०५४ कृष्णवाक्ये

भागसूचना

चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण और भीष्मजीकी बातचीत

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मात्मनि महावीर्ये सत्यसंधे जितात्मनि।
देवव्रते महाभागे शरतल्पगतेऽच्युते ॥ १ ॥
शयाने वीरशयने भीष्मे शान्तनुनन्दने।
गाङ्गेये पुरुषव्याघ्रे पाण्डवैः पर्युपासिते ॥ २ ॥
काः कथाः समवर्तन्त तस्मिन् वीरसमागमे।
हतेषु सर्वसैन्येषु तन्मे शंस महामुने ॥ ३ ॥

मूलम्

धर्मात्मनि महावीर्ये सत्यसंधे जितात्मनि।
देवव्रते महाभागे शरतल्पगतेऽच्युते ॥ १ ॥
शयाने वीरशयने भीष्मे शान्तनुनन्दने।
गाङ्गेये पुरुषव्याघ्रे पाण्डवैः पर्युपासिते ॥ २ ॥
काः कथाः समवर्तन्त तस्मिन् वीरसमागमे।
हतेषु सर्वसैन्येषु तन्मे शंस महामुने ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने पूछा— महामुने! धर्मात्मा, महापराक्रमी, सत्यप्रतिज्ञ, जितात्मा, धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले महाभाग शान्तनुनन्दन गङ्गाकुमार पुरुषसिंह देवव्रत भीष्म जब वीरशय्यापर सो रहे थे और पाण्डव उनकी सेवामें आकर उपस्थित हो गये थे, उस समय वीर पुरुषोंके उस समागमके अवसरपर, जब कि उभयपक्षकी सम्पूर्ण सेनाएँ मारी जा चुकी थीं, कौन-कौनसी बातें हुईं? यह मुझे बतानेकी कृपा करें॥१—३॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरतल्पगते भीष्मे कौरवाणां धुरन्धरे।
आजग्मुर्ऋषयः सिद्धा नारदप्रमुखा नृप ॥ ४ ॥

मूलम्

शरतल्पगते भीष्मे कौरवाणां धुरन्धरे।
आजग्मुर्ऋषयः सिद्धा नारदप्रमुखा नृप ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— नरेश्वर! कौरवकुलका भार वहन करनेवाले भीष्मजी जब बाणशय्यापर सो रहे थे, उस समय वहाँ नारद आदि सिद्ध महर्षि भी पधारे थे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतशिष्टाश्च राजानो युधिष्ठिरपुरोगमाः ।
धृतराष्ट्रश्च कृष्णश्च भीमार्जुनयमास्तथा ॥ ५ ॥
तेऽभिगम्य महात्मानो भरतानां पितामहम्।
अन्वशोचन्त ग्ण्ङ्गेयमादित्यं पतितं यथा ॥ ६ ॥

मूलम्

हतशिष्टाश्च राजानो युधिष्ठिरपुरोगमाः ।
धृतराष्ट्रश्च कृष्णश्च भीमार्जुनयमास्तथा ॥ ५ ॥
तेऽभिगम्य महात्मानो भरतानां पितामहम्।
अन्वशोचन्त ग्ण्ङ्गेयमादित्यं पतितं यथा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाभारत-युद्धमें जो लोग मरनेसे बच गये थे, वे युधिष्ठिर आदि राजा तथा धृतराष्ट्र, श्रीकृष्ण, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव—ये सभी महामनस्वी पुरुष पृथ्वीपर गिरे हुए सूर्यके समान प्रतीत होनेवाले, भरतवंशियोंके पितामह, गङ्गानन्दन भीष्मजीके पास जाकर बारंबार शोक प्रकट करने लगे॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुहूर्तमिव च ध्यात्वा नारदो देवदर्शनः।
उवाच पाण्डवान् सर्वान् हतशिष्टांश्च पार्थिवान् ॥ ७ ॥

मूलम्

मुहूर्तमिव च ध्यात्वा नारदो देवदर्शनः।
उवाच पाण्डवान् सर्वान् हतशिष्टांश्च पार्थिवान् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब दिव्य दृष्टि रखनेवाले देवर्षि नारदने दो घड़ीतक कुछ सोच-विचारकर समस्त पाण्डवों तथा मरनेसे बचे हुए अन्य नरेशोंको सम्बोधित करके कहा—॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्तकालं समाचक्षे भीष्मोऽयमनुयुज्यताम् ।
अस्तमेति हि गाङ्गेयो भानुमानिव भारत ॥ ८ ॥

मूलम्

प्राप्तकालं समाचक्षे भीष्मोऽयमनुयुज्यताम् ।
अस्तमेति हि गाङ्गेयो भानुमानिव भारत ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतनन्दन युधिष्ठिर तथा अन्य भूपालगण! मैं आप लोगोंको समयोचित कर्तव्य बता रहा हूँ। आपलोग गङ्गानन्दन भीष्मजीसे धर्म और ब्रह्मके विषयमें प्रश्न कीजिये, क्योंकि अब ये भगवान् सूर्यके समान अस्त होनेवाले हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं प्राणानुत्सिसृक्षुस्तं सर्वेऽभ्यनुपृच्छत ।
कृत्स्नान्‌ हि विविधान् धर्मांश्चातुर्वर्ण्यस्य वेत्त्ययम् ॥ ९ ॥

मूलम्

अयं प्राणानुत्सिसृक्षुस्तं सर्वेऽभ्यनुपृच्छत ।
कृत्स्नान्‌ हि विविधान् धर्मांश्चातुर्वर्ण्यस्य वेत्त्ययम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीष्मजी अपने प्राणोंका परित्याग करना चाहते हैं, अतः आप सब लोग इनसे अपने मनकी बातें पूछ लें; क्योंकि ये चारों वर्णोंके सम्पूर्ण एवं विभिन्न धर्मोंको जानते हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष वृद्धः पराल्लोँकान् सम्प्राप्नोति तनुं त्यजन्।
तं शीघ्रमनुयुञ्जीध्वं संशयान् मनसि स्थितान् ॥ १० ॥

मूलम्

एष वृद्धः पराल्लोँकान् सम्प्राप्नोति तनुं त्यजन्।
तं शीघ्रमनुयुञ्जीध्वं संशयान् मनसि स्थितान् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीष्मजी अत्यन्त वृद्ध हो गये हैं और अपने शरीरका त्याग करके उत्तम लोकोंमें पदार्पण करनेवाले हैं; अतः आप लोग शीघ्र ही इनसे अपने मनके संदेह पूछ लें’॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ते नारदेन भीष्ममीयुर्नराधिपाः ।
प्रष्टुं चाशक्नुवन्तस्ते वीक्षांचक्रुः परस्परम् ॥ ११ ॥

मूलम्

एवमुक्ते नारदेन भीष्ममीयुर्नराधिपाः ।
प्रष्टुं चाशक्नुवन्तस्ते वीक्षांचक्रुः परस्परम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! नारदजीके ऐसा कहनेपर सब नरेश भीष्मजीके निकट आ गये; परंतु उन्हें उनसे कुछ पूछनेका साहस नहीं हुआ। वे सभी एक दूसरेका मुँह ताकने लगे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथोवाच हृषीकेशं पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिरः।
नान्यस्तु देवकीपुत्राच्छक्तः प्रष्टुं पितामहम् ॥ १२ ॥

मूलम्

अथोवाच हृषीकेशं पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिरः।
नान्यस्तु देवकीपुत्राच्छक्तः प्रष्टुं पितामहम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरने हृषीकेशकी ओर लक्ष्य करके कहा—‘दिव्यज्ञानसम्पन्न देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णको छोड़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो पितामहसे प्रश्न कर सके’॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रव्याहर यदुश्रेष्ठ त्वमग्रे मधुसूदन।
त्वं हि नस्तात सर्वेषां सर्वधर्मविदुत्तमः ॥ १३ ॥

मूलम्

प्रव्याहर यदुश्रेष्ठ त्वमग्रे मधुसूदन।
त्वं हि नस्तात सर्वेषां सर्वधर्मविदुत्तमः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(फिर श्रीकृष्णसे कहने लगे—) ‘मधुसूदन! यदुश्रेष्ठ! आप ही पहले वार्तालाप आरम्भ कीजिये। तात! आप ही हम सब लोगोंमें सम्पूर्ण धर्मोंके श्रेष्ठ ज्ञाता हैं’॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः पाण्डवेन भगवान् केशवस्तदा।
अभिगम्य दुराधर्षं प्रव्याहारयदच्युतः ॥ १४ ॥

मूलम्

एवमुक्तः पाण्डवेन भगवान् केशवस्तदा।
अभिगम्य दुराधर्षं प्रव्याहारयदच्युतः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने दुर्जय भीष्मजीके निकट जाकर इस प्रकार बातचीत की॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चित् सुखेन रजनी व्युष्टा ते राजसत्तम।
विस्पष्टलक्षणा बुद्धिः कच्चिच्चोपस्थिता तव ॥ १५ ॥

मूलम्

कच्चित् सुखेन रजनी व्युष्टा ते राजसत्तम।
विस्पष्टलक्षणा बुद्धिः कच्चिच्चोपस्थिता तव ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण बोले— नृपश्रेष्ठ भीष्मजी! आपकी रात सुखसे बीती है न? क्या आपको सभी ज्ञातव्य विषयोंका सुस्पष्टरूपसे दर्शन करानेवाली निर्मल बुद्धि प्राप्त हो गयी?॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि प्रतिभान्ति च तेऽनघ।
न ग्लायते च हृदयं न च ते व्याकुलं मनः॥१६॥

मूलम्

कच्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि प्रतिभान्ति च तेऽनघ।
न ग्लायते च हृदयं न च ते व्याकुलं मनः॥१६॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप भीष्म! क्या आपके अन्तःकरणमें सब प्रकारके ज्ञान प्रकाशित हो रहे हैं? आपके हृदयमें ग्लानि तो नहीं है? आपका मन व्याकुल तो नहीं हो रहा है?॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दाहो मोहः श्रमश्चैव क्लमो ग्लानिस्तथा रुजा।
तव प्रसादाद् वार्ष्णेय सद्यः प्रतिगतानि मे ॥ १७ ॥

मूलम्

दाहो मोहः श्रमश्चैव क्लमो ग्लानिस्तथा रुजा।
तव प्रसादाद् वार्ष्णेय सद्यः प्रतिगतानि मे ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी बोले— वृष्णिनन्दन! आपकी कृपासे मेरे शरीरकी जलन, मनका मोह, थकावट, विकलता, ग्लानि तथा रोग—ये सब तत्काल दूर हो गये थे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च भूतं भविष्यच्च भवच्च परमद्युते।
तत् सर्वमनुपश्यामि पाणौ फलमिवार्पितम् ॥ १८ ॥

मूलम्

यच्च भूतं भविष्यच्च भवच्च परमद्युते।
तत् सर्वमनुपश्यामि पाणौ फलमिवार्पितम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम तेजस्वी पुरुषोत्तम! अब मैं हाथपर रखे हुए फलकी भाँति भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालोंकी सभी बातें सुस्पष्टरूपसे देख रहा हूँ॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदोक्ताश्चैव ये धर्मा वेदान्ताधिगताश्च ये।
तान् सर्वान् सम्प्रपश्यामि वरदानात् तवाच्युत ॥ १९ ॥

मूलम्

वेदोक्ताश्चैव ये धर्मा वेदान्ताधिगताश्च ये।
तान् सर्वान् सम्प्रपश्यामि वरदानात् तवाच्युत ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अच्युत! वेदोंमें जो धर्म बताये गये हैं तथा वेदान्तों (उपनिषदों)-द्वारा जिनको जाना गया है, उन सब धर्मोंको मैं आपके वरदानके प्रभावसे प्रत्यक्ष देख रहा हूँ॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिष्टैश्व धर्मो यः प्रोक्तः स च मे हृदि वर्तते।
देशजातिकुलानां च धर्मज्ञोऽस्मि जनार्दन ॥ २० ॥

मूलम्

शिष्टैश्व धर्मो यः प्रोक्तः स च मे हृदि वर्तते।
देशजातिकुलानां च धर्मज्ञोऽस्मि जनार्दन ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनार्दन! शिष्ट पुरुषोंने जिस धर्मका उपदेश किया है, वह भी मेरे हृदयमें स्फुरित हो रहा है। देश, जाति और कुलके धर्मोंका भी इस समय मुझे पूर्ण ज्ञान है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्ष्वाश्रमधर्मेषु योऽर्थः स च हृदि स्थितः।
राजधर्मांश्च सकलानवगच्छामि केशव ॥ २१ ॥

मूलम्

चतुर्ष्वाश्रमधर्मेषु योऽर्थः स च हृदि स्थितः।
राजधर्मांश्च सकलानवगच्छामि केशव ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों आश्रमोंके धर्मोंमें जो सारभूत तत्त्व है, वह भी मेरे हृदयमें प्रकाशित हो रहा है। केशव! इस समय मैं सम्पूर्ण राजधर्मोंको भी भलीभाँति जानता हूँ॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च यत्र च वक्तव्यं तद् वक्ष्यामि जनार्दन।
तव प्रसादाद्धि शुभा मनो मे बुद्धिराविशत् ॥ २२ ॥

मूलम्

यच्च यत्र च वक्तव्यं तद् वक्ष्यामि जनार्दन।
तव प्रसादाद्धि शुभा मनो मे बुद्धिराविशत् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनार्दन! जिस विषयमें जो कुछ भी कहने योग्य बात है, वह सब मैं कहूँगा। आपकी कृपासे मेरे हृदयमें निर्मल मन और कल्याणमयी बुद्धिका आवेश हुआ है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युवेवास्मि समावृत्तस्त्वदनुध्यानबृंहितः ।
वक्तुं श्रेयः समर्थोऽस्मि त्वत्प्रसादाज्जनार्दन ॥ २३ ॥

मूलम्

युवेवास्मि समावृत्तस्त्वदनुध्यानबृंहितः ।
वक्तुं श्रेयः समर्थोऽस्मि त्वत्प्रसादाज्जनार्दन ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनार्दन! आपके निरन्तर चिन्तनसे मेरी शक्ति इतनी बढ़ गयी है कि मैं जवान-सा हो गया हूँ। आपके प्रसादसे अब मैं कल्याणकारी उपदेश देनेमें समर्थ हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयं किमर्थं तु भवान् श्रेयो न प्राह पाण्डवम्।
किं ते विवक्षितं चात्र तदाशु वद माधव ॥ २४ ॥

मूलम्

स्वयं किमर्थं तु भवान् श्रेयो न प्राह पाण्डवम्।
किं ते विवक्षितं चात्र तदाशु वद माधव ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माधव! तो भी मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप स्वयं ही पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरको कल्याणकारी उपदेश क्यों नहीं देते हैं? इस विषयमें आप क्या कहना चाहते हैं? यह शीघ्र बताइये॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यशसः श्रेयसश्चैव मूलं मां विद्धि कौरव।
मत्तः सर्वेऽभिनिर्वृत्ता भावाः सदसदात्मकाः ॥ २५ ॥

मूलम्

यशसः श्रेयसश्चैव मूलं मां विद्धि कौरव।
मत्तः सर्वेऽभिनिर्वृत्ता भावाः सदसदात्मकाः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा— कुरुनन्दन! आप मुझे ही यश और श्रेयका मूल समझें। संसारमें जो भी सत् और असत् पदार्थ हैं, वे सब मुझसे ही उत्पन्न हुए हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीतांशुश्चन्द्र इत्युक्ते लोके को विस्मयिष्यति।
तथैव यशसा पूर्णे मयि को विस्मयिष्यति ॥ २६ ॥

मूलम्

शीतांशुश्चन्द्र इत्युक्ते लोके को विस्मयिष्यति।
तथैव यशसा पूर्णे मयि को विस्मयिष्यति ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘चन्द्रमा शीतल किरणोंसे सम्पन्न हैं’ यह बात कहनेपर जगत्‌में किसको आश्चर्य होगा? अर्थात् किसीको नहीं होगा। उसी प्रकार सम्पूर्ण यशसे सम्पन्न मुझ परमेश्चरके द्वारा कोई उत्तम उपदेश प्राप्त हो तो उसे सुनकर कौन आश्चर्य करेगा?॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आधेयं तु मया भूयो यशस्तव महाद्युते।
ततो मे विपुला बुद्धिस्त्वयि भीष्म समर्पिता ॥ २७ ॥

मूलम्

आधेयं तु मया भूयो यशस्तव महाद्युते।
ततो मे विपुला बुद्धिस्त्वयि भीष्म समर्पिता ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महातेजस्वी भीष्म! मुझे इस जगत्‌में आपके महान् यशकी प्रतिष्ठा करनी है, अतः मैंने अपनी विशाल बुद्धि आपको समर्पित की है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावद्धि पृथिवीपाल पृथ्वीयं स्थास्यति ध्रुवा।
तावत् तवाक्षया कीर्तिर्लोकाननुचरिष्यति ॥ २८ ॥

मूलम्

यावद्धि पृथिवीपाल पृथ्वीयं स्थास्यति ध्रुवा।
तावत् तवाक्षया कीर्तिर्लोकाननुचरिष्यति ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूपाल! जबतक यह अचला पृथ्वी स्थिर रहेगी, तबतक सम्पूर्ण जगत्‌में आपकी अक्षय कीर्ति विख्यात होती रहेगी॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च त्वं वक्ष्यसे भीष्म पाण्डवायानुपृच्छते।
वेदप्रवाद इव ते स्थास्यते वसुधातले ॥ २९ ॥

मूलम्

यच्च त्वं वक्ष्यसे भीष्म पाण्डवायानुपृच्छते।
वेदप्रवाद इव ते स्थास्यते वसुधातले ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्म! आप पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरके प्रश्न करनेपर उसके उत्तरमें जो कुछ कहेंगे, वह वेदके सिद्धान्तकी भाँति इस भूतलपर मान्य होगा॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्चैतेन प्रमाणेन योक्ष्यत्यात्मानमात्मना ।
स फलं सर्वपुण्यानां प्रेत्य चानुभविष्यति ॥ ३० ॥

मूलम्

यश्चैतेन प्रमाणेन योक्ष्यत्यात्मानमात्मना ।
स फलं सर्वपुण्यानां प्रेत्य चानुभविष्यति ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य आपके इस उपदेशको प्रमाण मानकर उसे अपने जीवनमें उतारेगा, वह मृत्युके बाद सब प्रकारके पुण्योंका फल प्राप्त करेगा॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मात् कारणाद् भीष्म मतिर्दिव्या मया हि ते।
दत्ता यशो विप्रथयेत् कथं भूयस्तवेति ह ॥ ३१ ॥

मूलम्

एतस्मात् कारणाद् भीष्म मतिर्दिव्या मया हि ते।
दत्ता यशो विप्रथयेत् कथं भूयस्तवेति ह ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्म! इसीलिये मैंने आपको दिव्य बुद्धि प्रदान की है कि जिस किसी प्रकारसे भी आपके महान् यशका इस भूतलपर विस्तार हो॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावद्धि प्रथते लोके पुरुषस्य यशो भुवि।
तावत् तस्याक्षयं स्थानं भवतीति विनिश्चिता ॥ ३२ ॥

मूलम्

यावद्धि प्रथते लोके पुरुषस्य यशो भुवि।
तावत् तस्याक्षयं स्थानं भवतीति विनिश्चिता ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत्‌में जबतक भूतलपर मनुष्यके यशका विस्तार होता रहता है, तबतक उसकी परलोकमें अचल स्थिति बनी रहती है, यह निश्चय है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजानो हतशिष्टास्त्वां राजन्नभित आसते।
धर्माननुयुयुक्षन्तस्तेभ्यः प्रब्रूहि भारत ॥ ३३ ॥

मूलम्

राजानो हतशिष्टास्त्वां राजन्नभित आसते।
धर्माननुयुयुक्षन्तस्तेभ्यः प्रब्रूहि भारत ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! नरेश्वर! मरनेसे बचे हुए ये भूपाल आपके पास धर्मकी जिज्ञासासे बैठे हैं। आप इन सबको धर्मका उपदेश करें॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवान् हि वयसा वृद्धः श्रुताचारसमन्वितः।
कुशलो राजधर्माणां सर्वेषामपराश्च ये ॥ ३४ ॥

मूलम्

भवान् हि वयसा वृद्धः श्रुताचारसमन्वितः।
कुशलो राजधर्माणां सर्वेषामपराश्च ये ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपकी अवस्था सबसे बड़ी है। आप शास्त्रज्ञान तथा सदाचारसे सम्पन्न हैं। साथ ही समस्त राजधर्मों तथा अन्य धर्मोंके ज्ञानमें भी आप कुशल हैं॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन्मप्रभृति ते कश्चिद् वृजिनं न ददर्श ह।
ज्ञातारं सर्वधर्माणां त्वां विदुः सर्वपार्थिवाः ॥ ३५ ॥

मूलम्

जन्मप्रभृति ते कश्चिद् वृजिनं न ददर्श ह।
ज्ञातारं सर्वधर्माणां त्वां विदुः सर्वपार्थिवाः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जन्मसे लेकर आजतक किसीने भी आपमें कोई भी दोष (पाप) नहीं देखा है। सब राजा इस बातको स्वीकार करते हैं कि आप सम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाता हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेभ्यः पितेव पुत्रेभ्यो राजन् ब्रूहि परं नयम्।
ऋषयश्चैव देवाश्च त्वया नित्यमुपासिताः ॥ ३६ ॥
तस्माद् वक्तव्यमेवेदं त्वयावश्यमशेषतः ।

मूलम्

तेभ्यः पितेव पुत्रेभ्यो राजन् ब्रूहि परं नयम्।
ऋषयश्चैव देवाश्च त्वया नित्यमुपासिताः ॥ ३६ ॥
तस्माद् वक्तव्यमेवेदं त्वयावश्यमशेषतः ।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! आप इन राजाओंको उसी प्रकार उत्तम नीतिका उपेदश करें, जैसे पिता अपने पुत्रको सद्धर्मकी शिक्षा देता है। आपने देवताओं और ऋषियोंकी सदा उपासना की है; इसलिये आपको अवश्य ही सम्पूर्ण धर्मोंका उपदेश करना चाहिये॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मं शुश्रूषमाणेभ्यः पृष्टेन च सता पुनः ॥ ३७ ॥
वक्तव्यं विदुषा चेति धर्ममाहुर्मनीषिणः।

मूलम्

धर्मं शुश्रूषमाणेभ्यः पृष्टेन च सता पुनः ॥ ३७ ॥
वक्तव्यं विदुषा चेति धर्ममाहुर्मनीषिणः।

अनुवाद (हिन्दी)

मनीषी पुरुषोंने यह धर्म बताया है कि ‘श्रेष्ठ विद्वान् पुरुषसे जब कुछ पूछा जाय तो उसे उचित है कि वह सुननेकी इच्छावाले लोगोंको धर्मका उपदेश दे’॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्रतिब्रुवतः कष्टो दोषो हि भविता प्रभो ॥ ३८ ॥
तस्मात् पुत्रैश्च पौत्रैश्च धर्मान्‌ पृष्टान् सनातनान्।
विद्वाञ्जिज्ञासमानैस्त्वं प्रब्रूहि भरतर्षभ ॥ ३९ ॥

मूलम्

अप्रतिब्रुवतः कष्टो दोषो हि भविता प्रभो ॥ ३८ ॥
तस्मात् पुत्रैश्च पौत्रैश्च धर्मान्‌ पृष्टान् सनातनान्।
विद्वाञ्जिज्ञासमानैस्त्वं प्रब्रूहि भरतर्षभ ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! जो मनुष्य जानते हुए भी श्रद्धापूर्वक प्रश्न करनेवालेको उपदेश नहीं देता, उसे अत्यन्त दुःखदायक दोषकी प्राप्ति होती है; अतः भरतश्रेष्ठ! धर्मको जाननेकी इच्छावाले अपने पुत्रों और पौत्रोंके पूछनेपर उन्हें सनातन धर्मका उपदेश करें; क्योंकि आप धर्मशास्त्रोंके विद्वान् हैं॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि कृष्णवाक्ये चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें श्रीकृष्ण-वाक्यविषयक चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५४॥