भागसूचना
सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
राजाके धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्तावका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्योद्युक्तेन वै राज्ञा भवितव्यं युधिष्ठिर।
प्रशस्यते न राजा हि नारीवोद्यमवर्जितः ॥ १ ॥
मूलम्
नित्योद्युक्तेन वै राज्ञा भवितव्यं युधिष्ठिर।
प्रशस्यते न राजा हि नारीवोद्यमवर्जितः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! राजाको सदा ही उद्योगशील होना चाहिये। जो उद्योग छोड़कर स्त्रीकी भाँति बेकार बैठा रहता है, उस राजाकी प्रशंसा नहीं होती है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवानुशना चाह श्लोकमत्र विशाम्पते।
तदिहैकमना राजन् गदतस्तं निबोध मे ॥ २ ॥
मूलम्
भगवानुशना चाह श्लोकमत्र विशाम्पते।
तदिहैकमना राजन् गदतस्तं निबोध मे ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! इस विषयमें भगवान् शुक्राचार्यने एक श्लोक कहा है, उसे मैं बता रहा हूँ। तुम यहाँ एकाग्रचित्त होकर मुझसे उस श्लोकको सुनो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वाविमौ ग्रसते भूमिः सर्पो बिलशयानिव।
राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥ ३ ॥
मूलम्
द्वाविमौ ग्रसते भूमिः सर्पो बिलशयानिव।
राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे साँप बिलमें रहनेवाले चूहोंको निगल जाता है, उसी प्रकार दूसरोंसे लड़ाई न करनेवाले राजा तथा विद्याध्ययन आदिके लिये घर छोड़कर अन्यत्र न जानेवाले ब्राह्मणको पृथ्वी निगल जाती है (अर्थात् वे पुरुषार्थ-साधन किये बिना ही मर जाते हैं)’॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदेतन्नरशार्दूल हृदि त्वं कर्तुमर्हसि।
संधेयानभिसंधत्स्व विरोध्यांश्च विरोधय ॥ ४ ॥
मूलम्
तदेतन्नरशार्दूल हृदि त्वं कर्तुमर्हसि।
संधेयानभिसंधत्स्व विरोध्यांश्च विरोधय ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः नरश्रेष्ठ! तुम इस बातको अपने हृदयमें धारण कर लो, जो संधि करनेके योग्य हों, उनसे संधि करो और जो विरोधके पात्र हों, उनका डटकर विरोध करो॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सप्ताङ्गस्य च राज्यस्य विपरीतं य आचरेत्।
गुरुर्वा यदि वा मित्रं प्रतिहन्तव्य एव सः ॥ ५ ॥
मूलम्
सप्ताङ्गस्य च राज्यस्य विपरीतं य आचरेत्।
गुरुर्वा यदि वा मित्रं प्रतिहन्तव्य एव सः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राज्यके सात अङ्ग हैं—राजा, मन्त्री, मित्र, खजाना, देश, दुर्ग और सेना। जो इन सात अङ्गोंसे युक्त राज्यके विपरीत आचरण करे, वह गुरु हो या मित्र, मार डालनेके ही योग्य है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरुत्तेन हि राज्ञा वै गीतः श्लोकः पुरातनः।
राजाधिकारे राजेन्द्र बृहस्पतिमते पुरा ॥ ६ ॥
मूलम्
मरुत्तेन हि राज्ञा वै गीतः श्लोकः पुरातनः।
राजाधिकारे राजेन्द्र बृहस्पतिमते पुरा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! पूर्वकालमें राजा मरुत्तने एक प्राचीन श्लोकका गान किया था, जो बृहस्पतिके मतानुसार राजाके अधिकारके विषयमें प्रकाश डालता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः ।
उत्पथप्रतिपन्नस्य दण्डो भवति शाश्वतः ॥ ७ ॥
मूलम्
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः ।
उत्पथप्रतिपन्नस्य दण्डो भवति शाश्वतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘घमंडमें भरकर कर्तव्य और अकर्तव्यका ज्ञान न रखनेवाला तथा कुमार्गपर चलनेवाला मुनष्य यदि अपना गुरु हो तो उसे भी दण्ड देनेका सनातन विधान है’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाहोः पुत्रेण राज्ञा च सगरेण च धीमता।
असमञ्जाः सुतो ज्येष्ठस्त्यक्तः पौरहितैषिणा ॥ ८ ॥
मूलम्
बाहोः पुत्रेण राज्ञा च सगरेण च धीमता।
असमञ्जाः सुतो ज्येष्ठस्त्यक्तः पौरहितैषिणा ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाहुके पुत्र बुद्धिमान् राजा सगरने तो पुरवासियोंके हितकी इच्छासे अपने ज्येष्ठ पुत्र असमंजाका भी त्याग कर दिया था॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असमञ्जाः सरय्वां स पौराणां बालकान् नृप।
न्यमज्जयदतः पित्रा निर्भर्त्स्य स विवासितः ॥ ९ ॥
मूलम्
असमञ्जाः सरय्वां स पौराणां बालकान् नृप।
न्यमज्जयदतः पित्रा निर्भर्त्स्य स विवासितः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! असमंजा पुरवासियोंके बालकोंको पकड़कर सरयूनदीमें डुबा दिया करता था; अतः उसके पिताने उसे दुत्कारकर घरसे बाहर निकाल दिया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषिणोद्दालकेनापि श्वेतकेतुर्महातपाः ।
मिथ्या विप्रानुपचरन् संत्यक्तो दयितः सुतः ॥ १० ॥
मूलम्
ऋषिणोद्दालकेनापि श्वेतकेतुर्महातपाः ।
मिथ्या विप्रानुपचरन् संत्यक्तो दयितः सुतः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्दालक ऋषिने अपने प्रिय पुत्र महातपस्वी श्वेतकेतुको केवल इस अपराधसे त्याग दिया कि वह ब्राह्मणोंके साथ मिथ्या एवं कपटपूर्ण व्यवहार करता था॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकरञ्जनमेवात्र राज्ञां धर्मः सनातनः।
सत्यस्य रक्षणं चैव व्यवहारस्य चार्जवम् ॥ ११ ॥
मूलम्
लोकरञ्जनमेवात्र राज्ञां धर्मः सनातनः।
सत्यस्य रक्षणं चैव व्यवहारस्य चार्जवम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः इस लोकमें प्रजावर्गको प्रसन्न रखना ही राजाओंका सनातन धर्म है। सत्यकी रक्षा और व्यवहारकी सरलता ही राजोचित कर्तव्य है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हिंस्यात् परवित्तानि देयं काले च दापयेत्।
विक्रान्तः सत्यवाक् क्षान्तो नृपो न चलते पथः ॥ १२ ॥
मूलम्
न हिंस्यात् परवित्तानि देयं काले च दापयेत्।
विक्रान्तः सत्यवाक् क्षान्तो नृपो न चलते पथः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरोंके धनका नाश न करे। जिसको जो कुछ देना हो, उसे वह समयपर दिलानेकी व्यवस्था करे। पराक्रमी, सत्यवादी और क्षमाशील बना रहे—ऐसा करनेवाला राजा कभी पथभ्रष्ट नहीं होता॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मवांश्च जितक्रोधः शास्त्रार्थकृतनिश्चयः ।
धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च सततं रतः॥१३॥
त्रय्यां संवृतमन्त्रश्च राजा भवितुमर्हति।
वृजिनं च नरेन्द्राणां नान्यच्चारक्षणात् परम् ॥ १४ ॥
मूलम्
आत्मवांश्च जितक्रोधः शास्त्रार्थकृतनिश्चयः ।
धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च सततं रतः॥१३॥
त्रय्यां संवृतमन्त्रश्च राजा भवितुमर्हति।
वृजिनं च नरेन्द्राणां नान्यच्चारक्षणात् परम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसने अपने मनको वशमें कर लिया है, क्रोधको जीत लिया है तथा शास्त्रोंके सिद्धान्तका निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त कर लिया है, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके प्रयत्नमें निरन्तर लगा रहता है, जिसे तीनों वेदोंका ज्ञान है तथा जो अपने गुप्त विचारोंको दूसरोंपर प्रकट नहीं होने देता है, वही राजा होने योग्य है, प्रजाकी रक्षा न करनेसे बढ़कर राजाओंके लिये दूसरा कोई पाप नहीं है॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चातुर्वर्ण्यस्य धर्माश्च रक्षितव्या महीक्षिता।
धर्मसंकररक्षा च राज्ञां धर्मः सनातनः ॥ १५ ॥
मूलम्
चातुर्वर्ण्यस्य धर्माश्च रक्षितव्या महीक्षिता।
धर्मसंकररक्षा च राज्ञां धर्मः सनातनः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाको चारों वर्णोंके धर्मोंकी रक्षा करनी चाहिये, प्रजाको धर्मसंकरतासे बचाना राजाओंका सनातन धर्म है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न विश्वसेच्च नृपतिर्न चात्यर्थं च विश्वसेत्।
षाड्गुण्यगुणदोषांश्च नित्यं बुद्ध्यावलोकयेत् ॥ १६ ॥
मूलम्
न विश्वसेच्च नृपतिर्न चात्यर्थं च विश्वसेत्।
षाड्गुण्यगुणदोषांश्च नित्यं बुद्ध्यावलोकयेत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा किसीपर भी विश्वास न करे। विश्वसनीय व्यक्तिका भी अत्यन्त विश्वास न करे। राजनीतिके छः गुण होते हैं—सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय1। इन सबके गुण-दोषोंका अपनी बुद्धिद्वारा सदा निरीक्षण करे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विट्छिद्रदर्शी नृपतिर्नित्यमेव प्रशस्यते ।
त्रिवर्ग विदितार्थश्च युक्तचारोपधिश्च यः ॥ १७ ॥
मूलम्
द्विट्छिद्रदर्शी नृपतिर्नित्यमेव प्रशस्यते ।
त्रिवर्ग विदितार्थश्च युक्तचारोपधिश्च यः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंके छिद्र देखनेवाले राजाकी सदा ही प्रशंसा की जाती है। जिसे धर्म, अर्थ और कामके तत्त्वका ज्ञान है तथा जिसने शत्रुओंकी गुप्त बातोंको जानने और उनके मन्त्री आदिको फोड़नेके लिये गुप्तचर लगा रखा है, वह भी प्रशंसाके ही योग्य है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोशस्योपार्जनरतिर्यमवैश्रवणोपमः ।
वेत्ता च दशवर्गस्य स्थानवृद्धिक्षयात्मनः ॥ १८ ॥
मूलम्
कोशस्योपार्जनरतिर्यमवैश्रवणोपमः ।
वेत्ता च दशवर्गस्य स्थानवृद्धिक्षयात्मनः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाको उचित है कि वह सदा अपने कोषागारको भरा-पूरा रखनेका प्रयत्न करता रहे, उसे न्याय करनेमें यमराज और धन-संग्रह करनेमें कुबेरके समान होना चाहिये। वह स्थान, वृद्धि तथा क्षयके हेतुभूत दस1 वर्गोंका सदा ज्ञान रखे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभृतानां भवेद् भर्ता भृतानामन्ववेक्षकः।
नृपतिः सुमुखश्च स्यात् स्मितपूर्वाभिभाषिता ॥ १९ ॥
मूलम्
अभृतानां भवेद् भर्ता भृतानामन्ववेक्षकः।
नृपतिः सुमुखश्च स्यात् स्मितपूर्वाभिभाषिता ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके भरण-पोषणका प्रबन्ध न हो उनका पोषण राजा स्वयं करे और उसके द्वारा जिनका भरण-पोषण चल रहा हो, उन सबकी देखभाल रखे। राजाको सदा प्रसन्नमुख रहना और मुसकराते हुए वार्तालाप करना चाहिये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपासिता च वृद्धानां जिततन्द्रिरलोलुपः।
सतां वृत्ते स्थितमतिः संतोष्यश्चारुदर्शनः ॥ २० ॥
मूलम्
उपासिता च वृद्धानां जिततन्द्रिरलोलुपः।
सतां वृत्ते स्थितमतिः संतोष्यश्चारुदर्शनः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाको वृद्ध पुरुषोंकी उपासना (सेवा या संग) करनी चाहिये, वह आलस्यको जीते और लोलुपताका परित्याग करे। सत्पुरुषोंके व्यवहारमें मन लगावे। संतुष्ट होने योग्य स्वभाव बनाये रखे। वेश-भूषा ऐसी रखे, जिससे वह देखनेमें अत्यन्त मनोहर जान पड़े॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चाददीत वित्तानि सतां हस्तात् कदाचन।
असद्भ्यश्च समादद्यात् सद्भ्यस्तु प्रतिपादयेत् ॥ २१ ॥
मूलम्
न चाददीत वित्तानि सतां हस्तात् कदाचन।
असद्भ्यश्च समादद्यात् सद्भ्यस्तु प्रतिपादयेत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधुपुरुषोंके हाथसे कभी धन न छीने। असाधु पुरुषोंसे दण्डके रूपमें धन लेना चाहिये; साधु पुरुषोंको तो धन देना चाहिये॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयं प्रहर्ता दाता च वश्यात्मा रम्यसाधनः।
काले दाता च भोक्ता च शुद्धाचारस्तथैव च ॥ २२ ॥
मूलम्
स्वयं प्रहर्ता दाता च वश्यात्मा रम्यसाधनः।
काले दाता च भोक्ता च शुद्धाचारस्तथैव च ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वयं दुष्टोंपर प्रहार करे, दानशील बने, मनको वशमें रखे, सुरम्य साधनसे युक्त रहे, समय-समयपर धनका दान और उपभोग भी करे तथा निरन्तर शुद्ध एवं सदाचारी बना रहे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूरान् भक्तानसंहार्यान् कुले जातानरोगिणः।
शिष्टान् शिष्टाभिसम्बन्धान्मानिनोऽनवमानिनः ॥ २३ ॥
विद्याविदो लोकविदः परलोकान्ववेक्षकान् ।
धर्मे च निरतान् साधूनचलानचलानिव ॥ २४ ॥
सहायान् सततं कुर्याद् राजा भूतिपुरष्कृतः।
तैश्च तुल्यो भवेद् भोगैश्छत्रमात्राज्ञयाधिकः ॥ २५ ॥
मूलम्
शूरान् भक्तानसंहार्यान् कुले जातानरोगिणः।
शिष्टान् शिष्टाभिसम्बन्धान्मानिनोऽनवमानिनः ॥ २३ ॥
विद्याविदो लोकविदः परलोकान्ववेक्षकान् ।
धर्मे च निरतान् साधूनचलानचलानिव ॥ २४ ॥
सहायान् सततं कुर्याद् राजा भूतिपुरष्कृतः।
तैश्च तुल्यो भवेद् भोगैश्छत्रमात्राज्ञयाधिकः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो शूरवीर एवं भक्त हों, जिन्हें विपक्षी फोड़ न सकें, जो कुलीन, नीरोग एवं शिष्ट हों तथा शिष्ट पुरुषोंसे सम्बन्ध रखते हों, जो आत्मसम्मानकी रक्षा करते हुए दूसरोंका कभी अपमान न करते हों, धर्मपरायण, विद्वान्, लोकव्यवहारके ज्ञाता और शत्रुओंकी गतिविधिपर दृष्टि रखनेवाले हों, जिनमें साधुता भरी हो तथा जो पर्वतोंके समान अटल रहनेवाले हों, ऐसे लोगोंको ही राजा सदा अपना सहायक बनावे और उन्हें ऐश्वर्यका पुरस्कार दे। उन्हें अपने समान ही सुखभोगकी सुविधा प्रदान करे, केवल राजोचित छत्र धारण करना और सबको आज्ञा प्रदान करना—इन दो बातोंमें ही वह उन सहायकोंकी अपेक्षा अधिक रहे॥२३—२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षा च परोक्षा च वृत्तिश्चास्य भवेत् समा।
एवं कुर्वन् नरेन्द्रोऽपि न खेदमिह विन्दति ॥ २६ ॥
मूलम्
प्रत्यक्षा च परोक्षा च वृत्तिश्चास्य भवेत् समा।
एवं कुर्वन् नरेन्द्रोऽपि न खेदमिह विन्दति ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रत्यक्ष और परोक्षमें भी उनके साथ राजाका एक-सा ही बर्ताव होना चाहिये। ऐसा करनेवाला नरेश इस जगत्में कभी कष्ट नहीं उठाता॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वाभिशङ्की नृपतिर्यश्च सर्वहरो भवेत्।
स क्षिप्रमनृजुर्लुब्धः स्वजनेनैव बध्यते ॥ २७ ॥
मूलम्
सर्वाभिशङ्की नृपतिर्यश्च सर्वहरो भवेत्।
स क्षिप्रमनृजुर्लुब्धः स्वजनेनैव बध्यते ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा सबपर संदेह करता और सबका सर्वस्व हर लेता है, वह लोभी और कुटिल राजा एक दिन अपने ही लोगोंके हाथसे शीघ्र मारा जाता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुचिस्तु पृथिवीपालो लोकचित्तग्रहे रतः।
न पतत्यरिभिर्ग्रस्तः पतितश्चावतिष्ठते ॥ २८ ॥
मूलम्
शुचिस्तु पृथिवीपालो लोकचित्तग्रहे रतः।
न पतत्यरिभिर्ग्रस्तः पतितश्चावतिष्ठते ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो भूपाल बाहर-भीतरसे शुद्ध रहकर प्रजाके हृदयको अपनानेका प्रयत्न करता है, वह शत्रुओंका आक्रमण होनेपर भी उनके वशमें नहीं पड़ता, यदि उसका पतन हुआ भी तो वह सहायकोंको पाकर शीघ्र ही उठ खड़ा होता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्रोधनो ह्यव्यसनी मृदुदण्डो जितेन्द्रियः।
राजा भवति भूतानां विश्वास्यो हिमवानिव ॥ २९ ॥
मूलम्
अक्रोधनो ह्यव्यसनी मृदुदण्डो जितेन्द्रियः।
राजा भवति भूतानां विश्वास्यो हिमवानिव ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसमें क्रोधका अभाव होता है, जो दुर्व्यसनोंसे दूर रहता है, जिसका दण्ड भी कठोर नहीं होता तथा जो अपनी इन्द्रियोंपर विजय पा लेता है, वह राजा हिमालयके समान सम्पूर्ण प्राणियोंका विश्वासपात्र बन जाता है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राज्ञस्त्यागगुणोपेतः पररन्ध्रेषु तत्परः ।
सुदर्शः सर्ववर्णानां नयापनयवित् तथा ॥ ३० ॥
क्षिप्रकारी जितक्रोधः सुप्रसादो महामनाः।
अरोषप्रकृतिर्युक्तः क्रियावानविकत्थनः ॥ ३१ ॥
आरब्धान्येव कार्याणि सुपर्यवसितानि च।
यस्य सज्ञः प्रदृश्यन्ति स राजा राजसत्तमः ॥ ३२ ॥
मूलम्
प्राज्ञस्त्यागगुणोपेतः पररन्ध्रेषु तत्परः ।
सुदर्शः सर्ववर्णानां नयापनयवित् तथा ॥ ३० ॥
क्षिप्रकारी जितक्रोधः सुप्रसादो महामनाः।
अरोषप्रकृतिर्युक्तः क्रियावानविकत्थनः ॥ ३१ ॥
आरब्धान्येव कार्याणि सुपर्यवसितानि च।
यस्य सज्ञः प्रदृश्यन्ति स राजा राजसत्तमः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो बुद्धिमान्, त्यागी, शत्रुओंकी दुर्बलता जाननेके प्रयत्नमें तत्पर, देखनेमें सुन्दर, सभी वर्णोंके न्याय और अन्यायको समझनेवाला, शीघ्र कार्य करनेमें समर्थ, क्रोधपर विजय पानेवाला, आश्रितोंपर कृपा करनेवाला, महामनस्वी, कोमल स्वभावसे युक्त, उद्योगी, कर्मठ तथा आत्मप्रशंसासे दूर रहनेवाला है, जिस राजाके आरम्भ किये हुए सभी कार्य सुन्दर रूपसे समाप्त होते दिखायी देते हैं, वह समस्त राजाओंमें श्रेष्ठ है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रा इव पितुर्गेहे विषये यस्य मानवाः।
निर्भया विचरिष्यन्ति स राजा राजसत्तमः ॥ ३३ ॥
मूलम्
पुत्रा इव पितुर्गेहे विषये यस्य मानवाः।
निर्भया विचरिष्यन्ति स राजा राजसत्तमः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पुत्र अपने पिताके घरमें निर्भीक होकर रहते हैं, उसी प्रकार जिस राजाके राज्यमें मनुष्य निर्भय होकर विचरते हैं, वह सब राजाओंमें श्रेष्ठ है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगूढविभवा यस्य पौरा राष्ट्रनिवासिनः।
नयापनयवेत्तारः स राजा राजसत्तमः ॥ ३४ ॥
मूलम्
अगूढविभवा यस्य पौरा राष्ट्रनिवासिनः।
नयापनयवेत्तारः स राजा राजसत्तमः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके राज्य अथवा नगरमें निवास करनेवाले लोग (चोरोंसे भय न होनेके कारण) अपने धनको छिपाकर न रखते हों तथा न्याय और अन्यायको समझते हों, वह राजा समस्त राजाओंमें श्रेष्ठ है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वकर्मनिरता यस्य जना विषयवासिनः।
असंघातरता दान्ताः पाल्यमाना यथाविधि ॥ ३५ ॥
वश्या नेया विधेयाश्च न च संघर्षशीलिनः।
विषये दानरुचयो नरा यस्य स पार्थिवः ॥ ३६ ॥
मूलम्
स्वकर्मनिरता यस्य जना विषयवासिनः।
असंघातरता दान्ताः पाल्यमाना यथाविधि ॥ ३५ ॥
वश्या नेया विधेयाश्च न च संघर्षशीलिनः।
विषये दानरुचयो नरा यस्य स पार्थिवः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके राज्यमें निवास करनेवाले लोग विधिपूर्वक सुरक्षित एवं पालित होकर अपने-अपने कर्ममें संलग्न, शरीरमें आसक्ति न रखनेवाले और जितेन्द्रिय हों, अपने वशमें रहते हों, शिक्षा देने और ग्रहण करने योग्य हों, आज्ञा पालन करते हों, कलह और विवादसे दूर रहते हों और दान देनेकी रुचि रखते हों, वह राजा श्रेष्ठ है॥३५—३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न यस्य कूटं कपटं न माया न च मत्सरः।
विषये भूमिपालस्य तस्य धर्मः सनातनः ॥ ३७ ॥
मूलम्
न यस्य कूटं कपटं न माया न च मत्सरः।
विषये भूमिपालस्य तस्य धर्मः सनातनः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस भूपालके राज्यमें कूटनीति, कपट, माया तथा ईर्ष्याका सर्वथा अभाव हो उसीके द्वारा सनातन धर्मका पालन होता है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः सत्करोति ज्ञानानि ज्ञेये परहिते रतः।
सतां वर्त्मानुगस्त्यागी स राजा राज्यमर्हति ॥ ३८ ॥
मूलम्
यः सत्करोति ज्ञानानि ज्ञेये परहिते रतः।
सतां वर्त्मानुगस्त्यागी स राजा राज्यमर्हति ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ज्ञान एवं ज्ञानियोंका सत्कार करता है, शास्त्रके ज्ञातव्य विषयको समझने तथा परहित-साधन करनेमें संलग्न रहता है, सत्पुरुषोंके मार्गपर चलनेवाला और स्वार्थत्यागी है, वही राजा राज्य चलानेके योग्य समझा जाता है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य चाराश्च मन्त्राश्च नित्यं चैव कृताकृताः।
न ज्ञायन्ते हि रिपुभिः स राजा राज्यमर्हति ॥ ३९ ॥
मूलम्
यस्य चाराश्च मन्त्राश्च नित्यं चैव कृताकृताः।
न ज्ञायन्ते हि रिपुभिः स राजा राज्यमर्हति ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके गुप्तचर, गुप्त विचार, निश्चय किए हुए करने योग्य कर्म और किये हुए कर्म शत्रुओंद्वारा कभी जाने न जा सकें, वही राजा राज्य पानेका अधिकारी है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्लोकश्चायं पुरा गीतो भार्गवेण महात्मना।
आख्याते राजचरिते नृपतिं प्रति भारत ॥ ४० ॥
मूलम्
श्लोकश्चायं पुरा गीतो भार्गवेण महात्मना।
आख्याते राजचरिते नृपतिं प्रति भारत ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! महात्मा भार्गवने पूर्वकालमें किसी राजाके प्रति राजोचित कर्तव्यका वर्णन करते समय इस श्लोकका गान किया था॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजानं प्रथमं विन्देत् ततो भार्यां ततो धनम्।
राजन्यसति लोकस्य कुतो भार्या कुतो धनम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
राजानं प्रथमं विन्देत् ततो भार्यां ततो धनम्।
राजन्यसति लोकस्य कुतो भार्या कुतो धनम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्य पहले राजाको प्राप्त करे। उसके बाद पत्नीका परिग्रह और धनका संग्रह करे। लोकरक्षक राजाके न होनेपर कैसे भार्या सुरक्षित रहेगी और किस तरह धनकी रक्षा हो सकेगी?’॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्राज्ये राज्यकामानां नान्यो धर्मः सनातनः।
ऋते रक्षां तु विस्पष्टां रक्षा लोकस्य धारिणी ॥ ४२ ॥
मूलम्
तद्राज्ये राज्यकामानां नान्यो धर्मः सनातनः।
ऋते रक्षां तु विस्पष्टां रक्षा लोकस्य धारिणी ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राज्य चाहनेवाले राजाओंके लिये राज्यमें प्रजाओंकी भलीभाँति रक्षाको छोड़कर और कोई सनातन धर्म नहीं है, रक्षा ही जगत्को धारण करनेवाली है॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राचेतसेन मनुना श्लोकौ चेमावुदाहृतौ।
राजधर्मेषु राजेन्द्र ताविहैकमनाः शृणु ॥ ४३ ॥
मूलम्
प्राचेतसेन मनुना श्लोकौ चेमावुदाहृतौ।
राजधर्मेषु राजेन्द्र ताविहैकमनाः शृणु ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! प्राचेतस मनुने राजधर्मके विषयमें ये दो श्लोक कहे हैं। तुम एकचित होकर उन दोनों श्लोकोंको यहाँ सुनो॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षडेतान् पुरुषो जह्याद् भिन्नां नावमिवार्णवे।
अप्रवक्तारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम् ॥ ४४ ॥
अरक्षितारं राजानं भार्यां चाप्रियवादिनीम्।
ग्रामकामं च गोपालं वनकामं च नापितम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
षडेतान् पुरुषो जह्याद् भिन्नां नावमिवार्णवे।
अप्रवक्तारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम् ॥ ४४ ॥
अरक्षितारं राजानं भार्यां चाप्रियवादिनीम्।
ग्रामकामं च गोपालं वनकामं च नापितम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे समुद्रकी यात्रामें टूटी हुई नौकाका त्याग कर दिया जाता है, उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्यको चाहिये कि वह उपदेश न देनेवाले आचार्य, वेदमन्त्रोंका उच्चारण न करनेवाले ऋत्विज्, रक्षा न कर सकने-वाले राजा, कटु वचन बोलनेवाली स्त्री, गाँवमें रहनेकी इच्छा रखनेवाले ग्वाले और जंगलमें रहनेकी कामना करनेवाले नाई—इन छः व्यक्तियोंका त्याग कर दे’॥४४-४५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५७॥
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यदि शत्रुपर चढ़ाई की जाय और वह अपनेसे बलवान् सिद्ध हो तो उससे मेल कर लेना ‘सन्धि’ नामक गुण है। यदि दोनोंमें समान बल हो तो लड़ाई जारी रखना ‘विग्रह’ है। यदि शत्रु दुर्बल हो तो उस अवस्थामें उसके दुर्ग आदिपर जो आक्रमण किया जाता है, उसे ‘यान’ कहते हैं। यदि अपने ऊपर शत्रुकी ओरसे आक्रमण हो और शत्रुका पक्ष प्रबल जान पड़े तो उस समय अपनेको दुर्ग आदिमें छिपाये रखकर जो आत्मरक्षा की जाती है, वह ‘आसन’ कहलाता है। यदि चढ़ाई करनेवाला शत्रु मध्यम श्रेणीका हो तो ‘द्वैधीभाव’ का सहारा लिया जाता है। उसमें ऊपरसे दूसरा भाव दिखाया जाता है और भीतर दूसरा ही भाव रखा जाता है। जैसे आधी सेना दुर्गमें रखकर आत्मरक्षा करना और आधीको भेजकर शत्रुओंके अन्न आदि सामग्रीपर कब्जा करना आदि कार्य ‘द्वैधीभाव’ नीतिके अन्तर्गत हैं। आक्रमणकारीसे पीड़ित होनेपर किसी मित्र राजाका सहारा लेकर उसके साथ लड़ाई छेड़ना ‘समाश्रय’ कहलाता है। ↩︎ ↩︎