भागसूचना
द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीष्मका अपनी असमर्थता प्रकट करना, भगवान्का उन्हें वर देना तथा ऋषियों एवं पाण्डवोंका दूसरे दिन आनेका संकेत करके वहाँसे विदा होकर अपने-अपने स्थानोंको जाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कृष्णस्य तद् वाक्यं धर्मार्थसहितं हितम्।
श्रुत्वा शान्तनवो भीष्मः प्रत्युवाच कृताञ्जलिः ॥ १ ॥
मूलम्
ततः कृष्णस्य तद् वाक्यं धर्मार्थसहितं हितम्।
श्रुत्वा शान्तनवो भीष्मः प्रत्युवाच कृताञ्जलिः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! श्रीकृष्णाका यह धर्म और अर्थसे युक्त हितकर वचन सुनकर शान्तनुनन्दन भीष्मने दोनों हाथ जोड़कर कहा—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकनाथ महाबाहो शिव नारायणाच्युत।
तव वाक्यमुपश्रुत्य हर्षेणास्मि परिप्लुतः ॥ २ ॥
मूलम्
लोकनाथ महाबाहो शिव नारायणाच्युत।
तव वाक्यमुपश्रुत्य हर्षेणास्मि परिप्लुतः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लोकनाथ! महाबाहो! शिव! नारायण! अच्युत! आपका यह वचन सुनकर मैं आनन्दके समुद्रमें निमग्न हो गया हूँ॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं चाहमभिधास्यामि वाक्यं ते तव संनिधौ।
यदा वाचोगतं सर्वं तव वाचि समाहितम् ॥ ३ ॥
मूलम्
किं चाहमभिधास्यामि वाक्यं ते तव संनिधौ।
यदा वाचोगतं सर्वं तव वाचि समाहितम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भला’ मैं आपके समीप क्या कह सकूँगा? जब कि वाणीका सारा विषय आपकी वेदमयी वाणीमें प्रतिष्ठित है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्च किंचित् क्वचिल्लोके कर्तव्यं क्रियते च यत्।
त्वत्तस्तन्निःसृतं देव लोके बुद्धिमतो हि ते ॥ ४ ॥
मूलम्
यच्च किंचित् क्वचिल्लोके कर्तव्यं क्रियते च यत्।
त्वत्तस्तन्निःसृतं देव लोके बुद्धिमतो हि ते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देव! लोकमें कहीं भी जो कुछ कर्तव्य किया जाता है, वह सब आप बुद्धिमान् परमेश्वरसे ही प्रकट हुआ है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथयेद् देवलोकं यो देवराजसमीपतः।
धर्मकामार्थमोक्षाणां सोऽर्थं ब्रूयात् तवाग्रतः ॥ ५ ॥
मूलम्
कथयेद् देवलोकं यो देवराजसमीपतः।
धर्मकामार्थमोक्षाणां सोऽर्थं ब्रूयात् तवाग्रतः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो मनुष्य देवराज इन्द्रके निकट देवलोकका वृत्तान्त बतानेका साहस कर सके, वही आपके सामने धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी बात कह सकता है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शराभितापाद् व्यथितं मनो मे मधुसूदन।
गात्राणि चावसीदन्ति न च बुद्धिः प्रसीदति ॥ ६ ॥
मूलम्
शराभितापाद् व्यथितं मनो मे मधुसूदन।
गात्राणि चावसीदन्ति न च बुद्धिः प्रसीदति ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मधुसूदन! इन बाणोंके गड़नेसे जो जलन हो रही है, उसके कारण मेरे मनमें बड़ी व्यथा है। सारा शरीर पीड़ाके मारे शिथिल हो गया है और बुद्धि कुछ काम नहीं दे रही है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च मे प्रतिभा काचिदस्ति किंचित् प्रभाषितुम्।
पीड्यमानस्य गोविन्द विषानलसमैः शरैः ॥ ७ ॥
मूलम्
न च मे प्रतिभा काचिदस्ति किंचित् प्रभाषितुम्।
पीड्यमानस्य गोविन्द विषानलसमैः शरैः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गोविन्द! ये बाण विष और अग्निके समान मुझे निरन्तर पीड़ा दे रहे हैं; अतः मुझमें कुछ भी कहनेकी शक्ति नहीं रह गयी है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलं मे प्रजहातीव प्राणाः संत्वरयन्ति च।
मर्माणि परितप्यन्ति भ्रान्तचित्तस्तथा ह्यहम् ॥ ८ ॥
मूलम्
बलं मे प्रजहातीव प्राणाः संत्वरयन्ति च।
मर्माणि परितप्यन्ति भ्रान्तचित्तस्तथा ह्यहम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरा बल शरीरको छोड़ता-सा जान पड़ता है। ये प्राण निकलनेको उतावले हो रहे हैं। मेरे मर्मस्थानोंमें बड़ी पीड़ा हो रही है; अतः मेरा चित्त भ्रान्त हो गया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दौर्बल्यात् सज्जते वाङ् मे स कथं वक्तुमुत्सहे।
साधु मे त्वं प्रसीदस्व दाशार्हकुलवर्धन ॥ ९ ॥
मूलम्
दौर्बल्यात् सज्जते वाङ् मे स कथं वक्तुमुत्सहे।
साधु मे त्वं प्रसीदस्व दाशार्हकुलवर्धन ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दुर्बलताके कारण मेरी जीभ तालूमें सट जाती है, ऐसी दशामें मैं कैसे बोल सकता हूँ? दशार्हकुलकी वृद्धि करनेवाले प्रभो! आप मुझपर पूर्णरूपसे प्रसन्न हो जाइये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् क्षमस्व महाबाहो न ब्रूयां किंचिदच्युत।
त्वत्संनिधौ च सीदेद्धि वाचस्पतिरपि ब्रुवन् ॥ १० ॥
मूलम्
तत् क्षमस्व महाबाहो न ब्रूयां किंचिदच्युत।
त्वत्संनिधौ च सीदेद्धि वाचस्पतिरपि ब्रुवन् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! क्षमा कीजिये। मैं बोल नहीं सकता। आपके निकट प्रवचन करनेमें बृहस्पतिजी भी शिथिल हो सकते हैं; फिर मेरी क्या बिसात है?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न दिशः सम्प्रजानामि नाकाशं न च मेदिनीम्।
केवलं तव वीर्येण तिष्ठामि मधुसूदन ॥ ११ ॥
मूलम्
न दिशः सम्प्रजानामि नाकाशं न च मेदिनीम्।
केवलं तव वीर्येण तिष्ठामि मधुसूदन ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मधुसूदन! मुझे न तो दिशाओंका ज्ञान है और न आकाश एवं पृथ्वीका ही भान हो रहा है। केवल आपके प्रभावसे ही जी रहा हूँ॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयमेव भवांस्तस्माद् धर्मराजस्य यद्धितम्।
तद् ब्रवीत्वाशु सर्वेषामागमानां त्वमागमः ॥ १२ ॥
मूलम्
स्वयमेव भवांस्तस्माद् धर्मराजस्य यद्धितम्।
तद् ब्रवीत्वाशु सर्वेषामागमानां त्वमागमः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसलिये आप स्वयं ही जिसमें धर्मराजका हित हो, वह बात शीघ्र बताइये; क्योंकि आप शास्त्रोंके भी शास्त्र हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं त्वयि स्थिते कृष्णे शाश्वते लोककर्तरि।
प्रब्रूयान्मद्विधः कश्चिद् गुरौ शिष्य इव स्थिते ॥ १३ ॥
मूलम्
कथं त्वयि स्थिते कृष्णे शाश्वते लोककर्तरि।
प्रब्रूयान्मद्विधः कश्चिद् गुरौ शिष्य इव स्थिते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीकृष्ण! आप जगत्के कर्ता और सनातन पुरुष हैं। आपके रहते हुए मेरे-जैसा कोई भी मनुष्य कैसे उपदेश कर सकता है? क्या गुरुके रहते हुए शिष्य उपदेश देनेका अधिकारी है?’॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपपन्नमिदं वाक्यं कौरवाणां धुरन्धरे।
महावीर्ये महासत्त्वे स्थिरे सर्वार्थदर्शिनि ॥ १४ ॥
मूलम्
उपपन्नमिदं वाक्यं कौरवाणां धुरन्धरे।
महावीर्ये महासत्त्वे स्थिरे सर्वार्थदर्शिनि ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण बोले— भीष्मजी! आप कुरुकुलका भार वहन करनेवाले, महापराक्रमी, परम धैर्यवान्, स्थिर तथा सर्वार्थदर्शी हैं; आपका यह कथन सर्वथा युक्तिसंगत है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्च मामात्थ गाङ्गेय बाणघातरुजं प्रति।
गृहाणात्र वरं भीष्म मत्प्रसादकृतं प्रभो ॥ १५ ॥
मूलम्
यच्च मामात्थ गाङ्गेय बाणघातरुजं प्रति।
गृहाणात्र वरं भीष्म मत्प्रसादकृतं प्रभो ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गङ्गानन्दन भीष्म! प्रभो! बाणोंके आघातसे होनेवाली पीड़ाके विषयमें जो आपने कहा है, उसके लिये आप मेरी प्रसन्नतासे दिये हुए इस ‘वर’ को ग्रहण करें॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ते ग्लानिर्न ते मूर्छा न दाहो न च ते रुजा।
प्रभविष्यन्ति गाङ्गेय क्षुत्पिपासे न चाप्युत ॥ १६ ॥
मूलम्
न ते ग्लानिर्न ते मूर्छा न दाहो न च ते रुजा।
प्रभविष्यन्ति गाङ्गेय क्षुत्पिपासे न चाप्युत ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गङ्गाकुमार! अब आपको न ग्लानि होगी न मूर्छा; न दाह होगा न रोग, भूख और प्यासका कष्ट भी नहीं रहेगा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानानि च समग्राणि प्रतिभास्यन्ति तेऽनघ।
न च ते क्वचिदासक्तिर्बुद्धेः प्रादुर्भविष्यति ॥ १७ ॥
मूलम्
ज्ञानानि च समग्राणि प्रतिभास्यन्ति तेऽनघ।
न च ते क्वचिदासक्तिर्बुद्धेः प्रादुर्भविष्यति ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनघ! आपके अन्तःकरणमें सम्पूर्ण ज्ञान प्रकाशित हो उठेंगे। आपकी बुद्धि किसी भी विषयमें कुण्ठित नहीं होगी॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वस्थं च मनो नित्यं तव भीष्म भविष्यति।
रजस्तमोभ्यां रहितं घनैर्मुक्त इवोडुराट् ॥ १८ ॥
मूलम्
सत्त्वस्थं च मनो नित्यं तव भीष्म भविष्यति।
रजस्तमोभ्यां रहितं घनैर्मुक्त इवोडुराट् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! आपका मन मेघके आवरणसे मुक्त हुए चन्द्रमाकी भाँति रजोगुण और तमोगुणसे रहित होकर सदा सत्त्वगुणमें स्थित रहेगा॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् यच्च धर्मसंयुक्तमर्थयुक्तमथापि च।
चिन्तयिष्यसि तत्राग्य्रा बुद्धिस्तव भविष्यति ॥ १९ ॥
मूलम्
यद् यच्च धर्मसंयुक्तमर्थयुक्तमथापि च।
चिन्तयिष्यसि तत्राग्य्रा बुद्धिस्तव भविष्यति ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप जिस-जिस धर्मयुक्त या अर्थयुक्त विषयका चिन्तन करेंगे, उसमें आपकी बुद्धि सफलतापूर्वक आगे बढ़ती जायगी॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमं च राजशार्दूल भूतग्रामं चतुर्विधम्।
चक्षुर्दिव्यं समाश्रित्य द्रक्ष्यस्यमितविक्रम ॥ २० ॥
मूलम्
इमं च राजशार्दूल भूतग्रामं चतुर्विधम्।
चक्षुर्दिव्यं समाश्रित्य द्रक्ष्यस्यमितविक्रम ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अमितपराक्रमी नृपश्रेष्ठ! आप दिव्य दृष्टि पाकर स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज और जरायुज—इन चारों प्रकारके प्राणियोंको देख सकेंगे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संसरन्तं प्रजाजालं संयुक्तो ज्ञानचक्षुषा।
भीष्म द्रक्ष्यसि तत्त्वेन जले मीन इवामले ॥ २१ ॥
मूलम्
संसरन्तं प्रजाजालं संयुक्तो ज्ञानचक्षुषा।
भीष्म द्रक्ष्यसि तत्त्वेन जले मीन इवामले ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म! ज्ञानदृष्टिसे सम्पन्न होकर आप संसारबन्धनमें पड़नेवाले सम्पूर्ण जीवसमुदायको उसी तरह यथार्थ रूपसे देख सकेंगे, जैसे मत्स्य निर्मल जलमें सब कुछ देखता रहता है॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते व्याससहिताः सर्व एव महर्षयः।
ऋग्यजुःसामसहितैर्वचोभिः कृष्णमार्चयन् ॥ २२ ॥
मूलम्
ततस्ते व्याससहिताः सर्व एव महर्षयः।
ऋग्यजुःसामसहितैर्वचोभिः कृष्णमार्चयन् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर व्याससहित सम्पूर्ण महर्षियोंने ऋक्, यजु तथा सामवेदके मन्त्रोंसे भगवान् श्रीकृष्णका पूजन किया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सर्वार्तवं दिव्यं पुष्पवर्षं नभस्तलात्।
पपात यत्र वार्ष्णेयः सगाङ्गेयः सपाण्डवः ॥ २३ ॥
मूलम्
ततः सर्वार्तवं दिव्यं पुष्पवर्षं नभस्तलात्।
पपात यत्र वार्ष्णेयः सगाङ्गेयः सपाण्डवः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् जहाँ गङ्गापुत्र भीष्म और पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरके साथ वृष्णिवंशी भगवान् श्रीकृष्ण विराजमान थे, वहाँ आकाशसे सभी ऋतुओंमें खिलनेवाले दिव्य पुष्पोंकी वर्षा होने लगी॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वादित्राणि च सर्वाणि जगुश्चप्सरसां गणाः।
न चाहितमनिष्टं च किञ्चित्तत्र प्रदृश्यते ॥ २४ ॥
मूलम्
वादित्राणि च सर्वाणि जगुश्चप्सरसां गणाः।
न चाहितमनिष्टं च किञ्चित्तत्र प्रदृश्यते ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब प्रकारके बाजे बजने लगे, अप्सराओंके समुदाय गीत गाने लगे। वहाँ कुछ भी ऐसा नहीं देखा जाता था जो अहितकर और अनिष्टकारक हो॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ववौ शिवः सुखो वायुः सर्वगन्धवहः शुचिः।
शान्तायां दिशि शान्ताश्च प्रावदन् मृगपक्षिणः ॥ २५ ॥
मूलम्
ववौ शिवः सुखो वायुः सर्वगन्धवहः शुचिः।
शान्तायां दिशि शान्ताश्च प्रावदन् मृगपक्षिणः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शीतल, सुखद, मन्द, पवित्र एवं सर्वथा सुगन्धयुक्त वायु चल रही थी, सम्पूर्ण दिशाएँ शान्त थीं और उनमें रहनेवाले पशु एवं पक्षी शान्तभावसे मनोहर वचन बोल रहे थे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मुहूर्ताद् भगवान् सहस्रांशुर्दिवाकरः।
दहन् वनमिवैकान्ते प्रतीच्यां प्रत्यदृश्यत ॥ २६ ॥
मूलम्
ततो मुहूर्ताद् भगवान् सहस्रांशुर्दिवाकरः।
दहन् वनमिवैकान्ते प्रतीच्यां प्रत्यदृश्यत ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय दो ही घड़ीमें भगवान् सहस्रकिरणमाली दिवाकर पश्चिम दिशाके एकान्त प्रदेशमें वहाँके वनप्रान्तको दग्ध करते हुए-से दिखायी दिये॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो महर्षयः सर्वे समुत्थाय जनार्दनम्।
भीष्ममामन्त्रयाञ्चक्रू राजानं च युधिष्ठिरम् ॥ २७ ॥
मूलम्
ततो महर्षयः सर्वे समुत्थाय जनार्दनम्।
भीष्ममामन्त्रयाञ्चक्रू राजानं च युधिष्ठिरम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सभी महर्षियोंने उठकर भगवान् श्रीकृष्ण, भीष्म तथा राजा युधिष्ठिरसे विदा माँगी॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रणाममकरोत् केशवः सहपाण्डवः।
सात्यकिः संजयश्चैव स च शारद्वतः कृपः ॥ २८ ॥
मूलम्
ततः प्रणाममकरोत् केशवः सहपाण्डवः।
सात्यकिः संजयश्चैव स च शारद्वतः कृपः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद पाण्डवोंसहित श्रीकृष्ण, सात्यकि, संजय तथा शरद्वान्के पुत्र कृपाचार्यने उन सबको प्रणाम किया॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते धर्मनिरताः सम्यक् तैरभिपूजिताः।
श्वः समेष्याम इत्युक्त्वा यथेष्टं त्वरिता ययुः ॥ २९ ॥
मूलम्
ततस्ते धर्मनिरताः सम्यक् तैरभिपूजिताः।
श्वः समेष्याम इत्युक्त्वा यथेष्टं त्वरिता ययुः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके द्वारा भलीभाँति पूजित हुए वे धर्मपरायण महर्षि, ‘हमलोग फिर कल सबेरे यहाँ आयँगे’ ऐसा कहकर तुरंत ही अपने-अपने अभीष्ट स्थानको चले गये॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैवामन्त्र्य गाङ्गेयं केशवः पाण्डवास्तथा।
प्रदक्षिणमुपावृत्य रथानारुरुहुः शुभान् ॥ ३० ॥
मूलम्
तथैवामन्त्र्य गाङ्गेयं केशवः पाण्डवास्तथा।
प्रदक्षिणमुपावृत्य रथानारुरुहुः शुभान् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार श्रीकृष्ण और पाण्डव भी गङ्गानन्दन भीष्मजीसे जानेकी आज्ञा ले उनकी परिक्रमा करके अपने मङ्गलमय रथोंपर जा बैठे॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रथैः काञ्चनचित्रकूबरै-
र्महीधराभैः समदैश्च दन्तिभिः ।
हयैः सुपर्णैरिव चाशुगामिभिः
पदातिभिश्चात्तशरासनादिभिः ॥ ३१ ॥
ययौ रथानां पुरतो हि सा चमू-
स्तथैव पश्चादतिमात्रसारिणी ।
पुरश्च पश्चाच्च यथा महानदी
तमृक्षवन्तं गिरिमेत्य नर्मदा ॥ ३२ ॥
मूलम्
ततो रथैः काञ्चनचित्रकूबरै-
र्महीधराभैः समदैश्च दन्तिभिः ।
हयैः सुपर्णैरिव चाशुगामिभिः
पदातिभिश्चात्तशरासनादिभिः ॥ ३१ ॥
ययौ रथानां पुरतो हि सा चमू-
स्तथैव पश्चादतिमात्रसारिणी ।
पुरश्च पश्चाच्च यथा महानदी
तमृक्षवन्तं गिरिमेत्य नर्मदा ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुवर्णनिर्मित विचित्र कूबरोंवाले रथों, पर्वताकार मतवाले हाथियों, गरुड़के समान तीव्रगतिसे चलनेवाले घोड़ों तथा हाथमें धुनष-बाण आदि लिये हुए पैदल सैनिकोंसे युक्त वह विशाल सेना रथोंके आगे और पीछे भी बहुत दूरतक फैलकर वैसी ही शोभा पाने लगी, जैसे ऋक्षवान् पर्वतके पास पहुँचकर पूर्व और पश्चिम दिशामें भी प्रवाहित होनेवाली महानदी नर्मदा सुशोभित होती है॥३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पुरस्ताद् भगवान् निशाकरः
समुत्थितस्तामभिहर्षयंश्चमूम् ।
दिवाकरापीतरसा महौषधीः
पुनः स्वकेनैव गुणेन योजयन् ॥ ३३ ॥
मूलम्
ततः पुरस्ताद् भगवान् निशाकरः
समुत्थितस्तामभिहर्षयंश्चमूम् ।
दिवाकरापीतरसा महौषधीः
पुनः स्वकेनैव गुणेन योजयन् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद पूर्व दिशाके आकाशमें भगवान् चन्द्रदेवका उदय हुआ, जो उस सेनाका हर्ष बढ़ा रहे थे और सूर्यने जिन बड़ी-बड़ी ओषधियोंका रस पी लिया था, उन सबको अपनी सुधावर्षी किरणों-द्वारा पुनः उनके स्वाभाविक गुणोंसे सम्पन्न कर रहे थे॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पुरं सुरपुरसम्मितद्युति
प्रविश्य ते यदुवृषपाण्डवास्तदा ।
यथोचितान् भवनवरान् समाविशन्
श्रमान्विता मृगपतयो गुहा इव ॥ ३४ ॥
मूलम्
ततः पुरं सुरपुरसम्मितद्युति
प्रविश्य ते यदुवृषपाण्डवास्तदा ।
यथोचितान् भवनवरान् समाविशन्
श्रमान्विता मृगपतयो गुहा इव ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वे यदुकुलके श्रेष्ठ वीर तथा पाण्डव सुरपुरके समान शोभा पानेवाले हस्तिनापुरमें प्रवेश करके यथायोग्य श्रेष्ठ महलोंके भीतर चले गये। ठीक उसी तरह, जैसे थके-मादे सिंह विश्रामके लिये पर्वतकी कन्दराओंमें प्रवेश करते हैं॥३४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि युधिष्ठिराद्यागमने द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें युधिष्ठिर आदिका आगमनविषयक बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५२॥