्ष्मश्च तथा कण्टकशोधनम्।
श्रमो व्यायामयोगश्च त्यागो द्रव्यस्य संग्रहः ॥ ५३ ॥
मूलम्
व्यवहारः सुसूक्ष्मश्च तथा कण्टकशोधनम्।
श्रमो व्यायामयोगश्च त्यागो द्रव्यस्य संग्रहः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शासनसम्बन्धी अत्यन्त सूक्ष्म व्यवहार, कण्टक-शोधन (राज्यकार्यमें विघ्न डालनेवालेको उखाड़ फेंकना), परिश्रम, व्यायाम-योग तथा धनके त्याग और संग्रहका भी उसमें प्रतिपादन किया गया है॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभृतानां च भरणं भृतानां चान्ववेक्षणम्।
अर्थस्य काले दानं च व्यसने चाप्रसङ्गिता ॥ ५४ ॥
मूलम्
अभृतानां च भरणं भृतानां चान्ववेक्षणम्।
अर्थस्य काले दानं च व्यसने चाप्रसङ्गिता ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके भरण-पोषणका कोई उपाय न हो, उनके जीवननिर्वाहका प्रबन्ध करना, जिनके भरण-पोषणकी व्यवस्था राज्यकी ओरसे की गयी हो उनकी देखभाल करना, समयपर धनका दान करना, दुर्व्यसनमें आसक्त न होना आदि विविध विषयोंका उस ग्रन्थमें उल्लेख है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा राजगुणाश्चैव सेनापतिगुणाश्च ह।
कारणं च त्रिवर्गस्य गुणदोषास्तथैव च ॥ ५५ ॥
मूलम्
तथा राजगुणाश्चैव सेनापतिगुणाश्च ह।
कारणं च त्रिवर्गस्य गुणदोषास्तथैव च ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाके गुण, सेनापतिके गुण, अर्थ, धर्म और कामके साधन तथा उनके गुण-दोषका भी उसमें निरूपण किया गया है॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुश्चेष्टितं च विविधं वृत्तिश्चैवानुवर्तिनाम्।
शङ्कितत्वं च सर्वस्य प्रमादस्य च वर्जनम् ॥ ५६ ॥
अलब्धलाभो लब्धस्य तथैव च विवर्धनम्।
प्रदानं च विवृद्धस्य पात्रेभ्यो विधिवत्ततः ॥ ५७ ॥
विसर्गोऽर्थस्य धर्मार्थं कामहैतुकमुच्यते ।
चतुर्थं व्यसनाघाते तथैवात्रानुवर्णितम् ॥ ५८ ॥
मूलम्
दुश्चेष्टितं च विविधं वृत्तिश्चैवानुवर्तिनाम्।
शङ्कितत्वं च सर्वस्य प्रमादस्य च वर्जनम् ॥ ५६ ॥
अलब्धलाभो लब्धस्य तथैव च विवर्धनम्।
प्रदानं च विवृद्धस्य पात्रेभ्यो विधिवत्ततः ॥ ५७ ॥
विसर्गोऽर्थस्य धर्मार्थं कामहैतुकमुच्यते ।
चतुर्थं व्यसनाघाते तथैवात्रानुवर्णितम् ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भाँति-भाँतिकी दुश्चेष्टा, अपने सेवकोंकी जीविकाका विचार, सबके प्रति सशङ्क रहना, प्रमादका परित्याग करना, अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करना, प्राप्त हुई वस्तुको सुरक्षित रखते हुए उसे बढ़ाना और बढ़ी हुई वस्तुका सुपात्रोंको विधिपूर्वक दान देना—यह धनका पहला उपयोग है। धर्मके लिये धनका त्याग उसका दूसरा उपयोग है, कामभोगके लिये उसका व्यय करना तीसरा और संकट-निवारणके लिये उसे खर्च करना उसका चौथा उपयोग है। इन सब बातोंका उस ग्रन्थमें भलीभाँति वर्णन किया गया है॥५६—५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोधजानि तथोग्राणि कामजानि तथैव च।
दशोक्तानि कुरुश्रेष्ठ व्यसनान्यत्र चैव ह ॥ ५९ ॥
मूलम्
क्रोधजानि तथोग्राणि कामजानि तथैव च।
दशोक्तानि कुरुश्रेष्ठ व्यसनान्यत्र चैव ह ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! क्रोध और कामसे उत्पन्न होनेवाले जो यहाँ दस प्रकारके भयंकर व्यसन हैं, उनका भी इस ग्रन्थमें उल्लेख है॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृगयाक्षास्तथा पानं स्त्रियश्च भरतर्षभ।
कामजान्याहुराचार्यः प्रोक्तानीह स्वयम्भुवा ॥ ६० ॥
मूलम्
मृगयाक्षास्तथा पानं स्त्रियश्च भरतर्षभ।
कामजान्याहुराचार्यः प्रोक्तानीह स्वयम्भुवा ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! नीतिशास्त्रके आचार्योंने जो मृगया, द्यूत, मद्यपान और स्त्रीप्रसङ्ग—ये चार प्रकारके कामजनित व्यसन बताये हैं, उन सबका इस ग्रन्थमें ब्रह्माजीने प्रतिपादन किया है॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाक्पारुष्यं तथोग्रत्वं दण्डपारुष्यमेव च।
आत्मनो निग्रहस्त्यागो ह्यर्थदूषणमेव च ॥ ६१ ॥
मूलम्
वाक्पारुष्यं तथोग्रत्वं दण्डपारुष्यमेव च।
आत्मनो निग्रहस्त्यागो ह्यर्थदूषणमेव च ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वाणीकी कटुता, उग्रता, दण्डकी कठोरता, शरीरको कैद कर लेना, किसीको सदाके लिये त्याग देना और आर्थिक हानि पहुँचाना—ये छः प्रकारके क्रोधजनित व्यसन उक्त ग्रन्थमें बताये गये हैं॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्त्राणि विविधान्येव क्रियास्तेषां च वर्णिताः।
अवमर्दः प्रतीघातः केतनानां च भञ्जनम् ॥ ६२ ॥
मूलम्
यन्त्राणि विविधान्येव क्रियास्तेषां च वर्णिताः।
अवमर्दः प्रतीघातः केतनानां च भञ्जनम् ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाना प्रकारके यन्त्रों और उनकी क्रियाओंका भी वर्णन किया गया है। शत्रुके राष्ट्रको कुचल देना, उसकी सेनाओंपर चोट करना और उनके निवास-स्थानोंको नष्ट-भ्रष्ट कर देना—इन सब बातोंका भी इस ग्रन्थमें उल्लेख है॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चैत्यद्रुमावमर्दश्च रोधः कर्मानुशासनम् ।
अपस्करोऽथ वसनं तथोपायाश्च वर्णिताः ॥ ६३ ॥
मूलम्
चैत्यद्रुमावमर्दश्च रोधः कर्मानुशासनम् ।
अपस्करोऽथ वसनं तथोपायाश्च वर्णिताः ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुकी राजधानीके चैत्य वृक्षोंका विध्वंस करा देना, उसके निवास-स्थान और नगरपर चारों ओरसे घेरा डालना आदि उपायोंका तथा कृषि एवं शिल्प आदि कर्मोंका उपदेश, रथके विभिन्न अवयवोंका निर्माण, ग्राम और नगर आदिमें निवास करनेकी विधि तथा जीवननिर्वाहके अनेक उपायोंका भी उक्त ग्रन्थमें वर्णन है॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पणवानकशङ्खानां भेरीणां च युधिष्ठिर।
उपार्जनं च द्रव्याणां परिमर्दश्च तानि षट् ॥ ६४ ॥
मूलम्
पणवानकशङ्खानां भेरीणां च युधिष्ठिर।
उपार्जनं च द्रव्याणां परिमर्दश्च तानि षट् ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! ढोल, नगारे, शंख, भेरी आदि रणवाद्योंको बजाने, मणि, पशु, पृथ्वी, वस्त्र, दास-दासी तथा सुवर्ण—इन छः प्रकारके द्रव्योंका अपने लिये उपार्जन करने तथा शत्रुपक्षकी इन वस्तुओंका विनाश कर देनेका भी इस शास्त्रमें उल्लेख है॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लब्धस्य च प्रशमनं सतां चैवाभिपूजनम्।
विद्वद्भिरेकीभावश्च दानहोमविधिज्ञता ॥ ६५ ॥
मङ्गलालम्भनं चैव शरीरस्य प्रतिक्रिया।
आहारयोजनं चैव नित्यमास्तिक्यमेव च ॥ ६६ ॥
मूलम्
लब्धस्य च प्रशमनं सतां चैवाभिपूजनम्।
विद्वद्भिरेकीभावश्च दानहोमविधिज्ञता ॥ ६५ ॥
मङ्गलालम्भनं चैव शरीरस्य प्रतिक्रिया।
आहारयोजनं चैव नित्यमास्तिक्यमेव च ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने अधिकारमें आये हुए देशोंमें शान्ति स्थापित करना, सत्पुरुषोंका सत्कार करना, विद्वानोंके साथ एकता (मेल-जोल) बढ़ाना, दान और होमकी विधिको जानना, माङ्गलिक वस्तुओंका स्पर्श करना, शरीरको वस्त्र और आभूषणोंसे सजाना, भोजनकी व्यवस्था करना और सर्वदा आस्तिक बुद्धि रखना—इन सब बातोंका भी उस ग्रन्थमें वर्णन है॥६५-६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकेन च यथोत्थेयं सत्यत्वं मधुरा गिरः।
उत्सवानां समाजानां क्रियाः केतनजास्तथा ॥ ६७ ॥
मूलम्
एकेन च यथोत्थेयं सत्यत्वं मधुरा गिरः।
उत्सवानां समाजानां क्रियाः केतनजास्तथा ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य अकेला होकर भी किस प्रकार उत्थान (उन्नति) करे? इसका विचार, सत्यता, उत्सवों और समाजोंमें मधुर वाणीका प्रयोग तथा गृहसम्बन्धी क्रियाएँ—इन सबका वर्णन किया गया है॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षाश्च परोक्षाश्च सर्वाधिकरणेष्वथ ।
वृत्तेर्भरतशार्दूल नित्यं चैवान्ववेक्षणम् ॥ ६८ ॥
मूलम्
प्रत्यक्षाश्च परोक्षाश्च सर्वाधिकरणेष्वथ ।
वृत्तेर्भरतशार्दूल नित्यं चैवान्ववेक्षणम् ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशके सिंह युधिष्ठिर! समस्त न्यायालयोंमें जो प्रत्यक्ष और परोक्ष विचार होते हैं तथा वहाँ जो राजकीय पुरुषोंके व्यवहार होते हैं, उन सबका प्रतिदिन निरीक्षण करना चाहिये। इसका भी उक्त शास्त्रमें उल्लेख है॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदण्ड्यत्वं च विप्राणां युक्त्या दण्डनिपातनम्।
अनुजीविस्वजातिभ्यो गुणेभ्यश्च समुद्भवः ॥ ६९ ॥
मूलम्
अदण्ड्यत्वं च विप्राणां युक्त्या दण्डनिपातनम्।
अनुजीविस्वजातिभ्यो गुणेभ्यश्च समुद्भवः ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणोंको दण्ड न देनेका, अपराधियोंको युक्तिपूर्वक दण्ड देनेका, अपने पीछे जिनकी जीविका चलती हो उनकी, अपने जाति-भाइयोंकी तथा गुणवान् पुरुषोंकी भी उन्नति करनेका उस ग्रन्थमें उल्लेख है॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्षणं चैव पौराणां राष्ट्रस्य च विवर्धनम्।
मण्डलस्था च या चिन्ता राजन् द्वादशराजिका ॥ ७० ॥
मूलम्
रक्षणं चैव पौराणां राष्ट्रस्य च विवर्धनम्।
मण्डलस्था च या चिन्ता राजन् द्वादशराजिका ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! पुरवासियोंकी रक्षा, राज्यकी वृद्धि तथा द्वादश[^*] राजमण्डलोंके विषयमें जो चिन्तन किया जाता है, उसका भी इस ग्रन्थमें उल्लेख हुआ है॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वासप्ततिविधा चैव शरीरस्य प्रतिक्रिया।
देशजातिकुलानां च धर्माः समनुवर्णिताः ॥ ७१ ॥
मूलम्
द्वासप्ततिविधा चैव शरीरस्य प्रतिक्रिया।
देशजातिकुलानां च धर्माः समनुवर्णिताः ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैद्यक शास्त्रके अनुसार बहत्तर प्रकारकी शारीरिक चिकित्सा तथा देश, जाति और कुलके धर्मोंका भी भलीभाँति वर्णन किया गया है॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मश्चार्थश्च कामश्च मोक्षश्चात्रानुवर्णिताः ।
उपायाश्चार्थलिप्सा च विविधा भूरिदक्षिण ॥ ७२ ॥
मूलम्
धर्मश्चार्थश्च कामश्च मोक्षश्चात्रानुवर्णिताः ।
उपायाश्चार्थलिप्सा च विविधा भूरिदक्षिण ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रचुर दक्षिणा देनेवाले युधिष्ठिर! इस ग्रन्थमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका, इनकी प्राप्तिके उपायोंका तथा नाना प्रकारकी धन-लिप्साका भी वर्णन है॥७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलकर्मक्रिया चात्र मायायोगश्च वर्णितः।
दूषणं स्रोतसां चैव वर्णितं चास्थिराम्भसाम् ॥ ७३ ॥
मूलम्
मूलकर्मक्रिया चात्र मायायोगश्च वर्णितः।
दूषणं स्रोतसां चैव वर्णितं चास्थिराम्भसाम् ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस ग्रन्थमें कोशकी वृद्धि करनेवाले जो कृषि, वाणिज्य आदि मूल कर्म हैं, उनके करनेका प्रकार बताया गया है। मायाके प्रयोगकी विधि समझायी गयी है। स्रोतजल और अस्थिरजलके दोषोंका वर्णन किया गया है॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यैर्यैरुपायैर्लोकस्तु न चलेदार्यवर्त्मनः ।
तत् सर्वं राजशार्दूल नीतिशास्त्रेऽभिवर्णितम् ॥ ७४ ॥
मूलम्
यैर्यैरुपायैर्लोकस्तु न चलेदार्यवर्त्मनः ।
तत् सर्वं राजशार्दूल नीतिशास्त्रेऽभिवर्णितम् ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजसिंह! जिन-जिन उपायोंद्वारा यह जगत् सन्मार्गसे विचलित न हो, उन सबका इस नीतिशास्त्रमें प्रतिपादन किया गया है॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् कृत्वा शुभं शास्त्रं ततः स भगवान् प्रभुः।
देवानुवाच संहृष्टः सर्वान् शक्रपुरोगमान् ॥ ७५ ॥
मूलम्
एतत् कृत्वा शुभं शास्त्रं ततः स भगवान् प्रभुः।
देवानुवाच संहृष्टः सर्वान् शक्रपुरोगमान् ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस शुभ शास्त्रका निर्माण करके जगत्के स्वामी भगवान् ब्रह्मा बड़े प्रसन्न हुए और इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओंसे इस प्रकार बोले—॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपकाराय लोकस्य त्रिवर्गस्थापनाय च।
नवनीतं सरस्वत्या बुद्धिरेषा प्रभाविता ॥ ७६ ॥
मूलम्
उपकाराय लोकस्य त्रिवर्गस्थापनाय च।
नवनीतं सरस्वत्या बुद्धिरेषा प्रभाविता ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवगण! सम्पूर्ण जगत्के उपकार तथा धर्म, अर्थ एवं कामकी स्थापनाके लिये वाणीका सारभूत यह विचार यहाँ प्रकट किया गया॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दण्डेन सहिता ह्येषा लोकरक्षणकारिका।
निग्रहानुग्रहरता लोकाननुचरिष्यति ॥ ७७ ॥
मूलम्
दण्डेन सहिता ह्येषा लोकरक्षणकारिका।
निग्रहानुग्रहरता लोकाननुचरिष्यति ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दण्ड-विधानके साथ रहनेवाली यह नीति सम्पूर्ण जगत्की रक्षा करनेवाली है। यह दुष्टोंके निग्रह और साधु पुरुषोंके प्रति अनुग्रहमें तत्पर रहकर सम्पूर्ण जगत्में प्रचलित होगी॥७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दण्डेन नीयते चेदं दण्डं नयति वा पुनः।
दण्डनीतिरिति ख्याता त्रील्लोँकानभिवर्तते ॥ ७८ ॥
मूलम्
दण्डेन नीयते चेदं दण्डं नयति वा पुनः।
दण्डनीतिरिति ख्याता त्रील्लोँकानभिवर्तते ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस शास्त्रके अनुसार दण्डके द्वारा जगत्का सन्मार्गपर स्थापन किया जाता है अथवा राजा इसके अनुसार प्रजावर्गमें दण्डकी स्थापना करता है; इसलिये यह विद्या दण्डनीतिके नामसे विख्यात है। इसका तीनों लोकोंमें विस्तार होगा॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षाड्गुण्यगुणसारैषा स्थास्यत्यग्रे महात्मसु ।
धर्मार्थकाममोक्षाश्च सकला ह्यत्र शब्दिताः ॥ ७९ ॥
मूलम्
षाड्गुण्यगुणसारैषा स्थास्यत्यग्रे महात्मसु ।
धर्मार्थकाममोक्षाश्च सकला ह्यत्र शब्दिताः ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह विद्या संधि-विग्रह आदि छहों गुणोंका सारभूत है। महात्माओंमें इसका स्थान सबसे आगे होगा। इस शास्त्रमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थोंका निरूपण किया गया है’॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तां भगवान् नीतिं पूर्वं जग्राह शङ्करः।
बहुरूपो विशालाक्षः शिवः स्थाणुरुमापतिः ॥ ८० ॥
मूलम्
ततस्तां भगवान् नीतिं पूर्वं जग्राह शङ्करः।
बहुरूपो विशालाक्षः शिवः स्थाणुरुमापतिः ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सबसे पहले भगवान् शङ्करने इस नीतिशास्त्रको ग्रहण किया। वे बहुरूप, विशालाक्ष, शिव, स्थाणु, उमापति आदि नामोंसे प्रसिद्ध हैं॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजानामायुषो ह्रासं विज्ञाय भगवान् शिवः।
संचिक्षेप ततः शास्त्रं महास्त्रं ब्रह्मणा कृतम् ॥ ८१ ॥
वैशालाक्षमिति प्रोक्तं तदिन्द्रः प्रत्यपद्यत।
मूलम्
प्रजानामायुषो ह्रासं विज्ञाय भगवान् शिवः।
संचिक्षेप ततः शास्त्रं महास्त्रं ब्रह्मणा कृतम् ॥ ८१ ॥
वैशालाक्षमिति प्रोक्तं तदिन्द्रः प्रत्यपद्यत।
अनुवाद (हिन्दी)
विशालाक्ष भगवान् शिवने प्रजावर्गकी आयुका ह्रास होता जानकर ब्रह्माजीके रचे हुए इस महान् अर्थसे भरे हुए शास्त्रको संक्षिप्त किया था; इसलिये इसका नाम ‘वैशालाक्ष’ हो गया। फिर इसे इन्द्रने ग्रहण किया॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशाध्यायसहस्राणि सुब्रह्मण्यो महातपाः ॥ ८२ ॥
भगवानपि तच्छास्त्रं संचिक्षेप पुरंदरः।
सहस्रैः पञ्चभिस्तात यदुक्तं बाहुदन्तकम् ॥ ८३ ॥
मूलम्
दशाध्यायसहस्राणि सुब्रह्मण्यो महातपाः ॥ ८२ ॥
भगवानपि तच्छास्त्रं संचिक्षेप पुरंदरः।
सहस्रैः पञ्चभिस्तात यदुक्तं बाहुदन्तकम् ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातपस्वी सुब्रह्मण्य भगवान् पुरन्दरने जब इसका अध्ययन किया, उस समय इसमें दस हजार अध्याय थे। फिर उन्होंने भी इसका संक्षेप किया, जिससे यह पाँच हजार अध्यायोंका ग्रन्थ हो गया। तात! वही ग्रन्थ ‘बाहुदन्तक’ नामक नीतिशास्त्रके रूपमें विख्यात हुआ॥८२-८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्यायानां सहस्रैस्तु त्रिभिरेव बृहस्पतिः।
संचिक्षेपेश्वरो बुद्ध्या बार्हस्पत्यं तदुच्यते ॥ ८४ ॥
मूलम्
अध्यायानां सहस्रैस्तु त्रिभिरेव बृहस्पतिः।
संचिक्षेपेश्वरो बुद्ध्या बार्हस्पत्यं तदुच्यते ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद सामर्थ्यशाली बृहस्पतिने अपनी बुद्धिसे इसका संक्षेप किया, तबसे इसमें तीन हजार अध्याय रह गये। यही ‘बार्हस्पत्य’ नामक नीतिशास्त्र कहलाता है॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्यायानां सहस्रेण काव्यः संक्षेपमब्रवीत्।
तच्छास्त्रममितप्रज्ञो योगाचार्यो महायशाः ॥ ८५ ॥
मूलम्
अध्यायानां सहस्रेण काव्यः संक्षेपमब्रवीत्।
तच्छास्त्रममितप्रज्ञो योगाचार्यो महायशाः ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर महायशस्वी, योगशास्त्रके आचार्य तथा अमित बुद्धिमान् शुक्राचार्यने एक हजार अध्यायोंमें उस शास्त्रका संक्षेप किया॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं लोकानुरोधेन शास्त्रमेतन्महर्षिभिः ।
संक्षिप्तमायुर्विज्ञाय मर्त्यानां ह्रासमेव च ॥ ८६ ॥
मूलम्
एवं लोकानुरोधेन शास्त्रमेतन्महर्षिभिः ।
संक्षिप्तमायुर्विज्ञाय मर्त्यानां ह्रासमेव च ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मनुष्योंकी आयुका ह्रास होता जानकर जगत्के हितके लिये महर्षियोंने इस शास्त्रका संक्षेप किया है॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ देवाः समागम्य विष्णुमूचुः प्रजापतिम्।
एको योऽर्हति मर्त्येभ्यः श्रैष्ठ्यं वै तं समादिश ॥ ८७ ॥
मूलम्
अथ देवाः समागम्य विष्णुमूचुः प्रजापतिम्।
एको योऽर्हति मर्त्येभ्यः श्रैष्ठ्यं वै तं समादिश ॥ ८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर देवताओंने प्रजापति भगवान् विष्णुके पास जाकर कहा—‘भगवन्! मनुष्योंमें जो एक पुरुष सबसे श्रेष्ठ पद प्राप्त करनेका अधिकारी हो, उसका नाम बताइये’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः संचिन्त्य भगवान् देवो नारायणः प्रभुः।
तैजसं वै विरजसं सोऽसृजन्मानसं सुतम् ॥ ८८ ॥
मूलम्
ततः संचिन्त्य भगवान् देवो नारायणः प्रभुः।
तैजसं वै विरजसं सोऽसृजन्मानसं सुतम् ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब प्रभावशाली भगवान् नारायणदेवने भलीभाँति सोच-विचारकर अपने तेजसे एक मानस पुत्रकी सृष्टि की, जो विरजाके नामसे विख्यात हुआ॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरजास्तु महाभागः प्रभुत्वं भुवि नैच्छत।
न्यासायैवाभवद् बुद्धिः प्रणीता तस्य पाण्डव ॥ ८९ ॥
मूलम्
विरजास्तु महाभागः प्रभुत्वं भुवि नैच्छत।
न्यासायैवाभवद् बुद्धिः प्रणीता तस्य पाण्डव ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुनन्दन! महाभाग विरजाने पृथ्वीपर राजा होनेकी इच्छा नहीं की। उनकी बुद्धिने संन्यास लेनेका ही निश्चय किया॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीर्तिमांस्तस्य पुत्रोऽभूत् सोऽपि पञ्चातिगोऽभवत्।
कर्दमस्तस्य तु सुतः सोऽप्यतप्यन्महत् तपः ॥ ९० ॥
मूलम्
कीर्तिमांस्तस्य पुत्रोऽभूत् सोऽपि पञ्चातिगोऽभवत्।
कर्दमस्तस्य तु सुतः सोऽप्यतप्यन्महत् तपः ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विरजाके कीर्तिमान् नामक एक पुत्र हुआ। वह भी पाँचों विषयोंसे ऊपर उठकर मोक्षमार्गका ही अवलम्बन करने लगा। कीर्तिमान्के पुत्र हुए कर्दम। वे भी बड़ी भारी तपस्यामें लग गये॥९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजापतेः कर्दमस्य त्वनङ्गो नाम वै सुतः।
प्रजा रक्षयिता साधुर्दण्डनीतिविशारदः ॥ ९१ ॥
मूलम्
प्रजापतेः कर्दमस्य त्वनङ्गो नाम वै सुतः।
प्रजा रक्षयिता साधुर्दण्डनीतिविशारदः ॥ ९१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजापति कर्दमके पुत्रका नाम अनङ्ग था, जो कालक्रमसे प्रजाका संरक्षण करनेमें समर्थ, साधु तथा दण्डनीतिविद्यामें निपुण हुआ॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनङ्गपुत्रोऽतिबलो नीतिमानभिगम्य वै ।
प्रतिपेदे महाराज्यमथेन्द्रियवशोऽभवत् ॥ ९२ ॥
मूलम्
अनङ्गपुत्रोऽतिबलो नीतिमानभिगम्य वै ।
प्रतिपेदे महाराज्यमथेन्द्रियवशोऽभवत् ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनङ्गके पुत्रका नाम था अतिबल। वह भी नीतिशास्त्रका ज्ञाता था, उसने विशाल राज्य प्राप्त किया। राज्य पाकर वह इन्द्रियोंका गुलाम हो गया॥९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृत्योस्तु दुहिता राजन् सुनीथा नाम मानसी।
प्रख्याता त्रिषु लोकेषु यासौ वेनमजीजनत् ॥ ९३ ॥
मूलम्
मृत्योस्तु दुहिता राजन् सुनीथा नाम मानसी।
प्रख्याता त्रिषु लोकेषु यासौ वेनमजीजनत् ॥ ९३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मृत्युकी एक मानसिक कन्या थी, जिसका नाम था सुनीथा। जो अपने रूप और गुणके लिये तीनों लोकोंमें विख्यात थी। उसीने वेनको जन्म दिया था॥९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं प्रजासु विधर्माणं रागद्वेषवशानुगम्।
मन्त्रपूतैः कुशैर्जघ्नुर्ऋषयो ब्रह्मवादिनः ॥ ९४ ॥
मूलम्
तं प्रजासु विधर्माणं रागद्वेषवशानुगम्।
मन्त्रपूतैः कुशैर्जघ्नुर्ऋषयो ब्रह्मवादिनः ॥ ९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेन राग-द्वेषके वशीभूत हो प्रजाओंपर अत्याचार करने लगा। तब वेदवादी ऋषियोंने मन्त्रपूत कुशोंद्वारा उसे मार डाला॥९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममन्थुर्दक्षिणं चोरुमृषयस्तस्य मन्त्रतः ।
ततोऽस्य विकृतो जज्ञे ह्रस्वाङ्गः पुरुषो भुवि ॥ ९५ ॥
मूलम्
ममन्थुर्दक्षिणं चोरुमृषयस्तस्य मन्त्रतः ।
ततोऽस्य विकृतो जज्ञे ह्रस्वाङ्गः पुरुषो भुवि ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वे ही ऋषि मन्त्रोच्चारणपूर्वक वेनकी दाहिनी जङ्घाका मन्थन करने लगे। उससे इस पृथ्वीपर एक नाटे कदका मनुष्य उत्पन्न हुआ, जिसकी आकृति बेडौल थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दग्धस्थूणाप्रतीकाशो रक्ताक्षः कृष्णमूर्धजः ।
निषीदेत्येवमूचुस्तमृषयो ब्रह्मवादिनः ॥ ९६ ॥
मूलम्
दग्धस्थूणाप्रतीकाशो रक्ताक्षः कृष्णमूर्धजः ।
निषीदेत्येवमूचुस्तमृषयो ब्रह्मवादिनः ॥ ९६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह जले हुए खम्भेके समान जान पड़ता था। उसकी आँखें लाल और काले बाल थे। वेदवादी महर्षियोंने उसे देखकर कहा—‘निषीद’ बैठ जाओ॥९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मान्निषादाः सम्भूताः क्रूराः शैलवनाश्रयाः।
ये चान्ये विन्ध्यनिलया म्लेच्छाः शतसहस्रशः ॥ ९७ ॥
मूलम्
तस्मान्निषादाः सम्भूताः क्रूराः शैलवनाश्रयाः।
ये चान्ये विन्ध्यनिलया म्लेच्छाः शतसहस्रशः ॥ ९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसीसे पर्वतों और वनोंमें रहनेवाले क्रूर निषादोंकी उत्पत्ति हुई तथा दूसरे जो विन्ध्यगिरिके निवासी लाखों म्लेच्छ थे, उनका भी प्रादुर्भाव हुआ॥९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूयोऽस्य दक्षिणं पाणिं ममन्थुस्ते महर्षयः।
ततः पुरुष उत्पन्नो रूपेणेन्द्र इवापरः ॥ ९८ ॥
मूलम्
भूयोऽस्य दक्षिणं पाणिं ममन्थुस्ते महर्षयः।
ततः पुरुष उत्पन्नो रूपेणेन्द्र इवापरः ॥ ९८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद फिर महर्षियोंने वेनके दाहिने हाथका मन्थन किया। उससे एक दूसरे पुरुषका प्राकट्य हुआ, जो रूपमें देवराज इन्द्रके समान थे॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवची बद्धनिस्त्रिंशः सशरः सशरासनः।
वेदवेदाङ्गविच्चैव धनुर्वेदे च पारगः ॥ ९९ ॥
मूलम्
कवची बद्धनिस्त्रिंशः सशरः सशरासनः।
वेदवेदाङ्गविच्चैव धनुर्वेदे च पारगः ॥ ९९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे कवच धारण किये, कमरमें तलवार बाँधे तथा धनुष और बाण लिये प्रकट हुए थे। उन्हें वेदों और वेदान्तोंका पूर्ण ज्ञान था। वे धनुर्वेदके भी पारङ्गत विद्वान् थे॥९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दण्डनीतिः सकला श्रिता राजन् नरोत्तमम्।
ततस्तु प्राञ्जलिर्वैन्यो महर्षींस्तानुवाच ह ॥ १०० ॥
मूलम्
तं दण्डनीतिः सकला श्रिता राजन् नरोत्तमम्।
ततस्तु प्राञ्जलिर्वैन्यो महर्षींस्तानुवाच ह ॥ १०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! नरश्रेष्ठ वेनकुमारको सारी दण्डनीतिका स्वतः ज्ञान हो गया। तब उन्होंने हाथ जोड़कर अन महर्षियोंसे कहा—॥१००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुसूक्ष्मा मे समुत्पन्ना बुद्धिर्धर्मार्थदर्शिनी।
अनया किं मया कार्यं तन्मे तत्त्वेन शंसत ॥ १०१ ॥
मूलम्
सुसूक्ष्मा मे समुत्पन्ना बुद्धिर्धर्मार्थदर्शिनी।
अनया किं मया कार्यं तन्मे तत्त्वेन शंसत ॥ १०१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महात्माओ! धर्म और अर्थका दर्शन करानेवाली अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि मुझे स्वतः प्राप्त हो गयी है। मुझे इस बुद्धिके द्वारा आपलोगोंकी कौन-सी सेवा करनी है, यह मुझे यथार्थ रूपसे बताइये॥१०१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्मां भवन्तो वक्ष्यन्ति कार्यमर्थसमन्वितम्।
तदहं वै करिष्यामि नात्र कार्या विचारणा ॥ १०२ ॥
मूलम्
यन्मां भवन्तो वक्ष्यन्ति कार्यमर्थसमन्वितम्।
तदहं वै करिष्यामि नात्र कार्या विचारणा ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपलोग मुझे जिस किसी भी प्रयोजनपूर्ण कार्यके लिये आज्ञा देंगे, उसे मैं अवश्य पूरा करूँगा। इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये’॥१०२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमूचुस्तत्र देवास्ते ते चैव परमर्षयः।
नियतो यत्र धर्मो वै तमशङ्कः समाचर ॥ १०३ ॥
मूलम्
तमूचुस्तत्र देवास्ते ते चैव परमर्षयः।
नियतो यत्र धर्मो वै तमशङ्कः समाचर ॥ १०३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वहाँ देवताओं और उन महर्षियोंने उनसे कहा—‘वेननन्दन! जिस कार्यमें नियमपूर्वक धर्मकी सिद्धि होती हो, उसे निर्भय होकर करो॥१०३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियाप्रिये परित्यज्य समः सर्वेषु जन्तुषु।
कामं क्रोधं च लोभं च मानं चोत्सृज्य दूरतः॥१०४॥
मूलम्
प्रियाप्रिये परित्यज्य समः सर्वेषु जन्तुषु।
कामं क्रोधं च लोभं च मानं चोत्सृज्य दूरतः॥१०४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रिय और अप्रियका विचार छोड़कर काम, क्रोध, लोभ और मानको दूर हटाकर समस्त प्राणियोंके प्रति समभाव रखो॥१०४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्च धर्मात् प्रविचलेल्लोके कश्चन मानवः।
निग्राह्यस्ते स्वबाहुभ्यां शश्वद् धर्ममवेक्षता ॥ १०५ ॥
मूलम्
यश्च धर्मात् प्रविचलेल्लोके कश्चन मानवः।
निग्राह्यस्ते स्वबाहुभ्यां शश्वद् धर्ममवेक्षता ॥ १०५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लोकमें जो कोई भी मनुष्य धर्मसे विचलित हो, उसे सनातन धर्मपर दृष्टि रखते हुए अपने बाहुबलसे परास्त करके दण्ड दो॥१०५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिज्ञां चाधिरोहस्व मनसा कर्मणा गिरा।
पालयिष्याम्यहं भौमं ब्रह्म इत्येव चासकृत् ॥ १०६ ॥
मूलम्
प्रतिज्ञां चाधिरोहस्व मनसा कर्मणा गिरा।
पालयिष्याम्यहं भौमं ब्रह्म इत्येव चासकृत् ॥ १०६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘साथ ही यह प्रतिज्ञा करो कि ‘मैं मन, वाणी और क्रियाद्वारा भूतलवर्ती ब्रह्म (वेद) का निरन्तर पालन करूँगा॥१०६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चात्र धर्मो नित्योक्तो दण्डनीतिव्यपाश्रयः।
तमशङ्कः करिष्यामि स्ववशो न कदाचन ॥ १०७ ॥
मूलम्
यश्चात्र धर्मो नित्योक्तो दण्डनीतिव्यपाश्रयः।
तमशङ्कः करिष्यामि स्ववशो न कदाचन ॥ १०७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वेदमें दण्डनीतिसे सम्बन्ध रखनेवाला जो नित्य धर्म बताया गया है, उसका मैं निःशंक होकर पालन करूँगा। कभी स्वच्छन्द नहीं होऊँगा’॥१०७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदण्ड्या मे द्विजाश्चेति प्रतिजानीहि हे विभो।
लोकं च संकरात्कृत्स्नं त्रातास्मीति परंतप ॥ १०८ ॥
मूलम्
अदण्ड्या मे द्विजाश्चेति प्रतिजानीहि हे विभो।
लोकं च संकरात्कृत्स्नं त्रातास्मीति परंतप ॥ १०८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतप प्रभो! साथ ही यह प्रतिज्ञा करो कि ‘ब्राह्मण मेरे लिये अदण्डनीय होंगे तथा मैं सम्पूर्ण जगत्के वर्णसंकरता और धर्मसंकरतासे बचाऊँगा’॥१०८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैन्यस्ततस्तानुवाच देवानृषिपुरोगमान् ।
ब्राह्मणा मे महाभागा नमस्याः पुरुषर्षभाः ॥ १०९ ॥
मूलम्
वैन्यस्ततस्तानुवाच देवानृषिपुरोगमान् ।
ब्राह्मणा मे महाभागा नमस्याः पुरुषर्षभाः ॥ १०९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वेनकुमारने उन देवताओं तथा उन अग्रवर्ती ऋषियोंसे कहा—‘नरश्रेष्ठ महात्माओ! महाभाग ब्राह्मण मेरे लिये सदा वन्दनीय होंगे’॥१०९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमस्त्विति वैन्यस्तु तैरुक्तो ब्रह्मवादिभिः।
पुरोधाश्चाभवत् तस्य शुक्रो ब्रह्ममयो निधिः ॥ ११० ॥
मूलम्
एवमस्त्विति वैन्यस्तु तैरुक्तो ब्रह्मवादिभिः।
पुरोधाश्चाभवत् तस्य शुक्रो ब्रह्ममयो निधिः ॥ ११० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ऐसा कहनेपर उन वेदवादी महर्षियोंने उनसे इस प्रकार कहा, ‘एवमस्तु’। फिर शुक्राचार्य उनके पुरोहित हुए, जो वैदिक ज्ञानके भण्डार हैं॥११०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्त्रिणो वालखिल्याश्च सारस्वत्यो गणस्तथा।
महर्षिर्भगवान् गर्गस्तस्य सांवत्सरोऽभवत् ॥ १११ ॥
मूलम्
मन्त्रिणो वालखिल्याश्च सारस्वत्यो गणस्तथा।
महर्षिर्भगवान् गर्गस्तस्य सांवत्सरोऽभवत् ॥ १११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वालखिल्यगण तथा सरस्वतीतटवर्ती महर्षियोंके समुदायने उनके मन्त्रीका कार्य सँभाला। महर्षि भगवान् गर्ग उनके दरबारके ज्योतिषी हुए॥१११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मनाष्टम इत्येव श्रुतिरेषा परा नृषु।
उत्पन्नौ बन्दिनौ चास्य तत्पूर्वौ सूतमागधौ ॥ ११२ ॥
मूलम्
आत्मनाष्टम इत्येव श्रुतिरेषा परा नृषु।
उत्पन्नौ बन्दिनौ चास्य तत्पूर्वौ सूतमागधौ ॥ ११२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्योंमें यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि स्वयं राजा पृथु भगवान् विष्णुसे आठवीं पीढ़ीमें थे[^*]। उनके जन्मसे पहले ही सूत और मागध नामक दो बन्दी (स्तुतिपाठक) उत्पन्न हुए थे॥११२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोः प्रीतो ददौ राजा पृथुर्वैन्यः प्रतापवान्।
अनूपदेशं सूताय मगधं मागधाय च ॥ ११३ ॥
मूलम्
तयोः प्रीतो ददौ राजा पृथुर्वैन्यः प्रतापवान्।
अनूपदेशं सूताय मगधं मागधाय च ॥ ११३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेनके पुत्र प्रतापी राजा पृथुने उन दोनोंको प्रसन्न होकर पुरस्कार दिया। सूतको अनूप देश सागरतटवर्ती प्राप्त) और मागधको मगध देश प्रदान किया॥११३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समतां वसुधायाश्च स सम्यगुदपादयत्।
वैषम्यं हि परं भूमेरासीदिति च नः श्रुतम् ॥ ११४ ॥
मूलम्
समतां वसुधायाश्च स सम्यगुदपादयत्।
वैषम्यं हि परं भूमेरासीदिति च नः श्रुतम् ॥ ११४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुना जाता है कि पृथुके समय यह पृथ्वी बहुत ऊँची-नीची थी। उन्होंने ही इसे भलीभाँति समतल बनाया था॥११४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्वन्तरेषु सर्वेषु विषमा जायते मही।
उज्जहार ततो वैन्यः शिलाजालान् समन्ततः ॥ ११५ ॥
धनुष्कोट्या महाराज तेन शैला विवर्धिताः।
मूलम्
मन्वन्तरेषु सर्वेषु विषमा जायते मही।
उज्जहार ततो वैन्यः शिलाजालान् समन्ततः ॥ ११५ ॥
धनुष्कोट्या महाराज तेन शैला विवर्धिताः।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! सभी मन्वन्तरोंमें यह पृथ्वी ऊँची-नीची हो जाती है; उस समय वेनकुमार पृथुने धनुषकी कोटिद्वारा चारों ओरसे शिलासमूहोंको उखाड़ डाला और उन्हें एक स्थानपर संचित कर दिया; इसीलिये पर्वतोंकी लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई बढ़ गयी॥११५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विष्णुना च देवेन शक्रेण विबुधैः सह ॥ ११६ ॥
ऋषिभिश्च प्रजापालैर्ब्राह्मणैश्चाभिषेचितः ।
मूलम्
स विष्णुना च देवेन शक्रेण विबुधैः सह ॥ ११६ ॥
ऋषिभिश्च प्रजापालैर्ब्राह्मणैश्चाभिषेचितः ।
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् विष्णु, देवताओंसहित इन्द्र, ऋषिसमूह, प्रजापतिगण तथा ब्राह्मणोंने पृथुका राजाके पदपर अभिषेक किया॥११६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं साक्षात् पृथिवी भेजे रत्नान्यादाय पाण्डव ॥ ११७ ॥
सागरः सरितां भर्ता हिमवांश्चाचलोत्तमः।
शक्रश्च धनमक्षय्यं प्रादात् तस्मै युधिष्ठिर ॥ ११८ ॥
मूलम्
तं साक्षात् पृथिवी भेजे रत्नान्यादाय पाण्डव ॥ ११७ ॥
सागरः सरितां भर्ता हिमवांश्चाचलोत्तमः।
शक्रश्च धनमक्षय्यं प्रादात् तस्मै युधिष्ठिर ॥ ११८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर! उस समय साक्षात् पृथ्वी देवी रत्नोंकी भेंट लेकर उनकी सेवामें उपस्थित हुई थी। सरिताओंके स्वामी समुद्र, पर्वतोंमें श्रेष्ठ हिमवान् तथा देवराज इन्द्रने अक्षय धन समर्पित किया॥११७-११८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुक्मं चापि महामेरुः स्वयं कनकपर्वतः।
यक्षराक्षसभर्ता च भगवान् नरवाहनः ॥ ११९ ॥
धर्मे चार्थे च कामे च समर्थं प्रददौ धनम्।
मूलम्
रुक्मं चापि महामेरुः स्वयं कनकपर्वतः।
यक्षराक्षसभर्ता च भगवान् नरवाहनः ॥ ११९ ॥
धर्मे चार्थे च कामे च समर्थं प्रददौ धनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
सुवर्णमय पर्वत महामेरुने स्वयं आकर उन्हें सुवर्णकी राशि भेंट की। मनुष्योंपर सवारी करनेवाले यक्षराक्षसराज भगवान् कुबेरने भी उन्हें इतना धन दिया, जो उनके धर्म, अर्थ और कामका निर्वाह करनेके लिये पर्याप्त हो॥११९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हया रथाश्च नागाश्च कोटिशः पुरुषास्तथा ॥ १२० ॥
प्रादुर्बभूवुर्वैन्यस्य चिन्तनादेव पाण्डव ।
मूलम्
हया रथाश्च नागाश्च कोटिशः पुरुषास्तथा ॥ १२० ॥
प्रादुर्बभूवुर्वैन्यस्य चिन्तनादेव पाण्डव ।
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुनन्दन! वेनपुत्र पृथुके चिन्तन करते ही उनकी सेवामें घोड़े, रथ, हाथी और करोड़ों मनुष्य प्रकट हो गये॥१२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न जरा न च दुर्भिक्षं नाधयो व्याधयस्तथा ॥ १२१ ॥
सरीसृपेभ्यः स्तेनेभ्यो न चान्योन्यात् कदाचन।
भयमुत्पद्यते तत्र तस्य राज्ञोऽभिरक्षणात् ॥ १२२ ॥
मूलम्
न जरा न च दुर्भिक्षं नाधयो व्याधयस्तथा ॥ १२१ ॥
सरीसृपेभ्यः स्तेनेभ्यो न चान्योन्यात् कदाचन।
भयमुत्पद्यते तत्र तस्य राज्ञोऽभिरक्षणात् ॥ १२२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके राज्यमें किसीको बुढ़ापा, दुर्भिक्ष तथा आधि-व्याधिका कष्ट नहीं था। राजाकी ओरसे रक्षाकी समुचित व्यवस्था होनेके कारण वहाँ कभी किसीको सर्पों, चोरों तथा आपसके लोगोंसे भय नहीं प्राप्त होता था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपस्तस्तम्भिरे चास्य समुद्रमभियास्यतः ।
पर्वताश्च ददुर्मार्गं ध्वजभङ्गश्च नाभवत् ॥ १२३ ॥
मूलम्
आपस्तस्तम्भिरे चास्य समुद्रमभियास्यतः ।
पर्वताश्च ददुर्मार्गं ध्वजभङ्गश्च नाभवत् ॥ १२३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय वे समुद्रमें होकर चलते थे, उस समय उसका जल स्थिर हो जाता था। पर्वत उन्हें रास्ता दे देते थे, उनके रथकी ध्वजा कभी टूटी नहीं॥१२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेनेयं पृथिवी दुग्धा सस्यानि दश सप्त च।
यक्षराक्षसनागैश्चापीप्सितं यस्य यस्य यत् ॥ १२४ ॥
मूलम्
तेनेयं पृथिवी दुग्धा सस्यानि दश सप्त च।
यक्षराक्षसनागैश्चापीप्सितं यस्य यस्य यत् ॥ १२४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने इस पृथ्वीसे सत्रह प्रकारके धान्योंका दोहन किया था, यक्षों, राक्षसों और नागोंमेंसे जिसको जो वस्तु अभीष्ट थी, वह उन्होंने पृथ्वीसे दुह ली थी॥१२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन धर्मोत्तरश्चायं कृतो लोको महात्मना।
रंजिताश्च प्रजाः सर्वास्तेन राजेति शब्द्यते ॥ १२५ ॥
मूलम्
तेन धर्मोत्तरश्चायं कृतो लोको महात्मना।
रंजिताश्च प्रजाः सर्वास्तेन राजेति शब्द्यते ॥ १२५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन महात्माने सम्पूर्ण जगत्में धर्मकी प्रधानता स्थापित कर दी थी। उन्होंने समस्त प्रजाओंका रंजन किया था; इसलिये वे ‘राजा’ कहलाते थे॥१२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणानां क्षतत्राणात् ततः क्षत्रिय उच्यते।
प्रथिता धर्मतश्चेयं पृथिवी बहुभिः स्मृता ॥ १२६ ॥
मूलम्
ब्राह्मणानां क्षतत्राणात् ततः क्षत्रिय उच्यते।
प्रथिता धर्मतश्चेयं पृथिवी बहुभिः स्मृता ॥ १२६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणोंको क्षतिसे बचानेके कारण वे क्षत्रिय कहे जाने लगे। उन्होंने धर्मके द्वारा इस भूमिको प्रथित किया—इसकी ख्याति बढ़ायी; इसलिये बहुसंख्यक मनुष्योंद्वारा यह ‘पृथ्वी’ कहलायी॥१२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थापनं चाकरोद् विष्णुः स्वयमेव सनातनः।
नातिवर्तिष्यते कश्चिद् राजंस्त्वामिति भारत ॥ १२७ ॥
मूलम्
स्थापनं चाकरोद् विष्णुः स्वयमेव सनातनः।
नातिवर्तिष्यते कश्चिद् राजंस्त्वामिति भारत ॥ १२७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! स्वयं सनातन भगवान् विष्णुने उनके लिये यह मर्यादा स्थापित की कि ‘राजन्! कोई भी तुम्हारी आज्ञाका उल्लंघन नहीं कर सकेगा’॥१२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपसा भगवान् विष्णुराविवेश च भूमिपम्।
देववन्नरदेवानां नमते यं जगन्नृपम् ॥ १२८ ॥
मूलम्
तपसा भगवान् विष्णुराविवेश च भूमिपम्।
देववन्नरदेवानां नमते यं जगन्नृपम् ॥ १२८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा पृथुकी तपस्यासे प्रसन्न हो भगवान् विष्णुने स्वयं उनके भीतर प्रवेश किया था। समस्त नरेशोंमेंसे राजा पृथुको ही यह सारा जगत् देवताके समान मस्तक झुकाता था॥१२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दण्डनीत्या च सततं रक्षितव्यं नरेश्वर।
नाधर्षयेत् तथा कश्चिच्चारनिष्पन्ददर्शनात् ॥ १२९ ॥
मूलम्
दण्डनीत्या च सततं रक्षितव्यं नरेश्वर।
नाधर्षयेत् तथा कश्चिच्चारनिष्पन्ददर्शनात् ॥ १२९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! इसलिये तुम्हें गुप्तचर नियुक्त करके राज्यकी अवस्थापर दृष्टिपात करते हुए सदा दण्डनीतिके द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्रकी रक्षा करनी चाहिये, जिससे कोई इसपर आक्रमण करनेका साहस न कर सके॥१२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुभं हि कर्म राजेन्द्र शुभत्वायोपकल्पते।
आत्मना कारणैश्चैव समस्येह महीक्षितः ॥ १३० ॥
को हेतुर्यद् वशे तिष्ठेल्लोको दैवादृते गुणात्।
मूलम्
शुभं हि कर्म राजेन्द्र शुभत्वायोपकल्पते।
आत्मना कारणैश्चैव समस्येह महीक्षितः ॥ १३० ॥
को हेतुर्यद् वशे तिष्ठेल्लोको दैवादृते गुणात्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! चित्त और क्रियाद्वारा समभाव रखनेवाले राजाका किया हुआ शुभ कर्म प्रजाके भलेके लिये ही होता है। उसके दैवी गुणके सिवा और क्या कारण हो सकता है, जिससे सारा देश उस एक ही व्यक्तिके अधीन रहे?॥१३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णोर्ललाटात् कमलं सौवर्णमभवत् तदा ॥ १३१ ॥
श्रीः सम्भूता यतो देवी पत्नी धर्मस्य धीमतः।
मूलम्
विष्णोर्ललाटात् कमलं सौवर्णमभवत् तदा ॥ १३१ ॥
श्रीः सम्भूता यतो देवी पत्नी धर्मस्य धीमतः।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय भगवान् विष्णुके ललाटसे एक सुवर्णमय कमल प्रकट हुआ, जिससे बुद्धिमान् धर्मकी पत्नी श्रीदेवीका प्रादुर्भाव हुआ॥१३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रियः सकाशादर्शश्च जातो धर्मेण पाण्डव ॥ १३२ ॥
अथ धर्मस्तथैवार्थः श्रीश्च राज्ये प्रतिष्ठिता।
मूलम्
श्रियः सकाशादर्शश्च जातो धर्मेण पाण्डव ॥ १३२ ॥
अथ धर्मस्तथैवार्थः श्रीश्च राज्ये प्रतिष्ठिता।
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुनन्दन! धर्मके द्वारा श्रीदेवीसे अर्थकी उत्पत्ति हुई। तदनन्तर धर्म, अर्थ और श्री—तीनों ही राज्यमें प्रतिष्ठित हुए॥१३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुकृतस्य क्षयाच्चैव स्वर्लोकादेत्य मेदिनीम् ॥ १३३ ॥
पार्थिवो जायते तात दण्डनीतिविशारदः।
मूलम्
सुकृतस्य क्षयाच्चैव स्वर्लोकादेत्य मेदिनीम् ॥ १३३ ॥
पार्थिवो जायते तात दण्डनीतिविशारदः।
अनुवाद (हिन्दी)
तात! पुण्यका क्षय होनेपर मनुष्य स्वर्गलोकसे पृथिवीपर आता और दण्डनीतिविशारद राजाके रूपमें जन्म लेता है॥१३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महत्त्वेन च संयुक्तो वैष्णवेन नरो भुवि ॥ १३४ ॥
बुद्ध्या भवति संयुक्तो माहात्म्यं चाधिगच्छति।
मूलम्
महत्त्वेन च संयुक्तो वैष्णवेन नरो भुवि ॥ १३४ ॥
बुद्ध्या भवति संयुक्तो माहात्म्यं चाधिगच्छति।
अनुवाद (हिन्दी)
वह मनुष्य इस भूतलपर भगवान् विष्णुकी महत्तासे युक्त तथा बुद्धिसम्पन्न हो विशेष माहात्म्य प्राप्त कर लेता है॥१३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थापितं च ततो देवैर्न कश्चिदतिवर्तते।
तिष्ठत्येकस्य च वशे तं चेदं न विधीयते ॥ १३५ ॥
मूलम्
स्थापितं च ततो देवैर्न कश्चिदतिवर्तते।
तिष्ठत्येकस्य च वशे तं चेदं न विधीयते ॥ १३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उसे देवताओंद्वारा राजाके पदपर स्थापित हुआ मानकर कोई भी उसकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करता। यह सारा जगत् उस एक ही व्यक्तिके वशमें स्थित रहता है, उसके ऊपर यह जगत् अपना शासन नहीं चला सकता॥१३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुभं हि कर्म राजेन्द्र शुभत्वायोपकल्पते।
तुल्यस्यैकस्य यस्यायं लोको वचसि तिष्ठते ॥ १३६ ॥
मूलम्
शुभं हि कर्म राजेन्द्र शुभत्वायोपकल्पते।
तुल्यस्यैकस्य यस्यायं लोको वचसि तिष्ठते ॥ १३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! शुभ कर्मका परिणाम शुभ ही होता है, कभी तो अन्य मनुष्योंके समान होनेपर भी एक-मात्र राजाकी आज्ञामें यह सारा जगत् स्थित रहता है॥१३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽस्य वै मुखमद्राक्षीत् सौम्यं सोऽस्य वशानुगः।
सुभगं चार्थवन्तं च रूपवन्तं च पश्यति ॥ १३७ ॥
मूलम्
योऽस्य वै मुखमद्राक्षीत् सौम्यं सोऽस्य वशानुगः।
सुभगं चार्थवन्तं च रूपवन्तं च पश्यति ॥ १३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसने राजाका सौम्य मुख देख लिया, वह उसके अधीन हो गया। प्रत्येक मनुष्य राजाको सौभाग्यशाली, धनवान् और रूपवान् देखता है॥१३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महत्त्वात् तस्य दण्डस्य नीतिर्विस्पष्टलक्षणा।
नयचारश्च विपुलो येन सर्वमिदं ततम् ॥ १३८ ॥
मूलम्
महत्त्वात् तस्य दण्डस्य नीतिर्विस्पष्टलक्षणा।
नयचारश्च विपुलो येन सर्वमिदं ततम् ॥ १३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वोक्त दण्डकी महत्तासे ही स्पष्ट लक्षणोंवाली नीति तथा न्यायोचित आचारका अधिक प्रचार होता है, जिससे यह सारा जगत् व्याप्त है॥१३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगमश्च पुराणानां महर्षीणां च सम्भवः।
तीर्थवंशश्च वंशश्च नक्षत्राणां युधिष्ठिर ॥ १३९ ॥
सकलं चातुराश्रम्यं चातुर्होत्रं तथैव च।
चातुर्वर्ण्यं तथैवात्र चातुर्विद्यं च कीर्तितम् ॥ १४० ॥
मूलम्
आगमश्च पुराणानां महर्षीणां च सम्भवः।
तीर्थवंशश्च वंशश्च नक्षत्राणां युधिष्ठिर ॥ १३९ ॥
सकलं चातुराश्रम्यं चातुर्होत्रं तथैव च।
चातुर्वर्ण्यं तथैवात्र चातुर्विद्यं च कीर्तितम् ॥ १४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! पुराणशास्त्र, महर्षियोंकी उत्पत्ति, तीर्थ-समूह, नक्षत्रसमुदाय, ब्रह्मचर्य आदि चार आश्रम, होता आदि चार प्रकारके ऋत्विजोंसे सम्पन्न होनेवाले यज्ञकर्म, चारों वर्ण और चारों विद्याओंका पूर्वोक्त नीतिशास्त्रमें प्रतिपादन किया गया है॥१३९-१४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतिहासाश्च वेदाश्च न्यायः कृत्स्नश्च वर्णितः।
तपो ज्ञानमहिंसा च सत्यासत्येन यः परः ॥ १४१ ॥
वृद्धोपसेवा दानं च शौचमुत्थानमेव च।
सर्वभूतानुकम्पा च सर्वमत्रोपवर्णितम् ॥ १४२ ॥
मूलम्
इतिहासाश्च वेदाश्च न्यायः कृत्स्नश्च वर्णितः।
तपो ज्ञानमहिंसा च सत्यासत्येन यः परः ॥ १४१ ॥
वृद्धोपसेवा दानं च शौचमुत्थानमेव च।
सर्वभूतानुकम्पा च सर्वमत्रोपवर्णितम् ॥ १४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतिहास, वेद, न्याय—इन सबका उसमें पूरा-पूरा वर्णन है। तप, ज्ञान, अहिंसाका तथा जो सत्य, असत्यसे परे है उसका और वृद्धजनोंकी सेवा, दान, शौच, उत्थान तथा समस्त प्राणियोंपर दया आदि सभी विषयोंका उस ग्रन्थमें वर्णन है॥१४१-१४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भुवि चाधोगतं यच्च तच्च सर्वं समर्पितम्।
तस्मिन् पैतामहे शास्त्रे पाण्डवैतन्न संशयः ॥ १४३ ॥
मूलम्
भुवि चाधोगतं यच्च तच्च सर्वं समर्पितम्।
तस्मिन् पैतामहे शास्त्रे पाण्डवैतन्न संशयः ॥ १४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुनन्दन! अधिक क्या कहा जाय? जो कुछ इस पृथ्वीपर है और जो इसके नीचे है, उस सबका ब्रह्माजीके पूर्वोक्त शास्त्रमें समावेश किया गया है, इसमें संशय नहीं है॥१४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो जगति राजेन्द्र सततं शब्दितं बुधैः।
देवाश्च नरदेवाश्च तुल्या इति विशाम्पते ॥ १४४ ॥
मूलम्
ततो जगति राजेन्द्र सततं शब्दितं बुधैः।
देवाश्च नरदेवाश्च तुल्या इति विशाम्पते ॥ १४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! प्रजानाथ! तबसे जगत्में विद्वानोंने सदाके लिये यह घोषणा कर दी है कि ‘देव और नरदेव (राजा) दोनों समान हैं’॥१४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् ते सर्वमाख्यातं महत्त्वं प्रति राजसु।
कार्त्स्न्येन भरतश्रेष्ठ किमन्यदिह वर्तते ॥ १४५ ॥
मूलम्
एतत् ते सर्वमाख्यातं महत्त्वं प्रति राजसु।
कार्त्स्न्येन भरतश्रेष्ठ किमन्यदिह वर्तते ॥ १४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार राजाओंका जो कुछ महत्त्व है, वह सब मैंने सम्पूर्ण रूपसे तुम्हें बता दिया। अब इस विषयमें तुम्हारे लिये और क्या जानना शेष रह गया है?॥१४५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि सूत्राध्याये एकोनषष्टितमोऽध्यायः ॥ ५९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें सूत्राध्यायविषयक उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५९॥
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शत्रुपर चढ़ाई करनेके चार अवसर ये हैं—(१) अपने मित्रोंकी वृद्धि। (२) अपने कोशका भरपूर संग्रह। (३) शत्रुके मित्रोंका नाश। (४) शत्रुके कोशकी हानि।
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पहला शत्रु राजा, दूसरा मित्र राजा, तीसरा शत्रुका मित्र राजा, चौथा मित्रका मित्र राजा, पाँचवाँ शत्रुके मित्रका मित्र राजा, छठा अपने पृष्ठभागकी रक्षाके लिये स्वयं उपस्थित हुआ राजा, सातवाँ शत्रुकी सहायता एवं पृष्ठपोषणके लिये स्वयं उपस्थित राजा, आठवाँ अपने पक्षमें बुलानेपर आया हुआ राजा, नवाँ शत्रुपक्षमें बुलानेपर आया हुआ राजा, दसवाँ स्वयं विजयाभिलाषी नरेश, ग्यारहवाँ अपने और शत्रु दोनोंकी ओरसे मध्यस्थ राजा, बारहवाँ सबसे अधिक शक्तिशाली एवं उदासीन राजा—ये द्वादश राजमण्डल कहे गये हैं।