भागसूचना
षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरके पूछनेपर भीष्मके द्वारा राजधर्मका वर्णन, राजाके लिये पुरुषार्थ और सत्यकी आवश्यकता, ब्राह्मणोंकी अदण्डनीयता तथा राजाकी परिहासशीलता और मृदुतासे प्रकट होनेवाले दोष
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणिपत्य हृषीकेशमभिवाद्य पितामहम् ।
अनुमान्य गुरून् सर्वान् पर्यपृच्छद् युधिष्ठिरः ॥ १ ॥
मूलम्
प्रणिपत्य हृषीकेशमभिवाद्य पितामहम् ।
अनुमान्य गुरून् सर्वान् पर्यपृच्छद् युधिष्ठिरः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण और भीष्मको प्रणाम करके युधिष्ठिरने समस्त गुरुजनोंकी अनुमति ले इस प्रकार प्रश्न किया॥१॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञां वै परमो धर्म इति धर्मविदो विदुः।
महान्तमेतं भारं च मन्ये तद् ब्रूहि पार्थिव ॥ २ ॥
मूलम्
राज्ञां वै परमो धर्म इति धर्मविदो विदुः।
महान्तमेतं भारं च मन्ये तद् ब्रूहि पार्थिव ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— पितामह! धर्मज्ञ विद्वानोंकी यह मान्यता है कि राजाओंका धर्म श्रेष्ठ है। मैं इसे बहुत बड़ा भार मानता हूँ, अतः भूपाल! आप मुझे राजधर्मका उपदेश कीजिये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजधर्मान् विशेषेण कथयस्व पितामह।
सर्वस्य जीवलोकस्य राजधर्मः परायणम् ॥ ३ ॥
मूलम्
राजधर्मान् विशेषेण कथयस्व पितामह।
सर्वस्य जीवलोकस्य राजधर्मः परायणम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितामह! राजधर्म सम्पूर्ण जीवजगत्का परम आश्रय है; अतः आप राजधर्मोंका ही विशेषरूपसे वर्णन कीजिये॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिवर्गो हि समासक्तो राजधर्मेषु कौरव।
मोक्षधर्मश्च विस्पष्टः सकलोऽत्र समाहितः ॥ ४ ॥
मूलम्
त्रिवर्गो हि समासक्तो राजधर्मेषु कौरव।
मोक्षधर्मश्च विस्पष्टः सकलोऽत्र समाहितः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! राजाके धर्मोंमें धर्म, अर्थ और काम तीनोंका समावेश है, और यह स्पष्ट है कि सम्पूर्ण मोक्षधर्म भी राजधर्ममें निहित है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा हि रश्मयोऽश्वस्य द्विरदस्याङ्कुशो यथा।
नरेन्द्रधर्मो लोकस्य तथा प्रग्रहणं स्मृतम् ॥ ५ ॥
मूलम्
यथा हि रश्मयोऽश्वस्य द्विरदस्याङ्कुशो यथा।
नरेन्द्रधर्मो लोकस्य तथा प्रग्रहणं स्मृतम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे घोड़ोंको काबूमें रखनेके लिये लगाम और हाथीको वशमें करनेके लिये अकुंश है, उसी प्रकार समस्त संसारको मर्यादाके भीतर रखनेके लिये राजधर्म आवश्यक है; वह उसके लिये प्रग्रह अर्थात् उसको नियन्त्रित करनेमें समर्थ माना गया है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र चेत् सम्प्रमुह्येत धर्मे राजर्षिसेविते।
लोकस्य संस्था न भवेत् सर्वं च व्याकुलीभवेत् ॥ ६ ॥
मूलम्
तत्र चेत् सम्प्रमुह्येत धर्मे राजर्षिसेविते।
लोकस्य संस्था न भवेत् सर्वं च व्याकुलीभवेत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राचीन राजर्षियोंद्वारा सेवित उस राजधर्ममें यदि राजा मोहवश प्रमाद कर बैठे तो संसारकी व्यवस्था ही बिगड़ जाय और सब लोग दुखी हो जायँ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदयन् हि यथा सूर्यो नाशयत्यशुभं तमः।
राजधर्मास्तथालोक्यां निक्षिपन्त्यशुभां गतिम् ॥ ७ ॥
मूलम्
उदयन् हि यथा सूर्यो नाशयत्यशुभं तमः।
राजधर्मास्तथालोक्यां निक्षिपन्त्यशुभां गतिम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सूर्यदेव उदय होते ही घोर अन्धकारका नाश कर देते हैं, उसी प्रकार राजधर्म मनुष्योंके अशुभ आचरणोंका, जो उन्हें पुण्य लोकोंसे वञ्चित कर देते हैं, निवारण करता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदग्रे राजधर्मान् हि मदर्थे त्वं पितामह।
प्रब्रूहि भरतश्रेष्ठ त्वं हि धर्मभृतां वरः ॥ ८ ॥
मूलम्
तदग्रे राजधर्मान् हि मदर्थे त्वं पितामह।
प्रब्रूहि भरतश्रेष्ठ त्वं हि धर्मभृतां वरः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः भरतश्रेष्ठ पितामह! आप सबसे पहले मेरे लिये राजधर्मोंका ही वर्णन कीजिये; क्योंकि आप धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगमश्च परस्त्वत्तः सर्वेषां नः परंतप।
भवन्तं हि परं बुद्धौ वासुदेवोऽभिमन्यते ॥ ९ ॥
मूलम्
आगमश्च परस्त्वत्तः सर्वेषां नः परंतप।
भवन्तं हि परं बुद्धौ वासुदेवोऽभिमन्यते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतप पितामह! हम सब लोगोंको आपसे ही शास्त्रोंके उत्तम सिद्धान्तका ज्ञान हो सकता है। भगवान् श्रीकृष्ण भी आपको ही बुद्धिमें सर्वश्रेष्ठ मानते हैं॥९॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे।
ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य धर्मान् वक्ष्यामि शाश्वतान् ॥ १० ॥
मूलम्
नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे।
ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य धर्मान् वक्ष्यामि शाश्वतान् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— महान् धर्मको नमस्कार है। विश्वविधाता भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार है। अब मैं ब्राह्मणोंको नमस्कार करके सनातन धर्मोंका वर्णन आरम्भ करूँगा॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु कार्त्स्न्येन मत्तस्त्वं राजधर्मान् युधिष्ठिर।
निरुच्यमानान् नियतो यच्चान्यदपि वाञ्छसि ॥ ११ ॥
मूलम्
शृणु कार्त्स्न्येन मत्तस्त्वं राजधर्मान् युधिष्ठिर।
निरुच्यमानान् नियतो यच्चान्यदपि वाञ्छसि ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! अब तुम नियमपूर्वक एकाग्र हो मुझसे सम्पूर्णरूपसे राजधर्मोंका वर्णन सुनो, तथा और भी जो कुछ सुनना चाहते हो, उसका श्रवण करो॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदावेव कुरुश्रेष्ठ राज्ञा रञ्जनकाम्यया।
देवतानां द्विजानां च वर्तितव्यं यथाविधि ॥ १२ ॥
मूलम्
आदावेव कुरुश्रेष्ठ राज्ञा रञ्जनकाम्यया।
देवतानां द्विजानां च वर्तितव्यं यथाविधि ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! राजाको सबसे पहले प्रजाका रञ्जन अर्थात् उसे प्रसन्न रखनेकी इच्छासे देवताओं और ब्राह्मणोंके प्रति शास्त्रोक्त विधिके अनुसार बर्ताव करना चाहिये (अर्थात् वह देवताओंका विधिपूर्वक पूजन तथा ब्राह्मणोंका आदर-सत्कार करे)॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दैवतान्यर्चयित्वा हि ब्राह्मणांश्च कुरूद्वह।
आनृण्यं याति धर्मस्य लोकेन च समर्च्यते ॥ १३ ॥
मूलम्
दैवतान्यर्चयित्वा हि ब्राह्मणांश्च कुरूद्वह।
आनृण्यं याति धर्मस्य लोकेन च समर्च्यते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुकुलभूषण! देवताओं और ब्राह्मणोंका पूजन करके राजा धर्मके ऋणसे मुक्त होता है और सारा जगत् उसका सम्मान करता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्थानेन सदा पुत्र प्रयतेथा युधिष्ठिर।
न ह्युत्थानमृते दैवं राज्ञामर्थं प्रसादयेत् ॥ १४ ॥
मूलम्
उत्थानेन सदा पुत्र प्रयतेथा युधिष्ठिर।
न ह्युत्थानमृते दैवं राज्ञामर्थं प्रसादयेत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा युधिष्ठिर! तुम सदा पुरुषार्थके लिये प्रयत्नशील रहना। पुरुषार्थके बिना केवल प्रारब्ध राजाओंका प्रयोजन नहीं सिद्ध कर सकता॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधारणं द्वयं ह्येतद् दैवमुत्थानमेव च।
पौरुषं हि परं मन्ये दैवं निश्चितमुच्यते ॥ १५ ॥
मूलम्
साधारणं द्वयं ह्येतद् दैवमुत्थानमेव च।
पौरुषं हि परं मन्ये दैवं निश्चितमुच्यते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि कार्यकी सिद्धिमें प्रारब्ध और पुरुषार्थ—ये दोनों साधारण कारण माने गये हैं, तथापि मैं पुरुषार्थको ही प्रधान मानता हूँ। प्रारब्ध तो पहलेसे ही निश्चित बताया गया है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विपन्ने च समारम्भे संतापं मा स्म वै कृथाः।
घटस्वैव सदाऽऽत्मानं राज्ञामेष परो नयः ॥ १६ ॥
मूलम्
विपन्ने च समारम्भे संतापं मा स्म वै कृथाः।
घटस्वैव सदाऽऽत्मानं राज्ञामेष परो नयः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः यदि आरम्भ किया हुआ कार्य पूरा न हो सके अथवा उसमें बाधा पड़ जाय तो इसके लिये तुम्हें अपने मनमें दुःख नहीं मानना चाहिये। तुम सदा अपने आपको पुरुषार्थमें ही लगाये रखो। यही राजाओंकी सर्वोत्तम नीति है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि सत्यादृते किंचिद् राज्ञां वै सिद्धिकारकम्।
सत्ये हि राजा निरतः प्रेत्य चेह च नन्दति॥१७॥
मूलम्
न हि सत्यादृते किंचिद् राज्ञां वै सिद्धिकारकम्।
सत्ये हि राजा निरतः प्रेत्य चेह च नन्दति॥१७॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यके सिवा दूसरी कोई वस्तु राजाओंके लिये सिद्धिकारक नहीं है। सत्यपरायण राजा इहलोक और परलोकमें भी सुख पाता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषीणामपि राजेन्द्र सत्यमेव परं धनम्।
तथा राज्ञां परं सत्यान्नान्यद् विश्वासकारणम् ॥ १८ ॥
मूलम्
ऋषीणामपि राजेन्द्र सत्यमेव परं धनम्।
तथा राज्ञां परं सत्यान्नान्यद् विश्वासकारणम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! ऋषियोंके लिये भी सत्य ही परम धन है। इसी प्रकार राजाओंके लिये सत्यसे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा साधन नहीं है, जो प्रजावर्गमें उसके प्रति विश्वास उत्पन्न करा सके॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणवान् शीलवान् दान्तो मृदुर्धर्म्यो जितेन्द्रियः।
सुदर्शः स्थूललक्ष्यश्च न भ्रश्येत सदा श्रियः ॥ १९ ॥
मूलम्
गुणवान् शीलवान् दान्तो मृदुर्धर्म्यो जितेन्द्रियः।
सुदर्शः स्थूललक्ष्यश्च न भ्रश्येत सदा श्रियः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा गुणवान्, शीलवान्, मन और इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाला, कोमलस्वभाव, धर्मपरायण, जितेन्द्रिय, देखनेमें प्रसन्नमुख और बहुत देनेवाला उदारचित्त है, वह कभी राजलक्ष्मीसे भ्रष्ट नहीं होता॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आर्जवं सर्वकार्येषु श्रयेथाः कुरुनन्दन।
पुनर्नयविचारेण त्रयीसंवरणेन च ॥ २० ॥
मूलम्
आर्जवं सर्वकार्येषु श्रयेथाः कुरुनन्दन।
पुनर्नयविचारेण त्रयीसंवरणेन च ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! तुम सभी कार्योंमें सरलता एवं कोमलताका अवलम्बन करना, परंतु नीतिशास्त्रकी आलोचनासे यह ज्ञात होता है कि अपने छिद्र, अपनी मन्त्रणा तथा अपने कार्य-कौशल—इन तीन बातोंको गुप्त रखनेमें सरलताका अवलम्बन करना उचित नहीं है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृदुर्हि राजा सततं लङ्घ्यो भवति सर्वशः।
तीक्ष्णाच्चोद्विजते लोकस्तस्मादुभयमाश्रय ॥ २१ ॥
मूलम्
मृदुर्हि राजा सततं लङ्घ्यो भवति सर्वशः।
तीक्ष्णाच्चोद्विजते लोकस्तस्मादुभयमाश्रय ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा सदा सब प्रकारसे कोमलतापूर्ण बर्ताव करने वाला ही होता है, उसकी आज्ञाका लोग उल्लघंन कर जाते हैं, और केवल कठोर बर्ताव करनेसे भी सब लोग उद्विग्न हो उठते हैं; अतः तुम आवश्यकतानुसार कठोरता और कोमलता दोनोंका अवलम्बन करो॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदण्ड्याश्चैव ते पुत्र विप्राश्च ददतां वर।
भूतमेतत् परं लोके ब्राह्मणो नाम पाण्डव ॥ २२ ॥
मूलम्
अदण्ड्याश्चैव ते पुत्र विप्राश्च ददतां वर।
भूतमेतत् परं लोके ब्राह्मणो नाम पाण्डव ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दाताओंमें श्रेष्ठ बेटा पाण्डुकुमार युधिष्ठिर! तुम्हें ब्राह्मणोंको कभी दण्ड नहीं देना चाहिये; क्योंकि संसारमें ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ प्राणी है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनुना चैव राजेन्द्र गीतौ श्लोकौ महात्मना।
धर्मेषु स्वेषु कौरव्य हृदि तौ कर्तुमर्हसि ॥ २३ ॥
मूलम्
मनुना चैव राजेन्द्र गीतौ श्लोकौ महात्मना।
धर्मेषु स्वेषु कौरव्य हृदि तौ कर्तुमर्हसि ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! कुरुनन्दन! महात्मा मनुने अपने धर्मशास्त्रोंमें दो श्लोकोंका गान किया है, तुम उन दोनोंको अपने हृदयमें धारण करो॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्भ्योऽग्निर्ब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम् ।
तेषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति ॥ २४ ॥
मूलम्
अद्भ्योऽग्निर्ब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम् ।
तेषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अग्नि जलसे, क्षत्रिय ब्राह्मणसे और लोहा पत्थरसे प्रकट हुआ है। इनका तेज अन्य सब स्थानोंपर तो अपना प्रभाव दिखाता है; परंतु अपनेको उत्पन्न करनेवाले कारणसे टक्कर लेनेपर स्वयं ही शान्त हो जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयो हन्ति यदाश्मानमग्निना वारि हन्यते।
ब्रह्म च क्षत्रियो द्वेष्टि तदा सीदन्ति ते त्रयः॥२५॥
मूलम्
अयो हन्ति यदाश्मानमग्निना वारि हन्यते।
ब्रह्म च क्षत्रियो द्वेष्टि तदा सीदन्ति ते त्रयः॥२५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब लोहा पत्थरपर चोट करता है, आग जलको नष्ट करने लगती है और क्षत्रिय ब्राह्मणसे द्वेष करने लगता है, तब ये तीनों ही दुःख उठाते हैं। अर्थात् ये दुर्बल हो जाते हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं कृत्वा महाराज नमस्या एव ते द्विजाः।
भौमं ब्रह्म द्विजश्रेष्ठा धारयन्ति समर्चिताः ॥ २६ ॥
मूलम्
एवं कृत्वा महाराज नमस्या एव ते द्विजाः।
भौमं ब्रह्म द्विजश्रेष्ठा धारयन्ति समर्चिताः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! ऐसा सोचकर तुम्हें ब्राह्मणोंको सदा नमस्कार ही करना चाहिये; क्योंकि वे श्रेष्ठ ब्राह्मण पूजित होनेपर भूतलके ब्रह्मको अर्थात् वेदको धारण करते हैं॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं चैव नरव्याघ्र लोकत्रयविघातकाः।
निग्राह्या एव सततं बाहुभ्यां ये स्युरीदृशाः ॥ २७ ॥
मूलम्
एवं चैव नरव्याघ्र लोकत्रयविघातकाः।
निग्राह्या एव सततं बाहुभ्यां ये स्युरीदृशाः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! यद्यपि ऐसी बात है, तथापि यदि ब्राह्मण भी तीनों लोकोंका विनाश करनेके लिये उद्यत हो जायँ तो ऐसे लोगोंको अपने बाहु-बलसे परास्त करके सदा नियन्त्रणमें ही रखना चाहिये॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्लोकौ चोशनसा गीतौ पुरा तात महर्षिणा।
तौ निबोध महाराज त्वमेकाग्रमना नृप ॥ २८ ॥
मूलम्
श्लोकौ चोशनसा गीतौ पुरा तात महर्षिणा।
तौ निबोध महाराज त्वमेकाग्रमना नृप ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! नरेश्वर! इस विषयमें दो श्लोक प्रसिद्ध हैं, जिन्हें पूर्वकालमें महर्षि शुक्राचार्यने गाया था। महाराज! तुम एकाग्रचित्त होकर उन दोनों श्लोकोंको सुनो॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्यम्य शस्त्रमायान्तमपि वेदान्तगं रणे।
निगृह्णीयात् स्वधर्मेण धर्मापेक्षी नराधिपः ॥ २९ ॥
मूलम्
उद्यम्य शस्त्रमायान्तमपि वेदान्तगं रणे।
निगृह्णीयात् स्वधर्मेण धर्मापेक्षी नराधिपः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वेदान्तका पारङ्गत विद्वान् ब्राह्मण ही क्यों न हो; यदि वह शस्त्र उठाकर युद्धमें सामना करनेके लिये आ रहा हो तो धर्मपालनकी इच्छा रखनेवाले राजाको अपने धर्मके अनुसार ही युद्ध करके उसे कैद कर लेना चाहिये॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनश्यमानं धर्मं हि योऽभिरक्षेत् स धर्मवित्।
न तेन धर्महा स स्यान्मन्युस्तन्मन्युमृच्छति ॥ ३० ॥
मूलम्
विनश्यमानं धर्मं हि योऽभिरक्षेत् स धर्मवित्।
न तेन धर्महा स स्यान्मन्युस्तन्मन्युमृच्छति ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो राजा उसके द्वारा नष्ट होते हुए धर्मकी रक्षा करता है, वह धर्मज्ञ है। अतः उसे मारनेसे वह धर्मका नाशक नहीं माना जाता। वास्तवमें क्रोध ही उनके क्रोधसे टक्कर लेता है’॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं चैव नरश्रेष्ठ रक्ष्या एव द्विजातयः।
सापराधानपि हि तान् विषयान्ते समुत्सृजेत् ॥ ३१ ॥
मूलम्
एवं चैव नरश्रेष्ठ रक्ष्या एव द्विजातयः।
सापराधानपि हि तान् विषयान्ते समुत्सृजेत् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! यह सब होनेपर भी ब्राह्मणोंकी तो सदा रक्षा ही करनी चाहिये; यदि उनके द्वारा अपराध बन गये हों तो उन्हें प्राणदण्ड न देकर अपने राज्यकी सीमासे बाहर करके छोड़ देना चाहिये॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिशस्तमपि ह्येषां कृपायीत विशाम्पते।
ब्रह्मघ्ने गुरुतल्ये च भ्रूणहत्ये तथैव च ॥ ३२ ॥
राजद्विष्टे च विप्रस्य विषयान्ते विसर्जनम्।
विधीयते न शारीरं दण्डमेषां कदाचन ॥ ३३ ॥
मूलम्
अभिशस्तमपि ह्येषां कृपायीत विशाम्पते।
ब्रह्मघ्ने गुरुतल्ये च भ्रूणहत्ये तथैव च ॥ ३२ ॥
राजद्विष्टे च विप्रस्य विषयान्ते विसर्जनम्।
विधीयते न शारीरं दण्डमेषां कदाचन ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! इनमें कोई कलङ्कित हो तो उसपर भी कृपा ही करनी चाहिये। ब्रह्महत्या, गुरुपत्नीगमन, भ्रूणहत्या तथा राजद्रोहका अपराध होनेपर भी ब्राह्मणको देशसे निकाल देनेका ही विधान है—उसे शारीरिक दण्ड कभी नहीं देना चाहिये॥३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दयिताश्च नरास्ते स्युर्भक्तिमन्तो द्विजेषु ये।
न कोशः परमोऽन्योऽस्ति राज्ञां पुरुषसंचयात् ॥ ३४ ॥
मूलम्
दयिताश्च नरास्ते स्युर्भक्तिमन्तो द्विजेषु ये।
न कोशः परमोऽन्योऽस्ति राज्ञां पुरुषसंचयात् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य ब्राह्मणोंके प्रति भक्ति रखते हैं, वे सबके प्रिय होते हैं। राजाओंके लिये ब्राह्मणके भक्तोंका संग्रह करनेसे बढ़कर दूसरा कोई कोश नहीं है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्गेषु च महाराज षट्सु ये शास्त्रनिश्चिताः।
सर्वदुर्गेषु मन्यन्ते नरदुर्गं सुदुस्तरम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
दुर्गेषु च महाराज षट्सु ये शास्त्रनिश्चिताः।
सर्वदुर्गेषु मन्यन्ते नरदुर्गं सुदुस्तरम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! मरु (जलरहित भूमि), जल, पृथ्वी, वन, पर्वत और मनुष्य—इन छः प्रकारके दुर्गोंमें मानवदुर्ग ही प्रधान है। शास्त्रोंके सिद्धान्तको जाननेवाले विद्वान् उक्त सभी दुर्गोंमें मानव दुर्गको ही अत्यन्त दुर्लंघ्य मानते हैं॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मान्नित्यं दया कार्या चातुर्वर्ण्ये विपश्चिता।
धर्मात्मा सत्यवाक् चैव राजा रञ्जयति प्रजाः ॥ ३६ ॥
मूलम्
तस्मान्नित्यं दया कार्या चातुर्वर्ण्ये विपश्चिता।
धर्मात्मा सत्यवाक् चैव राजा रञ्जयति प्रजाः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः विद्वान् राजाको चारों वर्णोंपर सदा दया करनी चाहिये, धर्मात्मा और सत्यवादी नरेश ही प्रजाको प्रसन्न रख पाता है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च क्षान्तेन ते नित्यं भाव्यं पुत्र समन्ततः।
अधर्मो हि मृदू राजा क्षमावानिव कुञ्जरः ॥ ३७ ॥
मूलम्
न च क्षान्तेन ते नित्यं भाव्यं पुत्र समन्ततः।
अधर्मो हि मृदू राजा क्षमावानिव कुञ्जरः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! तुम्हें सदा और सब ओर क्षमाशील ही नहीं बने रहना चाहिये; क्योंकि क्षमाशील हाथीके समान कोमल स्वभाववाला राजा दूसरोंको भयभीत न कर सकनेके कारण अधर्मके प्रसारमें ही सहायक होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बार्हस्पत्ये च शास्त्रे च श्लोको निगदितः पुरा।
अस्मिन्नर्थे महाराज तन्मे निगदतः शृणु ॥ ३८ ॥
मूलम्
बार्हस्पत्ये च शास्त्रे च श्लोको निगदितः पुरा।
अस्मिन्नर्थे महाराज तन्मे निगदतः शृणु ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! इसी बातके समर्थनमें बार्हस्पत्य-शास्त्रका एक प्राचीन श्लोक पढ़ा जाता है। मैं उसे बता रहा हूँ, सुनो॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षममाणं नृपं नित्यं नीचः परिभवेज्जनः।
हस्तियन्ता गजस्यैव शिर एवारुरुक्षति ॥ ३९ ॥
मूलम्
क्षममाणं नृपं नित्यं नीचः परिभवेज्जनः।
हस्तियन्ता गजस्यैव शिर एवारुरुक्षति ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नीच मनुष्य क्षमाशील राजाका सदा उसी प्रकार तिरस्कार करते रहते हैं, जैसे हाथीका महावत उसके सिरपर ही चढ़े रहना चाहता है’॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मान्नैव मृदुर्नित्यं तीक्ष्णो नैव भवेन्नृपः।
वासन्तार्क इव श्रीमान् न शीतो न च घर्मदः॥४०॥
मूलम्
तस्मान्नैव मृदुर्नित्यं तीक्ष्णो नैव भवेन्नृपः।
वासन्तार्क इव श्रीमान् न शीतो न च घर्मदः॥४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वसन्त ऋतुका तेजस्वी सूर्य न तो अधिक ठंडक पहुँचाता है और न कड़ी धूप ही करता है, उसी प्रकार राजाको भी न तो बहुत कोमल होना चाहिये और न अधिक कठोर ही॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षेणानुमानेन तथौपम्यागमैरपि ।
परीक्ष्यास्ते महाराज स्वे परे चैव नित्यशः ॥ ४१ ॥
मूलम्
प्रत्यक्षेणानुमानेन तथौपम्यागमैरपि ।
परीक्ष्यास्ते महाराज स्वे परे चैव नित्यशः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और अताम—इन चारों प्रमाणोंके द्वारा सदा अपने-परायेकी पहचान करते रहना चाहिये॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यसनानि च सर्वाणि त्यजेथा भूरिदक्षिण।
न चैव न प्रयुञ्जीत सङ्गं तु परिवर्जयेत् ॥ ४२ ॥
मूलम्
व्यसनानि च सर्वाणि त्यजेथा भूरिदक्षिण।
न चैव न प्रयुञ्जीत सङ्गं तु परिवर्जयेत् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रचुर दक्षिणा देनेवाले नरेश्वर! तुम्हें सभी प्रकारके व्यसनोंको1 त्याग देना चाहिये; परंतु साहस आदिका भी सर्वथा प्रयोग न किया जाय, ऐसी बात नहीं है (क्योंकि शत्रुविजय आदिके लिये उसकी आवश्यकता है); अतः सभी प्रकारके व्यसनोंकी आसक्तिका परित्याग करना चाहिये॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकस्य व्यसनी नित्यं परिभूतो भवत्युत।
उद्वेजयति लोकं च योऽतिद्वेषी महीपतिः ॥ ४३ ॥
मूलम्
लोकस्य व्यसनी नित्यं परिभूतो भवत्युत।
उद्वेजयति लोकं च योऽतिद्वेषी महीपतिः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यसनोंमें आसक्त हुआ राजा सदा सब लोगोंके अनादरका पात्र होता है और जो भूपाल सबके प्रति अत्यन्त द्वेष रखता है, वह सब लोगोंको उद्वेगयुक्त कर देता है॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवितव्यं सदा राज्ञा गर्भिणीसहधर्मिणा।
कारणं च महाराज शृणु येनेदमिष्यते ॥ ४४ ॥
मूलम्
भवितव्यं सदा राज्ञा गर्भिणीसहधर्मिणा।
कारणं च महाराज शृणु येनेदमिष्यते ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! राजाका प्रजाके साथ गर्भिणी स्त्रीका-सा बर्ताव होना चाहिये। किस कारणसे ऐसा होना उचित है, यह बताता हूँ, सुनो॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा हि गर्भिणी हित्वा स्वं प्रियं मनसोऽनुगम्।
गर्भस्य हितमाधत्ते तथा राज्ञाप्यसंशयम् ॥ ४५ ॥
वर्तितव्यं कुरुश्रेष्ठ सदा धर्मानुवर्तिना।
स्वं प्रियं तु परित्यज्य यद् यल्लोकहितं भवेत् ॥ ४६ ॥
मूलम्
यथा हि गर्भिणी हित्वा स्वं प्रियं मनसोऽनुगम्।
गर्भस्य हितमाधत्ते तथा राज्ञाप्यसंशयम् ॥ ४५ ॥
वर्तितव्यं कुरुश्रेष्ठ सदा धर्मानुवर्तिना।
स्वं प्रियं तु परित्यज्य यद् यल्लोकहितं भवेत् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे गर्भवती स्त्री अपने मनको अच्छे लगने-वाले प्रिय भोजन आदिका भी परित्याग करके केवल गर्भस्थ बालकके हितका ध्यान रखती है, उसी प्रकार धर्मात्मा राजाको भी चाहिये कि निःसंदेह वैसा ही बर्ताव करे। कुरुश्रेष्ठ! राजा अपनेको प्रिय लगनेवाले विषयका परित्याग करके जिसमें सब लोगोंका हित हो वही कार्य करे॥४५-४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न संत्याज्यं च ते धैर्यं कदाचिदपि पाण्डव।
धीरस्य स्पष्टदण्डस्य न भयं विद्यते क्वचित् ॥ ४७ ॥
मूलम्
न संत्याज्यं च ते धैर्यं कदाचिदपि पाण्डव।
धीरस्य स्पष्टदण्डस्य न भयं विद्यते क्वचित् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डुनन्दन! तुम्हें कभी भी धैर्यका त्याग नहीं करना चाहिये। जो अपराधियोंको दण्ड देनेमें संकोच नहीं करता और सदा धैर्य रखता है, उस राजाको कभी भय नहीं होता॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिहासश्च भृत्यैस्ते नात्यर्थं वदतां वर।
कर्तव्यो राजशार्दूल दोषमत्र हि मे शृणु ॥ ४८ ॥
मूलम्
परिहासश्च भृत्यैस्ते नात्यर्थं वदतां वर।
कर्तव्यो राजशार्दूल दोषमत्र हि मे शृणु ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वक्ताओंमें श्रेष्ठ राजसिंह! तुम्हें सेवकोंके साथ अधिक हँसी-मजाक नहीं करना चाहिये; इसमें जो दोष है, वह मुझसे सुनो॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवमन्यन्ति भर्तारं संघर्षादुपजीविनः ।
स्वे स्थाने न च तिष्ठन्ति लंघयन्ति च तद्वचः॥४९॥
मूलम्
अवमन्यन्ति भर्तारं संघर्षादुपजीविनः ।
स्वे स्थाने न च तिष्ठन्ति लंघयन्ति च तद्वचः॥४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजासे जीविका चलानेवाले सेवक अधिक मुँहलगे हो जानेपर मालिकका अपमान कर बैठते हैं। वे अपनी मर्यादामें स्थिर नहीं रहते और स्वामीकी आज्ञाका उल्लंघन करने लगते हैं॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेष्यमाणा विकल्पन्ते गुह्मं चाप्यनुयुञ्जते।
अयाच्यं चैव याचन्ते भोज्यान्याहारयन्ति च ॥ ५० ॥
मूलम्
प्रेष्यमाणा विकल्पन्ते गुह्मं चाप्यनुयुञ्जते।
अयाच्यं चैव याचन्ते भोज्यान्याहारयन्ति च ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे जब किसी कार्यके लिये भेजे जाते हैं तो उसकी सिद्धिमें संदेह उत्पन्न कर देते हैं। राजाकी गोपनीय त्रुटियोंको भी सबके सामने ला देते हैं। जो वस्तु नहीं माँगनी चाहिये उसे भी माँग बैठते हैं, तथा राजाके लिये रक्खे हुए भोज्य पदार्थोंको स्वयं खा लेते हैं॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रुश्यन्ति परिदीप्यन्ति भूमिपायाधितिष्ठते ।
उत्कोचैर्वञ्चनाभिश्च कार्याण्यनुविहन्ति च ॥ ५१ ॥
मूलम्
क्रुश्यन्ति परिदीप्यन्ति भूमिपायाधितिष्ठते ।
उत्कोचैर्वञ्चनाभिश्च कार्याण्यनुविहन्ति च ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राज्यके अधिपति भूपालको कोसते हैं, उनके प्रति क्रोधसे तमतमा उठते हैं; घूस लेकर और धोखा देकर राजाके कार्योंमें विघ्न डालते हैं॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जर्जरं चास्य विषयं कुर्वन्ति प्रतिरूपकैः।
स्त्रीरक्षिभिश्च सज्जन्ते तुल्यवेषा भवन्ति च ॥ ५२ ॥
मूलम्
जर्जरं चास्य विषयं कुर्वन्ति प्रतिरूपकैः।
स्त्रीरक्षिभिश्च सज्जन्ते तुल्यवेषा भवन्ति च ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे जाली आज्ञापत्र जारी करके राजाके राज्यको जर्जर कर देते हैं। रनवासके रक्षकोंसे मिल जाते हैं अथवा उनके समान ही वेशभूषा धारण करके वहाँ घूमते फिरते हैं॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वान्तं निष्ठीवनं चैव कुर्वते चास्य संनिधौ।
निर्लज्जा राजशार्दूल व्याहरन्ति च तद्वचः ॥ ५३ ॥
मूलम्
वान्तं निष्ठीवनं चैव कुर्वते चास्य संनिधौ।
निर्लज्जा राजशार्दूल व्याहरन्ति च तद्वचः ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाके पास ही मुँह बाकर जँभाई लेते और थूकते हैं, नृपश्रेष्ठ! वे मुँहलगे नौकर लाज छोड़कर मनमानी बातें बोलते हैं॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हयं वा दन्तिनं वापि रथं वा नृपसत्तम।
अभिरोहन्त्यनादृत्य हर्षुले पार्थिवे मृदौ ॥ ५४ ॥
मूलम्
हयं वा दन्तिनं वापि रथं वा नृपसत्तम।
अभिरोहन्त्यनादृत्य हर्षुले पार्थिवे मृदौ ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपशिरोमणे! परिहासशील कोमलस्वभाववाले राजाको पाकर सेवकगण उसकी अवहेलना करते हुए उसके घोड़े, हाथी अथवा रथको अपनी सवारीके काममें लाते हैं॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं ते दुष्करं राजन्निदं ते दुष्टचेष्टितम्।
इत्येवं सुहृदो वाचं वदन्ते परिषद्गताः ॥ ५५ ॥
मूलम्
इदं ते दुष्करं राजन्निदं ते दुष्टचेष्टितम्।
इत्येवं सुहृदो वाचं वदन्ते परिषद्गताः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आम दरबारमें बैठकर दोस्तोंकी तरह बराबरीका बर्ताव करते हुए कहते हैं कि ‘राजन्! आपसे इस कामका होना कठिन है, आपका यह बर्ताव बहुत बुरा है’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रुद्धे चास्मिन् हसन्त्येव न च हृष्यन्ति पूजिताः।
संघर्षशीलाश्च तदा भवन्त्यन्योन्यकारणात् ॥ ५६ ॥
मूलम्
क्रुद्धे चास्मिन् हसन्त्येव न च हृष्यन्ति पूजिताः।
संघर्षशीलाश्च तदा भवन्त्यन्योन्यकारणात् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस बातसे यदि राजा कुपित हुए तो वे उन्हें देखकर हँस देते हैं और उनके द्वारा सम्मानित होनेपर भी वे धृष्ट सेवक प्रसन्न नहीं होते। इतना ही नहीं, वे सेवक परस्पर स्वार्थ-साधनके निमित्त राजसभामें ही राजाके साथ विवाद करने लगते हैं॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विस्रंसयन्ति मन्त्रं च विवृण्वन्ति च दुष्कृतम्।
लीलया चैव कुर्वन्ति सावज्ञास्तस्य शासनम् ॥ ५७ ॥
मूलम्
विस्रंसयन्ति मन्त्रं च विवृण्वन्ति च दुष्कृतम्।
लीलया चैव कुर्वन्ति सावज्ञास्तस्य शासनम् ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजकीय गुप्त बातों तथा राजाके दोषोंको भी दूसरों पर प्रकट कर देते हैं। राजाके आदेशकी अवहेलना करके खिलवाड़ करते हुए उसका पालन करते हैं॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलंकारे च भोज्ये च तथा स्नानानुलेपने।
हेलनानि नरव्याघ्र स्वस्थास्तस्योपशृण्वतः ॥ ५८ ॥
मूलम्
अलंकारे च भोज्ये च तथा स्नानानुलेपने।
हेलनानि नरव्याघ्र स्वस्थास्तस्योपशृण्वतः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! राजा पास ही खड़ा-खड़ा सुनता रहता है निर्भय होकर उसके आभूषण पहनने, खाने, नहाने और चन्दन लगाने आदिका मजाक उड़ाया करते हैं॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निन्दन्ते स्वानधीकारान् संत्यजन्ते च भारत।
न वृत्त्या परितुष्यन्ति राजदेयं हरन्ति च ॥ ५९ ॥
मूलम्
निन्दन्ते स्वानधीकारान् संत्यजन्ते च भारत।
न वृत्त्या परितुष्यन्ति राजदेयं हरन्ति च ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! उनके अधिकारमें जो काम सौंपा जाता है, उसको वे बुरा बताते और छोड़ देते हैं। उन्हें जो वेतन दिया जाता है, उससे वे संतुष्ट नहीं होते हैं और राजकीय धनको हड़पते रहते हैं॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रीडितुं तेन चेच्छन्ति ससूत्रेणेव पक्षिणा।
अस्मत्प्रणेयो राजेति लोकांश्चैव वदन्त्युत ॥ ६० ॥
मूलम्
क्रीडितुं तेन चेच्छन्ति ससूत्रेणेव पक्षिणा।
अस्मत्प्रणेयो राजेति लोकांश्चैव वदन्त्युत ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे लोग डोरेमें बँधी हुई चिड़ियाके साथ खेलते हैं, उसी प्रकार वे भी राजाके साथ खेलना चाहते हैं और साधारण लोगोंसे कहा करते हैं कि ‘राजा तो हमारा गुलाम है’॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते चैवापरे चैव दोषाः प्रादुर्भवन्त्युत।
नृपतौ मार्दवोपेते हर्षुले च युधिष्ठिर ॥ ६१ ॥
मूलम्
एते चैवापरे चैव दोषाः प्रादुर्भवन्त्युत।
नृपतौ मार्दवोपेते हर्षुले च युधिष्ठिर ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! राजा जब परिहासशील और कोमल-स्वभावका हो जाता है, तब ये ऊपर बताये हुए तथा दूसरे दोष भी प्रकट होते हैं॥६१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५६॥
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व्यसन अठारह प्रकारके बताये गये हैं। इनमें दस तो कामज हैं, और आठ क्रोधज। शिकार, जूआ, दिनमें सोना, परनिन्दा, स्त्रीसेवन, मद, वाद्य, गीत, नृत्य और मदिरापान—ये दस कामज व्यसन बताये गये हैं। चुगली, साहस, द्रोह, ईर्ष्या, असूया, अर्थदूषण, वाणीकी कठोरता और दण्डकी कठोरता—ये आठ क्रोधज व्यसन कहे गये हैं। ↩︎