भागसूचना
पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीष्मका युधिष्ठिरके गुणकथनपूर्वक उनको प्रश्न करनेका आदेश देना, श्रीकृष्णका उनके लज्जित और भयभीत होनेका कारण बताना और भीष्मका आश्वासन पाकर युधिष्ठिरका उनके समीप जाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाब्रवीन्महातेजा वाक्यं कौरवनन्दनः ।
हन्त धर्मान् प्रवक्ष्यामि दृढे वाङ्मनसी मम ॥ १ ॥
तव प्रसादाद् गोविन्द भूतात्मा ह्यसि शाश्वतः।
मूलम्
अथाब्रवीन्महातेजा वाक्यं कौरवनन्दनः ।
हन्त धर्मान् प्रवक्ष्यामि दृढे वाङ्मनसी मम ॥ १ ॥
तव प्रसादाद् गोविन्द भूतात्मा ह्यसि शाश्वतः।
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! श्रीकृष्णकी बात सुनकर कुरुकुलका आनन्द बढ़ानेवाले महातेजस्वी भीष्मजीने कहा—‘गोविन्द! आप सम्पूर्ण भूतोंके सनातन आत्मा हैं। आपके प्रसादसे मेरी वाक्शक्ति सुदृढ़ है और मन भी स्थिर हो गया है; अतः मैं समस्त धर्मोंका प्रवचन करूँगा॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरस्तु धर्मात्मा मां धर्माननुपृच्छतु।
एवं प्रीतो भविष्यामि धर्मान् वक्ष्यामि चाखिलान् ॥ २ ॥
मूलम्
युधिष्ठिरस्तु धर्मात्मा मां धर्माननुपृच्छतु।
एवं प्रीतो भविष्यामि धर्मान् वक्ष्यामि चाखिलान् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धर्मात्मा युधिष्ठिर मुझसे एक-एक करके धर्मोंके विषयमें प्रश्न करें, इससे मुझे प्रसन्नता होगी और मैं सम्पूर्ण धर्मोंका उपदेश कर सकूँगा॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन् राजर्षभे जाते धर्मात्मनि महात्मनि।
अहृष्यन्नृषयः सर्वे स मां पृच्छतु पाण्डवः ॥ ३ ॥
मूलम्
यस्मिन् राजर्षभे जाते धर्मात्मनि महात्मनि।
अहृष्यन्नृषयः सर्वे स मां पृच्छतु पाण्डवः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिन राजर्षिशिरोमणि धर्मपरायण महात्मा युधिष्ठिरका जन्म होनेपर सभी महर्षि हर्षसे खिल उठे थे, वे ही पाण्डुपुत्र मुझसे प्रश्न करें॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेषां दीप्तयशसां कुरूणां धर्मचारिणाम्।
यस्य नास्ति समःकश्चित् स मां पृच्छतु पाण्डवः ॥ ४ ॥
मूलम्
सर्वेषां दीप्तयशसां कुरूणां धर्मचारिणाम्।
यस्य नास्ति समःकश्चित् स मां पृच्छतु पाण्डवः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिनके यशका प्रताप सर्वत्र छा रहा है, उन समस्त धर्माचारी कौरवोंमें जिनकी समानता करनेवाला कोई नहीं है, वे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृतिर्दमो ब्रह्मचर्यं क्षमा धर्मश्च नित्यदा।
यस्मिन्नोजश्च तेजश्च स मां पृच्छतु पाण्डवः ॥ ५ ॥
मूलम्
धृतिर्दमो ब्रह्मचर्यं क्षमा धर्मश्च नित्यदा।
यस्मिन्नोजश्च तेजश्च स मां पृच्छतु पाण्डवः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिनमें धैर्य, इन्द्रियसंयम, ब्रह्मचर्य, क्षमा, धर्म, ओज और तेज सदा विद्यमान रहते हैं, वे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्बन्धिनोऽतिथीन् भृत्यान् संश्रितांश्चैव यो भृशम्।
सम्मानयति सत्कृत्य स मां पृच्छतु पाण्डवः ॥ ६ ॥
मूलम्
सम्बन्धिनोऽतिथीन् भृत्यान् संश्रितांश्चैव यो भृशम्।
सम्मानयति सत्कृत्य स मां पृच्छतु पाण्डवः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो सम्बन्धियों, अतिथियों, भृत्यों तथा शरणागतोंका सदा सत्कारपूर्वक विशेष सम्मान करते हैं, वे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यं दानं तपः शौर्यं शान्तिर्दाक्ष्यमसम्भ्रमः।
यस्मिन्नेतानि सर्वाणि स मां पृच्छतु पाण्डवः ॥ ७ ॥
मूलम्
सत्यं दानं तपः शौर्यं शान्तिर्दाक्ष्यमसम्भ्रमः।
यस्मिन्नेतानि सर्वाणि स मां पृच्छतु पाण्डवः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिनमें सत्य, दान, तप, शूरता, शान्ति, दक्षता तथा असम्भ्रम (स्थिरचित्तता)—ये समस्त सद्गुण सदा मौजूद रहते हैं, वे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो न कामान्न संरम्भान्न भयान्नार्थकारणात्।
कुर्यादधर्मं धर्मात्मा स मां पृच्छतु पाण्डवः ॥ ८ ॥
मूलम्
यो न कामान्न संरम्भान्न भयान्नार्थकारणात्।
कुर्यादधर्मं धर्मात्मा स मां पृच्छतु पाण्डवः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो न तो कामनासे, न क्रोधसे, न भयसे और न किसी स्वार्थके ही लोभसे अधर्म करते हैं, वे धर्मात्मा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यनित्यः क्षमानित्यो ज्ञाननित्योऽतिथिप्रियः ।
यो ददाति सतां नित्यं स मां पृच्छतु पाण्डवः॥९॥
मूलम्
सत्यनित्यः क्षमानित्यो ज्ञाननित्योऽतिथिप्रियः ।
यो ददाति सतां नित्यं स मां पृच्छतु पाण्डवः॥९॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिनमें सदा ही सत्य, सदा ही क्षमा और सदा ही ज्ञानकी स्थिति है, जो निरन्तर अतिथिसत्कारके प्रेमी हैं और सत्पुरुषोंको सदा दान देते रहते हैं, वे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इज्याध्ययननित्यस्य धर्मे च निरतः सदा।
क्षान्तः श्रुतरहस्यश्च स मां पृच्छतु पाण्डवः ॥ १० ॥
मूलम्
इज्याध्ययननित्यस्य धर्मे च निरतः सदा।
क्षान्तः श्रुतरहस्यश्च स मां पृच्छतु पाण्डवः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिन्होंने शास्त्रोंके रहस्यका श्रवण किया है, जो सदा ही यज्ञ, स्वाध्याय और धर्ममें लगे रहनेवाले तथा क्षमाशील हैं, वे पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें’॥
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
लज्जया परयोपेतो धर्मराजो युधिष्ठिरः।
अभिशापभयाद् भीतो भवन्तं नोपसर्पति ॥ ११ ॥
मूलम्
लज्जया परयोपेतो धर्मराजो युधिष्ठिरः।
अभिशापभयाद् भीतो भवन्तं नोपसर्पति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण बोले— प्रजानाथ! धर्मराज युधिष्ठिर बहुत लज्जित हैं, वे शापके भयसे डरे होनेके कारण आपके निकट नहीं आ रहे हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकस्य कदनं कृत्वा लोकनाथो विशाम्पते।
अभिशापभयाद् भीतो भवन्तं नोपसर्पति ॥ १२ ॥
मूलम्
लोकस्य कदनं कृत्वा लोकनाथो विशाम्पते।
अभिशापभयाद् भीतो भवन्तं नोपसर्पति ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजापालक भीष्म! ये लोकनाथ युधिष्ठिर जगत्का संहार करके शापके भयसे त्रस्त हो उठे हैं; इसीलिये आपके निकट नहीं आते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूज्यान् मान्यांश्च भक्तांश्च गुरून् सम्बन्धिबान्धवान्।
अर्घार्हानिषुभिर्भित्त्वा भवन्तं नोपसर्पति ॥ १३ ॥
मूलम्
पूज्यान् मान्यांश्च भक्तांश्च गुरून् सम्बन्धिबान्धवान्।
अर्घार्हानिषुभिर्भित्त्वा भवन्तं नोपसर्पति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूजनीय, माननीय गुरुजनों, भक्तों तथा अर्घ्य आदिके द्वारा सत्कार करने योग्य सम्बन्धियों एवं बन्धु-बान्धवोंका बाणोंद्वारा भेदन करके भयके मारे ये आपके पास नहीं आ रहे हैं॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणानां यथा धर्मो दानमध्ययनं तपः।
क्षत्रियाणां तथा कृष्ण समरे देहपातनम् ॥ १४ ॥
मूलम्
ब्राह्मणानां यथा धर्मो दानमध्ययनं तपः।
क्षत्रियाणां तथा कृष्ण समरे देहपातनम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— श्रीकृष्ण! जैसे दान, अध्ययन और तप ब्राह्मणोंका धर्म है, उसी प्रकार समरभूमिमें शत्रुओंके शरीरको मार गिराना क्षत्रियोंका धर्म है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितॄन् पितामहान् भ्रातॄन् गुरून् सम्बन्धिबान्धवान्।
मिथ्याप्रवृत्तान् यः संख्ये निहन्याद् धर्म एव सः ॥ १५ ॥
मूलम्
पितॄन् पितामहान् भ्रातॄन् गुरून् सम्बन्धिबान्धवान्।
मिथ्याप्रवृत्तान् यः संख्ये निहन्याद् धर्म एव सः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो असत्यके मार्गपर चलनेवाले पिता (ताऊ-चाचा), बाबा, भाई, गुरुजन, सम्बन्धी तथा बन्धु-बान्धवोंको संग्राममें मार डालता है, उसका वह कार्य धर्म ही है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समयत्यागिनो लुब्धान् गुरूनपि च केशव।
निहन्ति समरे पापान् क्षत्रियो यः स धर्मवित् ॥ १६ ॥
मूलम्
समयत्यागिनो लुब्धान् गुरूनपि च केशव।
निहन्ति समरे पापान् क्षत्रियो यः स धर्मवित् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
केशव! जो क्षत्रिय लोभवश धर्ममर्यादाका उल्लंघन करनेवाले पापाचारी गुरुजनोंका भी समराङ्गणमें वध कर डालता है, वह अवश्य ही धर्मका ज्ञाता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो लोभान्न समीक्षेत धर्मसेतुं सनातनम्।
निहन्ति यस्तं समरे क्षत्रियो वै स धर्मवित् ॥ १७ ॥
मूलम्
यो लोभान्न समीक्षेत धर्मसेतुं सनातनम्।
निहन्ति यस्तं समरे क्षत्रियो वै स धर्मवित् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोभवश सनातन धर्ममर्यादाकी ओर दृष्टिपात नहीं करता, उसे जो क्षत्रिय समरभूमिमें मार गिराता है, वह निश्चय ही धर्मज्ञ है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोहितोदां केशतृणां गजशैलां ध्वजद्रुमाम्।
महीं करोति युद्धेषु क्षत्रियो यः स धर्मवित् ॥ १८ ॥
मूलम्
लोहितोदां केशतृणां गजशैलां ध्वजद्रुमाम्।
महीं करोति युद्धेषु क्षत्रियो यः स धर्मवित् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो क्षत्रिय युद्धभूमिमें रक्तरूपी जल, केशरूपी तृण, हाथीरूपी पर्वत और ध्वजरूपी वृक्षोंसे युक्त खूनकी नदी बहा देता है, वह धर्मका ज्ञाता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहूतेन रणे नित्यं योद्धव्यं क्षत्रबन्धुना।
धर्म्यं स्वर्ग्यं च लोक्यं च युद्धं हि मनुरब्रवीत्॥१९॥
मूलम्
आहूतेन रणे नित्यं योद्धव्यं क्षत्रबन्धुना।
धर्म्यं स्वर्ग्यं च लोक्यं च युद्धं हि मनुरब्रवीत्॥१९॥
अनुवाद (हिन्दी)
संग्राममें शत्रुके ललकारनेपर क्षत्रिय-बन्धुको सदा ही युद्धके लिये उद्यत रहना चाहिये। मनुजीने कहा है कि युद्ध क्षत्रियके लिये धर्मका पोषक, स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला और लोकमें यश फैलानेवाला है॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु भीष्मेण धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
विनीतवदुपागम्य तस्थौ संदर्शनेऽग्रतः ॥ २० ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु भीष्मेण धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
विनीतवदुपागम्य तस्थौ संदर्शनेऽग्रतः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! भीष्मजीके ऐसा कहनेपर धर्मपुत्र युधिष्ठिर उनके पास जाकर एक विनीत पुरुषके समान उनकी दृष्टिके सामने खड़े हो गये॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथास्य पादौ जग्राह भीष्मश्चापि ननन्द तम्।
मूर्ध्नि चैनमुपाघ्राय निषीदेत्यब्रवीत् तदा ॥ २१ ॥
मूलम्
अथास्य पादौ जग्राह भीष्मश्चापि ननन्द तम्।
मूर्ध्नि चैनमुपाघ्राय निषीदेत्यब्रवीत् तदा ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उन्होंने भीष्मजीके दोनों चरण पकड़ लिये। तब भीष्मजीने उन्हें आश्वासन देकर प्रसन्न किया और उनका मस्तक सूँघकर कहा—‘बेटा! बैठ जाओ’॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुवाचाथ गाङ्गेयो वृषभः सर्वधन्विनाम्।
मां पृच्छ तात विश्रब्धं मा भैस्त्वं कुरुसत्तम ॥ २२ ॥
मूलम्
तमुवाचाथ गाङ्गेयो वृषभः सर्वधन्विनाम्।
मां पृच्छ तात विश्रब्धं मा भैस्त्वं कुरुसत्तम ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् सम्पूर्ण धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ गङ्गानन्दन भीष्मजीने उनसे कहा—‘तात! मैं इस समय स्वस्थ हूँ, तुम मुझसे निर्भय होकर प्रश्न करो। कुरुश्रेष्ठ! तुम भय न मानो’॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि युधिष्ठिराश्वासने पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें युधिष्ठिरको आश्वासनविषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५५॥