०५१ कृष्णवाक्ये

भागसूचना

एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीष्मके द्वारा श्रीकृष्णकी स्तुति तथा श्रीकृष्णका भीष्मकी प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिरके लिये धर्मोपदेश करनेका आदेश

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तु वचनं भीष्मो वासुदेवस्य धीमतः।
किंचिदुन्नाम्य वदनं प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

श्रुत्वा तु वचनं भीष्मो वासुदेवस्य धीमतः।
किंचिदुन्नाम्य वदनं प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! परम बुद्धिमान् वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णका वचन सुनकर भीष्मजीने अपना मुँह कुछ ऊपर उठाया और हाथ जोड़कर कहा—॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्ते भगवन् कृष्ण लोकानां प्रभवाप्यय।
त्वं हि कर्ता हृषीकेश संहर्ता चापराजितः ॥ २ ॥

मूलम्

नमस्ते भगवन् कृष्ण लोकानां प्रभवाप्यय।
त्वं हि कर्ता हृषीकेश संहर्ता चापराजितः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी बोले— सम्पूर्ण लोकोंकी उत्पत्ति और प्रलयके अधिष्ठान भगवान् श्रीकृष्ण! आपको नमस्कार है। हृषीकेश! आप ही इस जगत्‌की सृष्टि और संहार करनेवाले हैं। आपकी कभी पराजय नहीं होती॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वकर्मन् नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन् विश्वसम्भव।
अपवर्गोऽसि भूतानां पञ्चानां परतः स्थितः ॥ ३ ॥

मूलम्

विश्वकर्मन् नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन् विश्वसम्भव।
अपवर्गोऽसि भूतानां पञ्चानां परतः स्थितः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस विश्वकी रचना करनेवाले परमेश्वर! आपको नमस्कार है। विश्वके आत्मा और विश्वकी उत्पत्तिके स्थान-भूत जगदीश्वर! आपको नमस्कार है। आप पाँचों भूतोंसे परे और सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये मोक्षस्वरूप हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्ते त्रिषु लोकेषु नमस्ते परतस्त्रिषु।
योगेश्वर नमस्तेऽस्तु त्वं हि सर्वपरायणः ॥ ४ ॥

मूलम्

नमस्ते त्रिषु लोकेषु नमस्ते परतस्त्रिषु।
योगेश्वर नमस्तेऽस्तु त्वं हि सर्वपरायणः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीनों लोकोंमें व्याप्त हुए आपको नमस्कार है। तीनों गुणोंसे अतीत आपको प्रणाम है। योगेश्वर! आपको नमस्कार है। आप ही सबके परम आधार हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्संश्रितं यदाऽऽत्थ त्वं वचः पुरुषसत्तम।
तेन पश्यामि ते दिव्यान् भावान् हि त्रिषु वर्त्मसु॥५॥

मूलम्

मत्संश्रितं यदाऽऽत्थ त्वं वचः पुरुषसत्तम।
तेन पश्यामि ते दिव्यान् भावान् हि त्रिषु वर्त्मसु॥५॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषप्रवर! आपने मेरे सम्बन्धमें जो बात कही है, उससे मैं तीनों लोकोंमें व्याप्त हुए आपके दिव्य भावोंका साक्षात्कार कर रहा हूँ॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्च पश्यामि गोविन्द यत् ते रूपं सनातनम्।
सप्त मार्गा निरुद्धास्ते वायोरमिततेजसः ॥ ६ ॥

मूलम्

तच्च पश्यामि गोविन्द यत् ते रूपं सनातनम्।
सप्त मार्गा निरुद्धास्ते वायोरमिततेजसः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोविन्द! आपका जो सनातन रूप है, उसे भी मैं देख रहा हूँ। आपने ही अत्यन्त तेजस्वी वायुका रूप धारण करके ऊपरके सातों लोकोंको व्याप्त कर रखा है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिवं ते शिरसा व्याप्तं पद्भ्यां देवी वसुन्धरा।
दिशो भुजा रविश्चक्षुर्वीर्ये शुक्रः प्रतिष्ठितः ॥ ७ ॥

मूलम्

दिवं ते शिरसा व्याप्तं पद्भ्यां देवी वसुन्धरा।
दिशो भुजा रविश्चक्षुर्वीर्ये शुक्रः प्रतिष्ठितः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वर्गलोक आपके मस्तकसे और वसुन्धरा देवी आपके पैरोंसे व्याप्त हैं। दिशाएँ आपकी भुजाएँ हैं। सूर्य नेत्र हैं और शुक्राचार्य आपके वीर्यमें प्रतिष्ठित हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतसीपुष्पसंकाशं पीतवाससमच्युतम् ।
वपुर्ह्यनुमिमीमस्ते मेघस्येव सविद्युतः ॥ ८ ॥

मूलम्

अतसीपुष्पसंकाशं पीतवाससमच्युतम् ।
वपुर्ह्यनुमिमीमस्ते मेघस्येव सविद्युतः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपका श्रीविग्रह तीसीके फूलकी भाँति श्याम है। उसपर पीताम्बर शोभा दे रहा है, वह कभी अपनी महिमासे च्युत नहीं होता। उसे देखकर हम अनुमान करते हैं कि बिजलीसहित मेघ शोभा पा रहा है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्प्रपन्नाय भक्ताय गतिमिष्टां जिगीषवे।
यच्छ्रेयः पुण्डरीकाक्ष तद् ध्यायस्व सुरोत्तम ॥ ९ ॥

मूलम्

त्वत्प्रपन्नाय भक्ताय गतिमिष्टां जिगीषवे।
यच्छ्रेयः पुण्डरीकाक्ष तद् ध्यायस्व सुरोत्तम ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं आपकी शरणमें आया हुआ आपका भक्त हूँ, और अभीष्ट गतिको प्राप्त करना चाहता हूँ। कमलनयन! सुरश्रेष्ठ! मेरे लिये जो कल्याणकारी उपाय हो उसीका संकल्प कीजिये॥९॥

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यतः खलु परा भक्तिर्मयि ते पुरुषर्षभ।
ततो मया वपुर्दिव्यं त्वयि राजन् प्रदर्शितम् ॥ १० ॥

मूलम्

यतः खलु परा भक्तिर्मयि ते पुरुषर्षभ।
ततो मया वपुर्दिव्यं त्वयि राजन् प्रदर्शितम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण बोले— राजन्! पुरुषप्रवर! मुझमें आपकी पराभक्ति है। इसीलिये मैंने आपको अपने दिव्य स्वरूपका दर्शन कराया है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यभक्ताय राजेन्द्र भक्तायानृजवे न च।
दर्शयाम्यहमात्मानं न चाशान्ताय भारत ॥ ११ ॥

मूलम्

न ह्यभक्ताय राजेन्द्र भक्तायानृजवे न च।
दर्शयाम्यहमात्मानं न चाशान्ताय भारत ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! राजेन्द्र! जो मेरा भक्त नहीं है अथवा भक्त होनेपर भी सरल स्वभावका नहीं है। जिसके मनमें शान्ति नहीं है, उसे मैं अपने स्वरूपका दर्शन नहीं कराता॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवांस्तु मम भक्तश्च नित्यं चार्जवमास्थितः।
दमे तपसि सत्ये च दाने च निरतः शुचिः॥१२॥

मूलम्

भवांस्तु मम भक्तश्च नित्यं चार्जवमास्थितः।
दमे तपसि सत्ये च दाने च निरतः शुचिः॥१२॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप मेरे भक्त तो हैं ही। आपका स्वभाव भी सरल है। आप इन्द्रिय-संयम, तपस्या, सत्य और दानमें तत्पर रहनेवाले तथा परम पवित्र हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्हस्त्वं भीष्म मां द्रष्टुं तपसा स्वेन पार्थिव।
तव ह्युपस्थिता लोका येभ्यो नावर्तते पुनः ॥ १३ ॥

मूलम्

अर्हस्त्वं भीष्म मां द्रष्टुं तपसा स्वेन पार्थिव।
तव ह्युपस्थिता लोका येभ्यो नावर्तते पुनः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूपाल! आप अपने तपोबलसे ही मेरा दर्शन करनेके योग्य हैं। आपके लिये वे दिव्य लोक प्रस्तुत हैं जहाँसे फिर इस लोकमें नहीं आना पड़ता॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चाशतं षट् च कुरुप्रवीर
शेषं दिनानां तव जीवितस्य।
ततः शुभैः कर्मफलोदयैस्त्वं
समेष्यसे भीष्म विमुच्य देहम् ॥ १४ ॥

मूलम्

पञ्चाशतं षट् च कुरुप्रवीर
शेषं दिनानां तव जीवितस्य।
ततः शुभैः कर्मफलोदयैस्त्वं
समेष्यसे भीष्म विमुच्य देहम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुवीर भीष्म! अब आपके जीवनके कुल छप्पन दिन शेष हैं। तदनन्तर आप इस शरीरका त्याग करके अपने शुभ कर्मोंके फलस्वरूप उत्तम लोकोंमें जायँगे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते हि देवा वसवो विमाना-
न्यास्थाय सर्वे ज्वलिताग्निकल्पाः ।
अन्तर्हितास्त्वां प्रतिपालयन्ति
काष्ठां प्रपद्यन्तमुदक्पतङ्गम् ॥ १५ ॥

मूलम्

एते हि देवा वसवो विमाना-
न्यास्थाय सर्वे ज्वलिताग्निकल्पाः ।
अन्तर्हितास्त्वां प्रतिपालयन्ति
काष्ठां प्रपद्यन्तमुदक्पतङ्गम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखिये, ये प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी देवता और वसु विमानोंमें बैठकर आकाशमें अदृश्यरूपसे रहते हुए सूर्य उत्तरायण होने और आपके आनेकी बाट जोहते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यावर्तमाने भगवत्युदीचीं
सूर्ये दिशं कालवशात् प्रपन्ने।
गन्तासि लोकान् पुरुषप्रवीर
नावर्तते यानुपलभ्य विद्वान् ॥ १६ ॥

मूलम्

व्यावर्तमाने भगवत्युदीचीं
सूर्ये दिशं कालवशात् प्रपन्ने।
गन्तासि लोकान् पुरुषप्रवीर
नावर्तते यानुपलभ्य विद्वान् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषोंमें प्रमुख वीर! जब भगवान् सूर्य कालवश दक्षिणायनसे लौटते हुए उत्तर दिशाके मार्गपर लौटेंगे, उस समय आप उन्हीं लोकोंमें जाइयेगा जहाँ जाकर ज्ञानी पुरुष फिर इस संसारमें नहीं लौटते हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमुं च लोकं त्वयि भीष्म याते
ज्ञानानि नङ्‌क्ष्यन्त्यखिलेन वीर ।
अतस्तु सर्वे त्वयि संनिकर्षं
समागता धर्मविवेचनाय ॥ १७ ॥

मूलम्

अमुं च लोकं त्वयि भीष्म याते
ज्ञानानि नङ्‌क्ष्यन्त्यखिलेन वीर ।
अतस्तु सर्वे त्वयि संनिकर्षं
समागता धर्मविवेचनाय ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर भीष्म! जब आप परलोकमें चले जाइयेगा उस समय सारे ज्ञान लुप्त हो जायँगे; अतः ये सब लोग आपके पास धर्मका विवेचन करानेके लिये आये हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तज्ज्ञातिशोकोपहतश्रुताय
सत्याभिसंधाय युधिष्ठिराय ।
प्रब्रूहि धर्मार्थसमाधियुक्तं
सत्यं वचोऽस्यापनुदाशु शोकम् ॥ १८ ॥

मूलम्

तज्ज्ञातिशोकोपहतश्रुताय
सत्याभिसंधाय युधिष्ठिराय ।
प्रब्रूहि धर्मार्थसमाधियुक्तं
सत्यं वचोऽस्यापनुदाशु शोकम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये सत्यपरायण युधिष्ठिर बन्धुजनोंके शोकसे अपना सारा शास्त्रज्ञान खो बैठे हैं; अतः आप इन्हें धर्म, अर्थ और योगसे युक्त यथार्थ बातें सुनाकर शीघ्र ही इनका शोक दूर कीजिये॥१८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि कृष्णवाक्ये एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें श्रीकृष्णवाक्यविषयक इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५१॥